माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेकर प्रवासी श्रमिकों के संकट के मुद्दे पर चल रही सुनवाई के दौरान 9 जून को यह आदेश पारित किया कि 15 दिवस के भीतर सभी राज्यों में प्रवासियों की पहचान की जा कर उन्हें उनके मूल स्थान पर पहुंचाया जाए। इस तरह के आदेश देकर माननीय न्यायालय कहीं लोकतंत्र में चुनी गई लोकप्रिय सरकारों से ‘‘लोकप्रिय’’ तमगा छीन कर उक्त तमगे को स्वयं अपने ऊपर तो नहीं लगा रही है? उक्त आदेश पुनः इस प्रश्न को पैदा करता है कि, न्यायपालिका (उच्चतम न्यायालय) ज्यादा संवेदनशील बनकर अपने अधिकार क्षेत्र का शायद अतिक्रमण तो नहीं कर रही है?
याद कीजिए! पूर्व में प्रवासी मजदूरों के जिस तरह पैदल चलने के द्रवित करने वाले दृश्य सामने आ रहे थे। तब उच्चतम न्यायालय ने द्रवित होकर स्वतः संज्ञान लेकर उनको अपने-अपने गृह नगरों में पहुंचाने के आदेश दिए थे। 28 मई को एक अंतरिम आदेश पारित कर मजदूरों से किसी प्रकार कोई किराया न लेने और उन्हें खाना मुहैया कराने की व्यवस्था करने के आदेश जारी किये गए थे। उक्त 28 मई के आदेश द्वारा उच्चतम न्यायालय ने अपने दिनांक 15 मई के पूर्व के आदेश को ही सुधारा था, जिसमें उन्होंने दायर की गई याचिका को यह कहकर निरस्त कर दिया था कि, उच्चतम न्यायालय के लिए यह संभव नहीं है कि, वह ऐसी स्थिति की निगरानी (मॉनिटरिंग) कर सकें।
केंद्रीय सरकार ने नियोक्ता को लॉकडाउन के दौरान अपने श्रमिकों को वेतन/मजदूरी दिए जाने के निर्देश के साथ ही प्रवासी मजदूरों के लिये यह एडवाइजरी जारी की थी कि, जो जहाँ है, वहीं रहें। साथ ही उनके ठहरने व खाने पीने की व्यवस्था भी उपलब्ध कराई जाएगी। प्रश्न यह पैदा होता है कि बावजूद इसमें असफलता के, उच्चतम न्यायालय ने इस बात का संज्ञान क्यों नहीं लिया कि, नियोक्ताओं ने अपने श्रमिकांे को वेतन मजदूरी दी अथवा नहीं? तथा सरकार ने इनके रहने की खाने की व्यवस्था की अथवा नहीं? सरकार के उस आदेश व एडवाइजरी के उल्लंघन के विरुद्ध कार्रवाई करने के बदले, उच्चतम न्यायालय ने शायद प्रवासी मजदूरों का यह ‘‘संवैधानिक अधिकार’’ माना कि उनको सरकार के खर्चे पर अपने गृह नगर जाने का अधिकार है। तदनुसार न्यायालय ने सरकार को उक्त आदेश जारी किए।
यदि ‘‘उच्चतम न्यायालय’’ तत्समय सरकार के मजदूरों को वेतन देने के जारी आदेशों/निर्देशों के पालन करवाने के लिए नियोक्ताओं व सरकार को आवश्यक आदेश दे देते तो, शायद प्रवासी मजदूरों की ऐसी समस्या खड़ी ही नहीं होती। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार जारी वैध आदेशों का पालन करवाना है। इसके बजाय सरकार के उक्त आदेश के पालन न हो पाने से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा वैकल्पिक व्यवस्था बतौर आदेश पारित करना निश्चित रूप से मानवीय है। लेकिन क्या वह वह उतना ही उसके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत संवैधानिक भी है? लगभग 8 से 9 करोड़ प्रवासी श्रमिकों में से अभी तक सरकार ने मात्र लगभग 1 करोड़ श्रमिकों का सरकारी साधनों से उनके गृहनगर पहुचाया है। इसके अतिरिक्त असंख्य अनगिनत श्रमिक पैदल या स्वतः के साधनों से अपने गृहनगर पंहुचे हैं। इनका न तो कोई एकीकृत राष्ट्रीय आंकडा है और न ही ऐसा कोई आंकड़ा उच्चतम न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया है।
फिर किस आधार पर 15 दिन के भीतर वापस (उनके) घर भेजने के आदेश दिये गये है? 15 दिवस की यह व्यवस्था का आंकलन करने का कार्य उच्चतम न्यायालय का नहीं था, बल्कि इसे सरकार पर छोड़ दिया जाना चाहिए था। उस स्थिति में, जब स्वयं उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र, राज्य सरकारों व केन्द्र शासित प्रदेशों को यह निर्देश दिया था कि वे प्रवासी मजदूरों की सुव्यवस्थित तरीकों से पहचान हेतु सूची बनाय व मजदूरों की स्किल मैपिंग करंे। न्यायालय को कम से कम सूची तैयार होने तक आदेश पारित करने से रूकना था। आंकड़ा उपलब्ध हो जाने के बाद 15 दिवस व अन्य कोई अवधि आंकड़ों व सरकार की सुविधानुसार तय की जाती, तो ज्यादा कार्यशील व प्रभावी होती। 15 दिवस में मजदूरों को अपने घर पंहुचाने का कोई आधार, इन आंकडों व कार्ययोजना के अभाव में उच्चतम न्यायालय के पास नहीं है। खासकर उस स्थिति को देखते हुये, जब सरकार को लगभग 1 करोड़ श्रमिकांे को उनके घर पंहुचाने में ही लगभग एक माह से ज्यादा समय लग गया।
हमारे देश का लोकतंत्र जिस संवैधानिक व्यवस्था पर खड़ा है, उसमें विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका समान व बराबर रूप से भागीदार हैं। तीनों के क्षेत्राधिकार वर्णित व निश्चित हैं। तथापि उच्चतम न्यायालय, ‘‘विधायिका’’ द्वारा पारित कानून को अवैध घोषित कर सकता है। बल्कि कई मामले में केशवानंद भारती के प्रकरण द्वारा प्रतिपादित सिंद्धात कि संविधान की मूल भावना (बुनियादी संरचना) में परिर्वतन नहीं किया जा सकता है के आधार पर किये भी हैं। यानी व्यवहार में, सुप्रीम कोर्ट अपने को कई बार सुर्प्रीम मानने लगता है। इसीलिए कभी-कभी उच्चतम न्यायालय के निर्णय दभोंक्ति (घमंड़) युक्त प्रतीत होते है, जैसे सीबीआई को ‘‘पिंजरे का तोता’’ कहना। इस सुप्रीमोंसी के कारण ही कई बार उच्चतम न्यायालय पर ‘‘अति न्यायिक सक्रियता’’ के आरोप भी जड़ दिये गये। शायद सुर्प्रीम कोर्ट ही मात्र एक ऐसी संवैधानिक संस्था है, जिसमें ‘‘सुप्रीम’’ शब्द जुड़ा है। ऐसा लगता है, यह ‘‘सुप्रीम’’ शब्द स्वयं की उपस्थिति का एहसास कराने की दृष्टि से कभी-कभी, उच्चतम न्यायालय इस सुप्रीम शब्द से प्रभावित होकर अपने निर्णय के द्वारा कार्यपालिका पर सुर्प्रीम स्थिति स्थापित कर देता है। इसी कारण से कई बार ऐसे विषयों पर न्यायिक निर्णय आ जाते हैं, जो मूलतः सरकारों के न केवल क्षेत्राधिकार में होते है, बल्कि लोकप्रिय सरकार के नाते उनका यह दायित्व, कर्तव्य व कार्य भी होता है। लेकिन अपनी सीमित व्यवस्था के चलते सरकार उन पर समय पर सही निर्णय नहीं ले पाती है।
उच्चतम न्यायालय ने पुनः आज ही स्वतः संज्ञान लेते हुये दिल्ली के अस्पतालों में मरीजों व शवों की र्ददनाक, भयानक स्थिति को देखते हुये अस्पतालों की बदहाली पर दिल्ली, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र राज्य सरकार को नोटिस जारी करने के आदेश दिये है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के एक शेल्टर होम में 35 बच्चों के कोरोना संक्रमित होने पर भी राज्य सरकार से पूछा है, कि वह बच्चों की सुरक्षा के लिए क्या कदम उठा रही है। यह पुनः सरकार की अक्रमणता को ही दिखाता है। तब ऐसे संवेदनशील मामलों में कई बार न्यायपालिका ऐसे निर्णय पारित करने में मजबूर हो जाती है। यद्यपि वे आदेश पूर्णतः जनहित में होते है, इसलिए ‘‘लोकप्रिय’’ सरकार के बदले ऐसे निर्णय न्यायालय को ‘‘लोकप्रिय’’ बना देते है। पर वास्तव में वह उच्चतम न्यायालय के कार्य क्षेत्र में नहीं होता है। प्रवासी मजदूरों के संबंध में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित प्रथम आदेश व बाद में (इसी विषय पर) पारित अन्य आदेशों से यही बात प्रतीत होती है।
अंत में ‘‘क्षेत्राधिकार’’ में हस्तक्षेप से संबंधित सभी उपरोक्त बातों पर विचार करने के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि देश में लोकतंत्र के चारों स्तंभों में से केवल न्यायपालिका की ही विश्वसनीयता वर्तमान में बची हुई है। बाकी तीनों स्तंभों की छवि जनता की नजरों में अत्यंत धूमिल हो चुकी है। अतः न्यायपालिका से हम सहमत हों या असहमत, उनके निर्णयों को जस का तस स्वीकार करना यह हमारी विवशता है, जब तक कि कार्यपालिका अपनी उपरोक्त समस्त कमजोरियों को दूर कर न्यायपालिका को हावी होने का मौका नहीं देती है। तब तक तो राष्ट्र हित में यह आवश्यक भी है।
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