बुधवार, 29 जुलाई 2020

क्या ‘‘राजनैतिक द्वंद युद्ध’’ में भी ‘‘आपराधिक न्याय शास्त्र’’ के समान ही ‘‘आत्मरक्षा’’ का अधिकार’’ नहीं होना चाहिए?


देश के बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया व राजनैतिक हलकों में इस समय कोरोना वायरस से ज्यादा चर्चा राजस्थान के ‘‘राजनैतिक युद्ध’’ व ‘खेल’ की हो रही है। लेकिन आश्चर्य व दुर्भाग्य इस बात का है कि, जिसे एम्पायर होना चाहिये था (या अधिकतम गैर खिलाड़ी कप्तान), वे स्वयं उक्त खेल के एक ‘‘सक्रिय खिलाड़ी’’ बन गये हैं। एक तरफ राजनैतिक द्वंद युद्ध में घायल अशोक गहलोत अपनी सेना को हारने व अभ्यर्पण (सरेड़र) से बचाने में लगे हुये है। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति के प्रतिनिधि होकर राज्य के संवैधानिक प्रमुख ‘‘महामहिम’’ राज्यपाल कलराज मिश्र अपनी आत्मरक्षा व प्रतिरक्षा में ‘‘राजनैतिक हथियार व बाण’’ दागे जा रहे हैं। इसका उन्हे ‘‘हक’’ भी  होना चाहिए। वह कैसे? उस पर मंथन के पूर्व कृपया आप अपने ही दो कदम पीछे जाकर देखें। जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ‘‘सत्र’’ बुलाने के बार-बार अनुरोध पर, राज्यपाल द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई। तब गहलोत ने पत्रकारों के समक्ष महामहिम पर गंभीर आरोप लगाते-लगाते यह चेतावनी भी दे गये कि ‘‘विधानसभा सत्र नहीं होने पर आने वाले दिनों मेें जनता राजभवन को घेरने आ जाएं तो हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।’’ 
उक्त बयान पर बाद में पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर गहलोत ने यह कहां कि ‘‘1993 में भैरोसिंह शेखावत ने कहा था कि अगर बहुमत मेरे पास है, और हमें नहीं बुलाया गया तो राजभवन का घेराव होगा’’। आगे उन्होने कथन किया कि ‘‘यह राजनीतिक भाषा होती है’’। ‘‘जनता को समझाने के लिए, संदेश देने के लिए।’’ गहलोत जी, भैरोसिंह शेखावत का कथन कि ‘‘राजभवन का घेराव होगा’’ और आपका उक्त कथन कि ‘‘जनता राजभवन को घेरनी आयेगी तो हमारी कोई जिम्मेदार नहीं होगी,‘‘ में जमीन आसमान का अंतर है। प्रथम तो आप एक संवैधानिक मुख्यमंत्री पद पर बैठे है, जबकि शेखावत तत्समय मुख्यमंत्री न होकर उक्त पद पर बैठने के लिये राज्यपाल से गुहार लगा रहे थे। अर्थात तब उनकी राज्यपाल के प्रति सुरक्षा की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं थी। दूसरे शेखावत जी के उक्त कथन में आंदोलन की चेतावनी थी, न की राज्यपाल को असुरक्षित करने की धमकी। गहलोत ने जैसा कथन किया कि यह ‘‘राजनैतिक भाषा जरूर है’’ लेकिन वास्तव में यह भाषा से ज्यादा ‘‘धमकी’’ है। ठीक इसी प्रकार ‘‘यह जनता को समझाने व संदेश देने के लिये है’’ (जैसा कि गहलोत कथन कर रहे है) लेकिन उक्त धमकी लिये हुआ कथन महामहिम को संदेश देने के लिए है, वास्तविकता यही है।  
‘‘संसदीय लोकतंत्र’’ में चुने हुये मुख्यमंत्री का उक्त बयान देश की स्वतंत्रता बाद के सम्पूर्ण राजनैतिक इतिहास में शायद सबसे खतरनाक और आराजकता लिये हुये है। इसके सामने आपातकाल भी फीका पड़ गया है। क्योंकि तत्समय, आपात्तकाल में भी कानून बदल कर वैधानिक कर कानून के तहत नागरिकोें के स्वतंत्रता के मूल अधिकारों को लंबित तो किया, परन्तु उन्हे अपने मूल अधिकारों की रक्षार्थ न्यायालय में जाने की छूट प्राप्त थी। लेकिन यहां पर तो ‘‘रक्षक’’ ही अपने दायित्व से अनुउत्तरदायी हो गये हैं। मुख्यमंत्री का दायित्व एवं कर्त्तव्य राजस्थान की लगभग 7 करोड़ जनसंख्या को सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ राज्य के संवैधानिक मुखिया महामहिम (जो संवैधानिक रूप से तकनीकि उनके ‘‘बाँस’’ भी है), को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करना है। मुख्यमंत्री का यह भी संवैधानिक दायित्व है कि, राज्य में जितनी संवैधानिक संस्थाएं कार्यरत है, चाहे वह ‘‘राजभवन’’ व ‘‘न्यायपालिका’’ हो या अन्य कोई भी संस्थाएं हों, वे सब स्वतंत्र वातावरण में निर्भीक होकर समस्त आवश्यक सुविधाओं से युक्त होकर अपने कर्त्तव्य दायित्व को निभा सकें। अशोक गहलोत की उक्त एक लाईन के कथन ने संविधान की मर्यादा को भंग (तार-तार) कर दिया। दुर्भाग्यवश उक्त मर्यादा को बचाने की लड़ाई स्वयं राज्यपाल सहित मीडिया के साथ लोकतंत्र के प्रहरी कहलाने वाले ‘‘विपक्ष’’ ने भी नहीं लड़ी। स्वयं राज्यपाल का यह अधिकार व दायित्व था कि वे मुख्यमंत्री के ऐसे धमकी भरे कथनों पर प्रथम सूचना पत्र दर्ज कराकर कानूनी और राजनैतिक रूप से मुख्यमंत्री पर शिकंजा कसते। उन्हे गलती का ऐहसास कराते। तदानुसार उनसे माफी भी मंगवाते। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। न ही ऐसा करने की किसी भावना का किंचित सा भी आभास हुआ। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के विरूद्ध धमकी दी जाने की रिपोर्ट अभी तक क्यों नहीं लिखाई? शायद इसलिए कि अब उन्हें मुख्यमंत्री के खिलाफ राजस्थान में एफ आई आर दर्ज होने का भरोसा नहीं रह गया होगा? लेकिन वे एक अनुभवी राजनीतिज्ञ रहे हैं और इसलिए उन्हें यह जानकारी अवश्य होगी कि देश में (उत्तर प्रदेश, जहां के वे निवासी है, सहित) कहीं भी जीरो पर एफ आई आर दर्ज की जा सकती है। 
अब आप आइये! राज्यपाल ऐसा आचरण क्यों कर रहे है? संवैधानिक रूप से बिना किसी शक व सुबहा के उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने निर्णयों के द्वारा अंतिम रूप से यह प्रतिपादित किया है कि, विधानसभा सत्र बुलाने के संबंध में केबीनेट के प्रस्ताव पर राज्यपाल को अनिर्वायतः आवश्यक कार्यवाही करनी ही होती है। राज्यपाल मुख्यमंत्री से न तो कोई एजेड़ा की मांग कर सकते हैं। न ही सत्र बुलाने के लिये कोई विशिष्ट निर्देश व शर्त लगा सकते हैं। लेकिन यहां पर तो महामहिम सवाल पर सवाल किये जा रहे हैं, जैसे कि सत्र बुलाने बाबत कोई जांच चल रही हो। मुझे लगता है कि उन्हांेने यह कदम इसीलिए उठाया है कि उनकी ‘‘आन बान व शान’’ को धूमिल करने का प्रयास उसी व्यक्ति ने किया है, जिस पर ही उक्त रक्षा करने का संवैधानिक दायित्व है। इसलिये ‘‘रक्षक’’ ही जब अपने हाथ खड़े कर दंे, झाड़ दें, तब मजबूरी वश, एक मात्र चारा यह रह जाता कि राज्यपाल भी स्वंय की रक्षा के लिए, राजनैतिक रूप से हथियार उठा लें। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आपराधिक कानून में मार-काट, झगडे़-फसाद की घटनाओं में व्यक्ति को अपनी आत्मरक्षार्थ हथियार उठाने का अधिकार होता है और स्वरक्षा में सामने वालों पर बंदूक का निशाना तान कर आवश्यकता पड़ने पर चल भी जाती है। अभी तो राजस्थान में राज्यपाल ने आत्मरक्षा में ‘‘हथियार’’ (अधिकार) ही उठाये है। लेकिन लड़ाई यदि आगे और चलेगी व द्वंद युद्ध की स्थिति और खराब होगी, तब बंदूक भी चलाई जा सकती है। अर्थात सरकार गिरा दी  जायेगी। तब राज्यपाल  अपने को सुरक्षित घोषित कर जीत का भाव लिये हुये राजभवन से निकल कर निर्वतमान मुख्यमंत्री के पास शोक बांटने हेतु बैठने जरूर जायेगें। इन सब घटनाओं के पीछे केन्द्रीय सरकार ‘‘श्रीकृष्ण’’ बनकर अपने प्रिय शिष्य अर्जुन (राज्यपाल) के लिए दीवार के समान खड़ी रहकर उनकी प्रतिष्ठा बचाये रखने में लगी हुई है। राजस्थान में शायद यही अंतिम नियति होने वाली है? देश में ऐसा ही लोकतंत्र रह गया है, जिसके लिए हम लोग, हर कभी, थाली व ताली बजाते रहते है और भविष्य में भी शायद बजाते रहेगें। 
अंत में गहलोत जी; अपने अक्षम्य बोल के लिये भैरोसिंह शेखावत के तथाकथित बयान की सहायता मत लीजियें! उक्त कथन वास्तव में आपकी कोई सहायता भी नहीं करता है। यर्थाथ में आपका कथन पूर्णतः अलोकतंत्र, असंसदीय एवं स्थापित परम्पराओं के बिलकुल विपरीत है। अतः उसके जवाब में अपनी सुरक्षा में यदि राज्यपाल भी संसदीय परम्पराओं व उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिंद्धान्तों का उल्लघंन कर रहे है तो, क्या वह उचित नहीं माना जावेगा? ‘‘जैसी करनी वैसी भरनी’’। कृपया इस दृष्टि से भी गहन चिंतन मनन कीजिये!

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