राष्ट्रहित में सभ्य व अनुशासित तरीके से समाज में जीने के लिए नागरिकों के लिये प्रथम ‘‘संविधान’’ का निर्माण और फिर संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों के तहत विधायिका द्वारा आवश्यकतानुसार विभिन्न कानून नियम बनाए गये हैं। नियम व कानून बनाने तथा संशोधन करने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। इन्ही पारित कानूनों के द्वारा प्राप्त अधिकारों के तहत कार्यपालिका भी नागरिकों के जीवन में अनुशासन ढ़ालने के लिए समय-समय पर आवश्यक आदेश, निर्देश जारी करती रहती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि, हम शायद इतने अनुशासनहीन नागरिक हो गये हैं कि, सांस लेने से लेकर मरने तक अनुशासित रूप से जीने के लिए (जिनमें बहुत से कार्य बिना कानून के व स्वेच्छा से ही होना चाहिये) हमारे देश में शायद इतने नियम कानून बने है जो शायद विश्व में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। कुछ कानून तो ऐसे है जो बेतुके, अप्रांसगिक अवांछित और अजीबोगरीब है। शायद इसलिये क्या हमें ‘नागरिक’ कहलाने का या दावा करने का ‘‘मौलिक नैतिक’’ हक है?
क्या आप जानते है कि देश में करीब 3.1 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनके निपटारे में 364 साल लगेंगे, बशर्ते न्यायाधीशों की संख्या प्रति 10 लाख लोगों पर 10.5 की हो। प्रधानमंत्री नियुक्त होने के फौरन बाद नरेन्द्र मोदी ने केन्द्रीय सचिवों से कहा था कि, आप अपने विभाग से संबंधित मुझे 10 ऐसे कानून या नियम बताइए जिन्हें हम निरस्त कर सकते हैं। एनडीए सरकार द्वारा अपने दो कार्यकाल में अभीतक 1874 पुराने कानून को खत्म कर चुकी है। देश में लागू संपूर्ण कानूनों की कोई सूची उपलब्ध नहीं है। केन्द्रीय कानूनों की संख्या अनुमानित 3000 के करीब बताई जाती है। इसी तरह 1998 में गठित जैन आयोग ने अनुमान लगाया था कि 25000-30000 के आसपास राज्यों के कानून हो सकते है इसके अलावा प्रशासकीय और स्थानीय कानूनों की तो गणना ही संभव नहीं है।
कोरोना काल में बने नियमों व आदेशों और तदनुसार जारी निर्देशों ने मेरे ध्यान में यह बात पुनर्जीवित की है कि, क्या हमारा ‘‘गरीब’’ देश इतने भारी भरकम अमीर कानूनों का भार सहन कर सकता है? भारी भरकम व अमीर शब्द का प्रयोग इसलिये किया है कि, वास्तव में कुछ कानून ऐसे है, जिनका परिपालन भारी भरकम प्रक्रिया लिये हुये है; व कुछ के निष्पादन व अनुपालन बहुत ही खर्चीले हैं। इन पर विस्तृत चर्चा फिर कभी करेगें। आज तो आपका ध्यान सिर्फ उन्ही कानूनों तक सीमित रखना चाहता हंू, जो विद्यमान में धरातल पर लागू हैं। उनमें से कितने कानूनों का कितने लोग पूर्णतः या लगभग पूर्णतः या किस सीमा तक पालन करते हैं? इसका जवाब निश्चित रूप से ‘‘न’’ में ही होगा। आइए! इसका कुछ विश्लेषण कर हम स्वयं का आत्मविवेचन व आत्मावलोकन कर लें।
यदि हम अधिसंख्यक कानूनों के बाबत चर्चा करने का प्रयास करेगें तो, विषय काफी बड़ा हो जाएगा। इसलिए हम अभी सिर्फ कोरोना संकटकाल में बने नियमों, आदेशों व निर्देशों के धरातल पर लागू व प्रभावी होने व उपयोगी होने की ही चर्चा करेगें। इस चर्चा के द्वारा सामान्य रूप से देश में लागू समस्त कानूनों की स्थिति की समीक्षा एक आइने के समान आपके सामने आ जायेगीं। विश्वव्यापी कोरोना वायरस से बचने के लिए विश्व स्वास्थ संगठन ने कुछ सावधानियाँ बतलाई हैं। इनमें तीन प्रमुख सावधानियां मास्क, बार-बार सैनिटाइजेशन करना व स्वच्छता बनाये रखना तथा सोशल डिस्टेंसिंग को अपनाना है। इन सावधानियों को लागू करने व अपनाने के लिए सरकार ने महामारी अधिनियम 2005, दंड प्रक्रिया संहिता (धारा 144) भारतीय दंड संहिता (धारा 188) व अन्य संबंधित कानूनों व नियमों के अंतर्गत विभिन्न आदेश, निर्देश जारी किए हैं। महामारी अधिनियम 2005 के अंतर्गत नियम भी बनाए हैं।
कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए सबसे मुख्य व महत्वपूर्ण सावधानी ‘‘मानव दूरी‘‘ (‘‘सोशल डिस्टेंसिंग‘‘) की चर्चा कर लें। जिसके पालन हेतु ही तो पूरे देश में बिना समय दिये लॉक डाउन लगाया गया था। सोशल डिस्टेंसिंग का स्पष्ट मतलब है, 6 फीट की मानव दूरी बनाएं रखना। अब जरा देख लीजिए! इस 6 फुट की मानव दूरी का पालन कहाँ व कैसे हो रहा है? तथा व्यवहार में यह कितना संभव है? सर्वप्रथम कुछ जगह तो परिस्थितियां ऐसी है, जहां इसका पालन होना किसी भी स्थिति में संभव ही नहीं है। सामान्य दुकानदारों की ही बात कर लें। उनकी दुकानें सामान्यतः अधिकतर 10-11 फुट से ज्यादा चौड़ी नहीं होती हैं। व्यवहारिक रूप से वहां पर 6 फीट की मानव दूरी बनाए रखना असंभव है? दुकान के बाहर तो फिर भी 6 फीट के गोले बनाकर ग्राहकों को खड़ा किया जा सकता है, और भुगतान भी ई वालेट (डिजिटल भुगतान) द्वारा अनिवार्य करने पर वहां भी 6 फीट की मानव दूरी बनाये रखी जा सकती है। लेकिन क्या समस्त ग्रामीण, अनपढ़, वृद्ध ग्राहक खासकर महिलाएँ ई वालेट का उपयोग कर सकती है? क्या वे उसका उपयोग करना जानती हैं? यहां तक भी ठीक है। लेकिन सामान (गुड्स) की डिलीवरी 6 फीट दूर से कैसे हो सकेगी? इसका कोई रास्ता न तो बतलाया गया है, न ही दिखता है। इस प्रकार एक ग्राहक और दुकानदार के बीच एक बार के पूरे ट्रांजैक्शन (खरीद-बिक्री) के दौरान ही (6 फीट की मानव दूरी की सावधानी नहीं बरत पाने से़) संक्रमण का पूरा खतरा ग्राहक व दुकानदार के बीच बना रहता है।
इसी प्रकार समस्त प्रकार के वाहनों (चार पहिया कार, जीप इत्यादि ,तिपहिये और द्वि-पहिये में) 6 फीट की दूरी बनाए रखना, वर्तमान में बनाए गए नियम व उसमें दी गई छूटों को देखते हुए बिल्कुल ही असंभव है। जब तक कि इन वाहनों की (डिजाईन) बनावट में तदनुसार आमूल-चूल परिर्वतन नहीं कर दिया जाता है। इसी तरह बस, ट्रेन और हवाई जहाजों में भी एक एक सीट आल्टरनेट (वैकल्पिक) छोड़ने के बावजूद 6 फीट की मानव दूरी बनाये रखना संभव नहीं हो पाएगा। वैसे ही कारखानों में बहुत सी उत्पादन प्रक्रियाएं ऐसी है, जिनमें कार्य निष्पादन करते हुए 6 फीट की मानव दूरी बनाए रखना बमुश्किल है। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं जो मैंने कलमबद्ध किए हैं, जहाँ नागरिकों के लिये स्वःस्फूर्त अथवा पुलिस के डंडे़ के ड़र के बावजूद 6 फीट की मानव दूरी के नियम का पूर्णतः पालन करना किसी भी तरह से संभव नहीं है।
आइए; अब उन नियमों और कानूनों की चर्चा कर ले, जिनका अस्तित्व सिर्फ कागजों पर ही दिखता है। कहीं भी लागू होता नहीं दिखता। सार्वजनिक जगहों पर थूकना, धूम्रपान करना, पेशाब करना, आवाज की सीमित तीव्रता में डी.जे. बजाना, उसकी समय व समयावधि तय होना, दीपावली की आतिशबाजी की समय सीमा, अतिथि सत्कार की संख्या व खाने के ‘‘मीनू’’ पर प्रतिबंध इत्यादि अनेक ऐसे दैनिक जीवन के कर्म हैं, जिन्हें विभिन्न कानून नियम बनाकर प्रतिबंधित/सीमित किया गया है। इन कानूनों और नियमों का कितना पालन हो रहा है, यह लिखने की आवश्यकता नहीं है।
क्या कभी हमने कभी सोचा है कि, हम दिन प्रतिदिन ऐसे नए-नए कानून और नियम बनाकर कहीं नागरिकों को दिन प्रतिदिन इनका उल्लंघन करने और उन्हें गैर जिम्मेदाराना नागरिक बनाने की ओर तो नहीं ढकेल रहे हैं? इसलिये जब हम कोई नया कानून बनाते हैं, तो उसके पालन के संबंध में कानून बनाते समय ही विचार कर लेना चाहिए और उसके शत प्रतिशत पालन की प्रक्रिया भी निर्धारित कर ली जानी चाहिए। कानून सिर्फ कागजों की शोभा बढ़ाने के लिए ही नहीं बनाए जांय। कुछ कानून तो ऐसे होते हैं, जिनका पढ़ा-लिखा नागरिक या सरकार स्वयं भी पालन नहीं कर पाती है। एक उदाहरण फूड़ सेफ्टी अधिनियम (फसाई) का प्रस्तुत हैं। ‘‘फसाई’’ अधिनियम के अंतर्गत बने नियम के अधीन जारी लाइसेंस के नियम की अनुसूची 4 में वर्णित के हाईजिननिक व सैनेटरी प्रावधानों पर गौर कीजिये, जिसका अनुपालन लगभग असंभव है! जैसे रेस्टोंरेट की दीवार पर पेंट की किंचित खुरचन भी दिखाई दे जाए तो, उसके लिये फाइंन का प्रावधान है। क्या यह व्यवहारिक व संभव है? अतः स्पष्ट है कानून का पालन करवाने वाले तंत्र (कार्यपालिका, शासन एवं प्रशासन) स्वयं अपने अधीनस्थ कर्मचारियों व संस्थाओं द्वारा कानून का पालन नहीं करवा पाती हैं।
इत तरह से कोई भी नागरिक कानून का लगातार उल्लंघन करने का दोषी बनकर एक अनुउत्तरदायी व्यक्ति बन जाता है। तब किसी बड़े अपराध के लिए कानून बनाने की स्थिति में, उस नागरिक का वह अनुउत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार व स्वभाव, उस कानून का पालन कराने में, रुकावटें पैदा नहीं करेगा? इसलिए कानून बनाने के पहले चाहे वे कितने ही हल्के या छोटे, उनको लागू करने के पहले जनता को शिक्षित किया जाना अत्यंत जरूरी है। ताकि उन कानूनों का पालन करने के लिए उन्हें प्रेरित और उत्प्रेरित किया जा सकें। जिससे वे कानून अनुयायी नागरिक बन सकें। कानून के उल्लंघन करने की स्थिति में दिये जाने वाले दंड प्रावधानों से भी उन्हें भली भाँति अवगत व शिक्षित कराया जाए। एक तय समय सीमा की लक्ष्मण रेखा के बाद उन्हे कठोरतम रूप से दंडि़त भी किया जावें। यह सही है कि कानून का पालन कानून के डंडे के डर से ही होता है। लेकिन क्या हम अपनेे देश में इस ‘ड़र’ परसेप्शन (अनुभूति) को बदलने का प्रयास नहीं कर सकते?
वास्तव में कुछ कानून के कष्टकारी व अस्पष्ट प्रावधानों के कारण भी उनका पूरा अनुपालन नहीं हो पाता है। दूसरी ओर इन प्रावधानों की जटिलता व क्लिष्टता के रहने से सरकारी मशीनरी को इनके दुरूपयोग द्वारा भ्रष्टाचार करने को बढ़ावा मिलता है। अतः ऐसी स्थिति में कानून की उपयोगिता कितनी प्रभावी है, इस पर भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
यदि हम पीछे मुड़कर देखे; तो कानून का पालन नहीं हो पाने का एक कारक वास्तव में ‘‘संस्कारों’’ में कमी आ जाना भी रहा है। याद कीजिए! हमारे ‘‘संस्कारित देश’’ की वे ‘‘परम्पराएँ’’ (कस्टमरी कानून) जिनके पालन हेतु कानून के किसी ड़डें का भय नहीं, वरण सामाजिक व पारम्परिक आवश्यकताएं, बेरोजगार का भय व लिहाज ही होता रहा है। जैसे ब्राम्हण समाज के सदस्यों द्वारा जनेऊ पहनना। सात फेरे लेना। मृतक को ‘‘आग’’ देने वाले व्यक्ति से 13 दिन की दूरी बनाये रखना। चौके मंे हर किसी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित रहना। बाथरूम जाने पर नहाना। मुस्लमानों के द्वारा ‘‘खतना’’ करवाना आदि अनेक प्रथाएं व नैतिक मूल्यों को मान्यताएं जैसे झूठ बोलना, चोरी करना पाप है, इत्यादि जो हमारी पूर्व पीढियों में रही; जिनका पालन बिना किसी दबाव या ड़र के हम सब करते रहे हैं।
अतः स्पष्ट है कि कानूनों की संख्या सीमित कर उसका पालन अधिकतम स्वेच्छापूर्ण हो, ऐसी दीर्घकालीन नीति नागरिक को ‘‘कानूनदा’’ बनाये जाने के लिये जरूरी हैं।
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