शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

असदुद्दीन ओवैसी की ‘‘प्रधानमंत्री’’ मोदी की ‘‘अयोध्या यात्रा’’ पर निरर्थक आपत्ति!

        प्रधानमंत्री के अयोध्या जाने पर ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ मजबूत!           
                                     
मजलिस-ए-इत्तेहादूल मुस्लिमीन (एआईएमआईएस) के अध्यक्ष एवं सांसद ‘‘मोहम्मद’’ असदुद्दीन ओवैसी ने "धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र" भारत के प्रधानमंत्री की ‘‘प्रधानमंत्री की हैसियत’’ से 5 अगस्त को भगवान श्री राम लला के "भूमि पूजन" कार्यक्रम में भगवान श्रीराम जन्म स्थली "अयोध्या" जाने पर कड़ी आपत्ति जतलाते हुये कहा कि, यह संविधान की शपथ का उल्लघनं होगा। मुझे लगता है, वस्तुतः लगभग पूरे देश ने उक्त आपत्ति को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। अवश्य; ओवैसी के उक्त ‘‘आपत्ति’’ लिए हुए आपत्तिजनक बयान ने एक नए मुद्दे पर विचार मंथन करने का अवसर प्रदान जरूर कर दिया है, जिसकी चर्चा आगे की जा रही हैं। 
ओवैसी को ‘‘नरेंद्र मोदी’’ के "व्यक्तिगत हैसियत" से अयोध्या जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, चुकि वे एक ‘‘हिंदू’’ है। लेकिन ओवैसी यह मानते है कि, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री के तौर पर ‘‘अयोध्या’’ में राम मंदिर भूमि पूजन कार्यक्रम में शामिल होना, उस ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ के खिलाफ है, जो संविधान की "मूल" भावना हैं।वे आगे कहते हैं, "वजीरे आजम नरेन्द्र मोदी भूमि पूजन में शिरकत न करें, उनके इस प्रोग्राम में शिरकत करने से मुल्क की अवाम को पैगाम जाएगा कि वो एक अकीदे (धर्म) को मानते है।’’ उनका उक्त कथन अर्धसत्य है। मतलब, जब वे यह कहते है कि धर्मरिनपेक्षता संविधान का मूल आधार है, तो वहां तक तो वे बिल्कुल सही है। लेकिन इसके आगे ओवैसी जब मोदी की प्रस्तावित अयोध्या यात्रा को धर्मनिरपेक्षता से जोड़कर उनकी धर्म निरपेक्षता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते है, तब वे बिल्कुल ही गलत हो जाते हैं। वे स्वयं प्रधानमंत्री को ‘‘एक अकीदे" का मानते है। सही हैं, पूरा विश्व जानता है कि नरेन्द्र मोदी निसंदेह एक ‘‘राष्ट्रवादी हिन्दू’’ हैं, जिनकी हिन्दू धर्म के प्रति गहन आस्था ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार कि असदुद्दीन ओवैसी की मुस्लिम धर्म के प्रति है। लेकिन वे यह भूल जाते है कि, प्रधानमंत्री होने के बाद वे सिर्फ एक "अकीदे ‘‘ (धर्म) सोच के नागरिक न रहकर राष्ट्रीय सोच की भावनाओं से ओतप्रेत होकर ऐसे नागरिक प्रधानमंत्री है, जिनकी 56 इंच की छाती के साथ मजबूत कंधो पर समस्त धर्मो की पूज्य श्रद्धेय भावनाओं की सुरक्षा का दायित्व है। उनके पालनार्थ ही वे अयोध्या जा रहे है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अयोध्या जाने पर वे किस तरह से धर्म निरपेक्ष है, आपको आगे यह स्पष्ट हो जायेगा। 
ओवैसी! क्या यह भी बताने का कष्ट करेगें कि संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के पद में अंतर क्या है? सिवाय इस बात के कि उनका कार्य क्षेत्र क्रमशः ‘‘राष्ट्र व राज्य’’ है। इस बात को शायद ओवैसी भूल गए है कि, इसके पूर्व भी देश के संवैधानिक पद पर विराजित राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व राज्यों के मुख्यमंत्रीगण भी निमंत्रित किये जाने पर या स्वस्फूर्ति आधिकारिक (अधिकृत) रूप से समय-समय पर विभिन्न धार्मिक जलसों, आस्थाओं के पूजा केन्द्रों पर जाकर आयोजनों में शामिल होते रहे हैं। चाहे उनकी धार्मिक आस्थाएं, दूसरी ही क्यों नहीं हो। तो फिर अब मात्र प्रधानमंत्री के चलन (मूवमेंट) पर ही प्रतिबंध व प्रश्नचिन्ह क्यों? प्रधानमंत्री मोदी की सितम्बर 2018 मैं सैफी मस्जिद, इंदौर की यात्रा करना से क्या धर्मनिरपेक्षता कमजोर हुई, क्या औवेसी बतलाने का कष्ट करेगें? सिख राष्ट्रपति प्रधानमंत्री गुरुद्वारे जा सकते है, मुस्लिम राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति मस्जिद और अजमेर शरीफ जा सकते हैैं। लेकिन हिंदू प्रधानमंत्री के मंदिर जाने पर ओवैसी की नजरों में संविधान की शपथ खतरे में पड़ जाती है। क्यों? "शपथ" के किन "शब्दों" में उक्त "प्रतिबंध" का उल्लेख है ?संविधान में उल्लेखित जिस धर्मनिरपेक्षता की बात ओवैसी कर रहे हैं, उस धर्मनिरपेक्षता का अर्थ  तो पहले समझ लीजिए ? धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म को न मानना नहीं होता है। जैसा कि आप यह कहकर समझाना चाह रहे हैं कि सरकार का कोई धर्म नहीं होता हैं। "सरकार का कोई धर्म न होने" का मतलब समस्त धर्मों को एक समान दृष्टि से देखना होता है । वही धर्मनिरपेक्षता भी है। इसीलिए देश के प्रधानमंत्री को जब भी सुयोग अवसर मिले ऐसे धार्मिक जलसों में  जरूर शरीक होना चाहिए,  चाहे वे धार्मिक जलसे  उनकी निजी  धार्मिक आस्था से अलग भी क्यों न हो। ओवैसी  बड़े वकील भी हैं। वह यदि उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को ही पढ़ लेते तो, वे वैसा  विवादित ब्यान ही न देते। दुनिया में भारत अकेला लोकतांत्रिक देश नहीं है, अन्य लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देशों अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन में भी वहां के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री हर प्रकार की धार्मिक गतिविधियों में शामिल होते हैं।
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भारत के प्रधानमंत्री होने की हैसियत से मोदी की नजर में सर्व धर्मो सम भाव है और समान है। ओवैसी !इसमें बहुसंख्यकों द्वारा माने जाने वाला हिन्दू धर्म भी शामिल है, इस तथ्य को भी अपने दिलो दिमाग में रख लीजिये। हिन्दू धर्म के धर्मावलंबियों, साधु संतों व श्रीराम जन्म भूमि निर्माण ट्रस्ट के 5 अगस्त के निमंत्रण को करोड़ों भारतीय नागरिकों सहित विश्व के करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं का आदर व सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री अयोध्या जाकर अपना "राष्ट्रीय कर्तव्य" निभाएं। प्रधानमंत्री ने कभी यह नहीं कहा कि गिरजाघर, (चर्च) मस्जिद, जिनालय (जैन), गुरुद्वारा का कहीं भी निर्माण होगा और उन्हें आमंत्रित किया जाएगा तो, वे प्रधानमंत्री की हैसियत से नहीं जाएंगे। ओवैसी को यदि प्रधानमंत्री की धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण पत्र ही चाहिए तो वे देश में एक भव्य मस्जिद का निर्माण करें और प्रधानमंत्री को आदर पूर्वक निमंत्रित करें। वास्तविक सही स्थिति आईने के समान स्पष्ट हो जाएगी। राज्यों के मुख्यमंत्रीगण भी समय समय पर धार्मिक पूजा स्थलों में शिलान्यास, उद्घाटन व अपनी निजी आस्था व्यक्त करने हेतु आधिकारिक रूप से आते जाते रहते है, तब ओवैसी कहां थे? अभी-अभी एनडी टीव्ही चैनल से ओवैसी बात करते हुये कह रहे थे कि, सरकार को ‘धर्म’ से ऊपर रहना चाहिए और आदर्श स्थिति वहीं होगी, जब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्री निवासों पर किसी तरह के धार्मिक जलसों का आयोजन ही न हो। यह उनकी ‘‘नकारात्मक निष्क्रिय’’ सोच है, ‘‘सकारात्मक क्रियात्मक’’ सोच नहीं है। यदि सरकार सब धर्मो का समान रूप से आदर सम्मान करते हुये समान रूप से अपनी भागीदारी करें तो, वह सिद्धांतः व व्यवहारिक दोनों रूप से धर्म से ऊपर उठकर धर्म  निरपेक्षता की ओर बढ़ता हुआ एक मजबूत कदम ही होगा। श्रीराम जन्म भूमि के तथाकथित ऐतिहासिक रूप से बाबरी मस्जिद होने के मुद्दे के कारण भी ओवैसी प्रधानमंत्री के वहां जाने का विरोध कर है, जो सर्वथा उचित नहीं हैं। पुर्नर्विचार याचिका खारिज होने के बाद उच्चतम न्यायालय ने अंतिम रूप से जब यह निश्चित कर दिया है कि, विवादित ढ़ाचा बाबरी मंस्जिद न होकर राम जन्म भूमि है। तब न्यायालीन सुनवाई के दौरान दिये गये उन्ही तर्को का सहारा लेकर उसे अपने "विरोध" की ढ़ाल बनाना कदापि उचित नहीं है। 
वास्तव में ओवैसी उल्टी गंगा बहाना चाहते हैं। इस बात को वे भूल गए हैं या जानबूझ कर भूलना चाहते हैं कि, नरेन्द्र मोदी संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ हो जाने के बाद एक आदर्श नागरिक व ‘‘स्वयं सेवक’’ के रूप में (जो वे है) अपनी सम्पूर्ण निजता को उन्होंने पूरी तरह से त्याग दिया है। अब उनका "व्यक्तिगत धर्म और आस्था" सार्वजनिक रूप से दर्शित, प्रदर्शित और प्रचारित करने की विषय वस्तु नहीं रह गई है। उनका ‘व्यक्तिगत’ कुछ नहीं रहा और उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित होकर "सार्वजनिक" हो गया है। व्यक्तिगत धार्मिक आस्था पीएमओं के भीतर तक ही सीमित है। आदर्श स्थिति तो वही होगी, जब प्रधानमंत्री अपने व्यक्तिगत विचार स्व: आस्था व स्व: धार्मिक आस्था एवं व्यक्तिगत निष्ठा से परे होकर (ऊपर उठकर) राष्ट्र के मुखिया होने के नाते सिर्फ राष्ट्र के प्रति निष्ठा व आस्था रखते हुये ‘‘एक ही दृष्टि सार्वजनिक "जनहित‘‘ को सामने रखकर कार्य करते रहे, जिसका पूरा प्रयास मोदी कर भी रहे हैं। इस बात को  आप इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं। जब देश का राष्ट्रपति चुना जाता है, तब चुने जाने के पूर्व जिस राजनीतिक पार्टी का वह सदस्य होता है, उसकी सदस्यता से इस्तीफा दे देता है । राष्ट्रपति बनने के बाद वह दलीय न होकर निर्दलीय सर्वदलीय से भी ज्यादा वह राष्ट्रीय हो जाता है। इसी प्रकार राज्यपाल का पद भी संवैधानिक गरिमामय पद होता है। लोकसभा एवं विधानसभाओं के स्पीकर (अध्यक्ष) भी स्पीकर बनने के पूर्व राजनीतिक पार्टी के सदस्य होते हैं। लेकिन स्पीकर पद पर चुनाव द्वारा या सर्वसम्मत रूप से चुने जाने के पश्चात वे संबंधित राजनीतिक पार्टी से इस्तीफा दिए बिना भी नैतिक मान्यता को मानते हुये राजनीतिक पार्टी के सदस्य नहीं रहते है। वे विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव पर वोट भी नहीं ड़ालते है। यद्यपि नीलम संजीव रेड्ड़ी देश के पहिले स्पीकर रहे, जिन्होंने औपचारिक रूप से पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। इसी आधार पर नरेन्द्र मोदी के ‘‘प्रधानमंत्री की हैसियत‘‘ (निजता के न होने से) से किसी भी ‘‘धर्म के धार्मिक पूजा स्थल‘‘ पर जाना स्वागत योग्य कदम होना चाहिए व उसका व्यापक स्वागत किया जाना चाहिए, न की उसे  आलोचना का विषय बनाया जाना चाहिए। यह सिर्फ छुद्र राजनीति का ही घोतक मात्र है।
श्रीराम मंदिर निर्माण किसी का व्यक्तिगत कार्य नहीं है। यह सोमनाथ मंदिर निर्माण के समान राष्ट्रीय अभियान है। यह भारत राष्ट्र की आस्था और स्वाभिमान का प्रतीक है। इस के भूमि पूजन और शिलान्यास समारोह में प्रधानमंत्री क्यों न जायें जिसे राष्ट्र के करोड़ों लोगों ने चुना है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी यह एक वादा रहा है। प्रधानमंत्री पहले भी प्रयागराज, केदारनाथ, गुरुद्वारों, देश विदेश की कई मस्जिदों आदि में जाते रहे हैं। तब आपत्ति क्यों नहीं ली गई थी?
वैसे श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट, जो उक्त शिलान्यास कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है, का वृहत राष्ट्र हित में यह दायित्व हो जाता है कि, उक्त कार्यक्रम में प्रमुख हिन्दू साधू संतों मठाधीशो के साथ-साथ प्रतीक स्वरूप समस्त धर्मो के कम से कम एक एक धार्मिक गुरूओं को उक्त ऐतिहासिक अवसर पर गवाह के रूप में अवश्य निमत्रिंत करें। साथ ही हिन्दू धर्म के "आदि शंकराचार्य" द्वारा स्थापित चारों पीठ के शंकराचार्यओं को निमत्रिंत करने मैं भी ‘‘राजनीति’’ न होकर "राम नीति होनी चाहिये। जैसा कि कुछ क्षेत्रों से खबरें छन-छन के आ रही है। इस तरह से ओवैसी जैसे नेताओं को भी माकूल जवाब मिल जायेगा। यू भी, ओवैसी का यह बयान स्वयं को मीडिया में चर्चित व विवादित बनाये रखने की श्रृखंला  में एक कदम आगे बढ़ाने जैसा भर ही हैं। सिवाय इसके कुछ और नहीं।

बुधवार, 29 जुलाई 2020

क्या ‘‘राजनैतिक द्वंद युद्ध’’ में भी ‘‘आपराधिक न्याय शास्त्र’’ के समान ही ‘‘आत्मरक्षा’’ का अधिकार’’ नहीं होना चाहिए?


देश के बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया व राजनैतिक हलकों में इस समय कोरोना वायरस से ज्यादा चर्चा राजस्थान के ‘‘राजनैतिक युद्ध’’ व ‘खेल’ की हो रही है। लेकिन आश्चर्य व दुर्भाग्य इस बात का है कि, जिसे एम्पायर होना चाहिये था (या अधिकतम गैर खिलाड़ी कप्तान), वे स्वयं उक्त खेल के एक ‘‘सक्रिय खिलाड़ी’’ बन गये हैं। एक तरफ राजनैतिक द्वंद युद्ध में घायल अशोक गहलोत अपनी सेना को हारने व अभ्यर्पण (सरेड़र) से बचाने में लगे हुये है। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति के प्रतिनिधि होकर राज्य के संवैधानिक प्रमुख ‘‘महामहिम’’ राज्यपाल कलराज मिश्र अपनी आत्मरक्षा व प्रतिरक्षा में ‘‘राजनैतिक हथियार व बाण’’ दागे जा रहे हैं। इसका उन्हे ‘‘हक’’ भी  होना चाहिए। वह कैसे? उस पर मंथन के पूर्व कृपया आप अपने ही दो कदम पीछे जाकर देखें। जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ‘‘सत्र’’ बुलाने के बार-बार अनुरोध पर, राज्यपाल द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई। तब गहलोत ने पत्रकारों के समक्ष महामहिम पर गंभीर आरोप लगाते-लगाते यह चेतावनी भी दे गये कि ‘‘विधानसभा सत्र नहीं होने पर आने वाले दिनों मेें जनता राजभवन को घेरने आ जाएं तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।’’ 
उक्त बयान पर बाद में पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर गहलोत ने यह कहां कि ‘‘1993 में भैरोसिंह शेखावत ने कहा था कि अगर बहुमत मेरे पास है, और हमें नहीं बुलाया गया तो राजभवन का घेराव होगा’’। आगे उन्होने कथन किया कि ‘‘यह राजनीतिक भाषा होती है’’। ‘‘जनता को समझाने के लिए, संदेश देने के लिए।’’ गहलोत जी, भैरोसिंह शेखावत का कथन कि ‘‘राजभवन का घेराव होगा’’ और आपका उक्त कथन कि ‘‘जनता राजभवन को घेरनी आयेगी तो हमारी कोई जिम्मेदार नहीं होगी,‘‘ में जमीन आसमान का अंतर है। प्रथम तो आप एक संवैधानिक मुख्यमंत्री पद पर बैठे है, जबकि शेखावत तत्समय मुख्यमंत्री न होकर उक्त पद पर बैठने के लिये राज्यपाल से गुहार लगा रहे थे। अर्थात तब उनकी राज्यपाल के प्रति सुरक्षा की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं थी। दूसरे शेखावत जी के उक्त कथन में आंदोलन की चेतावनी थी, न की राज्यपाल को असुरक्षित करने की धमकी। गहलोत ने जैसा कथन किया कि यह ‘‘राजनैतिक भाषा जरूर है’’ लेकिन वास्तव में यह भाषा से ज्यादा ‘‘धमकी’’ है। ठीक इसी प्रकार ‘‘यह जनता को समझाने व संदेश देने के लिये है’’ (जैसा कि गहलोत कथन कर रहे है) लेकिन उक्त धमकी लिये हुआ कथन महामहिम को संदेश देने के लिए है, वास्तविकता यही है।  
‘‘संसदीय लोकतंत्र’’ में चुने हुये मुख्यमंत्री का उक्त बयान देश की स्वतंत्रता बाद के सम्पूर्ण राजनैतिक इतिहास में शायद सबसे खतरनाक और आराजकता लिये हुये है। इसके सामने आपातकाल भी फीका पड़ गया है। क्योंकि तत्समय, आपात्तकाल में भी कानून बदल कर वैधानिक कर कानून के तहत नागरिकोें के स्वतंत्रता के मूल अधिकारों को लंबित तो किया, परन्तु उन्हे अपने मूल अधिकारों की रक्षार्थ न्यायालय में जाने की छूट प्राप्त थी। लेकिन यहां पर तो ‘‘रक्षक’’ ही अपने दायित्व से अनुउत्तरदायी हो गये हैं। मुख्यमंत्री का दायित्व एवं कर्त्तव्य राजस्थान की लगभग 7 करोड़ जनसंख्या को सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ राज्य के संवैधानिक मुखिया महामहिम (जो संवैधानिक रूप से तकनीकि उनके ‘‘बाँस’’ भी है), को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना है। मुख्यमंत्री का यह भी संवैधानिक दायित्व है कि, राज्य में जितनी संवैधानिक संस्थाएं कार्यरत है, चाहे वह ‘‘राजभवन’’ व ‘‘न्यायपालिका’’ हो या अन्य कोई भी संस्थाएं हों, वे सब स्वतंत्र वातावरण में निर्भीक होकर समस्त आवश्यक सुविधाओं से युक्त होकर अपने कर्त्तव्य दायित्व को निभा सकें। अशोक गहलोत की उक्त एक लाईन के कथन ने संविधान की मर्यादा को भंग (तार-तार) कर दिया। दुर्भाग्यवश उक्त मर्यादा को बचाने की लड़ाई स्वयं राज्यपाल सहित मीडिया के साथ लोकतंत्र के प्रहरी कहलाने वाले ‘‘विपक्ष’’ ने भी नहीं लड़ी। स्वयं राज्यपाल का यह अधिकार व दायित्व था कि वे मुख्यमंत्री के ऐसे धमकी भरे कथनों पर प्रथम सूचना पत्र दर्ज कराकर कानूनी और राजनैतिक रूप से मुख्यमंत्री पर शिकंजा कसते। उन्हे गलती का ऐहसास कराते। तदानुसार उनसे माफी भी मंगवाते। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। न ही ऐसा करने की किसी भावना का किंचित सा भी आभास हुआ। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के विरूद्ध धमकी दी जाने की रिपोर्ट अभी तक क्यों नहीं लिखाई? शायद इसलिए कि अब उन्हें मुख्यमंत्री के खिलाफ राजस्थान में एफ आई आर दर्ज होने का भरोसा नहीं रह गया होगा? लेकिन वे एक अनुभवी राजनीतिज्ञ रहे हैं और इसलिए उन्हें यह जानकारी अवश्य होगी कि देश में (उत्तर प्रदेश, जहां के वे निवासी है, सहित) कहीं भी जीरो पर एफ आई आर दर्ज की जा सकती है। 
अब आप आइये! राज्यपाल ऐसा आचरण क्यों कर रहे है? संवैधानिक रूप से बिना किसी शक व सुबहा के उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने निर्णयों के द्वारा अंतिम रूप से यह प्रतिपादित किया है कि, विधानसभा सत्र बुलाने के संबंध में केबीनेट के प्रस्ताव पर राज्यपाल को अनिर्वायतः आवश्यक कार्यवाही करनी ही होती है। राज्यपाल मुख्यमंत्री से न तो कोई एजेड़ा की मांग कर सकते हैं। न ही सत्र बुलाने के लिये कोई विशिष्ट निर्देश व शर्त लगा सकते हैं। लेकिन यहां पर तो महामहिम सवाल पर सवाल किये जा रहे हैं, जैसे कि सत्र बुलाने बाबत कोई जांच चल रही हो। मुझे लगता है कि उन्हांेने यह कदम इसीलिए उठाया है कि उनकी ‘‘आन बान व शान’’ को धूमिल करने का प्रयास उसी व्यक्ति ने किया है, जिस पर ही उक्त रक्षा करने का संवैधानिक दायित्व है। इसलिये ‘‘रक्षक’’ ही जब अपने हाथ खड़े कर दंे, झाड़ दें, तब मजबूरी वश, एक मात्र चारा यह रह जाता कि राज्यपाल भी स्वंय की रक्षा के लिए, राजनैतिक रूप से हथियार उठा लें। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आपराधिक कानून में मार-काट, झगडे़-फसाद की घटनाओं में व्यक्ति को अपनी आत्मरक्षार्थ हथियार उठाने का अधिकार होता है और स्वरक्षा में सामने वालों पर बंदूक का निशाना तान कर आवश्यकता पड़ने पर चल भी जाती है। अभी तो राजस्थान में राज्यपाल ने आत्मरक्षा में ‘‘हथियार’’ (अधिकार) ही उठाये है। लेकिन लड़ाई यदि आगे और चलेगी व द्वंद युद्ध की स्थिति और खराब होगी, तब बंदूक भी चलाई जा सकती है। अर्थात सरकार गिरा दी  जायेगी। तब राज्यपाल  अपने को सुरक्षित घोषित कर जीत का भाव लिये हुये राजभवन से निकल कर निर्वतमान मुख्यमंत्री के पास शोक बांटने हेतु बैठने जरूर जायेगें। इन सब घटनाओं के पीछे केन्द्रीय सरकार ‘‘श्रीकृष्ण’’ बनकर अपने प्रिय शिष्य अर्जुन (राज्यपाल) के लिए दीवार के समान खड़ी रहकर उनकी प्रतिष्ठा बचाये रखने में लगी हुई है। राजस्थान में शायद यही अंतिम नियति होने वाली है? देश में ऐसा ही लोकतंत्र रह गया है, जिसके लिए हम लोग, हर कभी, थाली व ताली बजाते रहते है और भविष्य में भी शायद बजाते रहेगें। 
अंत में गहलोत जी; अपने अक्षम्य बोल के लिये भैरोसिंह शेखावत के तथाकथित बयान की सहायता मत लीजियें! उक्त कथन वास्तव में आपकी कोई सहायता भी नहीं करता है। यर्थाथ में आपका कथन पूर्णतः अलोकतंत्र, असंसदीय एवं स्थापित परम्पराओं के बिलकुल विपरीत है। अतः उसके जवाब में अपनी सुरक्षा में यदि राज्यपाल भी संसदीय परम्पराओं व उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिंद्धान्तों का उल्लघंन कर रहे है तो, क्या वह उचित नहीं माना जावेगा? ‘‘जैसी करनी वैसी भरनी’’। कृपया इस दृष्टि से भी गहन चिंतन मनन कीजिये!

सोमवार, 27 जुलाई 2020

शिवराज सिंह के‘‘संक्रमित‘‘होने की‘‘जांच‘‘ भी क्या एक जांच आयोग द्वारा नहीं की जानी चाहिए?


मेरे पुराने साथी, सहयोगी, मध्य प्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री और ‘‘बच्चों‘‘ के ‘‘मामाश्री‘‘ की ‘‘कोविड-19 पॉजिटिव रिपोर्ट‘‘ आने से पूरे प्रदेश में हड़कंप मचने के साथ ही एक चिंता का वातावरण व्याप हो गया है। सर्वप्रथम तो मैं अपने हृदय की गहराइयों से ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं, (जैसा कि पूरा प्रदेश व उन्हें जानने वाले समस्त जन भी कर रहे हैं ) कि, भगवान उन्हें अति शीघ्र पूर्ण रूप से स्वस्थ करें। ताकि वे  जनता के बीच पुनः त्वरित सेवा करने के लिए तत्पर होकर उपलब्ध हो सकें।
शिवराज सिंह के (विश्वव्यापी) कोरोना वायरस से संक्रमित होने की जांच के लिए ‘‘जाँच आयोग‘‘ गठित होने की आवश्यकता क्यों है? इसे किंचित राजनैतिक दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करेंगे। यह हमारा भारत देश है, जिसका ‘‘केंद्र बिंदु‘‘ व ‘‘ह्रदय प्रदेश’’ हमारा ‘‘मध्य प्रदेश’’ है। जब सरकारी तंत्र और मीडिया ने ‘‘कोविड-19‘‘ रोग को ‘‘सावधानी‘‘ से ज्यादा ‘‘भय‘‘ का इनपुट लिए लगातार प्रचारित करके उसे एक डरावनी बीमारी के रूप में विकसित कर दिया है। तब ऐसी ‘‘कोविड-19 संक्रमण जन्य’’ बीमारी से प्रदेश के मुखिया के संक्रमित हो जाने से, प्रदेश के करोड़ों लोगों के ‘‘हृदय को गहरे आघात व चोट‘‘ लगना स्वभाविक ही है। हमारे देश की राजनीति की यह एक नियमित प्रथा व प्रक्रिया है कि, जब भी कोई घटना, दुर्घटना या ‘‘चोट‘‘ लग जाए तो उससे तो बाद में निपटा जाता है, सर्वप्रथम तो तुरंत ही एक ‘‘जांच आयोग‘‘ के गठन की घोषणा कर दी जाती है। परिणाम स्वरूप घटना करने वाले ’’कर्ता’’ व ‘‘भुक्तभोगी’’ दोनों पक्ष तात्कालिक रूप से संतुष्ट कर दिये जाते हैं। अतः उसी प्रथा को अपनाते हुए यहां भी संक्रमित होने की जांच के लिए, एक जांच आयोग का बनाया जाना अत्यावश्यक है। ताकि रोग से संक्रमित करने वाला और  संक्रमित हुआ (रोगी) अपने अपने पक्ष को आयोग के समक्ष रख सकंे। ताकि इस कोरोना संकटकाल के लॉकडाउन में एक दूसरे पर तीर चला कर लॉकडाउन की शांति भंग न हो।
आप लोग सभी यह सब जानते हैं कि, देश व प्रदेश में लोगों के आवागमन और सामान्य दिनचर्याओं पर भले ही ‘लॉकडाउन‘ लगा हुआ है, परन्तु राजनैतिक बाजार की ‘‘मंडी‘‘ में माननीयांे की खरीद-फरोख्त पर कोई लॉकडाउन नहीं लगा हुआ है। क्योंकि लॉकडाउन में ‘‘आवश्यक सेवाओं व वस्तुओं‘‘ की खरीदी  बिक्री की छूट दी गई है। फलस्वरुप ही शिवराज सिंह की सरकार के मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद शिवराज सिंह ‘‘एंड कंपनी‘‘ ने कमलनाथ की ‘‘भागीदारी फर्म‘‘ ‘‘(कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह) जो पूर्व में ज्योतिरादित्य सिंधिया के जाने से कम्पनी से फर्म में बदल गई, के माननीय, सम्मानीय, चुने गए जनप्रतिनिधियों को  एक एक कर (छीन कर) अपनी कंपनी में शामिल कर लिया है। भविष्य में यदि इसी तरह से ’’मंडी’’ में बोली लगाकर आना जाना चलता रहा तो, कमलनाथ की ‘‘कम्पनी’’ से परिवर्तित हुई ‘‘भागीदारी फर्म’’ कहीं ‘‘प्रोप्रायटरशिप‘‘ में न बदल जाए? इस खतरे को भांपते हुए और अपनी फर्म के ‘जन सेवकों‘ को अपनी जागीर से भागने से रोकने में असफल होने के कारण ही ऐसा लगता है कि, कमलनाथ ने अपने में से एक ऐसे जनसेवक को ‘‘कोविड-19 से संक्रमित करके‘‘ शिवराज सिंह की कंपनी में भेज दिया। शिवराज सिंह ने कोरोना संकट काल के कारण पूरी तरह से सावधानी बरतते हुए (उक्त तीन सदस्यों का) सैनिटाइजेशन (सत्ता के पद व सुख  का लाभ दे) कर अपनी कंपनी में शामिल तो कर लिया। लेकिन यहां पर शिवराज सिंह से ’’सैनिटाइजेशन’’ करने में कुछ चूक हो गई (शायद सत्ता के पद का पूरा लाभ किसी ‘‘एक‘‘ को नहीं मिला)। साथ ही डॉक्टर (हाई कमांड) से ‘‘प्राथमिक जांच‘‘ कराए बिना ही ‘‘कंपनी‘‘ में शामिल कर लिया, जिसके सम्पर्क में आते ही मुखिया (कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर) होने के कारण वे स्वंय ही संक्रमित हो गए। कमलनाथ का तीर यहां पर तो निशाने पर लग गया। फलस्वरूप शिवराज सिंह के कम से कम 15 दिन क्वॉरेंटाइन में रहते तक कमलनाथ की फर्म के शेष बचे जनसेवक कुछ समय तक उनके ही ‘बाड़े‘ में सुरक्षित रह सकेंगे (स्वतः क्वारंटाइन में होने के कारण मैनेजिंग डायरेक्टर द्वारा कुछ समय के लिये’’अभियान’’ को ’’विराम’’देकर लिए उन्हें ‘असुरक्षित‘ न करने के कारण से)। इसीलिए इस बात की जांच किए जाने की निहायत आवश्यकता ही है कि, कमलनाथ ने अपने ’’राजनैतिक स्थायित्व’’ व ’’विकास’’ (वहीं ‘‘विकास’’ जिसकी चिंता व चर्चा हर आजकल कहीं हैं) को बचाने लिए कहीं शिवराज सिंह को कोरोना वायरस से संक्रमित कर ‘‘राजनीतिक क्षेत्र‘‘ से भी कुछ समय के लिए संक्रमित (दूर) तो नहीं कर दिया? आयोग की जांच का निष्कर्ष भी क्वॉरेंटाइन अवधि के पूर्व आना अत्यावश्यक है। ताकि शिवराज सिंह बरती जाने वाली ‘‘सावधानियों’’ में पहले हो चुकी ‘‘चूक’’ (गलती) को, जान कर समझ कर उन्हे पुनः दोहराने की गलती न करें। ताकि वे कोरोना काल की शेष अवधि (मध्यप्रदेश में लगभग साढ़े तीन वर्ष तक) में सुरक्षित रह सकें।
चूंकि शिवराज सिंह के नाम में ही ‘‘शिव‘‘ शामिल है, अतः उनकी प्रकृति ही विष पीने की है। इसीलिए उन्होंने मुखिया होने के नाते ‘‘श्रावण मास‘‘ (भगवान शिव के प्रिय मास) में जनता के ‘‘कोरोना रूपी विष‘‘ (जहर) को स्वयं ग्रहण कर जनता को लगभग ‘‘निरोगी‘‘ कर दिया है । ठीक उसी प्रकार जैसे लोकतंत्र में चुनी हुई लोकप्रिय सरकार के मुखिया के रूप में अपने कर्तव्यों का पिछले 15 वर्षों से निर्वहन करते हुए शिवराज सिंह ने अधिकतर समस्याओं का निदान करते हुए प्रदेश में लगभग ‘‘रामराज्य‘‘ ला दिया है? हाल ही में मंत्रिमंडल के विस्तार और विभागों के बंटवारे के लिए चले (समुद्र) मंथन से उत्पन्न अमृत और विष में से विष को ग्रहण करने की बात स्वयं शिवराज सिंह ने सार्वजनिक रूप से कही थी। जनता की ‘‘समस्याओं रूपी जहर‘‘ को स्वयं पानकर उन्हें समस्या मुक्त करते रहना सदैव से शिवराज सिंह का चरित्र रहा है। भारतीय संस्कृति में ‘‘मामा’’ के द्वारा कन्यादान करने का बड़ा महत्व है। इसीलिए अनेक भांजी की दुआएं भी शिवराज को जहर पीने के लिए ताकत प्रदान करती रहती है।
शिवराज सिंह के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद इलाज हेतु यह कहकर वे एक ‘‘निजी अस्पताल चिरायु‘‘में भर्ती हो गए कि, यहां पर आम जनता का इलाज हो रहा है। साथ ही उन्होंने यह भी अपील की, जो कोई भी व्यक्ति उनसे संपर्क में आया है, वह अपना कोरोना वायरस टेस्ट अवश्य करवा ले। दुर्भाग्य देखिए! प्रदेश की राजधानी भोपाल में हमीदिया हॉस्पिटल व एम्स हॉस्पिटल, जे.पी. हॉस्पिटल ऐसे सरकारी अस्पताल है, जो  सरकार द्वारा कोविड-19 के इलाज के लिए नामित है। चिरायु की हालत यह है कि कुछ दिन पूर्व ही शायद चिरायु के डायरेक्टर के परिवार के चार सदस्यों का कोरोना का ईलाज चल रहा है। फिर भी‘‘सरकार‘‘ (मुख्यमंत्री) का ही इन सरकारी अस्पताल पर बिल्कुल भी ‘‘भरोसा‘‘ नहीं है। क्योंकि सरकार जानती है कि सरकारी अस्पतालों की ‘‘सुव्यवस्था‘‘ कितनी ‘‘सुदृढ‘’ है? इसलिए पहले ‘‘जनता को  उक्त सुदृढ़ सुव्यवस्था का ‘‘लाभ‘‘ ले लेने दीजिए। उसके बाद ही वीवीआइपी का नंबर लगे, इसीलिये तो हम जन सेवक कहलाते हैं? लेकिन शिवराज सिंह ने अन्य कई प्रसिद्ध निजी अस्पतालों की बजाय ‘‘चिरायु‘‘ को ही क्यों चुना। इसके जवाब में सोशल मीडिया शायद अपने तरीके से एक तरफा ‘व्यापम और नेताओं‘ के तार चिरायु से जोड़कर शायद अपनी ही ‘‘खीज‘‘ निकाल कर दे रहा है। लेकिन मैं यह मानता हूं कि, शिवराज ने ‘‘चिरायु‘‘को इसलिए चुना क्योंकि वह अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप कार्य करता है। अर्थात रोगी को स्वस्थ कर ‘‘चिरायु‘‘ बनाता है जिसकी फिलहाल नितांत आवश्यकता शिवराज सिंह सहित सभी को है। वैसे भी जब जांच आयोग गठित होगा, तब अधिसूचित की जाने वाली विषय वस्तु के अलावा उसके साथ लगे हुए घुन के समान अतिरिक्त विषयों की जांच भी करना आयोग के न्यायाधीश अपना विशेषाधिकार मानकर स्वयं को महिमामंडित करने का प्रयास भी अवश्य करेगें ही। तब उपचुनावों को रोकने के लिए ‘‘कोरोना लाया जा रहा है‘‘ जैसे सोशल मीडिया के कथनों की भी जांच आयोग अपने अधिकार क्षेत्र में स्वतः ही ले लेगा।
अंत में हर क्षेत्र में ‘‘पॉजिटिव’’ नेस (पूर्ण विश्वास) से काम करने वाले शख्स शिवराज सिंह ’कोरोना’ के मामले में भी ‘‘पॉजिटिव‘‘ होकर कोविड-19 बीमारी के वे देश के पहले संक्रमित (रोगी) मुख्यमंत्री बन गए हैं। पूर्व में भी मैंने एक लेख में उदाहरण सहित लिखा था कि, ’’मध्य प्रदेश’’ को शिवराज सिंह के नेतृत्व में अन्यान्य क्षेत्रों में देश में ‘‘प्रथम‘‘ होने की लत सी लग गई है। इसी क्रम में देश में सबसे पहिले, शिवराज, केबीनेट की ‘‘वर्चुअल मीटिंग‘‘ भी करनें पर भी विचार कर रहें हैं। मैं ईश्वर से पुनः प्रार्थना करता हूं कि न केवल शिवराज सिंह को, बल्कि प्रदेश और देश की कोरोना वायरस संक्रमित पीडि़त जनता को इस बीमारी से शीघ्रातिशीघ्र निजात (मुक्ति) प्रदान करें।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

कहीं माननीय न्यायाधीपति ने गलती तो नहीं कर दी?

उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की खंडपीठ ने राजस्थान हाईकोर्ट के ‘निर्देश’ के विरूद्ध स्पीकर द्वारा उच्चतम न्यायलय में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुये हाईकोर्ट के उस निर्देश पर रोक लगाने से इंकार कर दिया, जिसमें स्पीकर को 18 बागी विधायकों के खिलाफ कार्यवाही करने से रोक दिया गया था। उक्त सुनवाई के दौरान जस्टिस अरूण मिश्रा ने एक बहुत ही अहम बात कही कि ‘‘असहमति की आवाज को लोकतंत्र में दबाया नहीं जा सकता है‘‘ ‘‘ऐसे तो लोकतंत्र ही खत्म हो जायेगा।’’ न्यायालय का कार्य निश्चित रूप से कानून व उसमें निहित वास्तविक भावनाओं की मर्यादाओं की रक्षा करना है। लेकिन जब तब कभी किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा दुराशय के अभिप्राय से अपने अधिकार क्षेत्र व अधिकारों का दुरूपयोग कर कानून में सेंध लगाने का प्रयास किया जाता रहा है। तभी न्यायालय हस्तक्षेप कर मार्गदर्शन करता है। शायद इसी दृष्टिकोण से मानननीय न्यायाधीश ने उक्त बहुत ही गंभीर, लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। जो भविष्य के लिये देश की नजीर/कानून बन जाती है, क्योंकि यह देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था, उच्चतम न्यायलय द्वारा की गई टिप्पणी है। 
लेकिन यदि हम यहाँ इसके दूसरे पहलू (पक्ष) को भी देखे तो, जरूर यह महसूस होता है कि, शायद माननीय न्यायाधीश अरूण मिश्रा का ध्यान उस दिशा की ओर नहीं जा पाया, जिसकी ओर मैं आपका ध्यान अवश्य आर्कषित करना चाहता हूं। याद कीजिये! सर्वप्रथम 18 विधायकों के तथाकथित पार्टी विरोधी कार्य करने के कारण अयोग्य ठहराने हेतु कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक द्वारा स्पीकर के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी। उक्त याचिका पर स्पीकर ने कारण बताओं सूचना पत्र जारी कर याचिका में दिये गये तथ्यों के संबंध में जानकारी देने हेतु 18 विधायकों से सिर्फ जवाब माँगा गया था। जवाब आने के पूर्व तक, स्पीकर की मानसिकता (माईड़ सेट) क्या थी, या जवाब आने की स्थिति में वे क्या निर्णय लेने वाले थे, इसकी ‘वैधानिक कल्पना‘ बिल्कुल भी नहीं कि जा सकती है। तब कानूनी रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि स्पीकर सचिन पायलट एवं अन्य विधायकों को अयोग्य ही ठहराकर ‘‘असहमति की आवाज‘‘ को दबाने का प्रयास कर रहे होते। (जिसकी आशंका शायद जस्टिस मिश्रा के दिमाग में हुई थी) देश के ‘‘न्यायिक इतिहास‘‘ मेें शायद यह पहली बार हुआ है कि, जब स्पीकर के नोटिस पर, प्रतिवादी (सामने वाले) का जवाब आने के पूर्व ही, तथा साथ ही स्पीकर द्वारा कोई आदेश पारित करने के पूर्व ही न्यायालय द्वारा स्पीकर को कोई कार्रवाई करने (आदेश पारित करने) से रोक दिया गया है। निश्चित रूप से यह स्पीकर के अधिकार क्षेत्र व अधिकारों को सीमित करता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णयों के विरुद्ध (विपरीत) उक्त आदेश है। उच्चतम न्यायालय ने यह सिंद्धान्त प्रतिपादित स्पष्ट रूप से किया है कि विधानसभा अध्यक्ष की कार्य संस्कृति/कार्य प्रणाली न्यायिक समीक्षा की विषय वस्तु नहीं हो सकती है। सिर्फ उनके द्वारा पारित आदेशों को ही न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। 
यदि यह माना जाता है कि, स्पीकर वास्तव में स्वतंत्र रूप से कार्य न कर मुख्यमंत्री के एजेंट के रूप में कार्य करते हुए सचिन पायलट की असहमति की आवाज को दबाने से रोक रहे हैं तो, ठीक इसके विपरीत सचिन पायलट भी तो अपनी राजनीतिक चालो को चलकर कांग्रेस पार्टी में अपने बने रहने के स्टैंड की पूर्ति मात्र ही तो कर रहे हैं? क्या उनका उक्त ‘‘राजनैतिक कदम‘‘ दल बदल विरोधी कानून से बचने के लिए पार्टी विरोधी कार्य करने के बावजूद उसे असहमति की आवाज का रूप देकर दल बदल कानून में सेंध लगाने का प्रयास नहीं है? इस उत्पन्न वास्तविक परशेप्सन (अनुभूति) को भी जस्टिस अरूण मिश्रा को देखना चाहिये था, जो शायद दुर्भाग्यवश/भूलवश नहीं देखा जा सका। अतः उक्त आदेश आधा अधूरा सा है। न्यायालय को दोनों कार्य अर्थात, असहमति की आवाज को दबाने से रोकने के साथ साथ, दल विरोधी कानून की पेचीदगियों के चंगुल से बचने के प्रयास पर भी रोक लगानी चाहिये था, जो दुर्भाग्यवश नहीं हो पायी।
जनता द्वारा चुने गये विधायक गण जब सदस्यता समाप्त होने से बचने के लिये दलबदल विरोधी कानून में प्रावधित संख्या के निकट तक नहीं पंहुच पाये, तब निश्चित रूप से विधानसभा की सदस्यता बचाने के लिए उन 18 विधायकों को मजबूरन सार्वजनिक रूप से यह स्टैंड लेना पड़ा कि, वे कांग्रेस के ही सिपाही है, और कांग्रेस में ही रहेगें। निश्चित रूप से ये वे बहुमूल्य कांग्रेसी है, जिनका आतिथ्य भाजपा के हरियाणा के मुख्यमंत्री और राजस्थान के भाजपाई अतिथिदेवोः भवः भावना का पूर्ण पालन कर अपनी देशी संस्कृति का प्रदर्शन कर रहे है? असहमति की आवाज, परिवार के बीच, अंदर, और परिवार की बैठक में तथा मुखिया के सामने नहीं उठाई जा रही है? मतलब साफ है कि, जब घर का बच्चा अपनी किसी समस्या को लेकर घर में कोई बातचीत नहीं करना चाहता है, और विद्रोही तेवर लेकर घर के बाहर चला जाता है। और मुखिया के द्वारा उसको बार-बार वापिस बुलाने के बावजूद वह नहीं आता है। ऐसे में घर के मुखिया के हाथ में क्या रह जाता है? सिर्फ यह कहने के अलावा कि उसका लडका घर छोड़कर चला गया है, और उसके लिए घर के दरवाजे हमेशा खुले हुये है। वह जब चाहे वापिस आ सकता है। यही सब कुछ तो राजस्थान में घटित हो रहा है। अंतर यहां सिर्फ इतना है कि, परिवार व विद्रोही सदस्य के बीच खून का रिश्ता होता है, जो जीवन पर्यन्त रहेगा। इसीलिये उसकी वापसी की भी आशा जीवन भर बनी रहती है। लेकिन राजनीति में खासकर चुने हुये जनप्रतिनिधियों के मध्य 5 साल का ही संबंध होता है। इसीलिए विद्रोही नाराज नेता की एक निश्चित सीमा अवधि तक वापसी की राह जोटने के बाद, मजबूरी में उसको दल से निकाल देना ही राजनैतिक हित में होता है। राजस्थान में यही सब तो चल रहा है। 
देश के लोकतंत्र के बदलते हुये स्वरूप को देखिये! पहले जब भी कोई सरकार तथाकथित रूप से अल्पमत में आ जाती थी, तब विपक्षी दल द्वारा विधानसत्र बुलाकर बहुमत साबित करने की मांग की जाती थी, जो प्रायः अनसुनी कर दी जाती थी। इसके विपरीत आज सत्ता पक्ष विधान सभा सत्र बुलाकर बहुतम साबित करना चाहता है। केबिनेट के प्रस्ताव को राज्यपाल मानने के लिए बाध्य है। लेकिन अभी तक राज्यपाल द्वारा सत्र बुलाने के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया गया है और कांग्रेस विधायक गण राजभवन के प्रागण में धरना दे रहे है। यह लोकतंत्र का (दुरू) प्रयोग है? ‘‘यहां उल्टी गंगा बह रही है’’ जैसा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है। जहां तक स्पीकर की निष्पक्षता को लेकर उनके कोर्ट जाने के सवाल पर जस्टिस अरूण मिश्रा ने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया है, उसे उचित नहीं कहां जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने ही यह सिंद्धांत प्रतिपादित किया है कि, याचिकाकर्ता जब तक सामान्य रूप से सुनवाई के युक्तिपूर्ण उपलब्ध अवसरों का सम्पूर्ण उपयोग नहीं कर लेता है, तब तक सामान्यतः उसे न्यायालय की शरण में नहीं जाना चाहिये। 18 विधायकों के पास सुनवाई का एक संवैधानिक अवसर स्पीकर के पास लंबित था। जिस पर स्पीकर ने नोटिस जारी करके सुनवाई प्रांरभ कर दी थी। लेकिन निर्णय नहीं हुआ था। तब ऐसी स्थिति में उस चलती संवैधानिक सुनवाई को बीच में ही समाप्त कर देना किस विधान के अंतर्गत है? समझ से परे है। यदि इसी सिंद्धान्त को लेकर आज राज्यपाल के सत्र बुलाने के अनिर्णय की स्थिति को माननीय उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जाएं, तब माननीय उच्चतम न्यायालय का रूख क्या होगा? फिलहाल इसी के उत्तर में ही लोकतंत्र की व्याख्या टिकी हुई है।
 

सोमवार, 20 जुलाई 2020

‘‘फेक’’ ‘‘एनकाउंटर’’ को ‘‘वैध‘‘ बनाने के लिए ‘‘कानून‘ क्यों नहीं बना देना जाना चाहिए?

  
 '‘विकास दुबे एनकाउंटर’’ (मुठभेड़) पूरे देश में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित है। यह घटना न केवल स्वयं ‘‘सवालों में सवाल’’ लिये हुये है, बल्कि उपरोक्त ‘‘शीर्षक’’ प्रश्न भी पुनः उत्पन्न करता है। लगभग हर ‘एनकाउंटर’ के बाद उस पर हमेशा प्रश्नचिन्ह अवश्य लगते रहे हैं। उक्त ‘प्रश्नचिन्ह’ को कानूनी रूप से अप्रभावी करने के लिये ही एक कानून की आवश्यकता है, जिसकी चर्चा आगे कर रहा हंू। ‘विकास’ की जिस तरह व तरीके से एनकाउंटर में मौत (हत्या?) हुई है, उस घटना के पक्ष-विपक्ष में चर्चा होना लाजमी है। लेकिन अवश्य मैं यह मानता हूं कि, विकास के एनकाउंटर ने एनकाउंटर को वैधानिक रूप से ‘‘वैध’’ बनाने के लिए उसे कानून की सीमा में लाकर एक कानून बनाने की सोच व दृष्टि को जरूर पुनः उत्पन्न एवं ‘‘विकसित‘‘ कर दिया है। निश्चित रूप से अब यह समझ आ गया है जब कि, देश की केंद्र सरकार; प्रमुख कानूनविद; बुद्धिजीवी नागरिक वर्ग, रिटायर्ड वरिष्ठ पुलिस अधिकारी गण और मीडिया सब मिलकर इस विषय (विवाद) पर गहनता से विचार विमर्श करें। ताकि एक ऐसा सही व अधिकतम लोगों को स्वीकार योग्य हल व रास्ता ‘‘विकसित’’ हो सकें, जिससे भविष्य में एनकाउंटर पर प्रश्नचिन्ह लगने या लगाने की कोई स्थिति ही न रह जाए। तब यह कानून या उस का भाग बनकर न्यायिक समीक्षा की विषय वस्तु हो जायेगी। 
सबसे पहले इसके लिये आपको यह समझना होगा कि, आखिर एनकाउंटर होता क्या है? अपराधियों और पुलिस या अन्य सशस्त्र बलों के बीच हुई ‘हिंसात्मक झड़प’ में पुलिस द्वारा अपने ‘‘आत्मरक्षार्थ अपराधी को मार गिराना’’, ‘‘मुठभेड़ (एनकाउंटर)’’ कहलाता है। वर्ष 2014 में पी.यू.सील. विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य में, माननीय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा एवं आर. एफ. नरीमन की खंडपीठ ने एनकाउंटर के एक मामले में दिये गये अपने निर्णय में विस्तृत गाइड़लाइन दी है। जिसका पालन करना, एनकाउंटर करने वाली प्रत्येक पुलिस फोर्स या अन्य सशस्त्र बलों के लिए के लिए अनिवार्य है। इसमें अनिवार्य रूप से घटना की धारा 176 के अंतर्गत मजिस्ट्रीयल जांच भी शामिल है। मौत की सूचना मानवाधिकार आयोग को देना जरूरी है। सर्वप्रथम हवा में गोली चालन, फिर पैरा पर गोली मारना, तब उसके बाद मौत। एनकाउंटर में गोली चालन वाले पुलिस कर्मचारी को यह भी सिद्ध करना होता है कि, उसे आत्म रक्षार्थ गोली चलानी पड़ी। अन्यथा वह हत्या का दोषी पाया जा सकता है। साथ ही घटना में सीधी तौर पर शामिल पुलिस अधिकारियों को उनकी बारी आये बिना न तो ‘‘पदोन्नति’’ दी जायेगी और न ही ‘‘वीरता पुरस्कार’’। उपरोक्त उल्लेखित सहित कुल 16 दिशा निर्देशों के परिपालन करने की बात उक्त निर्णय में कही गई है।
विकास दुबे के मारे जाने को लेकर पूरे देश के नागरिकों का एक बड़ा वर्ग ‘‘उसकी ऐसी नियति को निश्चित एवं न्याय संगत मान कर ‘‘पुलिस द्वारा अपनाया गये तौर तरीके’’ से लगभग ‘‘एकमत’’ हैं। लेकिन यह एकमतता कैसी ? जब उनके बीच में से ही एक प्रभावी वर्ग विकास के एनकाउंटर में मारे जाने पर प्रश्नचिन्ह भी लगा रहा हो? ‘‘दर्शक दीर्घा’’ में बैठा हुआ तीसरा पक्ष, जिसमें अधिकांश रिटायर्ड पुलिस अधिकारी भी शामिल है, यह मानता है कि पुलिस के पास इसके अलावा अन्य कोई चारा (विकल्प) नहीं बचा था। एनकाउंटर के पूर्व खुखार दुर्दांत अपराधी विकास दुबे जिसके उपर 65 आपराधिक मुकदमें चल रहे थे, के द्वारा आठ पुलिस वालों की हत्या किए जाने से स्वाभाविकतः सर्वत्र गहरा छोभ उत्पन्न हुआ है। एक और दुस्साहस इसी दुबे का देखिये जब उसने लगभग 1़9 वर्ष पूर्व कोतवाली में ही स्टाफ के सामने राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त नेता संतोष शुक्ला की दिनदहाड़े हत्या कर दी थी। बावजूद इसके पुलिस के सिपाहियों की ही गवाहियाँ न मिल पाने के कारण न्यायालय से वह छूट गया था। इसीलिए त्वरित गति से की गई उक्त मुठभेड़ के द्वारा विकास दुबे का मामला निपटाये जाने से, ‘इन सब वीमत्स कांडो’ के कारण एक बड़ा वर्ग खुश हैं। वह उसे सही ठहरा रहा हैं। जिसे कुछ ‘ना नुकर’ के साथ उचित भी कहा जा सकता है। 
लोकतंत्र में जन प्रतिनिधियों की चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार के मुखिया, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘‘आपरेशन क्लीन’’ के तहत अभी तक 6126 एनकाउंटर द्वारा लगभग 2293 अपराधी सहित 122 से ज्यादा खंुखार दुर्दांत निर्दर्यी अपराधियों के मारे जाने को अपनी उपलब्धी बतलाई है। सिविल सोसाइटीज (सभ्य नागरिक समाज) में क्या लोकतांत्रिक  शासन के स्तर पर फेक एनकाउंटर को उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है? अतः यदि इसे उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत करना है तो, इसे कानूनन वैध बनाना ही होगा। वैसे भी नकली मुठभेड़ अंतर रेखा का न होकर आपकी सोच से उत्पन्न हुआ अंतर है। लेकिन इससे क्या एक खतरनाक व चिंताजनक निष्कर्ष यह नहीं  निकलता है कि, खादी, खाकी व अपराधी के बीच परस्पर स्वार्थ का मजबूती के साथ जो गठजोड़ बना हुआ है, के कारण ही पूरी लचर होती न्याय व्यवस्था व प्रणाली न्याय दे पाने मंे असफल सिद्ध हो रही है? जहां अपराधी तो कानून की इन खामियों व विकलांगता का फायदा उठाकर न्यायालय से दोषमुक्त होकर स्वयं तो ‘‘न्याय’’ की प्राप्ति को महसूस कर लेता है। लेकिन ‘‘भुक्तभोगी’’ व नागरिकगण बिना किसी दोष व अपराध के ‘अन्याय’ का शिकार होकर भविष्य में भी शिकारी (अपराधी) के ‘‘शिकार’’ होते रहते है। शायद इसी कारण से न्याय का सरल सीधा उपरोक्त छोटा व (उपाय) रास्ता ‘एनकाउंटर’ का अपनाया जाता है। और इसीलिये अपराधी को अंततः न्याय पाने की गलियों के लम्बें रास्ते से मंजिल तक नहीं ले जाया जाता है। कभी-कभी तो न्यायालीन प्रक्रिया के चलने के दौरान ही अपराधी की मृत्यु भी हो जाती है। इसीलिए ‘‘न्याय में देरी न्याय से वंचित’’ की श्रेणी में आ जाती है। माननीय उच्चतम न्यायालय ने आज ही विकास दुबे में सीबीआई जांच की मांग के संबंध दायर याचिका पर विचार करते हुये, तल्ख टिप्पणी की ‘‘हम इस बात से हैरान हैं कि विकास दुबे जैसे व्यक्ति को इतने सारे मामलों के बावजूद जमानत मिल गई......यह संस्थान की विफलता है.......यूपी सरकार को कानून का शासन बहाल रखना होगा। संस्थान की विफलता में क्या स्वयं न्यायपालिका शामिल नहीं है? इसी ड़र की वास्तविकता (परसेप्शन नहीं) व असफल न्याय व्यवस्था ने आज एनकाउंटर को सही ठहराने की अनुभूति (परसेप्शन) पैदा कर दी है। लगातार पूर्व में घटित ऐसी घटनाओं के होते रहने से, उपरोक्त घटना से तेजी से उत्पन्न ऐसे परसेप्शन से निपटने के दो ही रास्ते रह जाते हैं।
पहला, प्रथम सूचना पत्र (एफ.आई.आर.) दर्ज कर जांच से लेकर न्यायालय की अंतिम सीढ़ी तक अपराधी को अंतिम सजा दिलाने की जो लम्बी व वर्षो गुजरने वाली क्रिया, प्रक्रिया व न्यायिक प्रणाली है, उसमें ‘आमूल’ ‘चूल’ परिवर्तन किये जाने की तत्काल आवश्यकता है। ताकि न केवल भुक्तभोगी बल्कि अपराधी का भी न्याय देने वाली सुदृढ़ व त्वरित सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था पर आपराधी का विश्वास वापिस लाया जाकर उसका पूरा विश्वास अंतिम सीढ़ी तक बना रहें। सुदृढ़ न्याय व्यवस्था के रहते, (निर्दोष होने की स्थिति में) दोषमुक्ति के साथ-साथ अभियुक्तों के दिलों दिमाग में भी अपराध के प्रति सुनिश्चिित दंड की तलवार हमेशा लटके रहने से इतना भय ड़र अवश्य उत्पन्न होना चाहिये, ताकि अपराधी अपराध करने के प्रति विमुख होकर अपराध करने से बचे। मतलब अपराध करने के पहिले सौं-सौं बार वह अवश्य सोचे। लगभग निश्चित सजा होने के ड़र से वह अवश्य ही अपराध से दूर भागेगा। अब यह न्याय व्यवस्था कैसी ‘‘सुधरेगी’’। उसमें क्या-क्या सुधार होने चाहिए। इसके लिए एक पूरा लेख ही प्रथक से लिखना होगा, जिसकी फिर कभी चर्चा करेगें। 
अतः अब दूसरा रास्ता क्या हो सकता है। जब तक कि न्यायिक प्रणाली में आवश्यक आमूल चूल परिवर्तन होकर वह वास्तविक न्याय देने में प्रभावी नहीं हो जाती है, तब तक फेक एनकाउंटर को ही वैध बनाने की कानूनी प्रक्रिया पूर्ण की जानी चाहिये। किन परिस्थितियों में, कितने गंभीर, वीभत्स, अपराध, के लिये अन्य खुखार अपराधी के साथ ही एनकाउंटर की भी विस्तृत रूप से परिभाषित कर देना चाहिए। तब एनकाउंटर पर कोई प्रश्न नहीं उठा पायेगां। साथ ही अपराधियों को दुर्दांत बनाने वाले गठजोड़ के समस्त सफेदपोश व्यक्तियों को भी भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी के समान उत्प्रेरक सहयोगी मानकर उन्हे भी दुर्दांत अपराधी के साथ ही एनकाउंटर की परिभाषा में शामिल करना चाहिये। ‘अपराधी’ के एनकाउंटर की परिभाषा की सीमा के निकट ंआने के ड़र से वह गहन अपराध करने से बचेगा, जिससे अपराध रूकेगें। एनकाउंटर को कानून द्वारा परिभाषित कर देने का एक फायदा यह भी होगा कि, राजनैतिक लोग अपने विरोधियों के खात्में के लिये पुलिस की सहायता से एनकाउंटर का दुरूपयोग नहीं कर पायेगें। उच्चतम न्यायालय ने भी अपने कई निर्णयों में (जैसा कि उपर उल्लेखित किया गया है) एनकाउंटर की परिस्थितियों के संबंध में जो व्यवस्था दी है, वह देश का कानून ही हो (माना) जाता है। तब प्रत्यक्ष रूप से कानून बना कर एनकाउंटर की स्पष्ट रूप से परिभाषित कर उसे वैध कर देने में क्या एवं क्यों आपत्ति होनी चाहिये? आज के समय की यह महती आवश्यकता है। जब हमारे देश में कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में एक व्यक्ति जिसे सामान्य रूप से अपराधी भी घोषित नहीं किया जाता है, बिना मुकदमा चलाये शांति व देश की सुरक्षा के खातिर एनएसए व अन्य निरोधक कानून के अंतर्गत पहली बार में अधिकतम छः महीनों के लिये निरूद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त जीवन के स्वतंत्रता के अधिकार को छीना जा सकता है। जब दुर्लभ से दुर्लभ परिस्थिति में हत्यारे को फाँसी (जीवन छीनना) दी जा सकती है। तब कोई दूसरा विकल्प न होने पर वही अनुच्छेद 21 के अधीन एक निर्दोष नागरिक के जीवन की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये उन्ही दुर्लभ से दुर्लभ परिस्थतियों (को परिभाषित कर) में फरार या फरार होता हुआ अफराधी के ‘फेक’ एनकाउंटर को वैध क्यों नहीं घोषित किया जा सकता है, प्रश्न यह है? 
कुछ लोग अवश्य इस आधार पर इस प्रस्तावित संशोधन पर आपत्ति कर सकते है कि, पुलिस के द्वारा इसका दुरूपयोग होने से निर्दोष व्यक्ति भी मारे (एनकाउंटर किये) जा सकते है। यह आशंकाएं व संभावनाएं, निर्मित हर कानून में अंर्तनिहित (विद्यमान) होती है। क्या अत्याचार अधिनियम का दुरूपयोग नहीं हो रहा है? क्या इसीलिए हमने उसको निरस्त कर दिया? इसीलिए वृहत समाज के हितों के निहितार्थ (रक्षार्थ) कुछ निर्दोषों के बलिदान की आशंकाओं के बावजूद भी कानून बनाये जाते थे, हैं, व रहेगें। इस सृष्टि में कोई भी प्रणाली पूर्ण सिद्ध नहीं है। 
अब आप यह जरूर कहेगें कि फेक को वैध कैसे बनाया जा सकता है। दोनों शब्द विपरीत दिशा के है तो, उनके बीच गठजोड़ (फेकढ.झवैध) कैसे बनाया जा सकता है। वह इसलिये आवश्यक है कि हमारी आपराधिक प्रणाली में वर्त्तमान में भी एनकाउंटर (फेक नहीं) वैध है। एनकाउंटर के फेक होने का एक बड़ा कारण मुठभेड़ का लगभग एक से ही पैर्टन का होना भी है। वस्तुतः न्यायालय में पुलिस को प्रायः फेक को ही तो वैध सिद्ध करने का प्रयास करना होता है। एनकाउंटर नकली या नियमांे के विरूद्ध ही होता है। यह बात महाभारत में कर्ण, दुर्योधन, भीष्म, द्रोणाचार्य, जयद्रथ के अधार्मिक तरीकें से मारे जाने से भी सिद्ध होती हैं। अधर्मी के साथ अधर्म करना, छल, कपट करना, व्यवहारिक नीति अपनाना सब नीति संगत है। विदुर नीति में भी यह कहा गया है कि '‘कृते प्रतिकृतिम् कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्। तत्र दोषम् न पश्यामि शठे शाठ्यम् समाचरेत्।'’ अर्थात जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करो। क्योंकि शठ के साथ शठता ही करने में उभय पक्ष का लाभ है।.इसीलिए अधर्मी (घृणित अपराधी) को आधुनिक युग में मारने के लिये अधर्म (धर्म विरूद्ध) तरीके (मुठभेड़) को धर्म सम्मत (कानून का जामा पहनाकर) क्यों नहीं बना देते? ‘‘तब न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी’’!

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

कांग्रेस को ‘‘मुश्किल’’ से प्राप्त ‘‘सत्ता‘‘ को बनाए रखने का नुस्खा चाहिए!

 
मध्य प्रदेश के बाद राजस्थान में भी कांग्रेस की सत्ता की ‘‘चूले‘‘ हिल गई है। कुछ समय पूर्व ही मध्यप्रदेश में ऐसे ही घटनाक्रम ‘‘आपरेशन लोटस’’ के चलते कांग्रेस को सत्ता ही खोनी पड़ी थी। इसके पूर्व कर्नाटक, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर व गोवा में भी सत्ता के बनते ‘‘समीकरण‘‘ को कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व व उनके प्रतिनिधि गण अपने पक्ष में न कर पा सकने के कारण उन प्रदेशों में कांग्रेस सत्तारूढ़ नहीं हो पाई थी। ‘कारण अनेक‘ हो सकते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण इन सब घटनाओं के पीछे जो साफ दिखता है, वह ‘‘सत्ता, शक्ति व अधिकार‘‘ (पावर) का केंद्रीयकरण हद से भी ज्यादा होकर सिर्फ ‘‘परिवार‘‘ के बीच में ‘‘सिमट कर हो जाना है। राजनीति में फैलाव व विस्तार के लिए ‘‘सिमटने की नहीं‘‘ बल्कि ‘‘विकेंद्रीकरण‘‘ की आवश्यकता होती है। चूँकि आपको ‘केंद्र‘ से ‘अंतिम छोर‘ तक जाना व पहुंचाना होता है। इस बात को जितनी जल्दी कांग्रेस का हाईकमांड मतलब ‘‘गांधी परिवार‘‘ समझ ले, उतना ही अच्छा न केवल कांग्रेस पार्टी के ‘‘स्वास्थ्य’’ के लिए है, बल्कि देश के लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की प्रभावी मौजूदगी की आवश्यकता के लिए भी एक अच्छा कदम होगा।
कांग्रेस के लिए लोकतंत्रिय कदम क्या हो सकते है? याद कीजिए! जब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभाओं के चुनाव हुए थे, तब राहुल गांधी ने तीनों प्रदेशों के जो दो दो प्रमुख दावेदार थे, उन्हें बुलाकर चर्चा कर मुख्यमंत्री पद पर उन्हीं ‘पसदीदा’ व्यक्तियों को बैठाया, जिनके पास वास्तव में भी कांग्रेस विधायक दल ‘‘(सीएलपी)‘‘ में बहुमत प्राप्त था। यदि दिल्ली से नियुक्ति (नॉमिनेट) करने के बदले, केन्द्रीय नेतृत्व कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाकर विधायकों को अपना नेता चुनने की स्वतंत्रता दे देता, तब भी परिणाम वही आते, जो राहुल गांधी ने तय किए थे। लेकिन तब कांग्रेस को सबसे बड़ा फायदा यह होता कि, मुख्यमंत्री पद के जो अन्य दूसरे दावेदार थे, उनको अधिकारिक रूप से उन्हे अपनी हैसियत और औकात का पता भी लग जाता। तब वे हारे हुये दावेदार आगे ‘‘हाईकमान’’ के सामने कभी भी यह दावा नहीं कर पाते कि, उनको हाईकमान ने मुख्यमंत्री न बनाकर उनके साथ ज्यादती या पक्षपात किया है। सचिन पायलट के समर्थकों सहित लगभग पूरा मीडिया एवं विपक्ष के द्वारा बार-बार यह कथन किया जा रहा कि, सचिन पायलट की 6 साल की मेहनत से ही राजस्थान में कांग्रेस को बहुमत मिला है। इसमें कोई शक नहीं कि विधानसभा चुनाव की जीत में सचिन पायलट की मेहनत का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अशोक गहलोत वहां के पूर्व में दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। पूरे प्रदेश में उनकी एक मजबूत ‘‘धाकड़ पकड़’’ से कोई इंकार नहीं कर सकता है। अतः जीत सब के संयुक्त अथक प्रयासों के परिणाम से ही हुई है। इसीलिए यदि राजस्थान में तत्समय ही विधायक दल की बैठक बुलाकर विधायकों को अपना नेता चुनने का स्वतंत्रता (फ्री हेंड़) दे दी जाती तो, आज यह बड़ा संकट इस रूप में खड़ा नहीं होता। यद्यपि आज आंकडों की कमी के कारण यह संकट फिलहाल टला अवश्य है, लेकिन खत्म नहीं हुआ है। लोकतंत्र में मंुडियों की संख्या की गिनती का ही सबसे ज्यादा महत्व होता है।
यह स्पष्ट है, कि पूर्व में सीबीआई, आर्थिक अपराध अन्वेषण शाखा, जैसी संस्थाओं का दुरूपयोग कर अनैतिक रूप से राज्यपालों, के माध्यमों से कांग्रेस विपक्ष की सरकारों को गिराने का सफलतापूर्वक खेल खेलती रही है। तब उसे नैतिकता व शुचिता का ध्यान नहीं आया। आज वही खेल कांग्रेस की गलत नीतियों कुप्रबंध का फायदा उठाकर भाजपा जन, धन व बाहुबल के सहारे न केवल कांग्रेस के हाथ में आए सरकार बनाने के सूत्रों (सत्ता की चाबी) को विफल करने में कर रही है, बल्कि चुनी हुई सरकारों को गिरा कर अपनी सरकारे भी बना रही है। तब कांग्रेस के पास विरोध का कौन सा नैतिक अधिकार रह जाता है? देश की राजनीति की यही नियति व मजबूरी मजबूती के साथ आज हो गई है।
उक्त विषय से संदर्भित व सामयिक, देश की राजनीति में लोकतंत्र की स्थिति कैसी व क्या हो गई है? इसकी भी चर्चा कर ले। निश्चित रूप से देश का शासन संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र पर ही टिका हुआ है। लेकिन राजनीतिक पार्टीयों में खासकर कांग्रेस में कितना लोकतंत्र शेष रह गया है? यह बतलाने की कतई आवश्यकता नहीं है? इसीलिए कांग्रस की दशा आज क्या हो गई है, वह सब भी आपके सामने ही है। लेकिन जनसंघ से लेकर भाजपा तक का सफर करने वाली भाजपा तो पार्टी के अंदर आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देते देते थकती नहीं थी। पानी पी पीकर कांग्रेस को इस मुद्दे पर हमेशा कोसती व घेरती रही है। आज उस लोकतंत्र की भाजपा में क्या स्थिति है, कोई तो बता दे? हाई पावर का चश्मा लेकर आंख गढ़ा गढ़ा कर देखने के बाद भी भाजपा के किसी भी फोरम में लोकतंत्र लगभग दिखता नहीं है। बल्कि ऐसा लगता है कि भाजपा ने लोकतंत्र को विभाजित कर ‘‘लोक’’ और ‘‘तंत्र’’ को अलग-अलग कर अपना लिया है। और अपनी सुविधानुसार जब कभी शैक्षणिक क्लासों में चर्चा में लोकतंत्र को दिखाना होता है, तब वह उक्त लोक व तंत्र को मिलाकर लोकतंत्र का प्रतीक जनता के सामने सफलतापूर्वक रख देती है। भाजपा इस बात को क्यों नहीं समझ पा रही है, जिस आंतरिक लोकतंत्र के लगभग समाप्त हो जाने से कांग्रेस की दुर्दशा हुई है। उसी गलती का अनुसरण करके भाजपा क्या कैसे उक्त संभावित  दुर्दशा से बच पायेगी? क्या भाजपा कांग्रेस की अनेक नीतियों जैसे मनरेगा, आधार कार्ड़, जीएसटी, एफडीआई, निजीकरण आदि आदि अनके नीतियां का अनुसरण करने के समान ही पार्टी के अंदर कांग्रेस की उक्त आंतरिक लोकतंत्र विहिन नीति को अपना रही है?  
इस बात को समझने के लिए भाजपा की पूरी राजनैतिक यात्रा को पीछे ले जाकर उस पर विचार करने की आवश्यकता है। ‘‘जनसंघ’’ व वर्ष 1984 में लोकसभा में मात्र 2 सीटों पर सिमट जाने वाली भाजपा में तत्समय सत्ता की संघर्ष की स्थिति न होने के कारण, लोकतंत्र की बात खूब जोर शोर से कही जाती रही। एक जमाना वह था, जब पार्टी बुला बुला कर कार्यकर्ताओं नेताओं को विधानसभा और लोकसभा की टिकटे देती थी। कुछ लोग मना भी कर देते थे। और उनमें से कई लोग अनिच्छा पूर्वक पार्टी के निर्देशों के पालनार्थ भी चुनाव लड़ते थे। मुझे ख्याल आता है, वर्ष 1977 में जब स्वर्गीय कुशाभाऊ ठाकरे जी ने मेरे स्वर्गीय पिताजी गोवर्धन दास जी खंडेलवाल से बैतूल लोकसभा चुनाव लड़ने का अनुरोध किया था। लेकिन तब मीसा में जेल में बंद होकर बाहर आने के बाद परिस्थितियां न होने से उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया था। वर्ष 1989 में ठाकरे जी ने मुझसे भी ‘आरिफ बेग’़ (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) के लड़ने के पूर्व, बैतूल लोकसभा से और तत्पश्चात  कैलाश नारायण सारंग ने बैतूल विधानसभा से मुझे चुनाव लड़ने के लिये कहा था। तब की तत्कालीन परिस्थितियों के चलते मैंने भी चुनाव लड़ने में असमर्थता व्यक्त की थी।   जनसंघ व (प्रारंभिक शुरूवाती दैार में) भाजपा ऐसे अनेकों उदाहरणों से भरी पड़ी हैं। कहने का मतलब मात्र यही है कि जब सक्षम व्यक्ति चुनावी राजनीति की दृष्टि से कम थे, और पद ज्यादा होते थे, तब भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र निसंदेहः पूरे शबाब पर था। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता का लोभ संर्घष बढ़ता गया, उससे उत्पन्न संकट से निपटने के लिये आंतरिक लोकतंत्र का भावना भी कम होती जाकर खत्म होती गई। जबकि सर्वथा आज यही कहा जाता है कि सत्ता का लक्ष्य प्राप्ति हेतु हम लोकतांत्रिक तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। पिछले 20 सालों में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण सामने आया होगा, जब भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा राज्यों में नेता चुनने हेतु भेजे गए पर्यवेक्षकों के निर्देशों के विपरीत स्वतंत्र रूप से विधायकों को नेता चुनने की आजादी कभी मिली हो। नेता चुनने की जो पद्धति कांग्रेस में हाई कमांड के रूप में विद्यमान है, वही पद्धति नाम बदलकर हाई कमांड की जगह केंद्रीय नेतृत्व होकर अपनाई जाती रही है।
एक उदाहरण आपको बताता हूं, जिससे आपको भाजपा की पुरानी और वर्तमान कार्य प्रणाली में अंतर स्पष्ट रूप में समझ में आ जाएगा। याद कीजिए वर्ष 2000 में जब शिवराज सिंह चौहान विक्रम वर्मा (पूर्व नेता प्रतिपक्ष) के विरुद्ध ‘‘पितृ पुरूष’’ कुशाभाऊ ठाकरे की इच्छा के विरूद्ध मध्य प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का चुनाव लड़े थे। लेकिन पितृ पुरूष की नाराजगी के चलते वे चुनाव हार गए। तभी भाजपा में अंतिम बार आंतरिक लोकतंत्र दिखा था। यद्यपि वह सत्ता का नहीं संगठन की सत्ता का लोकतांत्रिक मुकाबला था। लेकिन आज तो संगठन के चुनने में भी लोकतंत्र समाप्त हो गया है। चुनाव आयोग की आवश्यकता की पूर्ति हेतु ही संगठन के चुनाव में भाग्य अजमाइश  होता है। साध्वी सुश्री उमा भारती जब मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी, तब भी उनके नाम पर समस्त विधायक गण एकमत थे। लेकिन जब वह हटी (या हटाई गई?) तब तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के विरुद्ध व उमाजी के पक्ष में विधायकों का बहुमत होने के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश पर प्रमोद महाजन ने जर्बदस्ती शिवराज सिंह चौहान को बहुमत विधायकों की इच्छा के विपरीत मुख्यमंत्री बनाया था। उपरोक्त घटनाओं में मैं कहीं न कहीं उपस्थित था।
लोकतंत्र संविधान द्वारा प्रदत्त जनता की इच्छाओं की पूर्ति के लिये व तुलनात्मक रूप में एक श्रेण बढि़या प्रणाली है। लेकिन अब स्पष्टतः पार्टीयों में आंतरिक लोकतंत्र की बात तो दूर बल्कि स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनावी लोकतंत्र भी कहां व कितने रह गये है? जो गुजरते समय के साथ स्वयं गंभीर प्रश्नों के घेरे में आते जा रहा है। एक चिंता का विषय अवश्य बन गई है। इस चिंता को कौन दूर करेगा? यह तो भविष्य ही बता सकता है। लेकिन निश्चित रूप से जिन जिन कंधों पर यह जिम्मेदारियां है वे सब चिंता से वाकिफ हो कर भी ‘‘वाकिफ’’ इसलिए नहीं हो रहे हैं, क्योंकि कमजोर होते लोकतंत्र की इसी कमजोरी का अपने हितों में वे जब तब फायदा उठाना चाहते हैं। इसलिए जब तक जनता स्वयं आगे नहीं आएगी, यह चिंता कहीं लोकतंत्र की ‘चिता’ में न बदले जाए? जो देश के लिए सबसे बुरी बात होगी? अंत में एक लाइन में इस लेख को पूर्ण किया जा सकता है ‘‘लोकतंत्र को लोकतात्रिक तरीके से ही खत्म किया जा रहा है, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा, जैसा कि अमेरिकन लोकतंत्र के संबंध में प्रसिद्ध लेखक स्टीवन लेविट्स्की एवं डेनियल जिब्लाट ने ‘‘हाऊ डेमोक्रेसी डाई’’ किताब में लिखा है।  

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

कोरोना’ से ‘‘सावधानियों के नियम‘‘ क्या अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों पर लागू नहीं है?*


देश के कई चीजों व विषय वस्तुओं के ब्रांड एंबेसड़र ‘‘महानायक‘‘ अमिताभ बच्चन के ‘‘कोविड-19 के पॉजिटिव‘‘ पाए जाने पर पूरे देश में चिंता की लहर सी फैल गई है, जो स्वाभाविक भी है। देश विदेश में उनके अनगिनत करोड़ों प्रशंसक हैं। साथ ही वे अपनी विशिष्ट शैली में अनेक मुद्दों व ज्वलंत समस्याओं के बाबत आवश्यक जानकारी मीडिया के माध्यम से नागरिकों के बीच प्रस्तुत करते रहते हैं। इक्कीसवीं सदी के अभी तक के वे देश के एक सबसे बड़े ‘‘आईकॉन‘‘ व ‘‘ब्रांड एंबेसडर‘‘ हैं। देश में कही भी किसी भी संकट की स्थिति के होने पर उनसे निपटने के लिए सरकार से लेकर मीडिया तक सभी जनहित में उनकी इस ब्रांड एंबेसड़र के रूप में पहचान का प्रभावी उपयोग करते हैं।
देश की ‘‘धरोहर‘‘ अमिताभ बच्चन ही नहीं देश के अनेक मुख्यमंत्री, मंत्री गण, आईएएस अफसर इत्यादि सहित अनेक ‘वीवीआईपी’, ‘वीआईपी’, ‘आईपी’ कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। उन्हें क्वॉरेंटाइन में रहना पड़ा है। भारत ही नहीं विश्व के अनेक देशों में राष्ट्र प्रमुख से लेकर मंत्री गण और वीआईपी कोविड-19 से संक्रमित हुए हैं।
प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वीआईपी या ब्रांड एंबेसडर जैसे प्रमुख व्यक्ति जो स्वयं नागरिकों को कोविड-19 से बचने के लिए सावधानीयाँ बरतने का संदेश लगातार दे रहे हैं, वे सब कैसे संक्रमित होते जा रहे हैं। इसके दो ही अर्थ निकलते हैं। एक इन वीवीआईपीज द्वारा निर्धारित सावधानियों का स्वयं द्वारा पूर्णतः पालन नहीं किया गया है। अथवा जो सावधानियां इनके द्वारा बतलाई जा रही हैं, वह आधी अधूरी व पूर्णतः सही नहीं है। हम क्या माने? विश्व स्वास्थ संगठन ने मास्क तथा ‘फेस मास्क’ का उपयोग, बार-बार हाथ धोना, सेनेटाईजेशन करना, 6 फीट की मानव दूरी बनाये रखना ये सब प्रमुख सावधानी बरतने की एड़वाइजरी जारी की हुई है। यद्यपि अभी हाल में ही कुछ देशों के वैज्ञानिकों का एक सामूहिक बयान जरूर आया है, जिसमें उन्होंने हवा के माध्यम से कोरोना वायरस के ड्रॉपलेट होने की आशंका जरूर व्यक्त की है। विश्व स्वास्थ संगठन ने भी अधिकारिक रूप से उक्त निष्कर्ष को मान्यता दे दी है।
इसका यही मतलब निकलता है कि अमिताभ बच्चन से भी पर्याप्त सावधानी बरतने में कहीं न कहीं चूक अवश्य ही हुई है। क्योंकि अमिताभ बच्चन ही नहीं उनका पूरा परिवार ही (जया बच्चन को छोड़कर) संक्रमित हो गया है। ‘‘ईश्वर से मैं यही ‘‘दुआ‘‘ करता हूं और पूरा देश भी यही कर रहा है कि, जिस प्रकार वे पूर्व में भी जीवन की समस्त बाधाओं को पार कर शतायु की ओर अग्रसर हो कर, देश की लगभग निस्वार्थ सेवा कर रहे हैं, ‘‘ईश्वर‘‘ उन्हें शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्रदान कर नियमित दिनचर्या करने में उन्हें पुनः पूर्ण रूप से स्वस्थ करें। लेकिन अमिताभ बच्चन से अंत में एक बात का जरूर अनुरोध करूंगा कि वे इस बात को सार्वजनिक रूप से जरूर स्वीकारे कि उनसे कहीं न कहीं की कुछ असावधानी अवश्य हुई है। अन्यथा वे संक्रमित नहीं होते। जिसका एक परिणाम यह हो सकता है कि उनके द्वारा नागरिकों को कोरोना वायरस से बचनेे के लिए सावधानी बरतने की दी जाने वाली शिक्षा संदेश में लोग कहीं कोई कमी को महसूस या ढूढ़ने न लग जाए। क्योंकि अमिताभ बच्चन के एक-एक शब्दों का अपना एक इतना भारी वजन होता है, जिसे अनगिनत जनता अनुसरण करती हैं। इसलिये जिस प्रकार उन्होंने स्वयं आगे आकर अपने संक्रमित होने की जानकारी ‘दुनिया’ को देकर अपने विराट व्यक्तित्व का परिचय दिया है। ठीक वैसे ही, वे कैसे असावधानी बरतने के कारण संक्रमित हुये, इसकी भी यथा संभव जानकारी अपने करोड़ों प्रंशसकों के साथ शेयर कर, वे अपने व्यक्तित्व को और विराट कर सकते है। अंत में एक बात और! अमिताभ बच्चन का इलाज हेतु नानावटी अस्पताल में भर्ती होना तथा कोरोनावायरस संक्रमित होने के कारण अभिनेत्री रेखा के निवास को भी भी सील करने की घटना को एक "इत्तेफाक संयोग" के रूप में प्रचारित करने का क्या औचित्य है ?
                                  धन्यवाद!

रविवार, 12 जुलाई 2020

शाबाश !मध्य प्रदेश! मेरा प्रदेश! अपना प्रदेश !भारत देश!

                                  
वास्तव में देश के ‘‘मध्य‘‘ में होने के कारण मध्य प्रदेश देश का केंद्र बिंदु बना हुआ है। ‘‘ब्रिटिश इंडिया’’ का केंद्र बिंदु मध्य प्रदेश के मेरे अपने जिले बैतूल के ‘‘बरसाली‘‘ ग्राम में स्थित है। मुझे ऐसा लगता है कि जिस प्रकार  भौगोलिक दृष्टि से केंद्र बिंदु (सेंट्रल प्वाइंट)  मध्य प्रदेश मैं होने के कारण प्रदेश ‘‘देश’’ को लीड कर रहा है। ठीक उसी प्रकार राजनीतिक क्षेत्र में मध्य प्रदेश में ऐसा कुछ होता रहता है, जिससे मध्य प्रदेश की राजनीति का केंद्र बिंदु बना रहे।और वह कृतिपये राजनैतिक क्षेत्र में पूरे देश को लीड (नेतृत्व) कर अपने ‘‘केंद्र‘‘ में होने की सार्थकता, उपयोगिता को सिद्ध कर सके।
बात ‘‘राजनीति‘‘ की कर ले! जिसे लेकर हमारा प्रदेश अग्रणी होकर लीड कर, देश को एक नई दिशा दिखाने का प्रयास कर रहा है। जरा सा पीछे जाइए! ज्यादा समय नहीं हुआ है, जब कमलनाथ के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ था। तब पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने पुत्र जो दूसरी बार विधायक बने है, को ‘‘कैबिनेट‘‘ मंत्री बनाने के चक्कर में पूरा का पूरा मंत्रिमंडल ही कैबिनेट से भर (पूर्ण) कर दिया था। देश के राजनीतिक इतिहास में शायद ही इसके  पहले कभी ऐसा हुआ हो। इस प्रकार मध्यप्रदेश ने इस दिशा में अग्रणी होकर सत्ता की राजनीति को नई दिशा देकर लीड किया। साथ ही समस्त प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को जिनमें से कईयों की ‘‘पुत्र मोह’’ की स्थिति है,अपने पुत्रो की ‘‘सवारने’’ के लिये उन्हें एक नई दिशा दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ के माध्यम से ‘‘मध्यप्रदेश‘‘ ने दी।
आइए मध्यप्रदेश  द्वारा देश को ‘‘लीड‘‘ करने के दूसरे कदम की ओर चलते हैं। कुछ समय पूर्व 14 वर्ष से मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह ने जब मुख्यमंत्री पद की चैथी बार शपथ ली थी, तब  एक महीने से ज्यादा समय तक बिना  सहयोगी मंत्रियों के मंत्रिमंडल के ‘‘अकेले’’ ‘‘कोरोना संक्रमण संकट काल में ‘‘सफलतापूर्वक’’ शासन चलाया। इसके लिए शिवराज सिंह बधाई के पात्र हैं, जिनके माध्यम से मध्यप्रदेश ने पूर्ण राजनीतिक कौशल दिखाकर देश का राजनीतिक नेतृत्व किया। षिवराज के इस जादू ने गायक मुकेश की ‘‘चल अकेला चल अकेला’’गाने की याद दिला दी ।इसके आगे और चलिए।एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बाद जब पांच मंत्री बनाए गए तो उन्हें भी विभाग का आवंटन करने के पहले प्रदेष की ‘‘भौगोलिक स्थिति‘‘ को महत्व देते हुए संभागीय प्रभार दिए गए। देष की भौगोलिक स्थिति के ‘‘केंद्र‘‘ में होने के कारण ही तो शायद मध्यप्रदेश का महत्व है?
और थोडा आगे चलिए ! शिवराज सिंह तो नई नई चीजें ईजाद कर जनता के बीच प्रस्तुत करने में माहिर है। इसीलिए लोकप्रिय मुख्यमंत्री होकर ‘‘जगत मामा‘‘के रूप में जाने जाते हैं। लगभग दो महीने से ज्यादा की लंबी प्रतीक्षा के बाद उन्होंने अपना पूरा  मंत्रिमंडल का गठन करने में ‘‘सफलता‘‘ पाई। मध्य प्रदेश प्रदेश हमेशा नई-नई चीजें इजाद कर देश का नेतृत्व करें,शायद मुख्यमंत्री ने अपनी इस भावना के कारण, चैदह गैर विधायकों को मंत्री बनाने का ऐतिहासिक कार्य कर देश को एक नया संदेश दिया है। इस मंत्रिमंडल विस्तार में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ‘‘दिग्विजय सिंह फार्मूले‘‘ का भी भरपूर फायदा उठाया है। सिंधिया समर्थक दो मंत्री ऐसे व्यक्ति बनाए गए हैं, जो मात्र डेढ़ वर्ष ही विधायक रह पाए है।
  आइए इस सफर को कुछ और आगे तेजी से बढाकर सफर पूरा करें। आठ दिन व्यतीत हो जाने के बावजूद अपने मंत्रियों को विभागों का बंटवारा नहीं किया ? (नहीं हो पाया है)। इस प्रकार उन्होंने देश को यह दिशा दी कि, बिगर मंत्री मंडल की सहायता  के भी प्रदेश का शासन सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है । प्रशासन को भी उन्होंने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि मंत्रियों के बीच विभागों के बंटवारे के न हो पाने के बावजूद मुख्यमंत्री पूरे प्रदेश को ‘‘नौकरशाही‘‘ के माध्यम से आवश्यक कार्य निष्पादित (एग्जीक्यूट) कर संदेश देने में सक्षम हैं। ‘‘नौकरशाही’’ भी शायद यही चाह रही है कि उसके 33 मालिक न होकर एक ही मालिक हो, तो ज्यादा अच्छे से काम कर पाएंगे, और शायद कर रहे हैं। यह अनुभव मैंने कुछ अनुभवी सम्मानीय ‘‘नौकरशाहों’’ से चर्चा के दरमियान महसूस किया है। वैसे यह एक अलग विषय है कि जनप्रतिनिधि गण अपने को जनता का सेवक ‘‘नौकर‘‘ ‘‘सर्वेंट ऑफ द मास्टर‘‘ मानते हैं, तब ब्यूरोक्रेसी इन सेवकों के मालिक हुई  या ?इस प्रकार माननीय शिवराज जी ने एक नई  ईजाद  का सफलतापूर्वक प्रयोग कर इस मंत्रिमंडलीय ढांचे में होने वाले अनावश्यक खर्चे को बचाने की दिशा में देश की आर्थिक बचत कर देश को एक नया संदेश देना चाहते हैं? क्योंकि सही परिपक्व नेतृत्व (शिवराज सिंह ) को सहयोगी मंत्रीयों की कोई आवष्यकता नहीं हैं। इस प्रकार अपना मध्य प्रदेश इस कारण से भी देश का नेतृत्व करेगा? इस बात के लिए भी उनको कोटीशः बधाई?
कुछ मंत्रियों द्वारा विभाग बंटवारे में देरी पर यह कहा  कि मुख्यमंत्री पूर्ण विचार-विमर्श चर्चा के उपरांत ‘‘यथा योग्य‘‘ विभागों का बंटवारा करेंगे? यदि विभागों के बंटवारे में ही दस दिनो का महत्वपूर्ण समय जाया जा रहा है, तब मुख्यमंत्री त्वरित निर्णय कैसे ले पाएंगे? या उनके निर्णय क्षमता पर यह एक प्रश्नवाचक चिन्ह तो नहीं है? यह एक और प्रश्न व शंका को जन्म देता है कि पूर्व में इन्हीं शिवराज सिंह जी ने तीन बार मुख्यमंत्री बनने पर अपने मंत्रिमंडल साथियों का बंटवारा जल्दी कर दिया था ।  क्या तत्समय वे बिना  विचारे, जल्दबाजी मे लिए गए निर्णय थे ? या मुख्यमंत्री जी के निर्णय लेने की क्षमता इन पंद्रह सालों में कुछ कमजोर हो गई है ? इन सब प्रश्नों का कोई जवाब नहीं होते हैं ? यही ‘‘राजनीति का चरित्र है‘‘ जिसे प्रत्येक नागरिक को ‘‘भोगना‘‘ है।
वैसे आज शाम तक विभागों की बटवारा होने की घोषणा शिवराज सिंह ने जरूर की है।

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

‘विकसित’’ यूपी में ‘‘विकास‘‘ ‘‘राज‘‘ के साथ ‘‘ अराजकता राज‘‘ भी चल रहा है!


जिस बात की आशंका ‘‘गैंगस्टर’’ विकास दुबे की गिरफ्तारी के समय उत्पन्न हो रही थी व कतिपय क्षेत्रों में व्यक्ति भी की गई थी, वह अंततः चरितार्थ सही सिद्ध हुई। मुठभेड़ की घटना के पूर्व ही माननीय उच्चतम न्यायालय में एक वकील द्वारा दायर याचिका में भी उक्त आंशका व्यक्त की गई थी। यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी, खासकर मीडिया ने भी उक्त आशंका व्यक्त की थी। लेकिन इतनी जल्दी मुठभेड़ (‘‘एनकाउंटर‘‘) हो जाएगी, यह आशा (आशंका) शायद नहीं थी। 
इस ‘‘एनकाउंटर की सत्यता‘‘ को मानने के पूर्व आपको पहले यह तय करना होगा कि विकास दुबे को पुलिस ने ‘‘वास्तव‘‘ में गिरफ्तार किया है या उसने ‘‘आत्मसमर्पण‘‘(सरेंडर‘‘) किया? तकनीकि रूप से और अभिलेखनुसार (रिकॉर्ड) उसे उज्जैन पुलिस ने गिरफ्तार किया है, यह निसंदेह है। लेकिन ‘‘दुर्दांत गैंगस्टर’’ विकास दुबे ‘‘आपराधिक प्रवृत्ति, प्रकृति का एक शातिर चालाक अपराधी था‘‘। अंतः उसकी उन चालाक प्रवृत्तियों व शातिर दिमाग को साथ में रखकर समस्त विद्यमान वर्तमान समग्र स्थितियों पर पर उसकी गिरफ्तारी होने की स्थिति सामान्य ज्ञान से विचार कीजिये! तो निश्चित रूप से यह बात लगभग उभर कर आती है कि विकास दुबे ने मुठभेड़ से अपनी जान बचाने की दृष्टि से या तो स्वयं योजनाबद्ध तरीके से आत्म समर्पण किया है, या‘‘ अपने प्रभावी सूत्रों‘‘ के सहारे से, आत्मसमर्पण को गिरफ्तारी का ‘‘जामा पहनाया‘‘ गया है।
गिरफ्तारी के समय के वृतांत का थोड़ा सा भी चित्रण देख ले तो, स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती हैं। यह बतलाया गया कि विकास दुबे के प्रसिद्ध उज्जैन ‘‘महाकाल मंदिर’’ पहुंचने पर उसने फूल वाले से यह पूछा कि मंदिर के दर्शन कहां से होते हैं कैसे होते हैं ? विकास दुबे की मां कथन है कि, उसका बेटा विकास हर साल ‘‘महाकाल‘‘ के दर्शन करने जाता है। तब विकास द्वारा महाकाल दर्शन के बाबत उक्त जानकारी लेने का  प्रश्न ही कहां पैदा  होता है? विकास की मां के कथन पर  विश्वास करना पड़ेगा, क्योंकि दूसरी तरफ उनने यह भी कथन किया है, कि उसका बेटा अभी समाजवादी पार्टी में हैं। जिस तथ्य को सत्य मानकर भाजपा के प्रवक्ता मीडिया में बार-बार बता रहे हैं। 30 वर्ष वाले व्यक्ति की गलत आईडी प्रस्तुत कर आईडी वाला नाम भी न बतलाना क्या उसकी बेवकूफी को दर्शाता है? वह किसी ने किसी बहाने वहां मौजूद सुरक्षा गार्ड का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था, यही ज्यादा सत्य है।   
गिरफ्तार या लगभग कस्टड़ी में लिये आरोपी व्यक्ति की ‘‘महाकाल मंदिर‘‘ में जाने से लेकर निकलने तक के ‘‘फुटेज‘‘ देखिए, स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। ऐसा लग रहा है कि, विकास दुबे निजी सुरक्षा गार्ड एवं एक पुलिस कॉन्स्टेबल को स्वयं लगभग ‘‘लीड‘‘ हुए करते हुए आगे बढ़ते दिख रहा है। जहां शुरू में में कुछ समय तक किसी भी सुरक्षा गार्ड ने उसके शरीर को दबोचा हुआ पकड़ा नहीं है? यदि विकास को भागना ही होता, जैसा कि ‘‘मुठभेड़ के कारण में‘‘ बतलाया जा रहा है तो, उसके पास महाकाल मंदिर के परिसर में एनकाउंटर स्थल से ज्यादा अच्छे अवसर भागने के थे। क्योंकि तत्समय तब वहां पर न तो भारी मात्रा में एसटीएफ फोर्स थी और न ही स्थानीय पुलिस का घेरा था। ‘‘मैं विकास दुबे हूं कानपुर वाला‘‘, विकास दुबे का यह अजीबोगरीब कथन भी इस बात को पुष्टि करता है कि, वह मुठभेड़ में मारे जाने के डर से आत्मसमर्पण करने ही उज्जैन आया था। उसे अच्छी तरह से मालूम था कि, यदि यूपी पुलिस उसे कहीं भी गिरफ्तार करेगी तो, पुलिस उसे गिरफ्तार करने के बजाय एनकाउंटर में मार डालेगी। गिरफ्तारी के ‘‘पूर्व रात्रि’’ में कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक का महाकाल मंदिर का निरीक्षण और महाकाल चौकी इंचार्ज का तबादला क्या सिर्फ एक संयोग मात्र है? महाकाल मंदिर के प्रभारी एसडीएम होते हैं, न कि कलेक्टर। लगभग 750 किलोमीटर बेरोकटोक चलकर कई नाकों व जिले की सीमाओं को पार कर एक दिन पूर्व उज्जैन पहुंच जाना, सुबह मंदिर जाने के पूर्व स्नान करना, आखिर यह सब क्या दर्शाता है? यदि पुलिस की मिलीभगत नहीं है तो, निश्चित रूप से यह पुलिस के खुफिया तंत्र की पूर्णता विफलता है। तब हमें क्या यह न मानने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा कि विकास दुबे के खुफिया तंत्र को पुलिस ने अपना लेना चाहिए?
आइए; अब मुठभेड़ की घटनास्थल पर चलें। कैसे दुर्दांत अपराधी को पुलिस ने बिना हथकड़ी और जंजीरों में जकड़े एक स्थान से दूसरे स्थान ले जा रही थी? या पुलिस उच्चतम न्यायालय के उस "निर्णय" की रक्षा कर रही थी जिसमें यह  दिशा निर्देश दिये गये थे कि, किसी भी अभियुक्त को बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के हथकड़ी न लगाई जावें। यद्यपि उसी उच्चतम न्यायालय ने "प्रेम शंकर शुक्ला" के मामले में यह भी निर्णय दिया है कि ऐसे दुर्दांत आदतन अपराधी को केस डायरी में कारण लिख  कर हथकड़ी लगाई जा सकती है। एक प्रश्न सबके मन में अवश्य कौंध रहा होगा कि उज्जैन से कानपुर के लिये रवाना होते समय विकास दुबे की गाड़ी के काफिलों के साथ अन्य गाडियों को 20 कि.मी. दूर रखे जाना उक्त मुठभेड़ किये जाने की (होने की नहीं) शंका को बल देता है। विकास दुबे द्वारा द्वारा पिस्टल छीनने का कथन किया गया है । पिस्टल की सुरक्षा के लिए सिपाहियों ने पैराकॉर्ड को बेल्ट में लगाकर क्यों नहीं बैठे ? विकास दुबे को एसटीएफ द्वारा स्व: सुरक्षा में गोली चलाए जाने पर घटना स्थल पर खून के निशान न देखना पुनः एक प्रश्न चिन्ह लगाता है। गाड़ी कैसे व किन परिस्थितियों मेें पलटी, तुरंत घटना के साथ स्पष्टीकरण न दिया जा कर 10 घंटे बाद यह कहा गया कि 'गाय भैंस का झुंड" आ जाने से गाड़ी पलटी। कमाल देखिए!गाय-भैंस का झुंड भी एक साथ गाड़ी के काफिले के "बीच" की गाड़ी में आ गई। गाय भैंस के झुंड को एक साथ देखने की तमन्ना अब मेरे मन में भी पैदा हो गई है? गाड़ी पलटने पर  उसके घसीटे जाने के भी कोई निशान नहीं। क्या पुलिस विकास दुबे की दुर्दांत कुकृत्य से अनभिज्ञ थी? एक दिन पूर्व इसी तरीके से प्रभात मिश्रा की मुठभेड में हुई मौत क्या पुनः एक संयोग है? आगे पीछे की गाड़ियों के बजाय (प्रभात दुबे समान) सिर्फ विकास दुबे की गाड़ी का ही पलटना? दुर्घटना में आई तथाकथित चोटों का अभी तक खुलासा न होना । अर्थात इस पूरे प्रकरण में कितने संयोग पैदा किये गये है? गिरफ्तारी होने के बाद एडीजी प्रशांत कुमार ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि वैधानिक सीमा में रहकर अपराधीयों पर  ऐसी कार्यवाही होगी जिसका उन्हे पछतावा होगा। पुलिस कर्मियों की शहादत बेकार नहीं जायेगी।उनका उक्त कथन सत्य तो सिद्ध हुआ, लेकिन उसमें वैधानिकता व उसके पुट का अभाव दिखा। वैसे यह भी सच है कि विकास दुबे को मुठभेड़ में मार ड़ालने से शहीद पुलिस कर्मियों के परिवारों की इच्छा पूर्ति व उन्हे आत्मसंतुष्टि जरूर मिली।"वर्दी" के लिये तात्कालिक रूप से यह एक संतोष की बात हो सकती है। 
शायद न्यायिक प्रक्रिया के तहत अभियुक्त को अंजाम तक पंहुचाने में लगने वाला लम्बा समय व सफलता की 100 प्रतिशत गारंटी न होने के कारण ही भुक्त भोगी परिवारों को न्याय दिलाने का यह एक छोटा लेकिन सरल रास्ता मुठभेड़ का अपना कर पुलिस को स्वयं ही न्याय करना पड़ा? क्योंकि पूर्व में वे यही हत्यारे थाने में र्दजा प्राप्त मंत्री संतोष शुक्ला को पुलिस मौजूदगी में ही मार कर, फिर बेदाग छूट भी जाता है। इससे एक बड़ा यक्ष प्रश्न पैदा होता है कि यदि उसका एनकाउंटर नहीं किया जाता या नहीं होता तो, उससे समाज को ज्यादा फायदा होता। क्यों? इसलिये कि मुठभेड़ से मात्र एक दुर्जन हत्यारा स्वयं तो खत्म हुआ, जिसके अत्याचार से पीडि़त क्षेत्रीय जनता भविष्य में सुरक्षित अवश्य हुई। लेकिन जिस शासन, प्रशासन व पुलिस तंत्र ने विकास का ‘‘विकास’’ करते हुये उसे एक गैंगस्टर के रूप में विकसित कर दिया। जिस कारण उस अत्याचारी भावना का जो "विकास" हुआ, वह तो इस मुठभेड़ से समाप्त नही हुआ। यदि विकास को जिंदा रखा जाता तो "खाकी" व "खादी" के संयुक्त संबंधों से विकास दुबे की "पाईप लाईन" में मिलने वाली "रसद" के बाबत उससे जानकारी शायद मिल जाती। तब फिर विकास दुबे तो जेल की सलाखों के पीछे पड़ा सड़ता रहता, लेकिन भविष्य में दूसरा "विकास" व ऐसी दुर्दांत अत्याचारी भावनाओं का विकास न हो सकें, इसके लिये शासन को एक ‘‘स्वेत पत्र’’ जारी कर भविष्य में  योजनाबद्ध तरीके से  भविष्य में आवश्यक कार्यवाही करने का एक अवसर अवश्य मिल जाता। चूकि  इस तरीके में उन लोगो की तथाकथित सफेद चादर पर ‘काले धब्बे' ही नहीं बल्कि पूरी की पूरी पोशाक ही काली हो जाती, जिनके पास यह कार्यवाही करने की शक्ति व जिम्मेदारी है। तभी तो कहा गया ‘‘सैयां भले कोतवाल अब ड़र काहे का’’। लेकिन प्रश्न पुनः यही पैदा होता है कि  प्रगतिशील युग में‘‘ इंसान’’? (क्या विकास इंसान था?) को मारकर "इंसाफ"  दिलाया जा सकता है?  
विकास दुबे द्वारा 2 जुलाई को बिकरू गांव में 8 पुलिस वालों को शहीद कर देने के बाद से इस पूरे मामले में पुलिस की अराजकता के उदाहरण लगातार दृष्टिगोचर हो रहे है। विकास के 5 साथी ‘‘एनकांउटर’’ में अलग-अलग घटनाओं में मारे गये। विकास की लग्जरी गाडियों व मकान को जमीदोज कर दिया गया। किस कानून के तहत? बजाएं कानून का विश्वास बढ़ाने के लिये कानून की प्रक्रिया अपनाई जाकर दंड देने की कार्यवाही प्रांरभ क्यों नहीं की गई? जिस तेजी से विकास गैंगस्टर बनने की ओर विकसित हुआ, क्या उत्तर प्रदेश सरकार उससे भी ज्यादा तेजी से अपने को अराजक होने दे रही है? क्या अपराधी को अंततः फांसी न दिलवाने की अपनी अक्षमता के चलते "तंत्र" में उपस्थित घुन के समान लगे जयचंदों विभीषणों के कारण अपने तय नियत वैधानिक रास्ते के बदले, यह छोटा रास्ता अपनाया गया? यह तब भी सही  ठहराया जा सकता था, यदि विकास दुबे से "तंत्र" में घुसे समस्त दीमकों घुनों की जानकारी लेकर उसे सार्वजनिक करते तो "तंत्र" को सुधारने का अवसर भी मिलता जो अवसर सरकार ने खो दिया। याद कीजिए! डाकू मोहर सिंह व माधों सिंह दुर्दांत चंबल के खुखार डाकू थे, जिन्होने 10- 20 नहीं सैंकडों हत्यायें की थी। उन्हे जब समर्पण करने पर )माफी दी जा सकती है, सभ्य नागरिक बनाया जा सकता है। तो विकास दुबे का समर्पण करवा कर उसे एनकाउंटर से "माफी" देकर उसके द्वारा दी जाने वाली "इनपुट" से तंत्र को सुधारने का कार्य नहीं किया जा सकता था ? तब शायद देश का ज्यादा भला होता व ‘‘न्याय’’ भी न्यायिक तरीके से मिल जाता। खैर!  
अंततः अपराध के ‘‘विकास’’ का ‘‘राज’’ ‘‘ढे़र’’ कर दिया गया है। क्या यह एनकांउटर एक गैंगस्टर का दूसरे गैंगस्टर (सरकारी?) द्वारा अंत तो नहीं किया गया है? जो क्या व कहां तक उचित है? उक्त मुठभेड़ भविष्य में कुछ दिनों तक अवश्य  चर्चा मैं बनी रहेगी।

सोमवार, 6 जुलाई 2020

क्या कांग्रेस ‘‘(राज)’’ ‘‘नीति’’ ‘‘(राज)’’ की ‘‘वापसी’’ तो नहीं हो रही है?


रेलवे बोर्ड़ के चेयरमैन ने अप्रैल 2023 तक 'पीपीपी मोड़' द्वारा 109 जोड़ी प्राइवेट ट्रेन के संचालन के निर्णय की जानकारी दी है। साथ ही यह भी कहा गया कि ‘‘मेक इन इंडिया’’ के तहत इससे लगभग 30,000 हजार करोड़ रूपये का निवेश भी मिलेगा। यद्यपि इसके साथ ही यह भी दावा किया गया है कि, रेलवे का "निजीकरण" नहीं किया जा रहा है। मात्र 5 प्रतिशत ट्रेन ही निजी संचालन द्वारा चलेगीं। लेकिन रेलवे को निजीकरण के रास्ते में ले जाने के लिए, क्या यह एक बड़ा कदम नहीं है? क्या इससे कोई इंकार कर सकता है? इसके पूर्व देश की पहली निजी रेल 26 अगस्त 2019 को ‘‘तेजस एक्सप्रेस’’ नई दिल्ली से लखनऊ मार्ग पर चली। इसके पूर्व वर्ष 2016 में ट्रेनों में विज्ञापनों के लिये निजी क्षेत्र को खोलकर प्रथम बार रेलवे के निजीकरण का संकेत दिया जा चुका है।  
लेख आगे बढ़ाने के पूर्व, मैं आपको 29 वर्ष पीछे ले जाना चाहता हूं। वर्ष 1991 में जिनेवा में "गैट" (व्यापार एवं तटकर संबंधी सामान्य समझौता) जिसके डाइरेक्टर जनरल ‘‘आर्थर डंकल’’ के नाम से एक प्रारूप (मसौदा) सहमति के लिए प्रस्तुत किया गया था। जो  "विश्व व्यापार संगठन"(डब्ल्यूटीओ) का आधार बना ।उसका अघोषित उद्देश्य तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों को आर्थिक नव उपनिवेशवादी गुलामी में जकड़ना था। ‘‘डंकन प्रस्ताव’’ की कुछ महत्वपूर्ण शर्ते भारत देश के हितों के विरूद्ध होने के कारण, भाजपा ने उस पर दस्तखत न करने के लिए तत्समय कांग्रेस सरकार पर दवाब बनाने के लिये, जोर शोर से पूरे देश में तीव्र आंदोलन चलाया था। तब यह कहा गया था कि, इस ‘‘डंकन प्रस्ताव’’ पर यदि भारत ने हस्ताक्षर कर दिये तो, हमारा देश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामान पुनः गुलाम हो जायेगा व हम अपनी ‘‘आर्थिक सम्प्रभुता’’ खो देगें। ‘‘गैट’’ के माध्यम से ‘डंकन प्रस्ताव’ लागू होने पर ‘‘पेंटेट कानून’’ (बौद्धिक सम्पदा अधिनियम) जो किसानों के हितो की रक्षा करता है सहित, विदेशी पूंजी निवेश, उद्योग, खेती, बैंकिग, बीमा, आयात-निर्यात, स्वास्थ्य शिक्षा, हस्तशिल्प उद्योग इत्यादि क्षेत्रों में देश के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। अंततः डंकन प्रस्ताव पर कांग्रेस सरकार ने 15 दिसम्बर 1994 को दस्तखत कर दिये। इस प्रकार भारत सहित कुल 117 देश इसके सदस्य बनें। परन्तु वर्ष 1994 से लेकर आज तक 'डंकन'  के कारण भारत कितनी ‘‘गुलामी’’ में पंहुचा,भाजपा बतलाने को तैयार नहीं है? न ही अटल जी की सरकार,और न हीं मोदी सरकार ने उक्त डंकन अनुबंध से वापस हटने की कभी कोई चर्चा आज तक नहीं की! क्यों? आश्चर्यजनक रूप से भाजपा ने देश की आर्थिक दुर्दशा व बदहाली के लिए  डंकन अनुबंध को कभी भी आज तक जिम्मेदार नहीं ठहराया। क्यों?
याद कीजिए! जब देश में प्रथम बार वर्ष 1991 में नरसिम्हाराव व तत्पश्चात मनमोहन सिंह की सरकार के कार्यकाल में एफडीआई (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश) द्वारा आर्थिक सुधारों की बुनियाद रखी गई थी। तब भी भाजपा ने 'पानी पी-पी कर कोस कर' यह कहकर कि देश की अर्थव्यवस्था विदेशी कंपनियों की गुलाम हो जायेगी, कितना विरोध किया था, सब जग जाहिर है। यह कहा था कि, सरकार सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौपकर बेचकर, अपने निजी दोस्तों को उपकृत कर रही है। यद्यपि तब तो एफडीआई की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत रखी गई थी। लेकिन आज क्या हो रहा है? आज निवेश की अधिकतम सीमा के प्रतिबंध के बिना ही देश में एफडीआई के माध्यम से तेजी से निवेश लाया जा रहा है। मनमोहन सिंह की सरकार ने  टेलीफोन विभाग, विद्युत मंडल (राज्यों में) जो पूर्णतः सरकारी विभाग थे, को तोड़कर कई निगमों में कंपनी बनाकर परिवर्तित कर दिया था। इसी तरह ‘‘मनरेगा," "आधार" व ‘‘जीएसटी’’ कांग्रेस सरकार लायी थी। लेकिन उक्त हर नीति का तत्समय भाजपा ने पुरजोर विरोध किया था और एक "जिम्मेदार जागृत विपक्ष" के रूप में या तो उसे लागू ही होने नहीं दिया या उसे उसी रूप में पूरी तरह से लागू नहीं होने दिया। "शाइनिंग इंडिया" का नारा देकर भाजपा अब क्या कर रही है?.... और क्यों?   
‘‘जीएसटी’’ की बात ही कर लीजिए! तत्समय भाजपा के विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों (वर्त्तमान प्रधानमंत्री जो तत्समय मुख्यमंत्री थे सहित) ने विरोध किया था और आज उसे पूरे सिद्दत के साथ लागू किया गया। यद्यपि 'एक देश एक दर' की जो मूल अवधारणा थी, वह व्यवहार में नहीं उतर पाई। कांग्रेस ने जब वर्ष 2005 में ‘‘मनरेगा’’ (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना) को लागू किया था, तब भी भाजपा ने विरोध किया था। बल्कि वर्ष 2015 में तो प्रधानमंत्री की हैसियत से नरेन्द्र मोदी ने 27 फरवरी को लोकसभा में ‘‘मनरेगा’’ को कांग्रेस की 'विफलताओं' का जीता जागता "स्मारक" बतलाकर मजाक उड़ा कर उसे कभी बंद न करने की बात की थी। लेकिन उसी 'मनरेगा' का बजट हर साल बढ़ाया जा रहा है। बल्कि कोराना काल में तो इसे गरीबों की आवश्यकताओं की पूर्ति का सफलतापूर्वक साधन बनाया गया है। आधार कार्ड़ को भी लागू करते समय भाजपा ने उसका स्वागत तो नहीं किया था? लेकिन बाद में एक कदम आगे बढ़ाकर कानून पारित करवाकर 12 जुलाई 2016 को उसे एक कानूनी आधार दिया। आज वह समस्त सूचनाओं का आधार केन्द्र बना हुआ है। वर्ष 2012 में कांग्रेस के मन में एयर इंडिया के निजिकरण के आये विचार को भाजपा के ‘‘क्रोध’’ ने उसे मन में ही "दफन" कर दिया गया था। 
‘‘एडॉप्ट ए हेरिटेज‘’ स्कीम के तहत ऐतिहासिक लाल किला को सरकार ने डालमिया ग्रुप को 25 करोड़ में सँवारने के लिए सौंप दिया है। यह ‘‘सँवारना’’ कितना अस्थाई या स्थाई होगा, भविष्य ही बतलायेगा। इस योजना के तहत ताजमहल के भी गोद लेने की प्रक्रिया पूरी की जा रही है। इसी प्रकार पोस्ट आफिस, टेलीफोन और विद्युत पावर प्लांट, सीईएल (सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड), बीपीसीएल, एयर इंडिया, कोयला खदान और न जाने ऐसी कितने सरकारी संस्थाएँ,व उत्पादन इकाइयां है,जो हमारे देश के सामान्य व्यक्तियों के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति उनकी क्रय क्षमता के अनुसार कर रही हैं। उनका भी निजीकरण किया जा रहा या उस ओर सोचा जा रहा है। इस प्रकार नरसिम्हाराव व मनमोहन सिंह की आर्थिक उदारीकरण की नीति पर ‘‘भाजपा का पूर्ण ठप्पा’’ लगाया जा कर उसे "वैध" किया जा रहा है। भाजपा (संघ) ने एक समय सरकारी विभागों के निजीकरण के खिलाफ देश में वैचारिक क्रांति लाने की दृष्टि से स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की थी। यद्यपि मंच द्वारा निजीकरण का लगातार विरोध किया गया,जो विरोध आज भी जारी है। लेकिन वह अब 'बेबस' ही रह गया है।
इससे यह स्पष्ट है कि, आज देश में वही सब नीतियों को आगे बढ़ाया जा रहा है, जिनका प्रार्दुभाव कांग्रेस की विभिन्न सरकारों ने किया था। तब भाजपा ने उठकर राष्ट्रहित में उन नीतियों का खुलकर विरोध किया था। जो ‘‘भाजपा’’ के रूप में ‘‘कांग्रेस की नीतियों की वापसी’’ आज बुलंदियों से दिख रही है, यह कहना कतई गलत नहीं होगा। मतलब एक समय कांग्रेस सरकार में इंदिरा गांधी ने निजीकरण (निजी क्षेत्र) का जो राष्ट्रीयकरण किया था, चाहे वह बैंक का मामला हो फारेस्ट प्रोड्यूस (जंगल उत्पाद लकड़ी, गोंद, चिरोंजी इत्यादि) के मामले हो या अन्य कोई, जैसा कि वर्ष 1971 में ‘‘गरीबी हटाओं’’ नारे का सूत्रापात कर उस दौर में किया गया था। चूंकि भाजपा अपने को कांग्रेस से अलग दिखाना चाहती है, (जैसे कि वह "शैशव काल" में दिखती थी) इसीलिए उसने नारा दिया था ‘‘पार्टी विथ डिफर्रेस’’ ‘‘सबको परखा हमको परखों’’। इस बात को सिद्ध करने के प्रयास में, भाजपा अवश्य यह दावा कर सकती है कि, कांग्रेस की उक्त राष्ट्रीयकरण की नीति के विपरीत आज वह निजीकरण की नीति अपना रही है और इस प्रकार वह कांग्रेस की नीति का अनुपालन नहीं कर रही है? लेकिन एक कदम जम्मू कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के बाद निसंदेह वह  कांग्रेस से अलग अपनी प्रथक पहचान बनाए रखने का दावा जरूर कर सकती है।
वास्तव में ऐसा लग रहा है, यूपीए 1 व 2 के बाद, एनडीए 1 आया तो, जरूर कुछ परिर्वतन लगा। लेकिन जिस प्रकार यूपीए 2 भटक गया, उसी प्रकार एनडीए 2 कही अब ‘‘यूपीए 3’’ तो नहीं बन रहा है, यह चिंता का विषय है। इसीलिए स्वदेशी जागरण मंच को इस संबंध में साहस व मजबूती के साथ आगे आगकर विरोध करना चाहिए। लोकतंत्र में भारत जैसे देश में  नागरिकों के परस्पर जीवन स्तर में ‘‘असमानता’’ का अंतर बहुत बड़ा है। इसलिये सरकार को अपनी 65-70 प्रतिशत उक्त गरीब जनता को बिना मुनाफा की दृष्टिकोण के उनके हितार्थ विभिन्न योजनाएं चालू रखनी पड़ती है। क्या देश का निजी क्षेत्र इतना, उदारवादी, देश प्रेमी है, जो घाटे की स्थिति में भी जरूरत मंद उक्त 65-70 प्रतिशत जनता को उनकी क्रय क्षमता के अनुरूप उन्हे आवश्यक जीवन प्रणाली उपलब्ध करा सकेंगा? 
अंत में‘निजीकरण’ के संबंध में अपने  मध्य प्रदेश का भी एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूं। मध्य प्रदेश में बस के निजीकरण से उत्पन हुई बस चालन की स्थिति से आप भलि भांति वाकिफ है। आज एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूब भी निजी क्षेत्र का संगठन इतना बलवान व मजबूत है कि उनकी शर्ते पूरी नहीं होने के कारण वे बस का पुनर्चलन प्रारंभ नहीं कर रहे है। यदि बस का राष्ट्रीयकरण भाजपा सरकार (बाबुलाल गौर मुख्यमंत्री) के समय नहीं किया गया होता, तो मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम अस्तित्व में रहता और आज यह दुर्दशा की स्थिति निर्मित नहीं हो पाती। 
एक चीज और जोड़ना चाहता हूं,, भाजपा के ‘‘कांग्रेसीकरण’’ होने के बाबत। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में चौथी बार मंत्रिमंडल के गठन में भी वही कांग्रेसी नीति अपनाई गई है, जिससे ‘‘नई पैंकिग’’ (भाजपा) में ‘‘पुरानी वस्तु’’ (कांग्रेस) आ गई है। मध्य प्रदेश का इतिहास गवाह है। वर्ष 1967 में श्रीमंत श्रीमती विजय राजे सिंधिया ने कांग्रेस को तोड़कर संयुक्त विधायक दल का निर्माण कर गोविंद नारायण सिंह  के नेतृत्व में ‘संविद’ सरकार का निर्माण किया गया था। जिसमें मेरे पूज्य पिता जी स्वर्गीय जीडी खंडेलवाल"जनसंघ" कोटे से मंत्री बनाए थे ।(तब जनसंघ की सरकार नहीं कही गई थी) आज सरकार  ‘‘संविद’’ के दूसरे प्रारूप में है। जहां कांग्रेसीयों व भाजपाइयों के दिल तो मिले नहीं, लेकिन विवेक व बुद्धि को सत्ता का फेवीकाल लगाकर एक ऐसा मजबूत जोड़ बनाया गया है, जो सत्ता की उष्ण की गर्माहट के बढ़ने की स्थिति में ही सहन न कर पाने के कारण ‘‘फेवीकाल’’ के पिघलने पर टूट सकती है। अन्यथा भाजपा का कांग्रेसीकरण चलता रहेगा। भाजपा की कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना व आशा के दौर में, उसकी वर्त्तमान कार्यपद्धति से तो यही मतलब निकलता है कि, कांग्रेसीयों से भले ही भारत मुक्त हो जाए, लेकिन कांग्रेस (एक विचार धारा) समाप्त न होकर भाजपा में लीन (विलय) होती जायेगी। तब इस विलय से भाजपा  स्वयं को बड़ा प्रथक अस्तित्व दिखाने की बजाए, भाजपा (विचार धारा के कारण) ‘कांग्रेस’ के रूप में दिखेगी। अर्थात हमें मूल भाजपा के ‘‘दर्शन’’ (दर्शन शास्त्र सहित) नहीं हो पायेगे? यह एक बहुत बड़ा चिंता का विषय वर्त्तमान भाजपा कार्यप्रणाली के देखते हुये, भविष्य का हो सकता है?

शनिवार, 4 जुलाई 2020

‘‘चीन’’ का नाम ‘‘क्यों’’ नहीं लिया ? भारतीय? राष्ट्रीय? कांग्रेस!


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘अचानक’ ‘‘लेह’’ (लद्दाख) की यात्रा द्वारा 11000 फुट की उंचाई पर स्थित अग्रिम चौकी ‘‘नीमू’’ पंहुचकर सैनिकों के बीच ‘‘दम’’ भर कर सेना की हौसला अफजाई की। यह कहकर कि ‘‘बहादुरी और साहस शांति की जरूरी शर्ते हैं, दुश्मन ने हमारे जवान की ताकत व गुस्से को देखा है‘‘। इस दौरे के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता गण ट्वीट्स और टीवी चैनलों में बहसों के दौरान एक ही बात की बार-बार रट लगाए जा रहे हैं कि, प्रधानमंत्री जी ने चीन का नाम क्यों नहीं लिया। इसके पूर्व भी ‘‘मन की बात‘‘ या ‘‘राष्ट्र को संबोधित‘‘ करते समय या अन्य किसी भी मौके पर भारत चीन सीमा पर उत्पन्न तनाव की चर्चा करते समय, प्रधानमंत्री ‘‘चीन‘‘ का ‘‘नाम‘‘ क्यों नहीं लेते हैं? यह प्रश्न कांग्रेस बेशर्म होकर बारम्बार पूछ रही है। सीमा पर उत्पन्न वर्तमान  तनाव के संकटकाल के संदर्भ में, इस प्रश्न का कितना औचित्य है? या यह सिर्फ कांग्रेस की घटिया राजनीति मात्र तो नहीं है?
कांग्रेस ऐसा प्रश्न पूछ कर आखिर सिद्ध क्या करना चाहती है? प्रधानमंत्री ने जब तब समय-समय पर अपने संबोधन में ‘चीन’ का नाम लिए बिना ‘‘इशारों इशारों’’ में ही देश की सीमाओं की सुरक्षा के संबंध में चीन को परोक्ष रूप से गंभीर चेतावनी व आवश्यक चुनौती देते रहे है। ‘‘हमारे देश की 1 इंच भूमि पर भी कोई दुश्मन देश कब्जा नहीं कर सकता है’’। ‘‘मातृभूमि की रक्षा और सुरक्षा की हमारी क्षमता व संकल्प हिमालय से भी ऊँचा है।’’ बार-बार उक्त भावनाएं व्यक्त करके सफलतापूर्वक प्रधानमंत्री ने समस्त पक्षों को संदेश दिये हैं। दुर्भाग्यवश इन संदेशों की गूंज कांग्रेस के कान में नहीं ‘‘गूंजी’’? (शायद ‘आंख‘ ‘कान‘ बंद रखने के कारण?) परन्तु भारत को अपनी सीमा सुरक्षा के बाबत जो संदेश चीन के प्रति (विरूध्द) देना चाहिए था, पूरे विश्व में वह अवश्य गया है। जिसके प्रमाण में विश्व के कुछ प्रमुख देशों द्वारा उक्त संदेश का संज्ञान लेना है। बगैर नाम लिए ही संबंधित पक्ष को प्रभावी रूप से ‘संदेश’ के माध्यम से नसीहत देना ’’नरेंद्र मोदी’’ की एक ’’कला’’ है। कांग्रेस उस ‘कला’ से चिढ़ क्यों रही है? क्या सिर्फ इसलिए कि राहुल गांधी को वह कला नहीं आती है? परिस्थितिजन्य इशारों में संदेश देना भी कई बार एक प्रभावपूर्ण कला मानी जाती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि, हम जब इस तरह से दुश्मन देश का नाम लिए बगैर चर्चा करते हैं, तब विश्व पटल में नाम लेने से यदि कोई अंतर्राष्ट्रीय जगत में किसी देश को साधने में एक प्रतिशत की भी शंका होने की संभावना हो, तो वह समाप्त हो जाती है। अपितु इससे कुछ भी नुकसान नहीं होता है। चीन का नाम न लेने का एक फायदा यह भी हुआ कि, उक्त संदेश सिर्फ चीन के लिये लागू न होकर समस्त पड़ोसी दुश्मन देशों जिनमें पाकिस्तान भी शामिल है, को इंगित किये हुये लागू हो गया। इस बात को कांग्रेस क्यों नहीं समझना चाहती है?
कांग्रेस या कोई भी यह तो समझाएं कि, कड़क संदेश शब्दों से नहीं शब्दों में अंतर्निहित भावों और बोलने वाले व्यक्ति की भाव भंगिमा और शारीरिक हाव भाव (बॉडी लैंग्वेंज) पर ज्यादा निर्भर होता है। यदि प्रधानमंत्री विनम्रता के साथ चीन का नाम ले लेते या बिना किसी ‘‘भाव‘‘ या ‘‘भाव भंगिमा‘‘ के चीन का नाम ले लेते, तो क्या कांग्रेस संतुष्ट हो जाती? क्या उससे भविष्य के प्रश्न समाप्त हो जाते है? बजाएं उसके क्या कांग्रेस को यह प्रश्न अभी भी पूछना चाहिये कि चीन से 20 शहीदों का बदला लेने के लिये उनकी सैन्य नीति क्या है? चीन का नाम नहीं लेने से चीन के प्रति प्रधानमंत्री का संदेश क्या ‘‘कमजोर‘‘ हो गया है? कैसे? वैसे जब कांग्रेस की दृष्टि में चीन का नाम लिया ही नहीं गया है, तो चीन के प्रति संदेश कमजोर कैसे? क्या इससे प्रधानमंत्री की भारत चीन सीमा की एल.ए.सी की सुरक्षा की और चीन को उसी की भाषा में जवाब देने की तैयारी में कोई कमी आ गई है? वैसे भी आवश्यकतानुसार प्रधानमंत्री ने चीन का नाम लिया है। जैसे (सर्वदलीय बैठक के संबोधन में) इसलिए कांग्रेस का यह आरोप न केवल झूठा है, बल्कि अर्थहीन व स्तर हीन है।
ऐसा लगता है कि, राहुल गांधी में ऐसी वाकपटुता और इशारों में कड़ा संदेश देने की कला न होने के कारण राहुल की उक्त कमी को छुपाने के लिये, कांग्रेस प्रधानमंत्री की आलोचना कर रही हैं। इस तरह के प्रश्न पूछकर कांग्रेस जाने अनजाने में देश की संप्रभुता के प्रति उसकी आस्था पर (वह) स्वयं ही प्रश्न चिन्ह लगाकर कटघरे में खड़ी कर रही है, इससे प्रधानमंत्री की निष्ठा कतई प्रभावित नहीं होती। अतः ऐसे प्रश्न करना, राष्ट्रहित में कदापि उचित नहीं है। वास्तव में ऐसे समय कांग्रेस को राहुल गांधी के नाम से भारत चीन सीमा पर उपस्थित तनाव की स्थिति के संबंध में चीन का नाम लिए बिना प्रधानमंत्री से ज्यादा कड़क संदेश जारी करके देश की सार्वभौमिकता के प्रति अपनी सबसे पुरानी प्रतिबद्धता को सार्वजनिक कर, देशहित का कार्य कर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। जिससे इस संकट की घड़ी में पूरा भारत देश एक है, एकजुट है, एकता के सूत्र में खड़ा है, यह संदेश चीन सहित पूरे विश्व को जाय। फिलहाल यही अनुरोध कर,मैं कांग्रेस से उक्त (नाम न लेने के) स्टैंड पर पुनर्विचार कर उक्त उनसे राग अलाप बदं करने की अपील करता हूं।
वैसे मैं कांग्रेस से एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहता हूं कि उन्हें प्रधानमंत्री द्वारा अपने भाषण में सिर्फ चीन का नाम लेने मात्र में ही रूचि है, या वे चीन के विरुद्ध आवश्यक कड़क कार्यवाही चाहते है। कांग्रेस यदि यह गांरटी लेती है कि, प्रधानमंत्री के द्वारा अपने भाषणों में चीन का नाम ले लेने भर से सीमा पर उत्पन्न संकट समाप्त हो जायेगा। तो मैं निश्चित रूप से प्रधानमंत्री से अनुरोध करूगा कि वे लगभग रूग्ण अवस्था में बिस्तर पर पड़ी कांग्रेस (भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही हैं) की इच्छा पूर्ति अवश्य करें। ‘‘भाषण बाजी‘‘ और और धरातल पर काम करने में अंतर होता है, खासकर जब मामला सेना व देश की सुरक्षा नीति से संबंधित हो। यह बात तो उस कांग्रेस को, जिसकी सरकार ने तीन-तीन युद्ध झेले हैं, अच्छी तरह से मालूम होनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने चीन का नाम क्यों नहीं लिया, यह प्रश्न पूछने की बजाए कांग्रेस को सार्वजनिक रूप से देश को तथा प्रधानमंत्री को यह मुद्दा बतलाना चाहिए कि, वर्तमान परिस्थिति में सीमा पर कौन से कदम उठाने आवश्यक थे, जो अभी तक सरकार ने नहीं उठाए हैं। ताकि सरकार उन ‘‘विस्तृत सुझावों‘‘ पर ‘‘गम्भीरता’’ से विचार कर सकें। ‘‘उंगलियां’’ उठाकर सरकार व सेना के मनोबल को गिराने/तोड़ने का कार्य अनजाने अनचाहे में न करें। जिम्मेदार विपक्ष के रूप में युद्ध के साए के संकट काल में ऐसे अनर्गल प्रश्न पूछते रहने की बजाए सरकार द्वारा अभी तक किए गए कार्यों की ‘‘समीक्षा’’ करके, उनमें सरकार से यदि कोई गंभीर त्रुटि हो गई है तो, सुझावों के साथ उन्हे इंगित करना ही वर्तमान घड़ी में राष्ट्र धर्म है।
प्रधानमंत्री ने लद्दाख दौरे के दौरान सेना की जवानों के बीच जो भाषण दिया, उसमें उन्होंने  चीन का नाम लिए बिना ही ‘‘विस्तारवाद का युग’ समाप्त हो गया, जिसने हमेशा ’’दुनिया भर की शांति को खतरा पैदा किया है’’ यह कह कर परोक्ष रूप से चीन की कड़ी आलोचना की है। चीन को तो यह बात तुरंत समझ में आ गई कि ‘‘विस्तारवादी’’ शब्द का प्रयोग तो उसी के लिए किया गया है। और इसलिए उसने अपनी ओर से जवाब देने में कोई देर नहीं की और कहां हमें विस्तावादी कहना आधारहीन है। लेकिन कांग्रेस को यह बात अभी तक भी समझ में नहीं आ रही है कि, प्रधानमंत्री ने बिना चीन का नाम लिए ही उस पर ऐसा गंभीर आरोप मढ़ दिया, जिससे वह तिलमिला उठा और तुरंत उत्तर देने को मजबूर हुआ। कांग्रेस को इस बात पर विश्वास करना चाहिए और भरोसा रखना चाहिए कि, वक्त आने पर प्रधानमंत्री अपने मुखारविंद से (जैसा कि कांग्रेस चाहती हैं) सिर्फ ‘‘चीन का नाम ही नहीं लेंगे, वरण आवश्यकता पड़ने पर सही समय पर ‘‘शस्त्रों की नोक के सामने‘‘ चीन का नाम रख करके शस्त्र चलवा कर, उसको माकूल जवाब भी देंगे। देश की अस्मिता एकता और स्वाभिमान से ओत-प्रोत हमारे प्रधानमंत्री के 56 इंच के सीने की प्रतिष्ठा का सवाल है। कांग्रेस को न केवल स्वयं में विश्वास पैदा करना चाहिए, बल्कि उतना ही विश्वास प्रधानमंत्री पर भी रखना चाहिए। वर्तमान समय में यही उसका कर्तव्य है। अन्यथा उसे ‘‘राष्ट्रीय’’ ‘‘भारतीय’’ (कांग्रेस) कहलाने का नैतिक अधिकार नहीं बचेगा। क्योंकि राष्ट्रीयता व भारतीयता का कोई भी निविष्ट (इनपुट) उक्त प्रश्न में नहीं है। 

बुधवार, 1 जुलाई 2020

हमारे देश में ‘‘कानून‘‘ क्या ‘उल्लंघन‘ के लिए ‘‘ही’’ बनाए जाते हैं?


                                                                  
राष्ट्रहित में सभ्य व अनुशासित तरीके से समाज में जीने के लिए नागरिकों के लिये प्रथम ‘‘संविधान’’ का निर्माण और फिर संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों के तहत विधायिका द्वारा आवश्यकतानुसार विभिन्न कानून नियम बनाए गये हैं। नियम व कानून बनाने तथा संशोधन करने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। इन्ही पारित कानूनों के द्वारा प्राप्त अधिकारों के तहत कार्यपालिका भी नागरिकों के जीवन में अनुशासन ढ़ालने के लिए समय-समय पर आवश्यक आदेश, निर्देश जारी करती रहती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि, हम शायद इतने अनुशासनहीन नागरिक हो गये हैं कि, सांस लेने से लेकर मरने तक अनुशासित रूप से जीने के लिए (जिनमें बहुत से कार्य बिना कानून के व स्वेच्छा से ही होना चाहिये) हमारे देश में शायद इतने नियम कानून बने है जो शायद विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। कुछ कानून तो ऐसे है जो बेतुके, अप्रांसगिक अवांछित और अजीबोगरीब है। शायद इसलिये क्या हमें ‘नागरिक’ कहलाने का या दावा करने का ‘‘मौलिक नैतिक’’ हक है?
क्या आप जानते है कि देश में करीब 3.1 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनके निपटारे में 364 साल लगेंगे, बशर्ते न्यायाधीशों की संख्या प्रति 10 लाख लोगों पर 10.5 की हो। प्रधानमंत्री नियुक्त होने के फौरन बाद नरेन्द्र मोदी ने केन्द्रीय सचिवों से कहा था कि, आप अपने विभाग से संबंधित मुझे 10 ऐसे कानून या नियम बताइए जिन्हें हम निरस्त कर सकते हैं। एनडीए सरकार द्वारा अपने दो कार्यकाल में अभीतक 1874 पुराने कानून को खत्म कर चुकी है। देश में लागू संपूर्ण कानूनों की कोई सूची उपलब्ध नहीं है। केन्द्रीय कानूनों की संख्या अनुमानित 3000 के करीब बताई जाती है। इसी तरह 1998 में गठित जैन आयोग ने अनुमान लगाया था कि 25000-30000 के आसपास राज्यों के कानून हो सकते है इसके अलावा प्रशासकीय और स्थानीय कानूनों की तो गणना ही संभव नहीं है।
कोरोना काल में बने नियमों व आदेशों और तदनुसार जारी निर्देशों ने मेरे ध्यान में यह बात पुनर्जीवित की है कि, क्या हमारा ‘‘गरीब’’ देश इतने भारी भरकम अमीर कानूनों का भार सहन कर सकता है? भारी भरकम व अमीर शब्द का प्रयोग इसलिये किया है कि, वास्तव में कुछ कानून ऐसे है, जिनका परिपालन भारी भरकम प्रक्रिया लिये हुये है; व कुछ के निष्पादन व अनुपालन बहुत ही खर्चीले हैं। इन पर विस्तृत चर्चा फिर कभी करेगें। आज तो आपका ध्यान सिर्फ उन्ही कानूनों तक सीमित रखना चाहता हंू, जो विद्यमान में धरातल पर लागू हैं। उनमें से कितने कानूनों का कितने लोग पूर्णतः या लगभग पूर्णतः या किस सीमा तक पालन करते हैं? इसका जवाब निश्चित रूप से ‘‘न’’ में ही होगा। आइए! इसका कुछ विश्लेषण कर हम स्वयं का आत्मविवेचन व आत्मावलोकन कर लें। 
यदि हम अधिसंख्यक कानूनों के बाबत चर्चा करने का प्रयास करेगें तो, विषय काफी बड़ा हो जाएगा। इसलिए हम अभी सिर्फ कोरोना संकटकाल में बने नियमों, आदेशों व निर्देशों के धरातल पर लागू व प्रभावी होने व उपयोगी होने की ही चर्चा करेगें। इस चर्चा के द्वारा सामान्य रूप से देश में लागू समस्त कानूनों की स्थिति की समीक्षा एक आइने के समान आपके सामने आ जायेगीं। विश्वव्यापी कोरोना वायरस से बचने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन ने कुछ सावधानियाँ बतलाई हैं। इनमें तीन प्रमुख सावधानियां मास्क, बार-बार सैनिटाइजेशन करना व स्वच्छता बनाये रखना तथा सोशल डिस्टेंसिंग को अपनाना है। इन सावधानियों को लागू करने व अपनाने के लिए सरकार ने महामारी अधिनियम 2005, दंड प्रक्रिया संहिता (धारा 144) भारतीय दंड संहिता (धारा 188) व अन्य संबंधित कानूनों व नियमों के अंतर्गत विभिन्न आदेश, निर्देश जारी किए हैं। महामारी अधिनियम 2005 के अंतर्गत नियम भी बनाए हैं।  
कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए सबसे मुख्य व महत्वपूर्ण सावधानी ‘‘मानव दूरी‘‘ (‘‘सोशल डिस्टेंसिंग‘‘) की चर्चा कर लें। जिसके पालन हेतु ही तो पूरे देश में बिना समय दिये लॉक डाउन लगाया गया था। सोशल डिस्टेंसिंग का स्पष्ट मतलब है, 6 फीट की मानव दूरी बनाएं रखना। अब जरा देख लीजिए! इस 6 फुट की मानव दूरी का पालन कहाँ व कैसे हो रहा है? तथा व्यवहार में यह कितना संभव है? सर्वप्रथम कुछ जगह तो परिस्थितियां ऐसी है, जहां इसका पालन होना किसी भी स्थिति में संभव ही नहीं है। सामान्य दुकानदारों की ही बात कर लें। उनकी दुकानें सामान्यतः अधिकतर 10-11 फुट से ज्यादा चौड़ी नहीं होती हैं। व्यवहारिक रूप से वहां पर 6 फीट की मानव दूरी बनाए रखना असंभव है? दुकान के बाहर तो फिर भी 6 फीट के गोले बनाकर ग्राहकों को खड़ा किया जा सकता है, और भुगतान भी ई वालेट (डिजिटल भुगतान) द्वारा अनिवार्य करने पर वहां भी 6 फीट की मानव दूरी बनाये रखी जा सकती है। लेकिन क्या समस्त ग्रामीण, अनपढ़, वृद्ध ग्राहक खासकर महिलाएँ ई वालेट का उपयोग कर सकती है? क्या वे उसका उपयोग करना जानती हैं? यहां तक भी ठीक है। लेकिन सामान (गुड्स) की डिलीवरी 6 फीट दूर से कैसे हो सकेगी? इसका कोई रास्ता न तो बतलाया गया है, न ही दिखता है। इस प्रकार एक ग्राहक और दुकानदार के बीच एक बार के पूरे ट्रांजैक्शन (खरीद-बिक्री) के दौरान ही (6 फीट की मानव दूरी की सावधानी नहीं बरत पाने से़) संक्रमण का पूरा खतरा ग्राहक व दुकानदार के बीच बना रहता है। 
इसी प्रकार समस्त प्रकार के वाहनों (चार पहिया कार, जीप इत्यादि ,तिपहिये और द्वि-पहिये में) 6 फीट की दूरी बनाए रखना, वर्तमान में बनाए गए नियम व उसमें दी गई छूटों को देखते हुए बिल्कुल ही असंभव है। जब तक कि इन वाहनों की (डिजाईन) बनावट में तदनुसार आमूल-चूल परिर्वतन नहीं कर दिया जाता है। इसी तरह बस, ट्रेन और हवाई जहाजों में भी एक एक सीट आल्टरनेट (वैकल्पिक) छोड़ने के बावजूद 6 फीट की मानव दूरी बनाये रखना संभव नहीं हो पाएगा। वैसे ही कारखानों में बहुत सी उत्पादन प्रक्रियाएं ऐसी है, जिनमें कार्य निष्पादन करते हुए 6 फीट की मानव दूरी बनाए रखना बमुश्किल है। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं जो मैंने कलमबद्ध किए हैं, जहाँ नागरिकों के लिये स्वःस्फूर्त अथवा पुलिस के डंडे़ के ड़र के बावजूद 6 फीट की मानव दूरी के नियम का पूर्णतः पालन करना किसी भी तरह से संभव नहीं है।
आइए; अब उन नियमों और कानूनों की चर्चा कर ले, जिनका अस्तित्व सिर्फ कागजों पर ही दिखता है। कहीं भी लागू होता नहीं दिखता। सार्वजनिक जगहों पर थूकना, धूम्रपान करना, पेशाब करना, आवाज की सीमित तीव्रता में डी.जे. बजाना, उसकी समय व समयावधि तय होना, दीपावली की आतिशबाजी की समय सीमा, अतिथि सत्कार की संख्या व खाने के ‘‘मीनू’’ पर प्रतिबंध इत्यादि अनेक ऐसे दैनिक जीवन के कर्म हैं, जिन्हें विभिन्न कानून नियम बनाकर प्रतिबंधित/सीमित  किया गया है। इन कानूनों और नियमों का कितना पालन हो रहा है, यह लिखने की आवश्यकता नहीं है। 
क्या कभी हमने कभी सोचा है कि, हम दिन प्रतिदिन ऐसे नए-नए कानून और नियम बनाकर कहीं नागरिकों को दिन प्रतिदिन इनका उल्लंघन करने और उन्हें गैर जिम्मेदाराना नागरिक बनाने की ओर तो नहीं ढकेल रहे हैं? इसलिये जब हम कोई नया कानून बनाते हैं, तो उसके पालन के संबंध में कानून बनाते समय ही विचार कर लेना चाहिए और उसके शत प्रतिशत पालन की प्रक्रिया भी निर्धारित कर ली जानी चाहिए। कानून सिर्फ कागजों की शोभा बढ़ाने के लिए ही नहीं बनाए जांय। कुछ कानून तो ऐसे होते हैं, जिनका पढ़ा-लिखा नागरिक या सरकार स्वयं भी पालन नहीं कर पाती है। एक उदाहरण फूड़ सेफ्टी अधिनियम (फसाई) का प्रस्तुत हैं। ‘‘फसाई’’ अधिनियम के अंतर्गत बने नियम के अधीन जारी लाइसेंस के नियम की अनुसूची 4 में वर्णित के हाईजिननिक व सैनेटरी प्रावधानों पर गौर कीजिये, जिसका अनुपालन लगभग असंभव है! जैसे रेस्टोंरेट की दीवार पर पेंट की किंचित खुरचन भी दिखाई दे जाए तो, उसके लिये फाइंन का प्रावधान है। क्या यह व्यवहारिक व संभव है? अतः स्पष्ट है कानून का पालन करवाने वाले तंत्र (कार्यपालिका, शासन एवं प्रशासन) स्वयं अपने अधीनस्थ कर्मचारियों व संस्थाओं द्वारा कानून का पालन नहीं करवा पाती हैं।
इत तरह से कोई भी नागरिक कानून का लगातार उल्लंघन करने का दोषी बनकर एक अनुउत्तरदायी व्यक्ति बन जाता है। तब किसी बड़े अपराध के लिए कानून बनाने की स्थिति में, उस नागरिक का वह अनुउत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार व स्वभाव, उस कानून का पालन कराने में, रुकावटें पैदा नहीं करेगा? इसलिए कानून बनाने के पहले चाहे वे कितने ही हल्के या छोटे, उनको लागू करने के पहले जनता को शिक्षित किया जाना अत्यंत जरूरी है। ताकि उन कानूनों का पालन करने के लिए उन्हें प्रेरित और उत्प्रेरित किया जा सकें। जिससे वे कानून अनुयायी नागरिक बन सकें। कानून के उल्लंघन करने की स्थिति में दिये जाने वाले दंड प्रावधानों से भी उन्हें भली भाँति अवगत व शिक्षित कराया जाए। एक तय समय सीमा की लक्ष्मण रेखा के बाद उन्हे कठोरतम रूप से दंडि़त भी किया जावें। यह सही है कि कानून का पालन कानून के डंडे के डर से ही होता है। लेकिन क्या हम अपनेे देश में इस ‘ड़र’ परसेप्शन (अनुभूति) को बदलने का प्रयास नहीं कर सकते?
वास्तव में कुछ कानून के कष्टकारी व अस्पष्ट प्रावधानों के कारण भी उनका पूरा अनुपालन नहीं हो पाता है। दूसरी ओर इन प्रावधानों की जटिलता व क्लिष्टता के रहने से सरकारी मशीनरी को इनके दुरूपयोग द्वारा भ्रष्टाचार करने को बढ़ावा मिलता है। अतः ऐसी स्थिति में कानून की उपयोगिता कितनी प्रभावी है, इस पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। 
यदि हम पीछे मुड़कर देखे; तो कानून का पालन नहीं हो पाने का एक कारक वास्तव में ‘‘संस्कारों’’ में कमी आ जाना भी रहा है। याद कीजिए! हमारे ‘‘संस्कारित देश’’ की वे ‘‘परम्पराएँ’’ (कस्टमरी कानून) जिनके पालन हेतु कानून के किसी ड़डें का भय नहीं, वरण सामाजिक व पारम्परिक आवश्यकताएं, बेरोजगार का भय व लिहाज ही होता रहा है। जैसे ब्राम्हण समाज के सदस्यों द्वारा जनेऊ पहनना। सात फेरे लेना। मृतक को ‘‘आग’’ देने वाले व्यक्ति से 13 दिन की दूरी बनाये रखना। चौके मंे हर किसी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित रहना। बाथरूम जाने पर नहाना। मुस्लमानों के द्वारा ‘‘खतना’’ करवाना आदि अनेक प्रथाएं व नैतिक मूल्यों को मान्यताएं जैसे झूठ बोलना, चोरी करना पाप है, इत्यादि जो हमारी पूर्व पीढियों में रही; जिनका पालन बिना किसी दबाव या ड़र के हम सब करते रहे हैं। 
अतः स्पष्ट है कि कानूनों की संख्या सीमित कर उसका पालन अधिकतम स्वेच्छापूर्ण हो, ऐसी दीर्घकालीन नीति नागरिक को ‘‘कानूनदा’’ बनाये जाने के लिये जरूरी हैं।

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