प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राजनीतिक पार्टियों की सर्वदलीय बुलाई गई बैठक में गलवान घाटी में शहीद हुये 20 जाबाजों की घटना के बाबत आवश्यक जानकारी दी गई। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि गलवान घाटी में हमारी सीमा में न तो कोई घुसा है और न ही घुसा हुआ है और न ही हमारी कोई ‘‘पोस्ट’’ किसी दूसरे के कब्जे में है। प्रधानमंत्री के उक्त कथन का राष्ट्रीय हित में न केवल स्वागत किया जाना चाहिए, बल्कि उस पर कोई शक की गुंजाइश किये बिना, उन्हें इस बात के लिये बधाई भी दी जानी चाहिए कि उन्होंने अपने उस कथन को सही सिद्ध कर दिखाया कि भारत की एक इंच भूमि पर भी किसी शत्रु देश का कब्जा नहीं हो सकेगा।
प्रधानमंत्री की उक्त जानकारी के बाद यदि हम वहाँ हुई अमानवीय मांब लिंचिंग समान घटना कैसे घटित हुई, पर प्रधानमंत्री के कथन को पीछे लें जाकर विचार करेंगे तो बहुत कुछ स्थिति हमारे सामने स्पष्ट हो पाएगी। प्रधानमंत्री के सर्वदलीय बैठक में दिए गए बयान से यह स्पष्ट हो चुका है कि सैनिकों के बीच हुई उक्त हिंसक सैनिक संघर्ष हमारी सीमा में नहीं हुआ। विदेश मंत्री ने हथियार उपयोग न करने के संबंध में 1993, 96 व 2005 की संधि का उल्लेख किया है। जब किसी प्रकार के परिष्कृत जटिल हथियारों (‘‘आर्म्स‘‘) का उपयोग नहीं हुआ है तो, इसका मतलब साफ है कि दोनों पक्षों के सैनिक परस्पर शारीरिक रूप से संपर्क में आये। तत्पश्चात ही चीनी सैनिकों ने लोहे की राड़ व लकड़ी पर लिपटी कटीली तारों वाले हथियारों का उपयोग कर बर्बरता पूर्ण उक्त घटना को अंजाम दिया। एलएसी के संबंध में सामान्य नियम यह है कि दोनों देशों की सैनिक टुकडि़या एलएसी से कुछ (दो) किलोमीटर दूर रहती है। मतलब साफ है कि दोनों पक्षों के सैनिकों को परस्पर संपर्क में आने के लिए एलएसी की तरफ बढ़ना ही होगा। ‘‘डोकलाम में आपने देख लिया है कि किस तरह बिना हथियार के दोनों पक्षों के सैनिक शारीरिक बल का उपयोग व धक्का-मुक्की करके, एक दूसरे को धकेलने का प्रयास कर रहे थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हमारे सैनिक चीन की सीमा की तरफ निश्चित रूप से बढ़े और और वहीं पर शारीरिक बल का उपरोक्तानुसार प्रयोग सैनिकों के बीच हुआ होगा।
प्रधानमंत्री के उक्त कथन से यही अर्थ निकलता है कि चीन के विदेश मंत्रालय ने आरोप लगाते हुये भारत द्वारा उसकी सीमा में घुसने की बात को स्वीकारा है, जो सही है। यह पहली बार है, जब चीन या उसकी सरकारी न्यूज एंजेसी या उसका मुख पत्र ग्लोबल टाईम्स ने अपनी कमजोरी को आंशिक रूप से स्वीकारा है। अन्यथा चीन तो अपने हताहत हुए सैनिकों की संख्या बताने से भी इनकार करता है। भारतीय सेना चीन की सीमा में घुसी है। यह पहली बार हुआ है। प्रधानमंत्री ने इस तरह चीन को एक कदम पीछे हटने के लिए मजबूर किया है।
अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि दोनों पक्षों के मेजर जनरल स्तर के बीच बातचीत किस मुद्दे पर हो रही है? गलवान की घटना के पूर्व व पश्चात में मीडिया और सैनिक सूत्रों से जो रिपोर्ट छन के आ रही हैं, उनसे स्पष्ट है कि दोनों पक्ष फिलहाल पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। यदि हमने चीनी सीमा में ही सैनिक भिड़ंत की है, तो फिर चीनी सेना के पीछे हटने का प्रश्न कहां से पैदा होता है? यदि यह बातचीत 1 अप्रैल 2020 की स्थिति पर आने के लिए की जा रही है, तो फिर भारत के पीछे हटने का प्रश्न कहां पैदा होता है? क्योंकि हमने तो चीनी भूमि पर कब्जा किया ही नहीं है। इसका मतलब तो यही निकलता है कि उक्त सैनिक संघर्ष दो कि.मी. के ‘‘बफर क्षेत्र’’ में हुआ होगा। अतः विदेश मंत्रालय को इस संबंध में पूरी स्थिति स्पष्ट कर देश की जनता जो स्वयं भी ‘सैनिकों’ के साथ सीमा की सुरक्षा के लिए चिंतित है, को क्यों नहीं विश्वास में लेना चाहता है? यह अस्पष्ट स्थिति देश के रक्षामंत्री, रक्षा राज्यमंत्री, विदेश मंत्री तथा प्रधानमंत्री से लेकर सेना प्रमुखों द्वारा समय-समय पर दिये गये बयानों व बताई गई स्थिति के कारण ही उत्पन्न हुई है। इसलिये इसे स्पष्ट करना सरकार का कार्य कर्त्तव्य व दायित्व है। ताकि न सिर्फ सीमा पर चीन से लड़ रही सेना, बल्कि नागरिक भी देश के भीतर चीन के फैलाए हुए आर्थिक साम्राज्य को तहस-नहस करने के लिए मजबूती से खड़े हो सकें।
हमारे दो मेजर व दो कैप्टन रेंज सहित 10 सैनिकों के चीन द्वारा रिहा किये जाने और भारत द्वारा चीन के सैनिकों को रिहा किया जाने बाबत अभी कुछ कहना उचित नहीं होगा। चूंकि आधिकारिक रूप से दोनों सेनाओं ने उक्त दावे से इंकार किया हैं।
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