शुक्रवार, 8 मई 2020

कर्नाटक सरकार का कदम ‘‘साहसिक’’! लेकिन ‘‘सामयिक’’ नहीं।


कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा ने कल कर्नाटक प्रदेश से विभिन्न प्रदेशों को जाने वाली दस श्रमिक ट्रेनों के आरक्षण को निरस्त करने का अनुरोध रेल मंत्रालय से किया है। यह कहा गया कि प्रदेश में शीघ्र ही औद्योगिक क्रियाएं व उत्पादन प्रारंभ होने जा रही हैं, जिसके लिए इन श्रमिकों की आवश्यकता है। यह बिल्कुल सही भी है। यद्यपि कुछ क्षेत्रों में यह आशंका भी व्यक्त की गई है कि, कर्नाटक के उद्योगपतियों व बड़े बिल्ड़र्स के दबाव में सरकार ने यह निर्णय लिया। तथापि मुख्यमंत्री का उक्त निर्णय प्रवासी मजूदरों के अपने गृह निवास जाने के लिये उनके स्वयं के द्वारा अनुमति देने के बाद मई दिवस पर प्रदेश की आर्थिक गतिविधयां को बहाल करने के लिये मजदूरांे से राज्य में रहने की अपील के बाद आया है।
सरकार का निर्णय यद्यपि सही और वैसा ही साहसिक है, जैसा की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सर्वप्रथम लॉक डाउन की घोषित राष्ट्रीय नीति के विरुद्ध, विभिन्न प्रदेशों में कार्य वाले प्रदेश के प्रवासी मजदूरों श्रमिकों को प्रदेश (गृह नगर) वापस बुलाने का निर्णय लिया था। कर्नाटक के मुख्यमंत्री का यह निर्णय भी न केवल लॉक डाउन की संशोधित वर्तमान नीति के विरुद्ध है, बल्कि  प्रवासी मजदूर के अपने गृह प्रदेश जाने के लिये अनुमति देने के 30 मई के उनके स्वयं के निर्णय के भी विरूद्ध है।
आज ही केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रारंभ की जा रही ऑपरेशन वंदे भारत जिसके द्वारा सरकार विदेशों में रह रहे भारतीय नागरिकों को भारत देश में स्थित रिश्तेदारों के पास पहुंचने के लिए हवाई व जल मार्ग से रास्ता उपलब्ध करा रही है। मतलब साफ है। एक तरफ भारत सरकार विदेशों में रह रहे भारतीय नागरिकों की ‘‘स्वदेश-वियोग’’ (होम सिकनेस) की भावनाओं को मद्देनजर रखते हुये करते हुए उन्हे स्वदेश आने की सुविधा उपलब्ध करा रही है। वहीं दूसरी ओर कर्नाटक सरकार इस भावना के विपरीत कार्य कर रही है। वैसे उनका यह कदम राज्य व वहां कार्यरत श्रमिकों के आर्थिक हितो को ध्यान में रखकर ही उठाया है। लेकिन दुर्भाग्यवश वर्तमान में आज जो स्थिति निर्मित हुई हैं, उस कारण से उक्त कदम आज सामयिक न होने के कारण श्रमिक गण इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
पूरे देश में श्रमिकों को अपने-अपने प्रदेशों में जाने की सुविधा केंद्रीय सरकार ने कर्नाटक सहित समस्त राज्य सरकारों की से चर्चा कर सहमति लेने के बाद ही थी, व शेष सरकारे उसे कार्य रूप में परिणित भी करने लगी। तब निश्चित रूप से कर्नाटक के श्रमिकों के मन में अपने परिवार के लोगों से मिलने के भाव (घर वियोग की भावना) में और ज्यादा वृद्धि होगी ही। पिछले डेढ़ महीनों से कोई कार्य न होने के कारण उत्पन्न कार्य अवसाद और उनके ठहरने व खाने की ठीक व्यवस्था न होने के कारण व उक्त व्यवस्था के चरमराती हो जाने के कारण, इन श्रमिकों के मन में घर जाने की भावना तेजी से फैली है। सरकार को श्रमिकों के आर्थिक हित में उक्त संवेदनापूर्ण निर्णय लेने के पूर्व पहले यह व्यवस्था करनी अत्यावश्यक थी कि, उनके मन में उक्त भावनाओं को शांत करने के लिए कुछ आवश्यक त्वरित कदम उठाएं जाते। तुरंत औद्योगिक गतिविधियां प्रारंभ कर श्रमिकों को काम में जाने का विकल्प देना चाहिए था, जोर जबदस्ती नहीं।  हम भारतीयों के बचपन की यह आदत रही है कि बच्चों को किसी कार्य को मना करने पर वह उसे और ज्यादा करने की जिद करता है। साथ ही उन्हें यह विश्वास भी दिलाया जाना चाहिए था कि, नियोक्ता लोगों द्वारा आपको चरणबद्ध रूप से (एक साथ नहीं) बल्कि अलग-अलग ग्रुपों में एक हफ्ते की (वेतन सहित) छुट्टी देकर आपको अपने-अपने घर में जाने की अनुमति दी जाएगी। इससे उत्पादन कार्य भी चालू हो जाए और श्रमिक गण धीरे धीरे क्रमशः अपने घर जाकर परिवारजनों से मिलकर वापस काम में आ सकेंगंे। इस तरह से समस्त उत्पादकों और श्रमिकों के उद्देश्यों की परस्पर पूर्ति कुछ हद तक अवश्य हो जाती। साथ ही साथ सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिये था कि नियोक्ता ने इन श्रमिकों को इस लॉक डाउन की अवधि का वेतन का भी भुगतान किया है।
एक अच्छा निर्णय, यदि सामयिक न हो, वह कैसे आलोचना का शिकार हो सकता है, कर्नाटक के मुख्यमंत्री का उक्त आदेश इसका सटीक उदाहरण है। देश में किसी भी स्थान में (प्रतिबंधित क्षेत्रों को छोड़कर) श्रमिकों के आने जाने के संवैधानिक अधिकार का यह उल्लंघन तो नहीं है ऐसा कुछ आलोचक गण कह भी सकते हैं। बल्कि वे इसकी तुलना 1975 में आपातकाल के दौरान विचारों की अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार पर लगे प्रतिबंध से भी कर सकते हैं। वह आपातकाल का संकट काल था तो यह कोरोना का संकट काल है। किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध न तो उसे किसी औद्योगिक संस्थान में कार्य करने के लिए मजबूर किया जा सकता है और न ही उसे जबरदस्ती उस जगह रोका जा सकता है।
अंत में एक बात और, यदि केंद्रीय सरकार आर्थिक स्थिति को बदहाली से बचाने के लिये औद्योगिक इकाईयों उत्पादन प्रारंभ करने के लिए मजदूरों की आवश्यकता उपलब्धता की को जरूरी मानती है तो, फिर पूरे देश में ही जरूरत की इस ‘‘भावना’’ को लेकर ऐसी नीति क्यों नहीं बनाई? जो एक भूल है। सरकार के पास इस समय एक ऐसा अवसर आया है, जहां वह पूरे देश में प्रवासी मजदूरों का मूल निवास, गृहनगर, जिला व प्रदेश सहित सूचीबद्ध कर ले साथ ही इन श्रमिकों की कार्य निपुणता की प्रकृति को भी नोट करे, ताकि भविष्य में शांति काल में सरकार एक ऐसी कार्ययोजना बना सकें जिसमें जिस प्रदेश का श्रमिक है, उसे उसी प्रदेश में यथा संभव उसके मूल निवास स्थान पर या पास के जिलों में उसकी कार्य की प्रकृति के अनुरूप औद्योगिक इकाईयों में रोजगार दिला सके। प्रवासी मजदूरों के भागम-भाग के इस दौर में बहुत से एक समान कार्य प्रकृति वाले मजदूर ऐसे अवश्य होंगंे जो परस्पर एक दूसरे प्रदेशों में रोजगार करने जाते होगें। इस प्रकार धीरे-धीरे प्रवासी मजदूरों की संख्या बिना रोजगार घटे प्रवासी के रूप में कम हो सकेगी। कोरोला कॉल की यह भी एक और गुणात्मक उपलब्धि होगी।

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