भारतीय राजनीति का एक स्वर्णिम युग रहा है। जब राजनीति के धूमकेतु डॉ राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी बाजपेई, बलराम मधोक, के. कामराज, भाई अशोक मेहता, आचार्य कृपलानी, जॉर्ज फर्नांडिस, हरकिशन सिंह सुरजीत, ई. नमबुरूदीपाद, मोरारजी भाई देसाई, ज्योति बसु, चंद्रशेखर, तारकेश्वरी सिन्हा जैसे अनेक yu हस्तियां रही है। ये और उनके समकक्ष अनेक नेता गण संसद मैं व बाहर इतने हाजिर जवाब होते थे, जब इनसे मीडिया या अपने विपक्षियों द्वारा कोई प्रश्न पूछा जाता था। तब उनका उत्तर सामने वाले से उल्टा प्रश्न करना नहीं होता था, जैसे कि आजकल यह एक परिपाटी ही बन गई है। बल्कि वे सटीक जवाब देकर सामने वाले को निरूतर कर आवश्यकतानुसार प्रति-प्रश्न करने में भी सक्षम होते थे व माहिर थे।
आज की राजनीति में चूंकि उत्तर देने वाले के पास कोई सही उत्तर होता नहीं है, इसलिए वह दाये-बाये बगले झांकता हुआ, निरूतर दिखने की बजाए, उत्तर देने के प्रयास में सहूलियत अनुसार प्रश्नकर्ता पर ही दूसरा असंबंधित प्रश्न दाग देता है। फिर प्रश्न कर्त्ता भी वापस उत्तर देने के बजाय पुनः प्रश्न कर बैठता है। इस प्रकार भारत की लोकतांत्रिक राजनीति सार्थक प्रश्नोत्तर की बहस के बदले मात्र ‘‘प्रश्नों’’ व "प्रश्नों के प्रश्न" पर जाकर अटक गई है। उत्तर कब मिलेगा? भोली भाँली जनता कब तक उत्तर की प्रतीक्षा रत रहेगी? यह मालूम नहीं।ऐसा लगता है जब तक जनता सिर्फ उत्तर देते रहेगी, और प्रश्न नहीं करेगी, तब तक राजनेतागण जनता को ‘उत्तर’ देने के लिये मजबूर करके, उनकी मजबूरी को ही अपना दायित्व पूर्ण हुआ मान कर, सिर्फ प्रश्न पूछते रहने को ही वे अपना ‘‘कर्त्तव्य मानते रहेगें’’ और जनता से सिर्फ उत्तर देते रहने की अपेक्षा कर कहकर जनता को ही ‘‘उत्तरदायी’’ जरूर बनाते रहेगें। यह संविधान का मखौल नहीं तो क्या है? क्योंकि संविधान ने तो जनता को जन प्रतिनिधियों से प्रश्न पूछने का अधिकार दिया है और उन प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर देने का संवैधानिक दायित्व व कर्त्तव्य राजनेताओं का ही हैं।
उपरोक्त प्रश्नोंत्तर की स्थिति को वर्तमान भारत चाइना के बीच उत्पन्न तनाव के संदर्भ में देखियें! आईने समान; स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। मीडिया, प्रेस विज्ञप्ति व टीव्ही चेनलों के द्वारा कराई जा रही बहसों में आरोप-प्रत्यारोप का तीव्र गति से निरंतर मूवमेंट चीन व भारत युद्ध के तथाकथित अनुभूति (परसेप्शन) को रोकने के लिये पक्ष विपक्ष के बीच घमासान युद्ध के रूप में लगातार चल रहा है। ‘‘उत्तर’’ कोई नहीं दे रहा है। ‘‘बेशर्मी’’ के साथ कहा जा रहा है कि हमारे उत्तर तोे हमारे द्वारा पूछे गए ‘‘प्रश्न’’ ही है। ‘‘जनाब यह हमारे उत्तर देने का स्टाईल है’’। पहले आप उसका उत्तर तो दे दीजिए, तब हम से उत्तर की उम्मीद कीजिए जनाब! ‘‘पहले आप’’ ‘‘पहले आप’’ के चक्कर में कोई भी व्यक्ति उत्तर देने के अपने राजनैतिक दायित्व से बच कर बाजू से सुरक्षित रूप से निकलते जा रहा है। यह भारत देश है। मेरा देश है। लेकिन कोविड़-19 ने विश्व के अन्य किसी भी देश की तुलना में, हमारे देश को इस दृष्टि से सबसे ज्यादा अपनाया है कि वह संक्रमण के साथ नई-नई खोज व उपलब्धियाँ ईजाद कर रहा है, जो उपलब्धि विश्व के अन्य देशों में "कोविड़-19" को नहीं मिली है।
जब प्रश्न यह पूछा जाता हैं कि भारतीय जमीन पर चीन का कब्जा तो नहीं है, क्योंकि प्रधनमंत्री के बाद रक्षामंत्री, विदेश मंत्री व विदेश मंत्रालय तथा कुछ मीडिया रिपोर्टिंग के कारण स्थिति कुछ अस्पष्ट सी हो गई है। तब उसका ‘सुस्पष्ट’ जवाब देकर स्थिति स्पष्ट कर समझाने के बजाए, यह कह दिया जाता है कि वर्क 1962 में 43180 वर्ग किलोमीटर जमीन चीन को प्लेट में रखकर किसने दी? जब यह प्रश्न पूछा जाता है कि अगस्त 2008 में दो राजनैतिक पाटियों (कांग्रेस पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना) के बीच समझौता (एमओयू) क्यों व किस लिये किया गया था? तब स्थिति स्पष्ट करने के बजाए जवाब में प्रश्न ‘‘दाग’’ (तोप समान) दिया जाता है कि, अगस्त 2015 में महासचिव अरूण सिंह के नेतृत्व में राम माधव सहित भाजपा का प्रतिनिधी मंडल चीन से क्या बात चीत करने के लिये गया था? यूपीए की नीतियों से चीन को ’’फायदा’’ मिला; एनडीए की सरकार के दौरान चीन से व्यापार कई गुना क्यों बढ़ गया? यह सब आरोप प्रत्यारोप ‘‘राजनीति’’ नहीं तो और क्या हैं?शायद "सियासत" होगी ? यदि दोनों पक्ष अपने से संबंधित प्रश्न का सीधा जवाब दे देते, तो बात दूसरी होती। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन के साइड खडे है, चीन के हितो की बात कर रहे है। इस तरह के कथन करने वाले विपक्षी चीन के हाथों में खेलने का आरोप लगाने का एक अवसर अपने विरोधियों को अनजाने और अनचाहे ही प्रदान कर रहे हैं। कम से कम प्रधानमंत्री की सत्य निष्ठा वह देश के प्रति प्रामाणिकता पर संदेश तो मत कीजिए । अभी तक के भारतीय राजनीति में तीन तीन बार युद्ध होने के बावजूद इस तरह के आरोप प्रधानमंत्री पर किसी ने कभी नहीं लगाया। भारतीय राजनीति में भारत-चीन विवाद के संदर्भ यह ‘‘खेल’’ भले ही‘‘खेल-खेल’’ में खेला जा रहा है, जो सातवें आश्चर्य से कम नहीं है। लेकिन ‘‘खेल भावना से खेला जा रहा यह खेल’’ सिर्फ और सिर्फ भारत में ही संभव है, जो विश्व में एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्थिति को कहीं न कहीं कमजोर करता है। बल्कि दुश्मन देश को एक संबल भी प्रदान करता है।एक भारतीय नागरिक होने के नाते इससे बचिए। इस संबंध में विपक्षी पार्टी राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार के हाल के बयानों से कुछ तो सीख लीजिए ?
‘‘राजनीति‘‘ न करने वाले बयान देने वाले समस्त पक्ष इस बात को भूल जाते है कि आप राजनीति करके, राजनैतिक दल बनाकर, राजनैतिक दलगत चुनावों में भाग लेकर ही अपनी राजनीतिक चमक को पैना करते रहते है। विश्व के कुछ देशों जैसे जर्मनी में चुनावी प्रणाली ऐसी हो गई कि वोट तो राजैतिक दल को ही देना होता है व्यक्ति को नही। इसीलिए यह कहना कि हम राजनीति नहीं करते है, तथ्यात्मक रूप से गलत है। फिर भी इस आत्मस्वीकोरिति के लिए राजनीतिक दलों के साहस की प्रशंसा की जानी चाहिए, कि उन्होनें राजनीति की गिरावट के ऐसे गिरते स्तर को देखने हुए संकट काल में सार्वजनिक रूप से देश हित में कम से कम राजनीति न करने की बात कर, उससे दूर रहने की बात तो रखी है। शायद इसलिए कि इस गिरावट के लिए वे स्वयं ही तो जिम्मेदार हैं। वैसे उनका यह कथन ठीक उसी प्रकार का हैं जिस प्रकार जब कोई "वीआईपी" नेता पर उसकी विरोधी पार्टी‘‘ आरोपों का स्वचलित तोप का गोला दाग दिया जाता है। और फिर वही व्यक्ति जब विपक्षी पार्टी में शामिल हो जाता है, तब उनको शामिल कराने वाली पार्टी स्वयं को पारस पत्थर मानकर उसे पवित्र कर आरोप से दोष मुक्त कर देती है। ठीक इसी प्रकार राजनीति शब्द का प्रयोग भी राजनैतिक दल आवश्यकतानुसार करते रहते है। अर्थात कभी ’’प्रेम’’ कभी "जरूरत" तो कभी ’’गाली’’ के रूप में ।
भारत चीन सीमा विवाद से उत्पन्न वर्त्तमान गलवान संकट के संबंध में सत्ता व विपक्ष दोनों पक्ष राजनीति न करने का कथन जोर शोर से बुलेट स्पीड़ से करते है। लेकिन प्रत्युत्तर में वर्ष 1962 से लेकर वर्त्तमान घटना तक घटी समस्त घटनाओं पर जमी धूल की परत को झटककर उसे उजागर कर एक दूसरे को नीचा दिखाते रहने का प्रयास किया जाता है। प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में बनी सहमति के बावजूद, सर्वसमस्त बयान जारी न होना, इसका एक ठोस सबूत व उदाहरण है।स्पष्टतः दुखद स्थिति हैं। विदेश मंत्रालय ने विस्तृत बयान 25 जून को जारी कर स्थिति को काफी स्पष्ट किया है। यदि यह बयान पहिले ही आ जाता, तो शायद तू तू मैं मैं की स्थिति नहीं बनती?
लेकिन यहां पर एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है कि लोकतंत्र में राजनीति नहीं होगी तो क्या होगी? लेकिन जब आप यह कहते हैं कि हम राजनीति नहीं कर रहे हैं, तो वास्तव में आप राजनीति की बात न कर, क्या राजद्रोह की नीति की बात कर रहे होते हैं? क्योंकि जब आप स्वयं यह कहते हैं कि हम राजनीति नहीं कर रहे हैं, तो आप इस बात को प्रमाणित कर रहे हैं कि, इस देश की राजनीति इतनी गंदी हो गई है, जो देश हित में नहीं हो रही है। ऐसी ‘‘राजनीति’’ के कारण देश की एकता सुरक्षा और स्वाभिमान पर आंच आ सकती है।अरे साहब! संविधान में लोकतंत्र में आप को राजनीति के माध्यम से ही शासन करने का अधिकार दिया है। चुनाव में भाग लेकर शासन करना या विपक्ष में बैठना यह "लोकतांत्रिक राजनीति' का ही परिणाम है, किसी नीति का नहीं।
विपक्ष की धारणा यही रही है कि, सरकार की आलोचना करना, उसे सचेत करना और उसकी कमियों को उजागर करना ही उसका अधिकार, कर्त्तव्य व राजनीति है। यह बात आजकल अक्सर जोर शोर से भारत-चीन सीमा पर उत्पन्न विवाद के संदर्भ में विपक्ष द्वारा अक्सर कही जाती है। लेकिन क्या वास्तव में सही रूप में विपक्ष अपना दायित्व निभा रहा हैं, यह एक बड़ा प्रश्न है? विपक्ष यह भूल जाता है उसका अस्तित्व ही "पक्ष वि+पक्ष‘‘ मैं समाया हुआ है। अर्थात ‘‘पक्ष‘‘ द्वारा किए गए सही कार्यों की प्रशंसा करते हुए और उन्हें और प्रेरित व उत्प्रेरित प्रेरित करके उनकी कमियों, गलतियों को सुधारात्मक और सुझावात्मक तरीके से समालोचना करना ही स्वस्थ लोकतंत्र में स्वस्थ विपक्ष का कार्य है। लेकिन क्या हमें यह सब होते दिख रहा है? विपक्ष कह सकता है जब 'पक्ष' ही सही रूप में काम नहीं कर रहा है और वह 'विपक्ष' को सहन करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, तब विपक्ष के पास का क्या चारा रह जाता है? इसलिए लोकतंत्र की सफलता के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों को देश के प्रति उत्तरदायी राजनीति करना आवश्यक है। लेकिन स्वस्थ्य राजनीति के लिये। उससे भागने की लिए नहीं।
विभिन्न समय व अवसरों के संदर्भ व विषय भले ही समान हो; लेकिन ‘स्थिति’ परस्पर अदला बदली हो जाने पर प्रश्नोंत्तर में भी अदला-बदली हो जाती है। एक उदाहरण से समझियें! यूपीए सरकार के समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार 105 डालर प्रति बैरल कच्चा तेल के मूल्य की स्थिति में देश के उपभोक्ताओं के लिए 75-80 पेट्रोल-डीजल की कीमत होने पर भाजपा बैलगाड़ी यात्रा निकाल दे, तो खुशी बैलगाड़ी वाली भाजपा के शासन में 40-50 डालर प्रति बैरल कीमत हो जाने के बावजूद घरेलु उपभोक्ताओं को डीजल की कीमत पहली बार पेट्रोल से भी बढ़कर 80 रू. हो जाने पर कांग्रेसी साईकल यात्रा निकालते है। मूल्य की बढ़ोत्री की रक्षा में आगे आकर दोनों सरकारों के बयान व आलोचनाओं के स्तर व तरीके लगभग एक से ही होते है। जबकि दोनों अवसरों पर सत्ता पर विपरीत विचार धारा वाले दल कब्जे पर होते है। यही भारतीय राजनीति की उत्तरदायी वैशिष्ट्य लिए हुए नैतिकता विहीन नियति हैं।
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