सोमवार, 29 जून 2020

भारतीय राजनीति में ‘सवालों’ के ‘जवाब’ के ‘उत्तर’ में क्या सिर्फ ‘सवाल’ ही रह गए हैं?

भारतीय राजनीति का एक स्वर्णिम युग रहा है। जब राजनीति के धूमकेतु डॉ राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी बाजपेई, बलराम मधोक, के. कामराज, भाई अशोक मेहता, आचार्य कृपलानी, जॉर्ज फर्नांडिस, हरकिशन सिंह सुरजीत, ई. नमबुरूदीपाद, मोरारजी भाई देसाई, ज्योति बसु, चंद्रशेखर, तारकेश्वरी सिन्हा जैसे अनेक yu हस्तियां रही है। ये और उनके समकक्ष अनेक नेता गण संसद मैं व बाहर इतने हाजिर जवाब होते थे, जब इनसे मीडिया या अपने विपक्षियों द्वारा कोई प्रश्न पूछा जाता था। तब उनका उत्तर सामने वाले से उल्टा प्रश्न करना नहीं होता था, जैसे कि आजकल यह एक परिपाटी ही बन गई है। बल्कि वे सटीक जवाब देकर सामने वाले को निरूतर कर आवश्यकतानुसार प्रति-प्रश्न करने में भी सक्षम होते थे व माहिर थे।
आज की राजनीति में चूंकि उत्तर देने वाले के पास कोई सही उत्तर होता नहीं है, इसलिए वह दाये-बाये बगले झांकता हुआ, निरूतर दिखने की बजाए, उत्तर देने के प्रयास में सहूलियत अनुसार प्रश्नकर्ता पर ही दूसरा असंबंधित प्रश्न दाग देता है। फिर  प्रश्न कर्त्ता भी वापस उत्तर देने के बजाय पुनः प्रश्न कर बैठता है। इस प्रकार भारत की लोकतांत्रिक राजनीति सार्थक प्रश्नोत्तर की बहस के बदले मात्र ‘‘प्रश्नों’’ व "प्रश्नों के प्रश्न" पर  जाकर अटक गई है। उत्तर कब मिलेगा? भोली भाँली जनता कब तक उत्तर की प्रतीक्षा रत रहेगी? यह मालूम नहीं।ऐसा लगता है जब तक जनता सिर्फ उत्तर देते रहेगी, और प्रश्न नहीं करेगी, तब तक राजनेतागण जनता को ‘उत्तर’ देने के लिये मजबूर करके, उनकी मजबूरी को ही अपना दायित्व पूर्ण हुआ मान कर, सिर्फ प्रश्न पूछते रहने को ही वे अपना ‘‘कर्त्तव्य मानते रहेगें’’ और जनता से सिर्फ उत्तर देते रहने की अपेक्षा कर कहकर जनता को ही ‘‘उत्तरदायी’’ जरूर बनाते रहेगें। यह संविधान का मखौल नहीं तो क्या है? क्योंकि संविधान ने तो जनता को जन प्रतिनिधियों से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया है और उन प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर देने का संवैधानिक दायित्व व कर्त्तव्य राजनेताओं का ही हैं।
उपरोक्त प्रश्नोंत्तर की स्थिति को वर्तमान भारत चाइना के बीच उत्पन्न तनाव के संदर्भ में देखियें! आईने समान; स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। मीडिया, प्रेस विज्ञप्ति व टीव्ही चेनलों के द्वारा कराई जा रही बहसों में आरोप-प्रत्यारोप का तीव्र गति से निरंतर मूवमेंट चीन व भारत युद्ध के तथाकथित अनुभूति (परसेप्शन) को रोकने के लिये पक्ष विपक्ष के बीच घमासान युद्ध के  रूप में  लगातार चल रहा है। ‘‘उत्तर’’ कोई नहीं दे रहा है। ‘‘बेशर्मी’’ के साथ कहा जा रहा है कि हमारे उत्तर तोे हमारे द्वारा पूछे गए ‘‘प्रश्न’’ ही है। ‘‘जनाब यह हमारे उत्तर देने का स्टाईल है’’। पहले आप उसका उत्तर तो दे दीजिए, तब हम से उत्तर की उम्मीद कीजिए जनाब! ‘‘पहले आप’’ ‘‘पहले आप’’ के चक्कर में कोई भी व्यक्ति उत्तर देने के अपने राजनैतिक दायित्व से बच कर बाजू से सुरक्षित रूप से निकलते जा रहा है। यह भारत देश है। मेरा देश है। लेकिन कोविड़-19 ने विश्व के अन्य किसी भी देश की तुलना में, हमारे देश को इस दृष्टि से सबसे ज्यादा अपनाया है कि वह संक्रमण के साथ नई-नई खोज व उपलब्धियाँ ईजाद कर रहा है, जो उपलब्धि विश्व के अन्य देशों में "कोविड़-19" को नहीं मिली है।
जब प्रश्न यह पूछा जाता हैं कि भारतीय जमीन पर चीन का कब्जा तो नहीं है, क्योंकि प्रधनमंत्री के बाद रक्षामंत्री, विदेश मंत्री व विदेश मंत्रालय तथा कुछ मीडिया रिपोर्टिंग के कारण स्थिति कुछ अस्पष्ट सी हो गई है। तब उसका ‘सुस्पष्ट’ जवाब देकर स्थिति स्पष्ट कर समझाने के बजाए, यह कह दिया जाता है कि वर्क 1962 में 43180 वर्ग किलोमीटर जमीन चीन को प्लेट में रखकर किसने दी? जब यह प्रश्न पूछा जाता है कि अगस्त 2008 में दो राजनैतिक पाटियों (कांग्रेस पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना) के बीच समझौता (एमओयू) क्यों व किस लिये किया गया था? तब स्थिति स्पष्ट करने के बजाए जवाब में प्रश्न ‘‘दाग’’ (तोप समान) दिया जाता है कि, अगस्त 2015 में महासचिव अरूण सिंह के नेतृत्व में राम माधव सहित भाजपा का प्रतिनिधी मंडल चीन से क्या बात चीत करने के लिये गया था? यूपीए की नीतियों से चीन को ’’फायदा’’ मिला; एनडीए की सरकार के दौरान चीन से व्यापार कई गुना क्यों बढ़ गया? यह सब आरोप प्रत्यारोप ‘‘राजनीति’’ नहीं तो और क्या हैं?शायद "सियासत" होगी ? यदि दोनों पक्ष अपने से संबंधित प्रश्न का सीधा जवाब दे देते, तो बात दूसरी होती। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन के साइड खडे है, चीन के हितो की बात कर रहे है। इस तरह के कथन करने वाले विपक्षी चीन के हाथों में  खेलने का आरोप  लगाने का एक अवसर अपने विरोधियों  को अनजाने और अनचाहे ही प्रदान कर रहे हैं। कम से कम प्रधानमंत्री की सत्य निष्ठा वह देश के प्रति प्रामाणिकता पर संदेश तो मत कीजिए ।  अभी तक के भारतीय राजनीति में  तीन तीन बार युद्ध होने के बावजूद  इस तरह के आरोप प्रधानमंत्री पर किसी ने कभी नहीं लगाया। भारतीय राजनीति में भारत-चीन विवाद के संदर्भ यह ‘‘खेल’’ भले ही‘‘खेल-खेल’’ में खेला जा रहा है, जो सातवें आश्चर्य से कम नहीं है। लेकिन ‘‘खेल भावना से खेला जा रहा यह खेल’’ सिर्फ और सिर्फ भारत में ही संभव है, जो विश्व में एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्थिति को कहीं न कहीं कमजोर करता है। बल्कि दुश्मन देश को एक संबल भी प्रदान करता है।एक भारतीय नागरिक होने के नाते इससे  बचिए। इस संबंध में विपक्षी पार्टी राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार के हाल के बयानों से कुछ तो सीख लीजिए ?
‘‘राजनीति‘‘ न करने वाले बयान देने वाले समस्त पक्ष इस बात को भूल जाते है कि आप राजनीति करके, राजनैतिक दल बनाकर, राजनैतिक दलगत चुनावों में भाग लेकर ही अपनी राजनीतिक चमक को पैना करते रहते है। विश्व के कुछ देशों जैसे जर्मनी में चुनावी प्रणाली ऐसी हो गई कि वोट तो राजैतिक दल को ही देना होता है व्यक्ति को नही। इसीलिए यह कहना कि हम राजनीति नहीं करते है, तथ्यात्मक रूप से गलत है। फिर भी इस आत्मस्वीकोरिति के लिए राजनीतिक दलों के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए, कि उन्होनें राजनीति की गिरावट के ऐसे गिरते स्तर को देखने हुए संकट काल में सार्वजनिक रूप से देश हित में कम से कम राजनीति न करने की बात कर, उससे दूर रहने की बात तो रखी है। शायद इसलिए कि इस गिरावट के लिए वे स्वयं ही तो जिम्मेदार हैं। वैसे उनका यह कथन ठीक उसी प्रकार का हैं जिस प्रकार जब कोई  "वीआईपी" नेता पर उसकी विरोधी पार्टी‘‘ आरोपों का स्वचलित तोप का गोला दाग दिया जाता है। और फिर वही व्यक्ति जब विपक्षी पार्टी में शामिल हो जाता है, तब उनको शामिल कराने वाली पार्टी स्वयं को पारस पत्थर मानकर उसे पवित्र कर आरोप से दोष मुक्त कर देती है। ठीक इसी प्रकार राजनीति शब्द का प्रयोग भी  राजनैतिक दल आवश्यकतानुसार करते रहते है। अर्थात कभी ’’प्रेम’’ कभी "जरूरत" तो कभी ’’गाली’’ के रूप में ।
भारत चीन सीमा विवाद से उत्पन्न वर्त्तमान गलवान संकट के संबंध में सत्ता व विपक्ष दोनों पक्ष राजनीति न करने का कथन जोर शोर से बुलेट स्पीड़ से करते है। लेकिन प्रत्युत्तर में वर्ष 1962 से लेकर वर्त्तमान घटना तक घटी समस्त घटनाओं पर जमी धूल की परत को झटककर उसे उजागर कर एक दूसरे को नीचा दिखाते रहने का प्रयास किया जाता है। प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में बनी सहमति के बावजूद, सर्वसमस्त बयान जारी न होना, इसका एक ठोस सबूत व उदाहरण है।स्पष्टतः दुखद स्थिति हैं। विदेश मंत्रालय ने विस्तृत बयान 25 जून को जारी कर स्थिति को काफी स्पष्ट किया है। यदि यह बयान पहिले ही आ जाता, तो शायद तू तू मैं मैं की स्थिति नहीं बनती?
लेकिन यहां पर एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है कि लोकतंत्र में राजनीति नहीं होगी तो क्या होगी? लेकिन जब आप यह कहते हैं कि हम राजनीति नहीं कर रहे हैं, तो वास्तव में आप राजनीति की बात न कर, क्या राजद्रोह की नीति की बात कर रहे होते हैं? क्योंकि जब आप स्वयं यह कहते हैं कि हम राजनीति नहीं कर रहे हैं, तो आप इस बात को प्रमाणित कर रहे हैं कि, इस देश की राजनीति इतनी गंदी हो गई है, जो देश हित में नहीं हो रही है। ऐसी ‘‘राजनीति’’ के कारण देश की एकता सुरक्षा और स्वाभिमान पर आंच आ सकती है।अरे साहब! संविधान में लोकतंत्र में आप को राजनीति के माध्यम से ही शासन करने का अधिकार दिया है। चुनाव में भाग लेकर शासन करना या विपक्ष में बैठना यह "लोकतांत्रिक राजनीति' का ही परिणाम है, किसी नीति का नहीं।
विपक्ष की धारणा यही रही है कि, सरकार की आलोचना करना, उसे सचेत करना और उसकी कमियों को उजागर करना ही उसका अधिकार, कर्त्तव्य व राजनीति है। यह बात आजकल अक्सर जोर शोर से भारत-चीन सीमा पर उत्पन्न विवाद के संदर्भ में विपक्ष द्वारा अक्सर कही जाती है। लेकिन क्या वास्तव में सही रूप में विपक्ष अपना दायित्व निभा रहा हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है? विपक्ष यह भूल जाता है उसका अस्तित्व ही "पक्ष वि+पक्ष‘‘ मैं समाया हुआ है। अर्थात ‘‘पक्ष‘‘ द्वारा किए गए सही कार्यों की प्रशंसा करते हुए और उन्हें और प्रेरित व उत्प्रेरित प्रेरित  करके उनकी कमियों, गलतियों को सुधारात्मक और सुझावात्मक तरीके से समालोचना करना ही स्वस्थ लोकतंत्र में स्वस्थ विपक्ष का कार्य है। लेकिन क्या हमें यह सब होते दिख रहा है? विपक्ष कह सकता है जब 'पक्ष' ही सही रूप में काम नहीं कर रहा है और वह 'विपक्ष' को सहन करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, तब विपक्ष के पास का क्या चारा रह जाता है? इसलिए लोकतंत्र की सफलता के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों को देश के प्रति उत्तरदायी राजनीति करना आवश्यक है। लेकिन स्वस्थ्य राजनीति के लिये। उससे भागने की लिए नहीं।
विभिन्न समय व अवसरों के संदर्भ व विषय भले ही समान हो; लेकिन ‘स्थिति’ परस्पर अदला बदली हो जाने पर प्रश्नोंत्तर में भी अदला-बदली हो जाती है। एक उदाहरण से समझियें! यूपीए सरकार के समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार 105 डालर प्रति बैरल कच्चा तेल के मूल्य की स्थिति में देश के उपभोक्ताओं के लिए 75-80 पेट्रोल-डीजल की कीमत  होने पर भाजपा बैलगाड़ी यात्रा निकाल दे, तो खुशी बैलगाड़ी वाली भाजपा के शासन में 40-50 डालर प्रति बैरल कीमत हो जाने के बावजूद घरेलु उपभोक्ताओं को डीजल की कीमत पहली बार पेट्रोल से भी बढ़कर 80 रू. हो जाने पर कांग्रेसी साईकल यात्रा निकालते है। मूल्य की बढ़ोत्री की रक्षा में आगे आकर दोनों सरकारों के बयान व आलोचनाओं के स्तर व तरीके लगभग एक से ही होते है। जबकि दोनों अवसरों पर सत्ता पर विपरीत विचार धारा वाले दल कब्जे पर होते है। यही भारतीय राजनीति की उत्तरदायी  वैशिष्ट्य लिए हुए नैतिकता  विहीन नियति हैं।

‘‘को रोना’’ ‘‘संक्रमित मध्यप्रदेश की राजनीति’’ की ‘‘क्या’’ ‘‘कोरोनटाइन’’ अवधि पूरी नहीं हुई है?


मध्य प्रदेश में मंत्रिमंडल का गठन हुये लगभग 3 महीने (23 मार्च को) से ज्यादा समय बीत  चुका है। ‘‘अलोकतांत्रिक’’ ‘‘ऑपरेशन लोटस’’ के दौरान लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार गिराई जाकर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में नई सरकार का गठन किया गया था। लेकिन ‘‘कोरोना’’ के कारण तत्समय मंत्रिमंडल का नवांगुत गठन नहीं हो पाया था। सिर्फ नेतृत्व (नेता) मात्र ही शपथ ग्रहण कर सकें। शायद शिवराज सिंह चौहान यह समझ बैठे थे कि, जिस प्रकार ‘‘अमिताभ बच्चन ’’की ‘सरकार’ (फिल्म) थी, जिसमें (बिना मंत्रिमंडल के) वे ही एक मात्र मुखिया थे। वैसे ही वे भी मध्यप्रदेश के (अमिताभ बच्चन के समान) जगत ‘‘मामा’’ के रूप में एक आइकॉन हैं। जिस प्रकार ‘‘सरकार’’ के अमिताभ को जनता के बीच अपना दबदबा बनाये रखने के लिए कुछ समय बाद अपने कुछ सहयोगी को जमीन पर उतारना पड़ा था। ठीक उसी प्रकार शिवराज सिंह चौहान ने लगभग 1 महीने के बाद मंत्रिमंडल का आंशिक गठन कर (मात्र) 5 मंत्री बनाकर तात्कालिक परिस्थितियों की आवश्यकताओं की आंशिक पूर्ति कर ली। कोरोना के संक्रमण के आंतकी हालात यह थे कि, (देश में शायद पहिली बार) विभाग बांटने के पहिले ही बिना विभाग के मंत्रियों को संभाग के प्रभार दे दिये गये। दुर्भाग्यवश, शिवराज सिंह चौहान की चौथी पारी के शपथ ग्रहण के समय की ‘‘कुड़ली’’ में नई कोरोना की गृहदशा (ग्रहण) है। 
याद कीजिए! मध्यप्रदेश में मार्च में जब ऑपरेशन लोटस चल रहा था, तब भाजपा पर और खासकर अमित शाह व पीएमओं पर कतिपय क्षेत्रों द्वारा यह आरोप लगाये जा रहे थे कि ऑपरेशन लोटस के चलते ही ‘‘कोरोना’’ से निपटने के लिये ‘‘आवश्यक त्वरित कार्यवाही’’ व ‘‘लॉकडाउन’’दोनों उक्त ऑपरेशन के पूरा होने की प्रतिक्षा करते रहे। तत्पश्चात शपथग्रहण समारोह के तुरंत बाद ही लॉकडाउन लगाया गया, जो उक्त आरोप को ‘बल’ देता है। अतः स्पष्ट है कि नई सरकार गठन के समय से ही कोरोना वायरस से संक्रमित रही है। शायद उस संक्रमण की गति को तेजी से बढ़ने से रोकने के लिए ही मुख्यमंत्री सहित पांचों मंत्री ‘‘डॉक्टरों’’ के समान ‘‘मंत्री’’ पद की ‘‘पीपीई किट’’ पहनकर दूसरे विधायकों को (‘‘पीपीई किट’’ तत्काल उपलब्ध नहीं होने की वजह से) मंत्री न बनाकर उन्हे संक्रमित होने से बचाते रहे। शायद उन्हे यह कह कर आश्वस्त किया गया कि अभी कोरोनटाईन अवधि चल रही है। इसकी समाप्ति के पश्चात ही मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। तभी आपको भी कोरोना के भय के बिना कार्य करने के लिए ‘‘पीपीई किट’’ याने ‘‘मंत्रीपद’’ उपलब्ध कराया जायेगा।   
निश्चित रूप से राजनैतिक कोरोना के समग्र इलाज के लिए मंत्रियों के रूप में ‘‘डॉक्टरों’’ की शीघ्र ही नियुक्ति की जायेगी। लेकिन जबसे यह बात ज्ञात हो रही है कि, कोरोना वायरस के संक्रमण का फैलाव रूकने वाला नहीं हैं, बल्कि जुलाई में उसमें और तेजी से वृद्धि होने वाली है। साथ ही इसकी मारक क्षमता दिन प्रतिदिन कमजोर पड़ने के कारण मृत्यु की संभावना भी कम होती जा रही है। इस कारण मंत्री बनने की राह जोह रहे विधायकों का धैर्य कमतर होते जाकर वे ‘‘अधीर’’ होते जा रहे हैं। कहीं उनकी यह अधीरता (‘‘अधीर रंजन चौधरी’’ लोकसभा में कांग्रेसी नेता) न बन जाये; अर्थात फिर से कोई दूसरा ज्योतिरादित्य सिंधिया पैदा न होकर‘‘ ऑपरेशन कमल  का मौका विपक्षियों (कमलनाथ) को न मिल जावंे? वस्तुतः ये विधायक उन परिक्षार्थियों के समान हैं, जो स्वयं को परीक्षा में पास मानकर रोके गये परीक्षा परिणाम की घोषणा होने की प्रतीक्षा में स्वयं को सफल परीक्षार्थियों की सूची में शामिल मानते है। ऐसे सफल अघोषित चयनित परीक्षार्थी मुख्यमंत्री और उनके माध्यम से हाईकमान को यह बात लगातार समझाने में लगे हुये है कि, यदि हम स्वतः यदि इस कोरोना संक्रमण काल में ड़र के मारे सामान्य जीवन (मंत्री के रूप में) स्वयं ही नहीं जी पा रहे है, तो हम नागरिकों व अपने मतदाताओं को इस कोरोना के साथ आत्मबल पैदा करके जीने की सलाह कैसे दे पायेगें?
चूँकि यह अब लगभग सुनिश्चित हो चुका है कि नागरिकों को ड़र को दूर कर कोरोना को आत्मसात करके उसके अस्तित्व के साथ ही जीवन व्यतीत करते हुए कोरोना के अस्तित्व को समाप्त करना होगा। इसीलिए हे; हाईकमान! मध्य प्रदेश की लगभग 7.26 करोड़ की जनसंख्या की भावनाओं को जानिए! समझिये! हमें ‘‘जीते हुये’’ सच्चे जनप्रतिनिधी होने के नाते जनता की भावनाओं के अनुरूप कोरोना के ड़र को दूर कर हमें मंत्रिमंडल में शामिल करवाइये। अन्यथा अंततः हमको भी जनता की भावनाओं के साथ ही रहना पड़ेगा? मतलब.........साफ है? शायद इन भावनाओं को शिवराज सिंह चौहान ने सुन लिया है। इसीलिए शायद वे भगवान तिरूपति बालाजी के दरबार में जाकर मत्था टेक कर हाईकमान को त्वरित कार्यवाही के लिये प्रेरित करने की; प्रार्थना करेगें। वैसे भी जिस प्रकार अमिताभ बच्चन को आवश्यकता होने पर ही ‘‘सरकार’’-2 बनाना पड़ा था। उसी तरह शिवराज सिंह चौहान को भी इस कोरोना काल में जन आकांक्षाओं की पूर्ति करने हेतु अब पूरे संवैधानिक संख्या के अनुरूप मंत्रिमंडल की आवश्यकता महसूस हो रही है। एक जागरूक नागरिक होने के नाते जनता द्वारा चुने गए जन प्रतिनिधियों की आवाज को हाईकमान के पास पहंुचाना मेरा कर्त्तव्य हैं। इस लेख के माध्यम से यही प्रयास कर रहा हूं। 


शुक्रवार, 26 जून 2020

माननीय ‘‘न्यायाधिपति’’ ‘‘ईश्वर के प्रकोप’’ से कैसे बच पाएंगे?

उड़ीसा की ‘‘भगवान जगन्नाथ’’ पूरी की ‘‘रथ यात्रा’’ के मामलें में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायाधिपति एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने एनजीओं ‘‘उड़ीसा विकास परिषद’’ द्वारा दायर याचिका में 4 दिन पूर्व दिए गये स्वयं के पारित आदेश को; (दायर) पुनर्विलोकन याचिका में उक्त पूर्व आदेश को निरस्त कर दिया। तदनुसार ‘‘भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा’’ को बहुत से कड़े प्रतिबंधों जैसे कफ्यू इत्यादि के साथ अनुमति दे दी गई। और यह यात्रा भी उन प्रतिबंधों के पालन साथ सफलतापूर्वक निकल गई, जिसके लिए उच्चतम न्यायालय, उड़ीसा की सरकार और श्रद्धालु नागरिक गण बधाई के पात्र हैं।
आप जानते ही हैं, भारतीय संविधान लोहे की रॉड़ के समान कड़क न होकर उस बांस के समान है, जो जरूरत के लिए आवश्यकतानुसार मुड़ जाता है। ठीक इसी प्रकार संविधान में भी जन आकांक्षाओं और आवश्यकता के अनुरूप जो भी जनोपयोगी संशोधन की आवश्यकता सरकार समझती है, उन संशोधन को संविधान के मूलभूत ढांचा (केशवानंद भारती के मामले में दिये गये प्रतिपादित सिद्धांत को अपनाते हुये) को बदले बिना, संविधान में संशोधन करते चली आ रही है। परिणाम स्वरूप ही हमारे देश में अभी तक 126 से भी ज्यादा संविधान संशोधन हो चुके हैं, जो उसके लचीलेपन को ही सिद्ध करते हैं। लेकिन जहां तक कानून निर्माण व उसकी व्याख्या करने वाली सुप्रीम संस्था उच्चतम न्यायालय का प्रश्न है, वह संविधान के समान ही (उपरोक्तानुसार) लचीली नहीं है। उच्चतम न्यायालय को उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों के आधार पर ही अपने आसपास की परिस्थितियों से या अन्य किसी प्रकार से प्रभावित हुए बिना, समग्र रूप से गहराई से विचार कर एक विकल्प हीन सुनिश्चित निर्णय देना होता है। 
इसीलिए माना जाता है, ‘‘कानून अंधा होता है‘‘? उसका मतलब यही है कि कानून देख तो सकता नहीं, मतलब न्यायाधीश के सामने या आसपास घटित हो रहे दृश्यों को देखने या संज्ञान लेने के बजाए, उसके समक्ष प्रस्तुत समस्त साक्ष्यों को पढ़ देख कर समग्र विचार कर निर्णय देना ही न्यायालय का कार्य होता है। चँूकि उच्चतम न्यायालय की स्थापना व कानून का निर्माण भी उसी कुछ हद तक लचीले संविधान के अनुसार ही किया जाता है; इसीलिए उस लचीलापन का प्रभाव कभी-कभी न्यायालय पर भी पड़ जाता है। उच्चतम न्यायालय स्वयं कानून का निर्माता नहीं। बल्कि यह काम विधायिका का है। लेकिन उसके निर्णय का प्रभाव संवैधानिक रूप से पूरे देश पर बंधनकारी होने के कारण उसके निर्णय देश के कानून (लॉ ऑफ लैंड) का रूप ले लेते है। चूंकि उच्चतम न्यायालय का निर्णय अंतिम होता है। निर्णय के अंतिम होने (फाईनलिटी) के कारण शायद मानवीय गलतियों के और संविधान के लचीलापन के कारण हुई गलतियों को दुरूस्त करने के लिये ही उच्चतम न्यायालय को अपने निर्णय को पुनर्विचार करने के लिये यह प्रावधान इसी संविधान द्वारा किया गया है। इसका उपयोग करके ही माननीय उच्चतम न्यायालय ने भगवान जगन्नाथ की यात्रा को अनुमति दी है, जिस पर पहले इसी बंेंच द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था। 
आपराधिक मामलों में अंतिम रूप से दोष सिद्ध किये अपराधी के पास पुनर्विचार याचिका के खारिज होने के बाद भी उपचारात्मक (क्यूरेटिव)  याचिका की अवधारणा उच्चतम न्यायालय ने ‘‘रूपा अशोक हुरा बनाम अशोक हुरा’’ के प्रकरण में वर्ष 2002 में निर्धारित की थी। इससे स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय अपने निर्णय की अंतिमता (फाइनलिटी) स्थिति होने के बावजूद अपराधिक मामलों में गलतियों की न्यून संभावनाओं को भी न्यूनतम करने व सुधारने के लिये उक्त उपचारात्मक याचिका की व्यवस्था बनाई है। अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय में हुई गलतियों को सुधारने के लिये तो द्विस्तरीय अपीलीय प्रावधान हैं ही।  
अब जरा कल्पना कीजिए! यदि यह ‘‘पुनर्विचार’’ या पुनरावलोकन का प्रावधान संविधान में नहीं होता तो, आज सैकड़ों वर्षो से चली आ रही परंपरा गत भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा इस वर्ष नहीं निकल पाती। इसी यात्रा पर मुगलों के दौर में 285 वर्ष पूर्व प्रथम बार रोक लगी थी। यद्यपि वर्ष 285 वर्ष पूर्व, अर्थात वर्ष 1735 के पूर्व 1568, 1601, 1607, 1611, 1617, 1621, 1692, 1731 एवं 1733 में विभिन्न कारणों से भगवान जगन्नाथ जी की यह यात्रा संभव नहीं हो पायी। मानव से गलती होना स्वाभाविक है। इसी आधार पर यदि पुनर्विचार का प्रावधान किया गया है तो, इस बात की क्या ग्यारंटी है कि इस पुनर्विचार अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते समय भी माननीय न्यायाधीश मानवीय गलती नहीं करेंगे? चूँकि मानव से गलती होना अंतिम सांस तक उसका स्वभाव है, तब उससे उत्पन्न न्यायिक निर्णयों को इस स्वभाविक दोष के प्रभाव को लगभग शून्य कैसे किया जा सकता है, ताकि निर्णय सही हों। यह प्रश्न है? 
एक तरीका इसका यह हो सकता है कि जब पुनर्विचार याचिका पर विचार किया जावंे तो उस सुनवाई में एक पक्षकार उन न्यायाधीशों (बेंच) को भी बनाया जावें, जिन्होंने मूल आदेश पारित किये हांे। ताकि उन न्यायाधीशों को पूर्व में पारित अपने आदेश की रक्षा (डिफेंड) करने का अवसर मिल सकेगा, यदि वे चाहेगें तो। दूसरा एक तरीका यह भी हो सकता है, कि पुनर्विचार याचिका में यदि निर्णय पूर्व आदेश के विपरीत आता है, तब फिर उक्त मामला तीसरी बेंच को सुनवाई के लिए भेजा जाए और तब इन तीनों निर्णयों में जो दो निर्णय समान हो, उनको लागू किया जावे। हांलाकि इस स्थिति में निर्णय आने में कुछ देरी और हो सकती है। इस प्रकार स्वाभाविक मानवीय त्रुटि को एक बेहतर वैज्ञानिक तरीके से और ज्यादा संतोष जनक ढंग से स्थिति से निपटा जा सकता है। इस मानवीय त्रुटि पर विचार करना आज इसलिए आवश्यक हो गया है, क्योंकि भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के उपरोक्त मामले में न्यायाधिपति मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबड़े ने पहले अनुमति देने से इंकार कर दिया था। इस आधार पर कि सार्वजनिक स्वास्थ्य व सुरक्षा के हित को ध्यान में रखते हुये, आज कोरोना के बीच हमने इस साल यदि रथ यात्रा होने दी तो ‘‘भगवान जगन्नाथ’’ ‘‘हमें माफ नहीं करेंगे।’’ महामारी के दौरान इतना बड़ा समागम नहीं हो सकता। और अब उसी बैंच द्वारा अनुमति दे दी गई। शायद इसी लिए कहा गया है कि ‘‘कानून अंधा होता हैं‘‘। अतः अब बड़ा प्रश्न माननीय न्यायाधिपति को ‘‘भगवान जगन्नाथ से माफी दिलवाने का है, जिन्होंने इस पुर्नर्विचार याचिका में ‘‘भगवान जगन्नाथ जी’’ की यात्रा की अनुमति दी है। 

‘‘कांग्रेस’’ को ‘‘जनता की अदालत में ‘‘कटघरे’’ में खडे़ करने में राहुल स्वयं के ट्वीट्स को क्यों ‘‘साधन’’ बनने दे रहे हैं?


15-16 जून की रात्रि को हुई ‘‘गलवान घाटी’’ में हुए खूनी सैनिक संघर्ष में देश के 20 जांबाजों के शहीदी बलिदान के बाद लगातार एक के बाद एक राहुल गांधी के ट्वीट्स आ रहे हैं। इनको पढ़ने के बाद प्राथमिक रूप से यही नजर आता है कि, राहुल गांधी देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी जिसने स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया हो को, देशभक्ति, राष्ट्रहित व राष्ट्रीयता के मुद्दे पर जनता की न्यायालय में अनजाने ही स्वयं ही (विपक्ष के द्वारा नहीं) कांग्रेस को कटघरे में खड़े कर दे रहे हैं। इस प्रकार राहुल गांधी इस मुद्दे पर देश की जनता से कांग्रेस पार्टी को सजा दिलाने के लिए वे अपने विपक्षियों को एक मौलिक अवसर बिना मांगे ही अनजाने में दे दे रहे हैं।
राहुल गांधी के कुछ ट्विट्स संदेशों की बानगी देखिए। राहुल गांधी जब यह कहते हैं कि ‘‘प्रधानमंत्री क्यो चुप हैं, क्यो छुप रहे हैं,’’ लेकिन वे प्रधानमंत्री से उक्त प्रश्न करते समय यह भूल जाते हैं कि वे स्वयं कहां ‘‘बाहर‘‘ निकले हुए हैं। यदि ट्विटर के माध्यम से प्रश्न पूछना छुपना न होकर  ‘‘बाहर’’ निकलना होता है तो, यह बाहर निकलना राहुल गांधी को मुबारक। राहुल जी! प्रधानमंत्री, पीएमआंे शुरू से ही लेकर राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर के साथ ही अंतरराष्ट्रीय सीमा में भी आवश्यकतानुसार बाहर निकल कर जा रहे हैं, घूम रहे हैं, छुपे हुये नहीं हैं। गलवान घाटी में हुए हिंसक संघर्ष के संबंध में राहुल गांधी विदेशी न्यूज एजेंसी और अपुष्ट सूत्रों के आधार पर ट्वीट्स के माध्यम से प्रधानमंत्री को ‘कॉर्नर‘ करने का प्रयास (असफल) न करें? इससे उनका उद्देश्य तो पूरा नहीं हो पाता है, लेकिन निश्चित रूप से उनके इस तरह के ट्विट्स देश की सेना के मनोबल को तोड़ने वाले हो सकते हैं। इस कारण से ही उनके विरोधियों को राहुल व उनकी पार्टी पर ‘देशद्रोह‘ जैसे गंभीर अपराध का आरोप लगाने का अवसर मिल जाता है। 
इस तरह के संदेशों से कांग्रेस की देशभक्ति पर सवालिया निशान लगने से शत्रु देशों को उक्त संदेशों का हमारे देश के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुरुपयोग करने का एक बिना मांगा हथियार व अवसर मिल जाता है। जैसा कि पूर्व में पाकिस्तान ने इस तरह के कुछ बयानों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने कुप्रचार का एक साधन बनाया। सवाल राहुल के विरोधियों का उन पर सवालिया निशान लगाने का नहीं है। लेकिन इस तरह के बयानों से निश्चित रूप से भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब छवि होती है। जिस कारण से राहुल लगातार जनता के न्यायालय के कटघरे में स्वयं ही आकर के आरोपों के तीर झेल रहे हैं। स्पष्ट है, जनता के न्यायालय में वे स्वयं को स्वतः संज्ञान के द्वारा उक्त रूप में प्रस्तुत कर राजनैतिक आत्महत्या की दिशा की ओर बढ़ रहे है, जिस प्रकार कि उच्चतम न्यायालय भी कई बार महत्वपूर्ण मामलों में स्वतः संज्ञान कर कार्यवाही करता है, लेकिन न्यायालय के निर्णय जनहित में होने से जनता तालियाँ बजाती है। वर्ष 2024 में जनता की अदालत में उक्त मुकदमे का परिणाम क्या होने वाला है, यह आपके सामने भलि-भाँति स्पष्ट है। इसीलिए अभी भी समय है, राहुल गांधी इस कोरोना काल में ऐसे ट्वीट्स को साधन बनाकर आत्महत्या (राजनैतिक) की ओर न बढ़े। वैसे कहीं कोरोना काल में बढ़ती आत्महत्या की संख्या का वायरस राहुल के भीतर ‘‘संक्रमण’’ तो पैदा नहीं कर रहा है? ईश्वर से प्रार्थना है व सरकार से अनुरोध है कि संक्रमित करने वाले साधन ऐसे ‘ट्वीटस’ को कुछ समय के लिये राहुल गांधी की सेहत हेतु लॉकडाउन कर दें। ताकि वे मजबूत होकर स्वस्थ्य विपक्ष की मजबूत भूमिका निभाकर नरेन्द्र मोदी को कोरोना के मुद्दे पर और सही दिशा में कर्मशील कर मजबूत कर सकें। वैसे अधिकांश नागरिक मेरे इस दुःसाहस को असंभव कार्य ही मानेगें। लेकिन इस कोरोना काल में कुछ असंभव से लगने वाले कार्य भी संभव हुये है। क्या अभी लम्बे समय के देशहित के लिये यह संभव हो सकता है? कृपया सच्चे मन से दुआ तो कीजिये? 

सरकारें व मीडिया कोरोना से ‘‘संक्रमित’’ देश को कहीं ‘‘भयाक्रांत’’ कर ‘भय‘ से संक्रमित तो नहीं कर रही हैं?

देश में लॉक डाउन लगे लगभग तीन महीने व्यतीत हो चुका है। लेकिन पहले दिन से लेकर आज तक केंद्रीय सरकार सहित समस्त सरकारों से लेकर संपूर्ण मीडिया ने ‘‘भय’’ का वातावरण ही उत्पन्न किया हुआ है व उसे लगातार बनाए रखा है। भय से भयाक्र्रांत होती स्थिति को ‘‘बनाकर‘‘ जनता के सामने प्रस्तुत किया है व किया जा रहा है। इससे निसंदेह एक आम नागरिक चाहे वह कोरोना वायरस से संक्रमित हो अथवा नहीं, उक्त भय से भयभीत होकर ‘ड़र‘ के अंधकारमय जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है। ‘सावधानी’ व ‘भय’ में अंतर है, इसे मीडिया को समझना चाहिये।  
याद कीजिए, देश में जब लॉक डाउन घोषित हुआ था, तब कुल 519 व्यक्ति संक्रमित थे। 30 जनवरी को पहला संक्रमित व्यक्ति भारत में केरल प्रदेश में आया था और आज 440215 व्यक्ति देश में संक्रमित हैं। कुल मृतकों की संख्या 14011 हो गई है। जबकि लॉकडाउन के दिन तक मात्र 9 ही व्यक्तियों की मौत हुई थी। स्पष्ट है, संक्रमित व्यक्तियों की संख्या और संक्रमण से होने वाली मृत्यु की संख्या या दर में कोई कमी परिलक्षित नहीं हो रही हैं, वैसे ही  ‘भय‘ के ग्राफ में भी कोई कमी नहीं आ रही है। 
नागरिकों में यह ‘‘भय की बीमारी‘‘ स्वस्फूर्त नहीं है, बल्कि सरकार और मीडिया का इसमें प्रमुख रोल रहा है। वस्तुतः जब कोरोना से बचने के लिये बनाएं गए ऐसे (‘‘सुरक्षा कवच’’) ड़र के बावजूद, संक्रमितों की संख्या में कोई कमी नहीं हो रही है, तो फिर क्या अब समय नहीं आ गया है कि इस तरह के ‘‘ड़र के वातावरण‘‘ को पूरी तरह से समाप्त किया जावे। जनता की इस कोरोना वायरस के साथ सुरक्षित व पूर्ण सावधानीपूर्वक जीने की इच्छा शक्ति को पूर्णतः मजबूत किया जावें। सभी  आवश्यक सावधानियों को बरतने की शिक्षा देकर उनका अनिवार्य रूप से पालन करने के लिए नागरिकों को मजबूती के साथ ‘‘मजबूर‘‘ भी किया जावें। वास्तव में नागरिकांे को कोरोना के भय से नहीं, बल्कि कोरोना से लड़ना है, जिस प्रकार हमें बीमार से नहीं बीमारी से लड़ना होता है। यदि किसी बीमारी का उपचार ‘भय’ से करना है तो कुछ समय के लिये व अस्थायी रूप से प्रांरभिक स्तर पर ही उसका कुछ वास्तविक फायदा जरूर हो सकता है। लेकिन भय के डोज के अधिक्य ने उससे हुए कुछ फायदे कोे निष्प्रभावी बना दिया है। अतः हम भय उत्पन्न कर बनाये रख कर हम उक्त लड़ाई को मजबूत करने के बजाए कमजोर ही कर रहे हैं।    
इस ड़र को दूर करने के लिये सरकारों को कुछ कदम उठाने होगें। जनता के बीच यह प्रचार प्रसार करना होगा कि, कोरोना वायरस के संक्रमण को संख्या व समय सीमा में अब बांधा नहीं जा सकता है। यह बात भी उतनी ही सत्य सिद्ध हो रही है कि, हमारे देश के नागरिकों की ‘निरोधक क्षमता‘ तुलनात्मक अच्छी, मजबूत व सुदृढ़ होने के कारण तथा ‘वायरस’ की घातक (मारक) क्षमता कमजोर पड़ जाने के कारण इससे होने वाली मृत्यु दर अत्यल्प है। सरकार को यह भी बतलाना चाहिये कि, इस लॉकडाउन की अवधि में कोरोना से हुई मृत्यु की तुलना में दुर्घटना (एक्सीडेंट) हृदय रोग, कैंसर व किड़नी रोग से कितनी मृत्यु हुई हैं? क्योंकि उक्त बीमारियाँ जीवन के लिये घातक व खतनाक होते हुये भी जीवन का आवश्यक भाग बनने के बावजूद, हम  अपना जीवन बिना ड़र (कोरोना की तरह से पैदा हुये) के जी रहे है। कोरोना के पहिले की अवधि व कोरोना काल की अवधि कें तुलनात्मक आंकड़ों को प्रस्तुत कर नागरिकों के दिल में बैठा हुआ ड़र सफलतापूर्वक कम किया जा सकता है। तभी वह अधिक ताकत व आत्मबल के साथ कोरोना वायरस से सफलतापूर्वक लड़ पायेगा।
नागरिकों को इस बात के लिये शिक्षित व प्रेरित करना ही होगा कि, आपकी जान की सुरक्षा सावधानी बरतते हुये आपके अपने सुरक्षित हाथों में पुर्णतः सुरक्षित है। ‘‘सावधानी हटी! र्दुघटना घटी!‘‘ यह कोरोना काल का नहीं, बल्कि एक शाश्वत कथन है। सामान्यतया एक अनपढ़ ट्रक ड्राइवर भी उक्त मुहावरें के अर्थ व महत्व को समझता है। लेकिन पढ़ा लिखा वर्ग ही वर्तमान में लॉकडाउन के नियमों का सबसे ज्यादा उल्लघंन कर रहा है। उसे उक्त बात स्वयं के जीवन के हितार्थ क्यों समझ में नहीं आ रही है? क्या उक्त उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य व कार्य, सरकार व मीडिया के साथ स्वयंसेवी संगठनों, आध्यात्मिक संगठनों, गुरूओं व सामाजिक संस्थाओं, और अंततः स्वयं एक नागरिक का नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर में ही (आर्थिक चक्र के पहिये के चलते रहने के साथ ही) कोरोना का इलाज शामिल है।   
यह समझने का प्रयास कीजिये कि ‘‘कोरोना ड़र‘‘ कितना गहरा है? यह हमारी संस्कृति की रीढ़ की हड्डी पारिवारिक रिश्तों व सामाजिक दायित्वों को ही तार-तार किये जा रहा है। जब मैने एक प्रमुख समाचार पत्र में यह पढ़ा कि पूणे (पूना) मेें तीन कम्पनीयाँ (संस्थाएं) कोरोना से हुई मृत्यु की अंतिम क्रिया-कर्म का कार्य करने के लिये बनी है। ‘‘हृदय घात’’ तो नहीं हुआ (क्योंकि मैं पूर्व से ही हृदयरोग का मरीज हूं) लेकिन ‘‘हृदय पर घात’’ (चोट) अवश्य लगी। अभी तक तो लावारिश लाशों की अंतिम क्रिया-कर्म के लिये जन संस्थाएं आगे आती रही है, जैसा कि बैतूल में जन आस्था संस्था ऐसे सामाजिक कार्यो में काफी आगे है। लेकिन वारिश वाली लाशों का वारिशों द्वारा कोई दावा न करना, उसके अंतिम क्रिया-कर्म के लिये आगे न आना, किस बात का घोतक है? क्या यह ‘‘कोरोना’’ के ड़र से उत्पन्न अत्यंत वीभत्स व अकल्पनीय स्थिति नहीं है? क्या कोई भी वारिश मृतक व्यक्ति की चल अचल सम्पत्ति पर कोई दावा करने से चूक रहा है? या वह सिर्फ मृतक शरीर पर ही दावा नहीं कर रहा है? स्थिति बहुत ही गंभीर, नाजुक व शर्मशार करने वाली है। इसको सुधारने के लिये सरकार से लेकर गैर-सरकारी व स्वयंसेवी संगठनों के स्तर पर कोई निश्चित, सार्थक व पर्याप्त प्रयास अभी तक होती हुई नहीं दिख रही है। यह कोरोना काल की सबसे घिनौनी उत्पत्ति (उपलब्धि?) हैं। 

मंगलवार, 23 जून 2020

‘‘जांबाज शहीदों को देश का सलाम‘‘

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राजनीतिक पार्टियों की सर्वदलीय बुलाई गई बैठक में गलवान घाटी में शहीद हुये 20 जाबाजों की घटना के बाबत आवश्यक जानकारी दी गई। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि गलवान घाटी में हमारी सीमा में न तो कोई घुसा है और न ही घुसा हुआ है और न ही हमारी कोई ‘‘पोस्ट’’ किसी दूसरे के कब्जे में है। प्रधानमंत्री के उक्त कथन का राष्ट्रीय हित में न केवल स्वागत किया जाना चाहिए, बल्कि उस पर कोई शक की गुंजाइश किये बिना, उन्हें इस बात के लिये बधाई भी दी जानी चाहिए कि उन्होंने अपने उस कथन को सही सिद्ध कर दिखाया कि भारत की एक इंच भूमि पर भी किसी शत्रु देश का कब्जा नहीं हो सकेगा।  
प्रधानमंत्री की उक्त जानकारी के बाद यदि हम वहाँ हुई अमानवीय मांब लिंचिंग समान घटना कैसे घटित हुई, पर प्रधानमंत्री के कथन को पीछे लें जाकर विचार करेंगे तो बहुत कुछ स्थिति हमारे सामने स्पष्ट हो पाएगी। प्रधानमंत्री के सर्वदलीय बैठक में दिए गए बयान से यह स्पष्ट हो चुका है कि सैनिकों के बीच हुई उक्त हिंसक सैनिक संघर्ष हमारी सीमा में नहीं हुआ। विदेश मंत्री ने हथियार उपयोग न करने के संबंध में 1993, 96 व 2005 की संधि का उल्लेख किया है। जब किसी प्रकार के परिष्कृत जटिल हथियारों (‘‘आर्म्स‘‘) का उपयोग नहीं हुआ है तो, इसका मतलब साफ है कि दोनों पक्षों के सैनिक परस्पर शारीरिक रूप से संपर्क में आये। तत्पश्चात ही चीनी सैनिकों ने लोहे की राड़ व लकड़ी पर लिपटी कटीली तारों वाले हथियारों का उपयोग कर बर्बरता पूर्ण उक्त घटना को अंजाम दिया। एलएसी के संबंध में सामान्य नियम यह है कि दोनों देशों की सैनिक टुकडि़या एलएसी से कुछ (दो) किलोमीटर दूर रहती है। मतलब साफ है कि दोनों पक्षों के सैनिकों को परस्पर संपर्क में आने के लिए एलएसी की तरफ बढ़ना ही होगा। ‘‘डोकलाम में आपने देख लिया है कि किस तरह बिना हथियार के दोनों पक्षों के सैनिक शारीरिक बल का उपयोग व धक्का-मुक्की करके, एक दूसरे को धकेलने का प्रयास कर रहे थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारे सैनिक चीन की सीमा की तरफ निश्चित रूप से बढ़े और और वहीं पर शारीरिक बल का उपरोक्तानुसार प्रयोग सैनिकों के बीच हुआ होगा।  
प्रधानमंत्री के उक्त कथन से यही अर्थ निकलता है कि चीन के विदेश मंत्रालय ने आरोप लगाते हुये भारत द्वारा उसकी सीमा में घुसने की बात को स्वीकारा है, जो सही है। यह पहली बार है, जब चीन या उसकी सरकारी न्यूज एंजेसी या उसका मुख पत्र ग्लोबल टाईम्स ने अपनी कमजोरी को आंशिक रूप से स्वीकारा है। अन्यथा चीन तो अपने हताहत हुए सैनिकों की संख्या बताने से भी इनकार करता है। भारतीय सेना चीन की सीमा में घुसी है। यह पहली बार हुआ है। प्रधानमंत्री ने इस तरह चीन को एक कदम पीछे हटने के लिए मजबूर किया है।  
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि दोनों पक्षों के मेजर जनरल स्तर के बीच बातचीत किस मुद्दे पर हो रही है? गलवान की घटना के पूर्व व पश्चात में मीडिया और सैनिक सूत्रों से जो रिपोर्ट छन के आ रही हैं, उनसे स्पष्ट है कि दोनों पक्ष फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। यदि हमने चीनी सीमा में ही सैनिक भिड़ंत की है, तो फिर चीनी सेना के पीछे हटने का प्रश्न कहां से पैदा होता है? यदि यह बातचीत 1 अप्रैल 2020 की स्थिति पर आने के लिए की जा रही है, तो फिर भारत के पीछे हटने का प्रश्न कहां पैदा होता है? क्योंकि हमने तो चीनी भूमि पर कब्जा किया ही नहीं है। इसका मतलब तो यही निकलता है कि उक्त सैनिक संघर्ष दो कि.मी. के ‘‘बफर क्षेत्र’’ में हुआ होगा। अतः विदेश मंत्रालय को इस संबंध में पूरी स्थिति स्पष्ट कर देश की जनता  जो स्वयं भी ‘सैनिकों’ के साथ सीमा की सुरक्षा के लिए चिंतित है, को क्यों नहीं विश्वास में लेना चाहता है? यह अस्पष्ट स्थिति देश के रक्षामंत्री, रक्षा राज्यमंत्री, विदेश मंत्री तथा प्रधानमंत्री से लेकर सेना प्रमुखों द्वारा समय-समय पर दिये गये बयानों व बताई गई स्थिति के कारण ही उत्पन्न हुई है। इसलिये इसे स्पष्ट करना सरकार का कार्य कर्त्तव्य व दायित्व है। ताकि न सिर्फ सीमा पर चीन से लड़ रही सेना, बल्कि नागरिक भी देश के भीतर चीन के फैलाए हुए आर्थिक साम्राज्य को तहस-नहस करने के लिए मजबूती से खड़े हो सकें। 
हमारे दो मेजर व दो कैप्टन रेंज सहित 10 सैनिकों के चीन द्वारा रिहा किये जाने और भारत द्वारा चीन के सैनिकों को रिहा किया जाने बाबत अभी कुछ कहना उचित नहीं होगा। चूंकि आधिकारिक रूप से दोनों सेनाओं ने उक्त दावे से इंकार किया हैं।

सोमवार, 22 जून 2020

आखिर कब तक ऐसे ही ‘‘धोखे’’ खाता रहेगा भारत?

3488 किलोमीटर लम्बी भारत-चीन सीमा पर गुलाम रसूल गलवान के नाम पर प्रसिद्ध ‘‘गलवान घाटी‘‘ पर दोनों पक्षों के बीच हो रही चर्चा के बीच ही ‘‘चर्चा’’ ही सैनिकों के बीच खूनी संघर्ष में बदल गई। इसमे हमारे (निहत्थे?) कमाडिंग आफीसर कर्नल सहित 20 सैनिक शहीद होकर देश के लिए बलिदान हो गये। यद्यपि विदेश मंत्री के अनुसार हमारे सैनिक निहत्थे नहीं थे, लेकिन 1993, 96 व 2005 के समझौते से हथियार नहीं चलाने सेे बंधे थे। इस घोर अमानवीय कृत्य से फिर एक बार यह स्पष्ट हो गया है कि, विश्व के अन्य देशों की तुलना में चीन कभी भी हमारा विश्वसनीय साथी या पड़ोसी न कभी रहा है और न रहेगा। ‘नेेहरू‘ के जमाने में ‘‘हिन्दु चीनी भाई भाई के नारे‘‘ की जबरदस्त भावनापूर्ण नारों के बावजूद 1962 में चीन द्वारा भारत को दिये गये विश्वासघाती युद्ध के गहरे जख्मों को हम न तो भूले है और न ही भूल सकते हैं। चूंकि हमारे लगभग 43180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन का आज भी अवैध कब्जा विद्यमान है। तब के घाव आज भी हमारे दिल में खंजर के समान चुभ रहे हैं। इन्हें निकालने के लिए हमारे देश की संसद मंे पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव आज भी उसके क्रियान्वन की राह जोेह़ रहे हैं। 40 वर्षो बाद भी प्रस्ताव के क्रियान्वन की ‘‘चिंता’’ कहीं हमारे इतिहास के ‘‘शोध’’ का विषय न बन जाय। इसकी चिंता करने की गंभीर आवश्यकता है। इस संबंध में हमंे पाकिस्तान से अवश्य सीख लेना चाहिए, जो हमसे दो बार युद्ध में बुरी तरह से पराजित हो जाने के बावजूद भी ‘‘कारगिल’’ ‘‘ऊरी’’ ‘‘पुलवामा’’ जैसी अल्प युद्ध घटनाएँ करता रहा है। 
वर्ष 1962 में पीठ पर छुरा घोपना जैसे जघन्य विश्वासघात के बावजूद, चीन ने कम से कम 2 बार (1967, 1975 में) वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर (एल.ए.सी.) पुनः पीठ में छुरा घोप कर हमारे सैनिकों के साथ खूनी संघर्ष किया हैं। पड़ोसियों व अन्य देशों पर दादागिरी जताकर उनके क्षेत्र हड़पते रहना ही चीन की कूटनीतिक राजनीति हैं। हम अभी भी सिर्फ वास्तविक नियन्त्रण रेखा की ही बात (एल.ए.सी) कर रहे है; लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण रेखा एल.ओ.सी (मेक मोहन लाईन) की बात बिल्कुल भी नहीं कर रहे है। हमने कभी भी वास्तविक एल.ए.सी. का उल्लंघन कर उसे पार नहीं किया है। यही हमारे सैनिक सूत्रांे व सरकार का भी कथन है। 6 जून को मेजर जनरल स्तर की हुई वार्ता में हुये समझौते के बावजूद भी चीनी सेना वापस  उसकी सीमा लौटने के लिये पीछे नहीं लौटी, जिस मूल कारण से ही शायद उक्त सैनिक संघर्ष हुआ। हर बार की तरह इस बार भी सैनिक संघर्ष के माध्यम से चीन ने बार-बार बदलती हुई नियन्त्रण रेखा को पुनः बदलकर नई एक काल्पनिक नियन्त्रण रेखा पैदा की है। फिर चीन उस नई नवेली निर्मित (काल्पनिक) एल.ए.सी. को ही वास्तविक नियन्त्रण रेखा मानकर यथास्थिति बनाए रखने के लिये ही बातचीत करने को तैयार हो जाता है। हमेशा इसी प्रकार 4 कदम आगे व 2 कदम पीछे हटने की कारगर रणनति अपनाकर वह हमारी सीमा में अपनी घुसपैठ को बढ़ाते जाकर उसे तत्समय वैध बनाने का प्रयास करता है। 
इस सम्राज्यवादी विस्तारवादी रणनीति के तहत ही चीन ने, गलवान घाटी में हिंसक सैनिक संघर्ष करने के बाद, उस स्थान से पीछे हटने के बजाए, उसी को यथा स्थिति बनाये रखने के लिये भारत से फिर से बातचीत कर रहा है। अब तो उसने उसी गलवान घाटी पर अपना दावा ही ठोक दिया है। आज हमारी विदेश नीति, सैन्य नीति व अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति कसौटी पर है कि, हम चीन को पुरानी वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर किस तरह कितने पीछे वापस भेज सकते हैं। हमारे विदेशी मामलों के जानकार एवं मीडिया बार-बार यह कह रहे है कि 01 अप्रैल 2020 की स्थिति पर वापस जाने के लिए चीन से परस्पर बातचीत हो रही है। मैं इस बात को बिलकुल भी नही समझ पा रहा हूं कि 1 अप्रैल 2020 को आधार वर्ष (सही दिन) मानने का आधार क्या है। कहीं इसका यह मतलब तो नहीं कि, 2014 के बाद (मोदी जी के प्रधानमंत्री पद पर आरूढ़ होने के बाद) या अधिकतम 1962 के युद्ध के बाद चीन ने हमारी सीमा की ओर आगे बढ़कर नई नियन्त्रण रेखा तो स्थापित नहीं कर ली है? और अब उसे ही वास्तविक नियन्त्रण रेखा सिद्व करना चाहता हैं? यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस पर आज तो नहीं; लेकिन स्थिति सामान्य हों जाने पर सरकार को तुरंत स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।
हमें इस बात को भी याद रखना होगा कि, चीन से सामरिक मोर्चे पर स्थिति से निपटने के लिए पाकिस्तान तुल्य ही वही रणनीति नहीं पाली जा सकती है। पाकिस्तान व चीन दोनों देश यद्यपि हमारे पड़ोसी देश हैं। परन्तु हम कभी कभी यह भूल जाते है कि दोनांे की सैन्य, भौगोलिक और अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति में बहुत विरोधाभास है। इसलिये चीन के साथ सामरिक नीति बनाते समय हमें ‘‘पाकिस्तान’’ को ‘‘भूल’’ जाना होगा। आप इस पर से समझ लीजिए कि हमारे साथ गलवान में हुई खूनी सैन्य घटना पर विश्व भर से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आयी। और आयी भी तो, उसमे हमारा सीधा समर्थन नहीं किया गया। कहां गया कि ’’स्थिति पर नजर रखी जा रही है’’। यदि यह घटना पाकिस्तान के साथ हुई होतीे तो, भारत के साथ चंद कुछ मुस्लिम देशों को छोड़कर  विश्व का रवैया खुल कर प्रतिक्रिया स्वरूप समर्थन करने का रहता। यद्यपि भारत की अधिकारिक नीति भी मिलजुल कर बैठकर सीमा विवाद का हल निकालने की ही है। लेकिन इस मिलजुल कर बैठे चर्चा के दौरान ही तो गलवान में यह खूनी हिंसक हुआ। 
बेशक सम्पूर्ण देश, समस्त राजनीतिक पार्टीयाँ मजबूती के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व मे सेना के साथ खड़ी हैं। इसलिए आज का समय न तो सरकार को सलाह देने का है और न ही सरकार से इस संबंध में कोई ‘सैन्य’ प्रश्न पूछने का। अलावा देशहित में प्रधानमंत्री को छुपे हुये बताकर बाहर निकलें कथन व बचकानी हरकतों से, राहुल गांधी जो खुद छिपे हुये हैं, को बचना होगा। वे कम से कम अपनी मां से ही कुछ सीख लें। जिन्होंने तुलनात्मक रूप में इस समय संतुलित बयान दिया है कि, देश के इस संकट की घड़ी में कांग्रेस पार्टी सरकार व सेना के साथ खड़ी हुई है। यद्यपि कांग्रेस अपने ‘प्रश्न’ को उचित ठहराने के लिये 10 जुलाई 2013 को भाजपा प्रवक्ता रविशंकार प्रसाद द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से पूछे गये इसी तरह के प्रश्न का सहारा ले सकती है। 
देश के प्रधानमंत्री के 56 इंची सीने का संदेश किसी एक देश के लिए संकेतक नहीं है। वरण उन समस्त देशों के लिये है, जो भारत की सीमाआंे पर बुरी नजर रख कर कुटिलता एवं धोखे से सीमा को प्रभावित करने की चेष्ठा करते है। मेरा यह अनुरोध है (यह कोई सलाह नहीं है) कि जब प्रधानमंत्री यह कहते है हम किसी को उकसाते नहीं है और जो ‘‘हमे उकसाता है हमे उसे यथोचित जवाब देना आता है’’; बेहतर होता इस लाइन के बदले प्रधानमंत्री यह कहते कि हमारा कार्य न तो धमकाना है और न ही हम किसी की धमकी में आते है। हम अपने देश की सीमा व देश की अखण्डता व सम्प्रभुता की रक्षा प्रत्येक क्षण पूरी ताकत व क्षमता के साथ करते हैं। भविष्य में भी इसी ताकत को और बढ़ाते रहेगंे। हमारी सुरक्षा की नीति किसी के उकसावे पर निर्भर नहीं है। यह बात पूरे विश्व को समझ लेनी चाहिए।
शी जिनपिंग के (17.09.2014 को अहमदाबाद में) भारत दौरे के समय झूला झूलने से लेकर ‘‘मोदी व जिनपिंग की केमिस्ट्री‘’ की जो चर्चा हुई, क्या वह इतिहास को ही पुनः दोहराने वाली स्थिति नहीं है? 1962 में भी इसी प्रकार नेहरू और ‘चाऊएनलाई’ के समय ‘‘हिंदू चीनी भाई भाई’’ की भावना को इसी प्रकार पीठ के पीछे से खंजर मार कर तार-तार कर दिया गया था। उस इतिहास को हम कैसे भूल सकते है? इन छह सालों में हमारे प्रधानमंत्री पांच बार चीन हो आए और मौके बेमौके शी जिनपिंग से अठारह बार मिलें हैं। धोखेबाज चीन ने मोदी जिनपिंग की चर्चित केमिस्ट्री की आड़ में पुनः विश्वासघात किया है। विश्वासघात की इन दोनों घटनाओं में एक मूल अंतर है। नेहरू के समक्ष उस समय चीन के धोखे का कोई पूर्व उदाहरण नहीं था। वह 1954 में सहअस्त्वि के लिए बने पंचशील के सिंद्धातों से आत्ममुग्ध थे और उनके पास सर्तक होने का कोई अवसर ही नहीं था। लेकिन उसके बाद भी चीन के विश्वासघात (धोखे) के बड़े उदाहरण 1967, 75 के खुनी सैनिक संघर्ष तथा 2017 डोकलाम की घटना सबके सामने थी। वैसे चीन की अति विस्तारवादी नीति के तहत ही वर्ष 1963 काराकोरम पास, 2008 तीया पंगनक, 2008 चाबजी घाटी, 2009 डूम चेली, 2012 डेमजोक, 2013 राकी नूला आदि में कब्जा किया। बावजूद इस सबके आज (15-16 मई की रात्रि को) हम पुनः चीन से धोखा खा गये। यह विश्वासघात अब हमारे लिये भविष्य में अत्यन्त ही चिंता का विषय होना चाहिये। वैसे  सैनिकों के बलिदान की कीमत पर चीन हमसे लगातार विश्वासघात कर रहा हैं ।यदि  यह विश्वासघात  नेताओं के बलिदान  के कारण होता है  तब शायद  सैनिकों को  नेताओं से  यह पूछने की आवश्यकता नहीं होती  कि चीन हमारे साथ  लगातार धोखा क्यों कर रहा है (जैसा कि  नेता  सैनिकों के बलिदान पर प्रश्न पूछते हैं) क्योंकि तब नेता विश्वासघात का मौका ही नहीं देता| एक बात और चिंताजनक है कि चीन ने गलवान घाटी में घातक सैन्य साजो सामान का भारी जमावड़ा कर रखा है व गलवान नदी पर निर्माण कार्य भी किया है।  
गलवान घटना को सिर्फ सैनिक दृष्टि से देखना उचित नहीं होगा। वैश्रिक महाशक्ति बनने का दरवाजा आर्थिक सुद्रणता के रास्ते से होकर ही जाता हैं और इस दिशा में भारत के तेजी से बढ़ते कदम ओर वैश्विक राजनीति में भारत का बढ़ता प्रभुत्व चीन कैसे स्वीकार कर सकता है। गौर करने वाली बात यह है कि भारत के साथ पड़ोसी देशों के वर्तमान में चल रहे विवाद दो माह में ही प्रारंभ हुए है जो पश्चिम मंे पाकिस्तान द्वारा सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गई। तो पूर्वोत्तर में नेपाल को उकसाकर नए सीमा विवाद के जन्म देने में भी चीन ने कसर नहीं छोड़ी और साथ ही लद्दाख में स्वयं सीमाओं पर अतिक्रमण कर तीन ओर से सीमा विवाद को अंजाम देने में जुट गया। दरअसल इसके पीछे भी चीन की सोची समझी रणनीति है कि विवादित देशों में अथवा युद्धरत देशों में निवेश करने से निवेशक दूरी बना लेते है ऐसे में नए निवेश के इस प्रारंभिक दौर में चीन इन विवादों को तुल देकर भारत की आर्थिक महाशक्ति बनने की राह में रोड़े अटकाने मंे जुट गया। एक और कारण है चाइनीज वायरस से दुनियाभर में मची तबाही से खराब हो रही चीन की छबि और फैलती नफरत के वातावरण की ओर से ध्यान बटाना। 
चीन के संदर्भ में अंतिम। साँप दुनिया का सबसे अविश्वसनीय प्राणी है। वह पलटवार करता हैं। जो सपेरा उसे दूध पिलाता है, उसे भी ड़स लेता है। सांप-सांप (ताइवान) को भी खा लेता है। सर्पिणी अपने बच्चों (पाकिस्तान) को भी नहीं छोड़ती। ‘‘अजदहा’’ यानी ड्रैगन इन्हीं सांपो का पुरखा हैं। चीन तो साँप के बाप का भी बाँप ड्रैगन है। पलटकर ड़सने का उसका अनवरत इतिहास रहा है। अतः हमें अब ‘‘गाल बजाने व गाल फुलाने’’ की नीति को बदलना ही होगा। 
इस समय देश में चीनी बाजारों के बहिष्कार की मुहीम भी जोरों पर है, जो जरूरी भी है। अर्थात चीन को अंतिम छोर तक निपटाने के लिये राष्ट्रीय भावना के साथ राष्ट्रीय आकांक्षा की भावना को भी चरणबद्ध तरीके से बढ़ाना ही होगा।

मंगलवार, 16 जून 2020

‘‘मोहम्मद साद‘‘ ‘‘कैमरे में कैद‘‘ लेकिन जेल में....? कब? ‘‘मोहम्मद साद‘‘ क्या अपराधियों का ‘‘आइकॉन‘‘ तो नहीं बन गया है?


 पुलिस का कार्य अपराध की जांच करके अभियुक्त को पकड़ कर न्यायालय से सजा दिलवा करके अंततः ‘कैदी‘ बनाकर जेल में ‘‘कैद‘‘ रखने तक का होता है। हद तो तब हो गई जब, पुलिस की लालफीताशाही और लेटलतीफी के चलते मीडिया ने, तबलीगी मरकज के मुखिया मौलाना मोहम्मद साद को शुक्रवार को दिल्ली की अबू बकर मस्जिद में नमाज पढ़ते समय अपने ‘‘कैमरे में कैद‘‘ कर लिया। जिस (गिरफ्तारी) ‘कैद‘ का कार्य पुलिस अभी तक नहीं कर पाई है, उसके लिये मीडिया को धन्यवाद! लेकिन ‘बेशर्म‘ पुलिस को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता हैं कि, मीडिया ने एक ऐसे अभियुक्त की ‘तलाश’ की, जिसकी जांच से लेकर गिरफ्तार करने तक के लिए पुलिस तथाकथित अधिकारिक रूप से तलाश? कर रही है। क्योंकि पुलिस ने साद के विरूद्ध लुक आउट नोटिस भी जारी किया है। यद्यपि साद ‘फरार’ चल रहें है, लेकिन पुलिस ने उन्हे भगोड़ा घोषित नहीं किया है। मीडिया की उक्त कार्यवाही के बाद भी पुलिस ने साद के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं की? कोई भी जांच एजेंसीज इस संबंध में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। यद्यपि साद के वकील का यह दावा है कि पुलिस को उनकी लोकेशन मालूम है व साद पुलिस के निरंतर संपर्क में हैं। मीडिया ने साद की स्थिति (लोकेशन) बतला कर पुलिस को जांच में सहयोग ही प्रदान किया है। लेकिन पुलिस की मीडिया पर इतनी मेहरबानी अवश्य हुई कि, पुलिस ने उसकेे कार्य क्षेत्र में अनावश्यक रूप से दखल देने के लिए मीडिया के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
आखिर हम कैसी कानून व्यवस्था में रह रहे है? जी रहे हैं? देश की राजधानी दिल्ली में पुलिस की जांच कार्य प्रणाली और कानून व्यवस्था ऐसी हो जाए जहां कि, एक अभियुक्त की जब  भी मन, इच्छा और विवेक जागृत होने पर ही वह थाने में जाकर अपना बयान दर्ज करा कर जांच में सहयोग करें, व इस कार्य के लिये पुलिस उसका अहसान मानें। फिर पुलिस उसके गले में माला पहना कर मालायुक्त फोटो को देश में वायरल कर सफलता के लिए अपनी पीठ थपथपाऐं। सफलता शायद इस बात की, कि बिना किसी हिंसा (वायलेंस) व सांप्रदायिक तनाव के एक मुस्लिम अभियुक्त के विरुद्ध सफलतापूर्वक कार्रवाई कर ली? मोहम्मद साद को लेकर पुलिस का अभी तक का आचरण व रवैया लगभग ऐसा ही रहा है।
यह बात तो पुलिस के कार्य संस्कृति (वर्किंग कल्चर) की हो गई। लेकिन जरा कान खोल खोल के और आंखें फाड़ फाड़ के भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता डॉ. सैयद जफर इस्लाम को जानिए,  सुनिए, व उनके कथन (टीव्ही चेनल ‘‘आज तक’’ की बहस में) को समझ कर, उसे अपनी अंतरात्मा में उतारिए? जरूर वह कहते हैं, पुलिस अपना कार्य कर रही है और जब पुलिस, क्राइम ब्रांच, सीबीआई, एनआईए आदि या अन्य जांच एजेंसियां जो कि तबलीगी मरकज (मौलाना मोहम्मद साद से संबंधित) जांच में लगी हुई है, की जांच के दौरान पुलिस कार्यवाही पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। यह कथन ठीक उसी प्रकार का है, जब किसी प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन होने पर उस पर टिप्पणी करते हैं। इस प्रकार जफर इस्लाम ने तो मौलाना मोहम्मद साद साहब की पुलिस जांच और न्यायालय में चल रही कार्रवाई को बराबरी से लाकर एक ही प्लेटफार्म पर रख दिया। उनकी इस नई खोज के लिए भाजपा को साधुवाद। यदि आज विधि विशेषज्ञ पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली जिंदा होते तो, कानून की ऐसी धज्जियां उड़ाने वाली उक्त व्याख्या शायद संभव नहीं हो पाती?
दिल्ली पुलिस प्रशासन द्वारा मोहम्मद साद एवं विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा तबलीगी मरकज (जमात) के विरूद्ध की जा रही जांच की प्रक्रिया पर भाजपा के प्रवक्ता के द्वारा लगाये गए तड़के ने अपराधियों के मन व हौसलों को इतना ऊंचा उठा दिया है कि, अब उन्हें बेखौफ अपराध से बचाव में मौलाना मोहम्मद साद एक आइकॉन के रूप में दिखने लगा है। ज्यादा समय नहीं बीता है, जब लॉकडाउन के नियम तोड़ने के अपराध में यूपी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को 24 घंटे के अंदर ही गिरफ्तार कर लिया गया था। लेकिन साहब! यहां तो ‘‘मौलाना मोहम्मद साद साहब’’ हैं, जो साहब के साथ ‘मौलाना’ भी है, इसलिए जांच की प्रक्रिया, पद्धति और दिशा भी वही तय करेगें। साद के गंभीर अपराधों में लिप्त व नामजद होने (जिसमें उन्हें आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती हैं) के बावजूद उन्हें यह विशेषाधिकार प्राप्त है कि, जांच के लिए न तो पुलिस उनके घर पर छापा मारकर गिरफ्तार करेगी और न ही वे ‘‘कोतवाली’’ जाकर अपने बयान दर्ज कराकर जांच में सहयोग करेंगे। बल्कि एक सफेदपोश अभियुक्त? (व्यक्ति) के समान पुलिस उनको एक नोटिस (प्रेम पत्र) जारी करेगी, जिसका जवाब ‘‘साहब‘‘ होने के कारण उनका ‘‘वकील‘‘ देगा। आगे भी नोटिस और जवाब की यह श्रंखला चलती रहेगी। ठीक उसी प्रकार जैसा कहा जाता है, कि कानून अपना कार्य करता है। आपराधिक न्याय शास्त्र के जांच के तरीके के ऐसे नए फंडे (सिविल कार्यवाही समान) की ईजाद के लिए दिल्ली पुलिस निश्चित रूप से बधाई की पात्र हैं?
भाई साहब! यदि कानून अपना कार्य करता होता तो, फिर उसकी न्यायिक, प्रशासनिक या अन्य किसी तरह की समीक्षा व देखरेख की आवश्यकता ही क्या है? अवधि वाधा विधि (लॉ आफ लिमिटेशन) के नियम, पुलिस की आपराधिक जांच प्रक्रिया में लागू नहीं होते है। इसलिए आप दिल्ली पुलिस से यह प्रश्न भी नहीं पूछ सकते कि, मोहम्मद साद के नमाज के लिए कम से कम आधे घंटे मस्जिद में रहने के बावजूद उसने उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किया जा सका ? यदि उसे गिरफ्तार करना ही नहीं है तो, उस ‘‘बेचारे साहब‘’ को पूरे देशभर में बदनाम क्यों कर रहे हैं? कह दीजिए! आजीवन कारावास के आरोपों सहित आपका आरोपों से युक्त प्रथम सूचना पत्र (एफआईआर) गलत है? या जांच के दौरान यह निष्कर्ष निकाल लिया गया है कि, यह एफ.आई.आर नस्ती करने योग्य है? सिर्फ उनके एक बयान की आवश्यकता भर है? जिस दिन ‘वो‘ बयान हमे उनकी सहुलियत अनुसार दे देंगे, हम यह फाइल नस्ती कर देंगे? आप उनकी गिरफ्तारी की चिंता क्यों कर रहे हैं? मीडिया वालों को भी ऐसी रिपोर्टिंग कैमरे में कैद करने के पहले, अपने पास कम से कम एक स्थाई विधिक सलाहकार जरूर रखना चाहिए। ताकि उन्हें यह जानकारी हो सके कि एफ.आई.आर. में दर्ज किस अभियुक्त की फोटो कैमरे में कैद करना है और किसको नहीं? क्योंकि पुलिस को जिस व्यक्ति को गिरफ्तार करना है, उसकी फोटो ही मीडिया के कैमरे में कैद होनी चाहिए? अन्य किसी की नहीं? वकील होने के कारण इस पूरी कानूनी जांच की प्रक्रिया व व्यवस्था पर मेरा मन बड़ा व्यथित कुपित और क्रोधित है। यही तो मेरे पास रह गया है, जिसे मैं व्यक्त कर सकता हूं। इससे ज्यादा लड़ने की क्षमता व शक्ति मेरे पास अब नहीं रह गई है। लेकिन ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि, राजनीति का इतना घालमेल पुलिस प्रशासन में न होने दंे, जिससे अपराधियों में अपराध करने के पूर्व पुलिस और कानून के डंडे़ का ड़र बिलकुल ही समाप्त हो जाए तथा वह अपराधियों को और ज्यादा अपराध करने के लिए और प्रेरित न कर सकें।
धन्यवाद!

रविवार, 14 जून 2020

‘‘बस’’ का ‘‘लॉकडाउन समाप्त’’ कर ‘‘रोड़ पर लाना’’ शायद सरकार के ‘‘बस’’ में नहीं है?

आप जानते ही है कि, राष्ट्रीय लॉकडाउन घोषित करते समय समस्त प्रकार के सार्वजनिक व निजी क्षत्रों के वाहनों के परिवहन पर प्रतिबंध लगाया गया था। ‘‘कोरोना काल’’ के अनलॉक-1 की अवधि में, कुछ विशिष्ट प्रकार की हवाई यात्राएं व स्पेशल ट्रेनों के आंशिक परिवहन की छूट दी गई है। जहां तक बस का प्रश्न है, मध्यप्रदेश में अभी तक बस के चक्के चलना प्रारंभ नहीं हुये हैं। आप सभी जानते ही है कि, दूरस्थ ग्रामीण इलाकों तक में पहंुचने का एक मात्र साधन आज भी ‘‘बस’’ ही हैं, जो चाहें सार्वजनिक क्षेत्र की हो अथवा निजी क्षेत्र की हो। बस को रोड़ पर न ला पाने में मुख्य रूप से सरकार की नियत व दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी ही दिख रही हैं। बस मालिकों ने सरकार से माँग की थी कि, लॉकडाउन की अवधि में बसें रोड़ पर खड़ी रही है, अतः उनके रोड़ टैक्स में भी छूट दी जावें, साथ ही इंशोरेसं की अवधि को भी उतनी अवधि के लिये आगे बढ़ाया जाय। लेकिन सरकार ने अभी तक उस पर कोई ध्यान नहीं दिया है। 
सरकार ने ‘‘बस’’ की अधिकतम क्षमता (50) सीटों की 50 प्रतिशत सीट अर्थात 25 सीटें भरकर ही बस चलाने का कहां है। जब सरकार स्वयं न तो रोड़ टैक्स को पूर्णतः माफ कर रही है और न ही उसे 50 प्रतिशत (50 प्रतिशत सीटों की सीमित संख्या की अनुमति को देखते हुये) कम कर रही है। तब बढ़ती हुई डीजल ,आईल व अन्य खर्चो को देखते हुये बस की उपरोक्त स्थिति में परिचालन कैसे संभव है? सोशल डिस्टेसिंग के लिये बीच की एक-एक वैकल्पिक सीट खाली रखने के निर्देश के कारण, पूर्व के निर्धारित उतने ही किराये पर बस का परिचालन करना किसी के लिये भी संभव नहीं होगा। इसके लिए तो सरकार को ऑपरेटरों के साथ बैठकर बढ़े हुये खर्चो (50 प्रतिशत सीटों के प्रतिबंध के कारण) को तीन बराबर भागों में अर्थात सरकार, बस आपरेटर व पैसेंजरों के बीच शेयर (बाँट) करना होगा, तभी बस का परिचालन संभव हो सकेगा।  
एक बात की ओर ध्यान रखने की आवश्यकता है कि पूर्व में भी 50 सीट की क्षमता वाली बस में वास्तविकता में 47 सीटों का ही उपयोग परिवहन विभाग के आदेशानुसार संभव हो पाता था। क्योंकि सुरक्षा की दृष्टि से तीन सीटे हटा दी गई थी। लेकिन टैक्स तब भी 50 सीटों का ही लिया जाता था। मुझे यह व्यक्तिगत जानकारी है, जो कि, अभिलेख पर भी है कि, बैतूल में लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों को अपने गृहनगर भेजते समय 50 सीटों की बसों में 63 श्रमिक भेजे गये थे।
जिस प्रकार हवाई जहाज में केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ने बीच की सीट पर बैठना जारी रखा था, वैसे ही सुविधा बस में भी देनी होगी। सोशल डिस्टेसिंग का पालन श्रमिक टेªनों में नहीं हो पाया था। तब फिर उन आम नागरिकों को जो, इन बसों के द्वारा परिवहन करते है उन पर सीटों का प्रतिबंध लगाकर उनकी खास नई विशिष्ट श्रेणी एयर यात्रियों की तुलना में (उन्हे सामान्य बनाकर) क्यांे बनाई जा रही है? बीच की सीट छोड़ने के बाद भी 6 फीट का सोशन डिस्टेसिंग तो मेंटन नहीं हो पा रहा है? तब फिर ऐसे प्रतिबंध लगाने का आचित्य क्या है?
बैतूल बस ऑपरेटरों ने इस संबंध में कलेक्टर बैतूल को एक ज्ञापन भी दिया है जिसके द्वारा उन्होंने अपनी मांग रखी है। मुझे यह बतलाया गया है कि प्रदेश स्तर पर मध्यप्रदेश बस ऑपरेटर संघ ने 1 जून को  मध्यप्रदेश शासन के समक्ष अपनी मांगे रखी है। लेकिन दुर्भाग्यवश अभी तक उस पर कोई निर्णय शासन ने नहीं लिया है। शायद "रोड पर लाने का कार्य" अच्छा नहीं माना जाता है इसलिए "लोकप्रिय शासन" रोड पर चल रहे लोगों को घर भेजने का कार्य को ज्यादा प्राथमिकता देता है। प्रदेश शासन से यह अनुरोध है की  "भुगतती हुई" आम जनता के हित में कुछ न कुछ निर्णय अतिशीघ्र ले, ताकि एक संभ्रांत, निरीह, उपभोक्ता कोरोना काल मैं आए संकटों में कुछ कमी होकर राहत महसूस कर सके और तदनुसार उसके घावों की मरहम पट्टी भी हो जाएl

क्या कोरोना ने ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश एक है’’ की भावना को ‘‘तार-तार’’ तो नहीं कर दिया है?

हमारा देश अनेकता में एकता लिये हुए ऐसा देश है, जिसमें भिन्न-भिन्न संस्कृति, राजनैतिक विचार धाराएं, धार्मिक आस्थाएं नदियों पहाड़ों व जंगलों के साथ सुंदर प्राकृतिक भौगोलिक संरचना होते हुये भी, एकता लिए हुए एक मजबूत देश है। कतिपय संवैधानिक प्रतिबंधों के साथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के नागरिक को कहीं भी घूमने की व जीने की स्वतंत्रता है। देश की वर्तमान शासक पार्टी भाजपा की प्रांरभ से ही यही विचार धारा रही है कि, एक देश, एक संविधान, एक विधान, एक निशान, एक प्रधानमंत्री व एक टेक्स (जीएसटी) हो। अब तो इससे आगे बढ़कर एक ही राशन काडऱ् को न केवल पूरे देश भर में लागू कर दिया गया है, बल्कि किसानों के लिए भी मंड़ी प्रागण क्षेत्र के प्रतिबंध को हटाकर पूरा देश एक ही बाजार की सुविधा भी लागू कर दी गई है। ऐसी एकता में विश्वास रखने वाली भाजपा नीत केन्द्र व राज्यों की सरकारों में इस कोरोना काल में उक्त एकता वाली भावना क्या कुछ-कुछ खंडित तो नहीं हो रही है? प्रश्न यह है। 
याद कीजिए! जब देश व्यापी प्रवासी मजदूरों की समस्या सामने आई, तब केन्द्र सरकार ने उन्हे ट्रेन द्वारा अपने गृह नगर पंहुचाने के लिये संपूर्ण देश के लिये एकछत्र निर्णय न लेकर दो प्रदेशों (भेजने तथा पहंुचने वाले) की अनिवार्य सहमति की शर्त लगा दी थी। फिर इसमें संशोधन कर केवल पंहुचने वाले राज्य की सहमति की शर्त लगाई थी। और अंत में इस शर्त को भी हटा दिया गया। इस प्रकार उक्त आदेश के द्वारा संपूर्ण देश एक क्षेत्र की अवधारणा का पहली बार खंडित होने का आभास हुआ, जिसकी न तो अपेक्षा थी और न आवश्यकता ही थी। इसके पश्चात आंकडांे़ के खेल के चक्कर में (कोरोना जो कि किसी राज्य की नहीं, बल्कि देश व विश्व की समस्या है) कोरोना के आंकड़ों को कम दिखाने की सोच के चलते, अपने राज्य की सीमा के भीतर, दूसरे राज्यों के नागरिकों के आने पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया। क्या यह प्रतिबंध देश की समरसता व ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश एक ही है’’ की भावना का द्योतक है? हद तो तब हो गई, जब देश का दर्पण कहे जाने वाले अर्ध्द लगड़े राज्य व देश की राजधानी दिल्ली ने भी अपने अस्पतालों में दूसरे राज्यों से आने वाले मरीजों के इलाज पर ही प्रतिबंध लगा दिया। जब कोरोना एक राष्ट्रीय समस्या है, तब संकट काल के इस दौर में एक दूसरे राज्यों के संसाधनों की कमी की पूर्ति  राज्यों व केन्द्र को मिलकर क्यों नहीं करना चाहिए? बजाए इसके उक्त कमी पर प्रतिबंध लगाकर उसे दृष्टिगोचर बनाना न तो राष्ट्रीय हित में है और न ही यह देश की राष्ट्रीय एकता का प्रतीक हुआ।                           प्रतिबंध का उद्देश्य व आधार ़संक्रमण को फैलने से रोकना है, न कि संक्रमित व्यक्ति को अपने प्रदेश से दूसरे प्रदेश में भेजकर संक्रमितों की संख्या कम करना। इसलिये ऐसा प्रतिबंध देश में हॉटस्पॉट (रेड़ जोन क्षेत्र में) लगाना ही उचित होता, अन्य जगह नहीं। भविष्य में सरकार को इस तरह के प्रतिबंध लगाने से बचना चाहिये, जो एक नागरिक को अबाध रूप से देश के किसी भी भाग में जाने, रहने इत्यादि पर प्रतिबंध लगाता हो। जब तक अन्य कोई विकल्प न बचे और ऐसा करना राष्ट्रहित में आवश्यक न हो। साथ ही ऐसे प्रतिबंध केवल अस्थायी होने चाहिये।

सुप्रीम‘‘ कोर्ट का ‘‘प्रवासी श्रमिकों’’ के संबंध में ‘वापसी’ का आदेश। कहीं ‘‘क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण’’ तो नहीं?

माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर प्रवासी श्रमिकों के संकट के मुद्दे पर चल रही सुनवाई के दौरान 9 जून को यह आदेश पारित किया कि 15 दिवस के भीतर सभी राज्यों में प्रवासियों की पहचान की जा कर उन्हें उनके मूल स्थान पर पहुंचाया जाए। इस तरह के आदेश देकर माननीय न्यायालय कहीं लोकतंत्र में चुनी गई लोकप्रिय सरकारों से ‘‘लोकप्रिय’’ तमगा छीन कर उक्त तमगे को स्वयं अपने ऊपर तो नहीं लगा रही है? उक्त आदेश पुनः इस प्रश्न को पैदा करता है कि, न्यायपालिका (उच्चतम न्यायालय) ज्यादा संवेदनशील बनकर अपने अधिकार क्षेत्र का शायद अतिक्रमण तो नहीं कर रही है?
याद कीजिए! पूर्व में प्रवासी मजदूरों के जिस तरह पैदल चलने के द्रवित करने वाले दृश्य सामने आ रहे थे। तब उच्चतम न्यायालय ने द्रवित होकर स्वतः संज्ञान लेकर उनको अपने-अपने गृह नगरों में पहुंचाने के आदेश दिए थे। 28 मई को एक अंतरिम आदेश पारित कर मजदूरों से किसी प्रकार कोई किराया न लेने और उन्हें खाना मुहैया कराने की व्यवस्था करने के आदेश जारी किये गए थे। उक्त 28 मई के आदेश द्वारा उच्चतम न्यायालय ने अपने दिनांक 15 मई के पूर्व के आदेश को ही सुधारा था, जिसमें उन्होंने दायर की गई याचिका को यह कहकर निरस्त कर दिया था कि, उच्चतम न्यायालय के लिए यह संभव नहीं है कि, वह ऐसी स्थिति की निगरानी (मॉनिटरिंग) कर सकें। 
केंद्रीय सरकार ने नियोक्ता को लॉकडाउन के दौरान अपने श्रमिकों को वेतन/मजदूरी दिए जाने के निर्देश के साथ ही प्रवासी मजदूरों के लिये यह एडवाइजरी जारी की थी कि, जो जहाँ है, वहीं रहें। साथ ही उनके ठहरने व खाने पीने की व्यवस्था भी उपलब्ध कराई जाएगी। प्रश्न यह पैदा होता है कि बावजूद इसमें असफलता के, उच्चतम न्यायालय ने इस बात का संज्ञान क्यों नहीं लिया कि, नियोक्ताओं ने अपने श्रमिकांे को वेतन मजदूरी दी अथवा नहीं? तथा सरकार ने इनके रहने की खाने की व्यवस्था की अथवा नहीं? सरकार के उस आदेश व एडवाइजरी के उल्लंघन के विरुद्ध कार्रवाई करने के बदले, उच्चतम न्यायालय ने शायद प्रवासी मजदूरों का यह ‘‘संवैधानिक अधिकार’’ माना कि उनको सरकार के खर्चे पर अपने गृह नगर जाने का अधिकार है। तदनुसार  न्यायालय ने सरकार को उक्त आदेश जारी किए।
यदि ‘‘उच्चतम न्यायालय’’ तत्समय सरकार के मजदूरों को वेतन देने के जारी आदेशों/निर्देशों के पालन करवाने के लिए नियोक्ताओं व सरकार को आवश्यक आदेश दे देते तो, शायद प्रवासी मजदूरों की ऐसी समस्या खड़ी ही नहीं होती। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार जारी वैध आदेशों का पालन करवाना है। इसके बजाय सरकार के उक्त आदेश के पालन न हो पाने से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा वैकल्पिक व्यवस्था बतौर आदेश पारित करना निश्चित रूप से मानवीय है। लेकिन क्या वह वह उतना ही उसके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत संवैधानिक भी है? लगभग 8 से 9 करोड़ प्रवासी श्रमिकों में से अभी तक सरकार ने मात्र लगभग 1 करोड़ श्रमिकों का सरकारी साधनों से उनके गृहनगर पहुचाया है। इसके अतिरिक्त असंख्य अनगिनत श्रमिक पैदल या स्वतः के साधनों से अपने गृहनगर पंहुचे हैं। इनका न तो कोई एकीकृत राष्ट्रीय आंकडा है और न ही ऐसा कोई आंकड़ा उच्चतम न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया है। 
फिर किस आधार पर 15 दिन के भीतर वापस (उनके) घर भेजने के आदेश दिये गये है? 15 दिवस की यह व्यवस्था का आंकलन करने का कार्य उच्चतम न्यायालय का नहीं था, बल्कि इसे सरकार पर छोड़ दिया जाना  चाहिए था। उस स्थिति में, जब स्वयं उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र, राज्य सरकारों व केन्द्र शासित प्रदेशों को यह निर्देश दिया था कि वे प्रवासी मजदूरों की सुव्यवस्थित तरीकों से पहचान हेतु सूची बनाय व मजदूरों की स्किल मैपिंग करंे। न्यायालय को कम से कम सूची तैयार होने तक आदेश पारित करने से रूकना था। आंकड़ा उपलब्ध हो जाने के बाद 15 दिवस व अन्य कोई अवधि आंकड़ों व सरकार की सुविधानुसार तय की जाती, तो ज्यादा कार्यशील व प्रभावी होती। 15 दिवस में मजदूरों को अपने घर पंहुचाने का कोई आधार, इन आंकडों व कार्ययोजना के अभाव में उच्चतम न्यायालय के पास नहीं है। खासकर उस स्थिति को देखते हुये, जब सरकार को लगभग 1 करोड़ श्रमिकांे को उनके घर पंहुचाने में ही लगभग एक माह से ज्यादा समय लग गया।
हमारे देश का लोकतंत्र जिस संवैधानिक व्यवस्था पर खड़ा है, उसमें विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका समान व बराबर रूप से भागीदार हैं। तीनों के क्षेत्राधिकार वर्णित व निश्चित हैं। तथापि उच्चतम न्यायालय, ‘‘विधायिका’’ द्वारा पारित कानून को अवैध घोषित कर सकता है। बल्कि कई मामले में केशवानंद भारती के प्रकरण द्वारा प्रतिपादित सिंद्धात कि संविधान की मूल भावना (बुनियादी संरचना) में परिर्वतन नहीं किया जा सकता है के आधार पर किये भी हैं। यानी व्यवहार में, सुप्रीम कोर्ट अपने को कई बार सुर्प्रीम मानने लगता है। इसीलिए कभी-कभी उच्चतम न्यायालय के निर्णय दभोंक्ति (घमंड़) युक्त प्रतीत होते है, जैसे सीबीआई को ‘‘पिंजरे का तोता’’ कहना। इस सुप्रीमोंसी के कारण ही कई बार उच्चतम न्यायालय पर ‘‘अति न्यायिक सक्रियता’’ के आरोप भी जड़ दिये गये। शायद सुर्प्रीम कोर्ट ही मात्र एक ऐसी संवैधानिक संस्था है, जिसमें ‘‘सुप्रीम’’ शब्द जुड़ा है। ऐसा लगता है, यह ‘‘सुप्रीम’’ शब्द स्वयं की उपस्थिति का एहसास कराने की दृष्टि से कभी-कभी, उच्चतम न्यायालय इस सुप्रीम शब्द से प्रभावित होकर अपने निर्णय के द्वारा कार्यपालिका पर सुर्प्रीम स्थिति स्थापित कर देता है। इसी कारण से कई बार ऐसे विषयों पर न्यायिक निर्णय आ जाते हैं, जो मूलतः सरकारों के न केवल क्षेत्राधिकार में होते है, बल्कि लोकप्रिय सरकार के नाते उनका यह दायित्व, कर्तव्य व कार्य भी होता है। लेकिन अपनी सीमित व्यवस्था के चलते सरकार उन पर समय पर सही निर्णय नहीं ले पाती है।
उच्चतम न्यायालय ने पुनः आज ही स्वतः संज्ञान लेते हुये दिल्ली के अस्पतालों में मरीजों व शवों की र्ददनाक, भयानक स्थिति को देखते हुये अस्पतालों की बदहाली पर दिल्ली, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र राज्य सरकार को नोटिस जारी करने के आदेश दिये है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के एक शेल्टर होम में 35 बच्चों के कोरोना संक्रमित होने पर भी राज्य सरकार से पूछा है, कि वह बच्चों की सुरक्षा के लिए क्या कदम उठा रही है। यह पुनः सरकार की अक्रमणता को ही दिखाता है। तब ऐसे संवेदनशील मामलों में कई बार न्यायपालिका ऐसे निर्णय पारित करने में मजबूर हो जाती है। यद्यपि वे आदेश पूर्णतः जनहित में होते है, इसलिए ‘‘लोकप्रिय’’ सरकार के बदले ऐसे निर्णय न्यायालय को ‘‘लोकप्रिय’’ बना देते है। पर वास्तव में वह उच्चतम न्यायालय के कार्य क्षेत्र में नहीं होता है। प्रवासी मजदूरों के संबंध में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित प्रथम आदेश व बाद में (इसी विषय पर) पारित अन्य आदेशों से यही बात प्रतीत होती है।    
अंत में ‘‘क्षेत्राधिकार’’ में हस्तक्षेप से संबंधित सभी उपरोक्त बातों पर विचार करने के बावजूद  हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि देश में लोकतंत्र के चारों स्तंभों में से केवल न्यायपालिका की ही विश्वसनीयता वर्तमान में बची हुई है। बाकी तीनों स्तंभों की छवि जनता की नजरों में अत्यंत धूमिल हो चुकी है। अतः न्यायपालिका से हम सहमत हों या असहमत, उनके निर्णयों को जस का तस स्वीकार करना यह हमारी विवशता है, जब तक कि कार्यपालिका अपनी उपरोक्त समस्त कमजोरियों को दूर कर न्यायपालिका को हावी होने का मौका नहीं देती है। तब तक तो राष्ट्र हित में यह आवश्यक भी है।

शुक्रवार, 12 जून 2020

क्या परिपक्व होते लोकतंत्र में ‘‘सरकारे’’ ‘‘गिराई’’ जाती है? अथवा ‘‘बनाई’’ जाती है?

 
राजस्थान
में राज्य सभा के हो रहे चुनाव के संदर्भ में कांग्रेस का यह बयान आया है कि, राजस्थान में भी भाजपा ने  मध्य प्रदेश के समान ही‘ ऑपरेशन कमल‘ पर अमल करना शुरू कर दिया है। भाजपा खरीद फरोख्त के द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को गिराने का प्रयास कर रही है। विधायक दल के सचेतक द्वारा इसकी भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को भी शिकायत की गई है। भाजपा के ऑफरेशन लोटस का ‘‘खौफ‘‘ इतना ज्यादा है कि स्वयं की सरकार पर्याप्त बहुमत के होते हुए भी राजस्थान के मुख्यमंत्री को अपने विधायकों की ‘मनः स्थिति की सुरक्षा‘ के लिए उन्हें शारीरिक रूप से लगभग बंधक जैसी स्थिति में फाइव स्टार रिसॉर्टस में रखना पड़ रहा है। वैसे भी इस कोरोना कॉल की संकटकालीन अवधि में वीआईपी लोगों के द्वारा क्वॉरेंटाइन होने के लिए फाइव स्टार होटलों का उपयोग तो बहुत हो रहा है। लेकिन क्या यहां पर विधायकों को सामूहिक रूप से रखा जाएगा, ताकि वे एक दूसरे का चेहरा (हाव भाव) देखते रहकर अपना मनोबल बनाए रख सकें, जिससे उनकी मनः स्थिति स्थिर रह सकें। अथवा प्रत्येक विधायक को अलग-अलग क्वॉरेंटाइन में रखकर ‘अर्थ‘(धन) रूपी शहद के साथ लिपटे हुए विपक्षी विचारों से दूर रखकर, अपने मूल विचारों को बनाए रखने में यह ‘क्वॉरेंटाइन की यह एकाग्रता उनके काम आएगी? यह फिलहाल शोध का विषय है।
लेकिन आज मैं यहां पर इस विषय की चर्चा करना चाहता हूं व इस बाबत कई बार लिख भी चुका हूं कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा परिपक्व होता हुआ लोकतंत्र है। परंतु क्या हमारे देश में लोकतंत्र  वास्तव में ‘परिपक्व‘ हो रहा है? वर्तमान ‘‘राजनीति’’ ने यह प्रश्न पैदा कर दिया है। गुजरते समय के साथ-साथ हमारा तथाकथित परिपक्व लोकतंत्र मूल और मौलिक सिद्धांतों को ही भूलते व त्यागते जा रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा, बल्कि ज्यादा उचित होगा कि हमारे राजनैतिक नेता गण, ‘‘लोकतंत्र’’ को उसके मूल और मौलिक सिद्धांतों से दूर लेकर जा रहे हैं। वैसे भी सिद्धांत बचे कहां है? इसलिए सिद्धांतों की बात करना ही बेकार है व समय की बर्बादी मात्र ही हैं। 
लोकतंत्र में शासक नेता चुनाव के द्वारा चुना जाता है। बहुमत वाली पार्टी को राज्यपाल सरकार बनाने के लिए निमंत्रित करता है। सरकार पांच साल की अपनी कार्य अवधि पूर्ण करने के पश्चात, अपने कार्यकाल के दौरान किए गए कार्यों के आधार पर पुनः जनता के बीच जाकर वोट मांग कर दुबारा सत्तारूढ़ होने के लिये जनता से आदेश लेने का प्रयास करती है। लोकतंत्र की यही परिपक्व व्यवस्था होनी भी चाहिये। जब भी सरकार अपनी घोषणा पत्र द्वारा निर्धारित दिशा से व प्राप्त जनादेश से विमुख हो जाती हैं, तब जनता उसके विरोध में खड़ी हो जाती है। चुनी गई सरकार के विरुद्ध संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार के रहते, जनविरोधी नीतियों और कार्यों के विरुद्ध प्रदेश व्यापी आंदोलन खड़े हो जाते हैं, और सरकार को कार्य करने में अत्यधिक कठिनाई होने लगती है। तब अपनी अकर्मण्यता व अपने अलोकप्रिय कार्यों के पापों के भार तले, दबकर सरकार को इस्तीफा देने के लिये मजबूर होना पड़ता है। ऐसी स्थिति से उत्पन्न रिक्तता को भरने के लिए विपक्षी दल बहुमत का दावा कर सकते हैं। राज्यपाल की ‘‘संतुष्टि‘‘ होने पर राज्यपाल उन्हें सरकार बनाने के लिए बुलावा दे सकते हैं। अतः स्पष्ट है लोकतंत्र में सरकार बनाई जाती है, गिराई नहीं। बल्कि पाप व अंर्तकलह के कारण वह स्वयं के मार से घड़ा भरने पर गिर जाती है। जबकि गिराने वाला दल हमेशा ही ऐेसा दावा करता है जैसा कि कोरोना काल में मध्य प्रदेश में हुआ था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के वायरल होते बयान ने उक्त स्थिति को और स्पष्ट कर दिया। 
लोकतंत्र की यही सही परिभाषा है। लोकतंत्र वह नहीं है, जहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई चलती हुई सरकारों को ‘धनबल‘ ‘बाहुबल‘ के प्रलोभन और दबाव के आधार पर संख्या बल का अंकगणित साध कर, गिरा कर सरकार बनाने का दावा पेश किया जाए? एक श्रेष्ठ व स्वयंम ‘‘लोकतंत्र’’ में सरकार गिरना स्वयं के पापों व कार्यो की अक्षमता का परिणाम होना चाहिए। उसमें विपक्षी दल की कोई उत्प्रेरक का तड़का लगाने की भूमिका नहीं होनी चाहिए। रिक्त स्थान की पूर्ति करने लिए मध्यावधि चुनाव से बचने के लिए सामने वाले की तुलना में अपने से बेहतर प्रदर्शन का दावा करते हुए ही नई सरकार बननी चाहिए। लेकिन ‘‘महाराज’’! क्या आज हम देश के किसी भी प्रान्त में ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं? और यदि नहीं, तो फिर क्या अब समय इस बात पर गंभीरता से विचार करने का नहीं आ गया है, जब दल बदल विरोधी कानून को पुनः इस तरह से संशोधित किया जाए, ताकि विधायकों की खरीद फरोख्त पर वास्तविक रोक लग सके। इसके लिए वर्तमान दल बदल विरोधी कानून में संख्या नियम का प्रावधान कर संशोधित किये जाने की आवश्यकता है। वर्तमान में जो भी विधायक दल बदल विरोधी कानून के वर्तमान प्रावधानों को परास्त करने के उद्देश्य से इस्तीफा देकर सरकार गिराने में सहयोग करते है, भागीदार बनते है, उनके उसी जगह से (जहां से वह 6 महीने के भीतर चुनाव लड़कर पुनः विधायक बन जाते है) विधानसभा की बची शेष अवधि के लिए होने वाले उप-चुनाव लड़ने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। अर्थात इस्तीफा देने के बाद उस विधायक को शेष अवधि के लिए चुनाव लड़ने की पात्रता कदापि नहीं होनी चाहिए। तब इस तरह से दल बदल विरोधी कानून का मजाक नहीं उड़ाया जा सकेगा। इस प्रकार यह संशोधन दल बदल विरोधी कानून को प्रभावी रूप से उसमें निहित भावनाओं के अनुरूप लागू करने में कारगर सिद्ध होगा। पहले मध्यप्रदेश, फिर गुजरात व राजस्थान राज्यों में कोरोना काल में घट रही ऐसी राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने वाली ‘‘बीमारी’’ को क्या कोरोना वायरस ठीक कर कुछ अन्य अच्छाई के समान भी यह अच्छाई भी कोरोना काल की कुछ उपलब्धियों में जुड़ जायेगी? जय हो कोरोना देवी!   

गुरुवार, 11 जून 2020

क्या ‘‘कोरोना’’ ने ‘‘अरविंद केजरीवाल’’ के दिमाग को ‘‘ठीक’’ कर दिया है?



वैसे तो इस कोरोना काल में इस कोरोना वायरस ने एक से एक व्यवस्थाएँ, प्रणालियाँ और हस्तियों को संक्रमित कर नेस्ताबूद कर दिया है। लेकिन लगता है, अरविंद केजरीवाल इस कोरोना के भी ‘बाप’ निकले। उनका कोरोना टेस्ट रिपोर्ट अभी आई है, जो निगेटिव निकली। ईश्वर का धन्यवाद। वे पूर्णता स्वस्थ रहें और दिल्ली की जनता की अनवरत सेवा करते रहें। कोरोना ने जहां मानव को संक्रमित बनाने का अपना प्राकृतिक कार्य ही किया है, वहां ऐसा लगता है कि केजरीवाल के मामले में कोरोना ने अपने कार्य की प्रकृति (ध्वंसत्मक) के विपरीत उनके दिमाग को दुरुस्त कर ‘सुधार‘ दिया है। 
आज का अरविंद केजरीवाल का मीडिया के द्वारा जनता को संबोधन। इस संबोधन में उन्होंने समस्त राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एकजुटता से कोरोना से लड़ने का आह्वान किया है। केंद्र सरकार द्वारा प्रदेश के बाहर के नागरिकों के इलाज से संबंधित जारी किए गए दो आदेशों को, लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से निरस्त करने के आदेश को भी उन्होंने एक ‘‘खिलाड़ी भावना’’ के रूप में लिया है। केन्द्रीय सरकार के निर्णय को मानकर उपराज्यपाल के आदेश को पूरी क्षमता के साथ लागू करेगें, यह आश्वासन भी उन्होंने दिया है। मीडिया द्वारा उनकी सरकार की कमियाँं खासकर विभिन्न अस्पतालों में खाली बिस्तरों के संबंध में बनाए गए ‘ऐप‘ की आलोचना को भी उन्होंने हृदय से गले लगाया है। साथ ही भविष्य में इसी तरह की कमियों को दर्शाने व सामने लाने का अनुरोध भी किया है, ताकि स्थिति को सुधारा जा सके। कोई व्यवस्था पूर्ण नहीं है तथा दिल्ली सरकार में भी कमियाँ है, यह स्वीकार कर उन्होंने अपने (छुपे हुये?) बड़प्पन को ही दर्शित किया है।  
प्रश्न यही है कि, क्या ये वही अरविंद केजरीवाल हैं जिन्होंने अपने पहले दिल्ली के आम चुनाव के समय प्रधानमंत्री मोदी से लेकर कांग्रेस को खूब पानी पी पी कर कोसा था। आलोचना इस सीमा तक पहुंच गई थी कि, दिल्ली की रोड, गलियां नालियां आदि कोई भी समस्या के लिए भी लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराने में उन्होंने कोई कोताई नहीं बरती थी। दिल्ली के दूसरे आम चुनाव के समय में आलोचना करते-करते (खासकर नरेंद्र मोदी के प्रति) उन्हें यह बात समझ में आ गई थी कि, दिल्ली के चुनाव को किसी भी हालत में नरेंद्र मोदी विरुद्ध अरविंद केजरीवाल न होने दें। इसलिए उस चुनाव में उन्होंने नरेंद्र मोदी का कहीं भी न तो नाम लिया और न ही किसी भी रूप में उनकी आलोचना की। लेकिन भाजपा से लेकर कांग्रेस और उनके नेताओं की वे व उनके साथी गण बराबर आलोचना करते रहे। वास्तव में यह कोरोना काल की देश की और दिल्ली के लिए ‘बदले हुए केजरीवाल‘ के रूप में एक उपलब्धि है। लेकिन क्या  केजरीवाल की उक्त भावना वास्तव में  धरातल पर उतर पायेगी? यह देखना दिलचस्प होगा?  टेलीविजन बहसों में ‘‘आप’’ के प्रवक्ता जिस तरह से भाजपा व कांग्रेस पर आरोप लगाते है, क्या यह केजरीवाल की मौन सहमति के बिना संभव है? क्योंकि प्रवक्ता तो पार्टी की तय नीति के तहत ही निर्देशित रूप से बहस करते है? वैसे कुछ लोग इसे केजरीवाल की (बचाव के साथ भविष्य के आक्रमण की) नई राजनैतिक कार्य प्रणाली भी मान सकते है। कोरोना काल में कोरोना से बचने के लिये सावधानी के कदमों को अपनाने से कोरोना ने व्यक्तिगत व सार्वजनिक जीवन में बीमारी के साथ कुछ अच्छा होने के परिणाम भी दिये है, जिनके साथ-साथ यह भी (केजरीवाल) एक उपलब्धि माना जाना चाहिए। 

शनिवार, 6 जून 2020

विश्व में ‘‘लाॅकडाउन की नीति’’ कहीं ‘गलत’ व ‘‘असफल’’ तो सिध्द नहीं हो रही है?

‘‘कोरोनावायरस’’ ‘‘(कोविड़-19)’’ के संक्रमण को रोकने के लिये कमोवेश पूरे विश्व में लाॅकडाउन की नीति अपनाई, जिसके परिणाम स्वरूप आज विश्व के लगभग 200 देशों की आधी से ज्यादा आबादी घर में कैद है, और आर्थिक रथ का चक्का जाम हो गया हैं। इसके बावजूद कमोवेश कुछ को छोड़कर प्रायः हर देश में संक्रमित मरीजों की संख्या में औसतन वृद्धि ही हो रही है।हमारा देश भारत भी इससे अछूता नहीं बचा है। तो फिर क्यांे न यह माना जाए कि कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिये लाॅकडाउन की नीति ही मूल रूप से गलत हैं? इसलिए कि इससे संक्रमण को रोकने के घोेषित उद्देश्य की प्राप्ति तो हुई नहीं ? अलावा इसके परिणाम स्वरूप सभी देशों का आर्थिक स्वास्थ्य बीमार हो जाने के कारण इससे पैदा हुई दूसरी नई (आर्थिक) बीमारी के चलते अधिकांश देश बेरोजगारी व आर्थिक मंदी के गर्त में चले गये। आज विश्व में कुल संक्रमितों की संख्या लगभग 6740321 व भारत में 233045 है। इन संख्या को दो भागों ‘‘लाॅकडाउन के पूर्व’’ व ‘‘लाॅकडाउन के बाद में‘‘ बांट कर देखें तो, आइने के समान यह स्पष्ट हो जाता है कि, लाॅकडाउन रहने के बावजूद, अधिकतर देशों में संक्रमितों की संख्या में लगातार वृद्धि ही होते जा रही है। 
वृद्धि के इन आंकड़ों के घन-चक्कर मंें हम अभी तक पूर्ण रूप से यह सुनिश्चित निष्कर्ष ही नहीं निकाल पा रहे हैं कि, कोरोना वायरस से बचने के लिए लाॅकडाउन के औचित्य को सिद्ध करने के लिये जो मुख्य तीन सावधानियाँ बरतने की सलाह दी गई है, क्या वे पूर्णतः प्रमाणिक सिद्ध (साधन) हैं? व पर्याप्त है? ये तीन मुख्य सावधानियां है (1) मास्क पहनना (2) 6 फीट की मानव-दूरी बनाये रखना और (3) निरतंर सफाई (सैनिटाइजेशन) करते रहना। इनके अतिरिक्त तापमान जांच (र्थमल स्क्रीनिंग)े की भी सलाह दी गई है। साथ ही अधिकतम कोरोना टेस्टिंग को सर्वथा सावधानी वाला कदम संक्रमण रोकने के लियें बतलाया गया है। आइये, अब जरा इन सावधानियांे व जांचों की पूर्णता व प्रमाणिकता की लाकडाउन के सापेक्ष में चर्चा कर, देखें। 
सर्वप्रथम मास्क की बात लंे। तीन तरह के मास्क बतलाये गये हंै। ट्रिपल लेयर (40 प्रतिशत संक्रमण से बचत), सिक्स लेयर (80 प्रतिशत संक्रमण से बचत) व एन-95। शुरू शुरू में यह बताया गया था कि रेटिंग एन-95 वाले मास्क सर्वश्रेष्ठ हैं। परन्तु बाद में, सांस लेने में तकलीफ महसूस करने वाले मरीजों को इस एन-95 मास्क का अधिक समय तक उपयोग नहीं करने की सलाह भी दी गई है। मास्कों के उपयोग के संबंध में एक बात और स्पष्ट की गई है कि, खांसी, जुकाम, बुखार या छीकें नहीं आती हों तो, सामान्यतया मास्क पहनने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन सावधानी के लिये सामने वाले व्यक्ति के संक्रमण से बचने के लिये यह जरूरी है। सर्वप्रथम प्रश्न तो यही है कि, हमारे देश के लोगों की आदतों के मद्देनजर संक्रमण को रोकने के लिये क्या मास्क पूरी तरह से सुरक्षित हैं। हमारे देश के अधिकांश नागरिकों को मास्क पहनने की आदत नहीं है। इसलिये वे जब मास्क पहनते हंै तो, उसे ठीक करने के लिये बार-बार उनका हाथ आंख, नाक व मुँह को स्पर्श करता हैं, जो वस्तुतः हमारे डी.एन.ए. में ही शामिल है। ऐसे स्पर्श से एकदम बचने की सलाह डाॅक्टरों द्वारा दी गई है। क्योकि इस तरह के स्पर्श से वायरस हमारे शरीर को संक्रमित कर सकता है, जो मास्क लगाने के उद्देश्य को ही व्यर्थ सिद्ध कर देता है। यह भी बतलाया गया है कि, कोरोना वायरस शरीर में आँख, नाक, मुँह, व कान  के जरिये ही शरीर में पंहुच सकता है। इसीलिये फेस मास्क लगाने की बात भी की गई है। चश्मा पहनकर भी आंखों के स्पर्श को रोका जा सकता है। अतः इन सबसे यह स्पष्ट है कि कम से कम मास्क, फेस मास्क व चश्मे के उपयोग के लिये तो लाॅकडाउन लागू करने की कतई आवश्यकता नहीं है। 
अब आइये! दूसरी सुरक्षा सावधानी, याने अपने हाथों को सैनिटाइजर, साबुन या हेड़वाश से लगातार धोते रहने की चर्चा कर लंे। सही तरीके से बार-बार हाथ धोयें। हाथ मिलाना छोडे़, नमस्ते करें। सैनिटाइजर के संबंध में यह कहा गया है कि, उसमें कम से कम 60-70 प्रतिशत अल्कोहल होना चाहिये। कुछ जगहों पर ऐसे सैनिटाइजर (अल्कोहल युक्त) के उपयोग करने पर आग लगने के समाचार भी सामने आये है। स्पष्ट है स्वच्छता बनाये रखने के लिये उपरोक्त वस्तुओं के उपयोग के साथ तापमान जांच व टेस्टिंग के लिये भी लाॅकडाउन जरूरी नहीं है। 
इस लेख के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर आने के पूर्व मैं आपका ध्यान इस बात की ओर भी आकर्षित करना चाहता हूं कि, एक अनुमान के अनुसार, संक्रमित रोगी के ठीक होकर निगेटिव रिपोर्ट आ जाने के बावजूद भी इनमें से 14 प्रतिशत लोगों की फिर से (वायरस की) पाजिटिव रिपोर्ट आई, है जिसे बाउसिंग बैक कहा गया है। यह वायरस के फिर से संक्रमण से बैक (वापस) होने के कारण नहीं हो रहा है, बल्कि रोगी की प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाने के कारण, शरीर में पहले से ही मौजूद कमजोर पड़े वायरस के उसके पुनः शरीर पर हमला कर देने से हो रहा है। क्या ऐसे मरीजों को लाॅकडाउन के द्वारा संक्रमित होने से बचाया जा सकता है? 
आईये अब, मुख्य मुददे पर आ जायें। कोरोना संक्रमण को रोकने का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण मूल हथियार प्रायः पूरे विश्व में सोशल डिम्टेसिंग, ह्नयूमेन डिस्टेसिंग या मानव-दूरी को ही माना गया है। सोशल डिस्टेसिंग का मूल उद्देश्य संक्रमित व्यक्ति के नजदीक आने पर विषाणु युक्त कणों के  आँख व नाक या सांस के रास्ते आपके शरीर में प्रवेश करने पर रोक लगाना है। परस्पर बातचीत से भी ‘‘वायरस’’ संक्रमण हो सकता है, इसलिये भी मानव-दूरी की आवश्यकता बतलाई गई है। मूलतः 6 फीट की मानव-दूरी की मूल सावधानी को बनाये रखने के लिये ही लाॅकडाउन घोषित करना पड़ा था। कोरोना वायरस के बदलते रूप, व्यवहार के कारण कोरोना के लक्षण जैसे फ्लू, बुखार, नजला, सर्दी, जुकाम, खांसी, सांस लेने में तकलीफ होना आदि कोई भी लक्षण का दिखना भी अब जरूरी नहीं माना जा रहा है। अर्थात बिना किसी लक्षण के भी कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमित हो सकता है। स्वाद या गंध का महसूस न होना भी कोरोना के नये लक्षण बतलाये गये है। यह कहा गया है कि संक्रमित व्यक्ति के खांसने, छींकने से मुँह से निकलने वाली छोटी-छोटी बूंदो के ड्राप लेटस अधिकतम 6 से 12 फीट की दूरी तक की सतह पर गिर सकते है, जो हवा में भी काफी समय तक तैरते रहते हैं व सतह पर 1-2 दिनों से लेकर कभी कभी 9 दिनों तक भी जिंदा रह सकते हंै। अतः छींकने व खांसने के दौरान स्वयं अपने मुँह पर अपनी कोहनी रखें तथा जो लोग छीक या खांस रहे है, उनसे मानव-दूरी बनाये रखें। 
मानव-दूरी बनाये रखने के उपरोक्त समस्त कारणों के बावजूद यदि बिना मानव-दूरी  बनाये फेस मास्क लगाकर किसी भी सतह को न छूने की सावधानी बरतते हुये हम जीवन व्यतीत करे, तो भी क्या कोरोना वायरस संक्रमन होगा? उत्तर यदि ‘नहीं’ है, तो फिर मानव-दूरी की आवश्यकता क्यों है? और यदि मानव-दूरी की आवश्यकता नहीं है तो फिर, लाॅकडाउन की आवश्यकता क्यों है? लाॅकडाउन करके देश का आर्थिक लाॅकडाउन क्यों कर दिया गया? 
एक बात और। जब सरकार व सामाजिक संगठनांे ने मीडिया व अन्य विभिन्न प्रचार साधनों के माध्यम से देश के नागरिकों को यह बता दिया था कि, कोराना वायरस से संक्रमित होने से बचने के लिये मास्क पहनना, बार-बार हाथ धोना, सैनिटाइजेशन करना व मानव-दूरी बनाये रखना  जरूरी है। तब कुछ प्रतिशत नागरिक जो उपरोक्त सावधानियां नहीं बरत रहे है, जिस कारण वे राष्ट्रीय महामारी अधिनियम 1897 व अन्य कानूनों के उल्लघंन करने के दोषी होने से अपराधी हैं। तो फिर ऐसे अपराधियों को उनके स्वयं के द्वारा बरती गई लापरवाही के लिये, (उनके जीवन को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से), उनके हित को बहुसंख्य नागरिकांे के हित व देश हित (आर्थिक मंदी) से ऊपर रखकर, लाॅकडाउन बढ़ाया जाना, क्या कदापि उचित कदम था? लाॅकडाउन बढ़ाते समय सरकार व विपक्ष सभी को इस बात को भी समझना चाहिये था। 
याद कीजिए! किसी भी विपक्षी दल ने ‘‘लाॅकडाउन की नीति’’ का संैद्धान्तिक विरोध नहीं किया। बल्कि विरोधी पाटियों के कुछ मुख्यमंत्रियों ने तो राष्ट्रीय लाॅकडाउन 2, 3 व 4 बढ़ाने की घोषणा के पूर्व ही, स्वयंमेव लाॅकडाउन बढ़ाने की घोषणा कर दी थी। केन्द्र ने भी मुख्यमंत्रियों व विपक्ष से लगातार चर्चा व नागरिकों से मांगे गये सुझावों के उपरांत ही लाॅकडाउन बढ़ाया था। इसके बावजूद विपक्षी दल राजनीति के तहत, अब लाॅकडाउन घोषित करने की नीति को ही गलत बताने में लगे हुए है। यानी ‘‘चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी’’। राहुल गांधी का लाॅकडाउन को विफल कहने वाला आज का बयान तो निहायत ही गंदी राजनीति का निकृष्ट नंगा प्रदर्शन मात्र है। वे प्रधानमंत्री पद के कांग्रेस के घोषित उम्मीदवार है। ऐसे छाया (शैड़ो) प्रधानमंत्री (जैसे ब्रिटेन, न्यूजीलैंड में) होते हुये उन्होंने तत्समय सुझाव क्यों नहीं दिये? तब स्पष्ट रूप से लाॅकडाउन गलत क्यों नहीं ठहराया ? जो उनका दायित्व था। राहुल गांधी का उक्त कथन वैसे ही है, जैसा कि उनके द्वारा अमेठी से स्वतः फार्म भरने के बावजूद चुनाव हार जाने के उपरान्त फार्म भरने के उनके निर्णय को ही स्वयं गलत बतलाना।  
ठीक इसी प्रकार सत्तापक्ष के पास भी इस बात का कोई तर्क संगत उचित जवाब नहीं है कि, लाॅकडाउन यदि सफल रहा है तो, दिन प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या में इतनी तेजी से बढ़ोत्री क्यों हो रही है?यदि काल्पनिक कोरोना वृद्धि (20 लाख मरीज स्वास्थ्य विभाग का एक पूर्वानुमानुसार) को रोका गया है, तो फिर लाॅकडाउन-04 की समाप्ति के बाद तेजी से बढ़ती हुई चिंताजनक  संख्या के आंशका के रहते, स्वास्थ्य विभाग केे आंकलन (उपरोक्तानुसार) से काल्पनिक मरीजों की संख्या देढ़ दो करोड़ से भी ऊपर जा सकती है। तो फिर इसे रोकने के लिए लाॅकडाउन आगे बढ़ाकर लाॅकडाउन-05 घोषित क्यों नहीं किया गया? मतलब साफ है कि कोई भी कोरोना के भविष्य का सही सही आंकलन नहीं कर सकता है। इसीलिए देश को कोरोना वायरस के लगभग 3 प्रतिशत मृत्यु दर के आंकड़ों के साथ बावजूद हर हालत में जीने की आदत के साथ आर्थिक पहिये पीछे जाने से रोककर, उसे आगे ले जाना ही पड़ेगा। यही बात मैं पिछले दो महीने से लेखों में लिख रहा हूँ। 
उपरोक्त निष्कर्ष पूर्णतः नहीं तो यदि निकटतम भी सही है, तो फिर देश में इतना लम्बा लाॅकडाउन लगाकर आर्थिक स्थिति को गर्त में क्यों धकेला गया? वित्त मंत्रालय का आज ही जारी नई योजनाओं पर एक साल तक रोक लगाने का निर्देश खराब आर्थिक स्थिति का ही घोतक है। जीडीपी ग्रोथ का घड़ाम से गिरकर न केवल उसका ग्राफ का लगभग समतल हो जाना बल्कि उसके और ऋणात्मक स्थिति का अनुमान की आंशका बताई जा रही है। आखिर, हुये इस नुकसान की भरपायी कैसे होगी? व कौन करेगा? मात्र अधिकतम 7 दिन का लाॅकडाउन घोषित करके क्या जनता को शिक्षित व सचेत नहीं किया जा सकता था? क्या वह पर्याप्त नहीं होता? स्पष्ट है, सरकार ने आर्थिक स्थिति के गर्त में पंहुच जाने के बाद अनलाॅक-1 की जो घोषणा की है, वह अधिकतम प्रथम लाॅकडाउन के तुरंत बाद ही कर देना चाहिये था, जिससे कम से कम देश की आर्थिक ट्रेन तो पटरी से नहीं उतरती। इस तरह ‘‘जान व जहान’’ दोनों बच जाते व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का उक्त मंत्र सिद्ध भी हो जाता तथा देश आंशिक रूप से गलत नीति के लागू होने से उत्पन्न संकट से भी बच जाता।

शुक्रवार, 5 जून 2020

‘‘आंकड़ों’’ के ‘‘खेल’’ की ‘‘बाजीगरी’’ द्वारा ‘‘कोरोना’’ पर ‘‘राजनीति’’क्यों?


कोरोना वायरस को भारत में आए 4 महीने पूर्ण हो चुके हैं। हमारे देश में प्रथम मरीज 30 जनवरी को केरल के ‘‘त्रिशूर’’ में आया था। ‘‘कोरोना’’ (कोविड़-19) राष्ट्रीय महामारी और आपदा के रूप में, हमारे देश के लिये एक अत्यंत चिंता का विषय था। इसलिए सत्ता और विपक्ष के साथ देश की संपूर्ण जनता 30 जनवरी को एक साथ खड़ी हुई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 24 मार्च को राष्ट्रीय लॉक डाउन घोषित करने के समय तक देश ने लगभग पूरी ऐकमतता व एकजुटता दिखाई थी। लेकिन इसके बाद शनैः शनैः ‘‘कोरोना नीति‘ पर ‘‘राजनीति‘‘ हावी होती गई। यथा, कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने पर ध्यान कम, कोरोना संक्रमित बीमारों व मृतकों के आंकड़ों के खेल की बाजीगरी द्वारा स्वयं को सफल व अपने विपक्षी को असफल सिद्ध करने के लिये ज्यादा चल पड़ी! 
सत्ता पक्ष लॉक डाउन लगाने के द्वारा हासिल आंकड़ों से यह सिद्ध करने पर तुला हुआ है कि, विश्व के अधिकांश देशों की तुलना में हमारे देश में संक्रमित बीमारांे की संख्या व मृतकों की अनुपातिक दर बहुत कम (5.90 प्रतिशत की तुलना में 2.82) रही है। ‘‘यदि’’ राष्ट्रीय लॉक डाउन घोषित किया नहीं जाता तो हमारे देश में भी (औसत) 20 लाख से ज्यादा मरीजों की संख्या और लगभग 54000 मौतें (दिनांक 23.05.2020 की स्थिति तक केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग के अनुसार) हो जाती। मतलब सरकार सफल? इसके विपरीत विपक्षी दल बेशर्मी के साथ अपने सुविधाजनक आंकड़ों के माध्यम से यह सिद्ध करने में पूरी ताकत लगाते रहे कि, एक तरफ जहां विश्व में, खासकर ज्यादा संक्रमित रोगी संख्या वाले देशों (जैसे इटली) में भी मरीज अब कम होते जा रहे है, वहीं हमारे देश में इसके विपरीत लाॅकडाउन की तथाकथित सफलता के बावजूद संक्रमितों की संख्या दिन प्रतिदिन क्यों बढ़ते जा रही है? मतलब सरकार असफल? 
आकड़ों के बाबत एक बात पहले जान लीजिए। संक्रमितों की संख्या के ये आंकड़े पूरी तरह से प्रमाणित नहीं है। इसलिये, कि विश्व स्वास्थ्य संस्था द्वारा कोरोना पाजिटिव न आने के बावजूद, लक्षणों के आधार पर रोगी को कोरोना संक्रमित व्यक्ति की श्रेणी में रखने के निर्देश दिये गये हैंा  आइये, पूरे लॉकडाउन के इन 70 दिनों का ‘आंकड़ों’ के माध्यम से संक्रमित रोगियों की संख्या की बढ़ोतरी का (सही ? या गलत?) विश्लेषण कर देखें। यह स्पष्ट होता है कि इन 70 दिनों में मात्र 20 दिन ही ऐसे रहे, जब, संक्रमित मरीजों की संख्या नहीं बढ़ी, को छोड़ दिया जाए तो, शेष अवधि में, समय बीतने के साथ संक्रमितों की संख्या भी तेजी से बढ़ती चली जा रही है। गिलास आधा खाली है या आधा भरा है, तो हमने देखा है  कि तर्कों के माध्यम से दोनों पक्ष अपनी बात सिद्ध कर देते हैं। लेकिन गिलास आधा भरा है या खाली की यह व्याख्या कि गिलास पूरा खाली या पूरा भरा है, को कोरोना काल में आंकड़ों के इस जादुई खेल द्वारा सिद्ध किया जा रहा है? इसे भी कोरोना कालचक्र की एक नई ईजाद ही मानना पड़ेगा। 
आंकड़ों की जादूगरी का एक छोटा सा उदाहरण देखिये! 30 जनवरी को भारत में 1 व चीन में 9254 संक्रमित रोगी थे व भारत का स्थान विश्व में 6 वां था। भारत के संबंध में संक्रमित दुगने कैसे हुये, इसका विश्लेषण आगे किया जा रहा है। 2 फरवरी को दुगने अर्थात 2 व चीन में 17512 हुये व भारत का स्थान चौथा हो गया। लगभग 28 दिन बाद 1 मार्च को भारत में दुगने अर्थात 4 व चीन में 80022 तथा भारत का स्थान 9 वां हो गया। भारत में लाॅकडाउन घोषित होने के  दिन 24 मार्च को 619 व चीन में 81693 संख्या हुई व भारत का स्थान 10 वां था। 3 अप्रैल के लगभग 4000 रोगी थे, जो दुगने 6 अप्रैल को हुये, 8000 10 अप्रैल को, 16 हजार, 18 अप्रैल को 36 हजार, 30 अप्रैल को 60 हजार, 8 मई को हुये। लेकिन अब तो दुगने (ड़बलिग) होने की दर की अवधि भी तुलनात्मक रूप से तेजी से कम होती जाकर प्रांरभिक अवस्था की दुगनी दर पर आ रही है। संक्रमित मरीजों की संख्या हर दिन प्रतिदिन ऊंचाई प्राप्त करने से आज हमारा देश विश्व के 200 देशों में सातवें स्थान पर पंहुच गया है। प्रारम्भ में हम मात्र कितने देशों में कौन से....? स्थान पर थे, संबंधित पक्ष यह भी समझाएं। 1 अप्रैल को भारत का विश्व में कोरोना संक्रमितों की संख्या के मामले में 20वां स्थान था व 27 मई को चढ़कर 10वें स्थान पर पंहुच़ गया। 
कोरोना वायरस बेहद संक्रामक तो है, लेकिन बेहद घातक नहीं है। कोरोना वायरस के संबंध में हमारे देश के नागरिकों की निरोधक क्षमता तुलनात्मक रूप से मजबूत होने के कारण सापेक्ष रूप से हमारे देश की मृत्यु दर तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। अब इसी को आनुपातिक आंकड़ो के द्वारा दर्शाया जाये, तो निश्चित रूप से यह आंकड़े बाजी आपको फंसा देगी और अपने उद्देश्यों में सफल भी हो जायेगी। आंकड़ों की यही बानगी आपको समझाने का प्रयास इस लेख के माध्यम से कर रहा हूँं।  
आज भी केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग ने संक्रमितों की संख्या में बढ़ोत्री के साथ यह भी दावा किया कि हमारे देश की मृत्यु दर मात्र 2.82 है जो विश्व के अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। आज संक्रमित रोगियों की संख्या में वृद्धि लगभग 890़9 हुई है। तर्क के लिए मान लीजिए कि सरकार व नागरिकों के प्रयासों से यही वृद्धि 8909 की बजाएं सिर्फ 4000 पर ही सिमट जाती तो, मृतकों की संख्या बढ़े बिना ही मृत्यु दर अपने आप बढ़ जाती। मतलब एक तरफ तो सरकार संक्रमित मरीजों की संख्या में  कमी का दावा करती है, परन्तु ठीक उसी समय उसे मृत्यु दर की बढ़़ी हुई संख्या की आलोचना भी झेलनी पड़ती, जबकि मृतकों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई है। अब बढ़ते रोगियों की तेजी से बढ़ती हुई संख्या के औचित्य के लिये केन्द्रीय स्वास्थ्य उपसचिव लव अग्रवाल देश की जनसंख्या का सहारा ले रहे है। आंकड़ों की बाजीगरी का यही खेल है।
इसी तरह का विश्लेषण अन्य मामलों में भी अनुपातिक आंकड़ों के द्वारा किया जा सकता है। ‘‘आधार संख्या’’ ‘दिन’, ‘समयावधि’ व समय को अपनी सुविधानुसार चुनकर सामान्य रूप से अपने मन माफिक अनुपात के आंकड़े इस कोरोना काल में आप बता सकते है। उदाहरणार्थ यदि हम संक्रमित रोगियों की संख्या का आधार संख्या 50000 ले, तो प्रथम 50000 मरीज 95 दिनों में, फिर पचास हजार 13 दिनों में, फिर 9 दिनों व अंतिम 50000 मात्र 6 दिनों में संख्या बढ़ी। यह वृद्धि इस बात को सिद्ध करती है कि, लाॅकडाउन की अवधि बढ़ने के साथ-साथ संक्रमित मरीजों की संख्या में वृद्धि ही नहीं हुई बल्कि वृद्धि की दर भी बेतहाशा बढ़ रही हैं। इसी को कहते है, आंकड़ों की बाजीगरी, चालाकी व मायाजाल।   
‘‘आंकड़ों’’ के साथ-साथ हमारे देश के राजनैतिक पटल पर शब्दों की बाजीगरी व ’‘व्यंग बाण’’ फ्री स्टाइल कुश्ती के समान चल रहे है। इस खेल में समस्त राजनैतिक पार्टियां अपनी-अपनी सुविधानुसार जुड़कर सुविधा की राजनीति की रोटी सेकनें में कोई परहेज नहीं कर रही है। आंकड़े के ऐसे खेल के साथ समस्त पक्ष खेल-खेल में राजनीतिक कुश्ती के दाव-पेच (धोबी-पछाड़) भी चलते रहेगें। फ्री स्टाइल राजनैतिक दंगल में देशहित का कोई नियम होता है क्या? हमारे देश की वर्तमान राजनीति की छाप को राजनीतिज्ञ लोग संकटकाल में भी बदलने को क्यों तैयार नहीं है?

सोमवार, 1 जून 2020

क्या ‘‘कोरोना’’ ने ‘‘नौकरशाही’’ को कुंठित तो नहीं कर दिया है?



लॉकडाउन-4 समाप्त! लॉकडाउन-5 प्रारंभ नहीं। बल्कि इसकी जगह देश अनलॉक-1 (नॉकडाउन-1) के नये दौर में देश प्रवेश कर रहा हैं। यह नया दौर कैसा होगा, यह तो भविष्य ही बतलायेगा। आइये, तब तक नौकरशाही द्वारा जारी अपरिपक्व आधे-अधूरे आदेशों निर्देशों के संबंध में गुजरे लॉकडाउन का थोड़ा अवलोकन कर लें। ‘देश’ व ‘जीवन’ का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है, जहां कोरोना वायरस ने अपने डंक, जहर को फैलाकर किसी न किसी को बीमार कर के अपना प्रभाव न दिखाया हो। अफरशाही भी उससे अछूती नहीं रही है। इस कोरोना बीमारी के संकट कालखंड की पिछले 68 दिनों की अवधि में केंद्रीय व राज्य सरकारों के नौकरशाहों द्वारा इस कोरोना संकट से निपटने के लिए समय-समय पर जारी आदेश, निर्देश, एडवाइजरी पर एक सरसरी तौर पर नजर डालें। यह स्पष्ट हो जाएगा कि नौकरशाही स्वतः इस वायरस के डंक से ग्रसित होकर किस बुरी तरह से विवकेपूर्ण संवेदनशील व प्रभावी गंभीर निर्णय लेने में अक्षम व असफल हुई है। 
सर्वप्रथम प्रवासी मजदूरों के संबंध में केंद्रीय सरकार के निर्णयों का अवलोकन करें। पहले सरकार ने यह नीतिगत घोषणा की, कि जो मजदूर जहां पर कार्यरत हैं, वे वही रहेंगे। उनको लॉक डाउन की अवधि की मजदूरी/तनख्वाह नियोक्ता देगा। क्या सरकार या नौकरशाह (ब्यूरोक्रेसी) ने आज तक इस बात की चिंता, या पर्यवेक्षण अथवा देख-रेख की, कि सरकार के निर्देशों का कितना पालन हो पाया है? यदि सरकार ने वास्तव में इन्ही निर्देशों का कड़ाई से पालन करवा लिया होता तो, जो दुर्दशा मजदूरों की पिछले दो महीने से पूरे देश में ‘‘न भूतो न भविष्यति’’ जैसी हो रही है, वह नहीं होती। वैसे समस्त पक्षों की जमीनी व्यवहारिक स्थिति को देखते हुए सरकार का उक्त निर्णय न केवल गलत था, बल्कि अव्यावहारिक भी था। शायद इसीलिए सरकार ने उक्त नीतिगत निर्णय की समीक्षा की बात कभी भी नहीं की। देश के ‘जागरूक मीडिया व ‘समाज सुधारकों ने भी सरकार से इस संबंध में कोई प्रश्न नहीं पूछा। यदि सरकार इस निर्णय की समीक्षा करती तो, निश्चित रूप से इसका एक बेहतर व्यवहारिक हल सामने आता। वह शायद यह होता कि मजदूरी/तनख्वाह का पूर्ण दायित्व तीनों पक्ष बराबर से बांट कर वहन कर लेते। इससे सरकार, नियोक्ता व श्रमिक में से किसी एक पर पूरा भार नहीं आता और तीनो पक्ष परिस्थतियों संतुष्ट भी होते। यदि ऐसा निर्णय किया जाता तब ‘‘प्रवासी मजदूरों’’ की यह ‘‘नई’’ श्रेणी (जो पहली बार सुनी) भी हम को सुनने को नहीं मिलती। सरकार व नौकरशाही के गलत व असफल निर्णय की यह एक बानगी मात्र है।
समस्त प्रवासी श्रमिकों मजदूरों के संबंध में ही केंद्रीय अब सरकार के दूसरे निर्णय को भी देखें। सरकार ने पहले यह नीतिगत निर्णय लिया था कि समस्त श्रमिक अपने कार्यस्थल पर ही रहेंगे। बाद में विदेशों से भारतीय नागरिकों को स्वदेश वापिस लाने की व्यवस्था (वंदे भारत योजना) के चलते तथा मजदूरों की रहने और खाने-पीने की व्यवस्था चरमराने से श्रमिकों के अपने कार्य स्थल पर ही रहने के सरकार से नीतिगत निर्णय की धज्ज्यिा उड़ने लगी। श्रमिकों के मन में भी अपने गृह नगर जाने की भावना दिनों-दिन प्रबल होती गई। उस समय तक लॉक डाउन के कारण यात्री ट्रेनें बंद थी। तब सरकार ने लंबे समय के गहन सोच-विचार के बाद (अचानक नहीं) 30 अप्रैल को यह निर्णय लिया कि राज्य सरकारें सड़क माध्यम से इन प्रवासी मजदूरों को अपने गृह नगर वापिस ला सकती हैं। यह एक और अदूरदर्शिता पूर्ण, अव्यवहारिक निर्णय था, जो आपके सामने है। 
फिर बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की केन्द्र सरकार से स्पेशल टेªन चलाने की मांग  के बाद 24 घंटे में ही सरकार या संबंधित अधिकारियों की चेतना, विवेक और बुद्धि जागृत हो गई और उन्हें यह महसूस हुआ कि करोड़ों की संख्या में जाने वाले प्रवासी मजदूर का ‘बस‘ से जाना ‘‘बस‘‘ में (संभव) नहीं है। इसलिए उन्होंने श्रमिक ट्रेन योजना का शुभारंभ किया। प्रश्न यही पैदा होता है कि, योजना जन्य इतनी बड़ी त्रुटि के लिए यदि अफसर जिम्मेदार थे, तो सरकार ने उनकी गलती को जनता के सामने लाकर दंडित क्यों नहीं किया? ऐसा करके सरकार को अफसरों की बलि लेकर अपनी पीठ थपथपाने का मौका भी मिल जाता। आखिर इस तरह के गलत निर्णयों के साथ खिलवाड़ कब तक चलता रहेगा? और यदि उक्त गलत निर्णय की जिम्मेदारी सरकार की थी तो, सरकार को सार्वजनिक रूप से इन गलतियां को स्वीकार करना चाहिए था। 
लोकतंत्र में निर्णय तो चुने हुए प्रतिनिधि लेते हैं और ब्यूरोक्रेसी उसको लागू करती है। परन्तु यह एक सांकेतिक (सिंबॉलिक) आदर्श स्थिति है। जबकि वास्तव में निर्णय प्रायः चुने हुए प्रतिनिधि के नाम पर नौकरशाह (ब्यूरोक्रेट्स) ही लेते हैं और उन पर जन प्रतिनिधियांें के निर्णय का अमली जामा पहनाया जाता है। प्रत्येक स्थिति में दोनों का चोली दामन का साथ है। इसलिए हर निर्णय के लिए दोनों तब तक संयुक्त रूप से जिम्मेदार हैं, जब तक कि वे एक दूसरे के खिलाफ कार्रवाई या आवाज नहीं उठाते। श्रमिक टेªन के संबंध में भी पहले दोनों राज्यों की स्वीकृति की शर्त को लगाया जिसे बाद में श्रमिक टेªन पहुंचने वाले राज्य की स्वीकृति की शर्त में बदला गया। पहले ही सही निर्णय क्यों नहीं लिया जा सका ?
बिना सोचे विचारें, अविवेक पूर्ण निर्णयों की इस संख्या की एक बानगी और देखिए। उत्तर प्रदेश में एक जिला मजिस्टेªट ने रेड़ जोन में कफर््यू लागू करने की घोषणा की। उक्त घोषणा के बाद उक्त घोषित क्षेत्र में बिना मानव दूरी बनाए नागरिकों की बाजार में एकदम से भीड़ बढ़ गई। देर रात्रि को प्रशासन ने उक्त आदेश के संबंध में यह स्पष्टीकरण दिया कि कफर््यू घोषित क्षेत्र में समस्त आवश्यक सेवाएं व खाद्य पदार्थो की पूर्ति होम डिलीवरी द्वारा की जाएगी। फिर कुछ समय बाद स्पष्टीकरण आया कि पूरे रेड़ जोन में कर्फ्यू घोषित नहीं किया गया है बल्कि सिर्फ हॉटस्पॉट/कन्टेनमेंट एरिया में ही है। जरा सोचिए प्रशासन ने अफरा तरफी के बाद जो स्पष्टीकरण जारी किए वही स्थिति कर्फ्यू आदेश जारी करने के पहले से ही उनके समक्ष नहीं थी क्या? बिना सोचे विचारे निर्णयों के अनेक एक उदाहरणों में से एक यह भी है।
प्रवासी मजदूरों के लिए चली श्रमिक ट्रेनों के संबंध में यात्रा किराए के बाबत दिनांक 01.05.2020 को रेल विभाग द्वारा जो निर्देश जारी किए गए थे, उनमें भी इतनी अस्पष्टता थी कि रेल्वे को तुरंत ही स्पष्टीकरण/संशोधित आदेश जारी करने पड़े। पहले जब श्रमिक ट्रेन चलाने का निर्णय लिया गया था, तब उसमें श्रमिकों के लिए किराए के छूट का कोई हवाला नहीं था। भेजने वाला राज्य (मूल राज्य) और गंतव्य राज्य दोनों की सहमति से ही रेल्वे ट्रेन की क्षमता का 90 प्रतिशत मांग किए जाने पर ही ट्रेन चलने की नीति घोषित की गई। किराया, टिकटें रेल्वे, राज्य सरकारों द्वारा दी गई सूची अनुसार छाप कर राज्य सरकार को देंगी, जो किराया वसूल कर श्रमिकों को देंगी। वह वसूला हुआ किराया राज्य रेल्वे को जमा करेगा। इस पर बवंडर मचने पर यह स्पष्टीकरण दिया गया कि 85 प्रतिशत किराया रेलवे स्वयं वहन करेगा और शेष 15 प्रतिशत किराया ही राज्य सरकारें वहन करेंगी। इसी प्रकार बाद में 12 मई से स्पेशल टेªन चलाने की घोषणा हुई। तब पहले यह कहां गया कि टिकटें सिर्फ ऑनलाईन आई.आर.सी.टी. बेबसाइट पर ही मिलेगीं और फिर कुछ समय पश्चात ही यह संशोधन कर दिया गया कि रेल्वे के कांउटर से भी टिकिटें मिलेंगी। स्पष्ट है, रेलवे अधिकारी भी निर्णय लेने के पूर्व उनके सामने उत्पन्न हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सही व पूर्ण आदेश जारी नहीं कर पाए। इसीलिए बार-बार उनको आदेशों में तत्काल अथवा कुछ समय बाद ही संशोधन करना पड़ रहा है। आखिर कोरोना वायरस ने रेलवे कर्मचारियों को कोई छूट थोड़ी प्रदान की है? जिसका प्रभाव उनके दिमाग पर न पड़े?  
मध्यप्रदेश की सरकार ने भी एक हफ्ते पूर्व यह निर्णय लिया था कि रेड़ जोन, कंटेनमेंट एरिया छोड़कर शेष क्षेत्रों के बाजार दाये-बाये (लेफ्ट-राईट) आधार पर खुलेगें। इसके लिए पेंट से निशानदेही (मार्किग) भी कर दी गई। हजारों रूपये खर्च होने के बाद दो दिन पश्चात उक्त आदेश संशोधित कर प्रतिदिन समस्त व्यवसाइयों के लिए बाजार खुलने के आदेश जारी कर दिए गये। आधे अधूरे निर्णय का यह भी एक उदाहरण है। 
इस प्रकार आधे-अधूरे अदूरदर्शी व अस्पष्टता लिये हुये निर्णयों की कोरोना काल में बाढ हैं, जिस पर सरकार भी ध्यान नहीं दे पा रही है। शायद कोरोना वायरस से संक्रमण का प्रभाव ही इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है। इसीलिए क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि, कोरोना के संकट काल खंड में नौकरशाही का विवेक और बुद्धि बीमार भी होकर कहीं कुठित तो नहीं हो गई है?   

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