मजलिस-ए-इत्तेहादूल मुस्लिमीन (एआईएमआईएस) के अध्यक्ष एवं सांसद ‘‘मोहम्मद’’ असदुद्दीन ओवैसी ने "धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र" भारत के प्रधानमंत्री की ‘‘प्रधानमंत्री की हैसियत’’ से 5 अगस्त को भगवान श्री राम लला के "भूमि पूजन" कार्यक्रम में भगवान श्रीराम जन्म स्थली "अयोध्या" जाने पर कड़ी आपत्ति जतलाते हुये कहा कि, यह संविधान की शपथ का उल्लघनं होगा। मुझे लगता है, वस्तुतः लगभग पूरे देश ने उक्त आपत्ति को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। अवश्य; ओवैसी के उक्त ‘‘आपत्ति’’ लिए हुए आपत्तिजनक बयान ने एक नए मुद्दे पर विचार मंथन करने का अवसर प्रदान जरूर कर दिया है, जिसकी चर्चा आगे की जा रही हैं।
ओवैसी को ‘‘नरेंद्र मोदी’’ के "व्यक्तिगत हैसियत" से अयोध्या जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, चुकि वे एक ‘‘हिंदू’’ है। लेकिन ओवैसी यह मानते है कि, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री के तौर पर ‘‘अयोध्या’’ में राम मंदिर भूमि पूजन कार्यक्रम में शामिल होना, उस ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ के खिलाफ है, जो संविधान की "मूल" भावना हैं।वे आगे कहते हैं, "वजीरे आजम नरेन्द्र मोदी भूमि पूजन में शिरकत न करें, उनके इस प्रोग्राम में शिरकत करने से मुल्क की अवाम को पैगाम जाएगा कि वो एक अकीदे (धर्म) को मानते है।’’ उनका उक्त कथन अर्धसत्य है। मतलब, जब वे यह कहते है कि धर्मरिनपेक्षता संविधान का मूल आधार है, तो वहां तक तो वे बिल्कुल सही है। लेकिन इसके आगे ओवैसी जब मोदी की प्रस्तावित अयोध्या यात्रा को धर्मनिरपेक्षता से जोड़कर उनकी धर्म निरपेक्षता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते है, तब वे बिल्कुल ही गलत हो जाते हैं। वे स्वयं प्रधानमंत्री को ‘‘एक अकीदे" का मानते है। सही हैं, पूरा विश्व जानता है कि नरेन्द्र मोदी निसंदेह एक ‘‘राष्ट्रवादी हिन्दू’’ हैं, जिनकी हिन्दू धर्म के प्रति गहन आस्था ठीक उसी प्रकार है, जिस प्रकार कि असदुद्दीन ओवैसी की मुस्लिम धर्म के प्रति है। लेकिन वे यह भूल जाते है कि, प्रधानमंत्री होने के बाद वे सिर्फ एक "अकीदे ‘‘ (धर्म) सोच के नागरिक न रहकर राष्ट्रीय सोच की भावनाओं से ओतप्रेत होकर ऐसे नागरिक प्रधानमंत्री है, जिनकी 56 इंच की छाती के साथ मजबूत कंधो पर समस्त धर्मो की पूज्य श्रद्धेय भावनाओं की सुरक्षा का दायित्व है। उनके पालनार्थ ही वे अयोध्या जा रहे है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अयोध्या जाने पर वे किस तरह से धर्म निरपेक्ष है, आपको आगे यह स्पष्ट हो जायेगा।
ओवैसी! क्या यह भी बताने का कष्ट करेगें कि संवैधानिक रूप से प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के पद में अंतर क्या है? सिवाय इस बात के कि उनका कार्य क्षेत्र क्रमशः ‘‘राष्ट्र व राज्य’’ है। इस बात को शायद ओवैसी भूल गए है कि, इसके पूर्व भी देश के संवैधानिक पद पर विराजित राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व राज्यों के मुख्यमंत्रीगण भी निमंत्रित किये जाने पर या स्वस्फूर्ति आधिकारिक (अधिकृत) रूप से समय-समय पर विभिन्न धार्मिक जलसों, आस्थाओं के पूजा केन्द्रों पर जाकर आयोजनों में शामिल होते रहे हैं। चाहे उनकी धार्मिक आस्थाएं, दूसरी ही क्यों नहीं हो। तो फिर अब मात्र प्रधानमंत्री के चलन (मूवमेंट) पर ही प्रतिबंध व प्रश्नचिन्ह क्यों? प्रधानमंत्री मोदी की सितम्बर 2018 मैं सैफी मस्जिद, इंदौर की यात्रा करना से क्या धर्मनिरपेक्षता कमजोर हुई, क्या औवेसी बतलाने का कष्ट करेगें? सिख राष्ट्रपति प्रधानमंत्री गुरुद्वारे जा सकते है, मुस्लिम राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति मस्जिद और अजमेर शरीफ जा सकते हैैं। लेकिन हिंदू प्रधानमंत्री के मंदिर जाने पर ओवैसी की नजरों में संविधान की शपथ खतरे में पड़ जाती है। क्यों? "शपथ" के किन "शब्दों" में उक्त "प्रतिबंध" का उल्लेख है ?संविधान में उल्लेखित जिस धर्मनिरपेक्षता की बात ओवैसी कर रहे हैं, उस धर्मनिरपेक्षता का अर्थ तो पहले समझ लीजिए ? धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म को न मानना नहीं होता है। जैसा कि आप यह कहकर समझाना चाह रहे हैं कि सरकार का कोई धर्म नहीं होता हैं। "सरकार का कोई धर्म न होने" का मतलब समस्त धर्मों को एक समान दृष्टि से देखना होता है । वही धर्मनिरपेक्षता भी है। इसीलिए देश के प्रधानमंत्री को जब भी सुयोग अवसर मिले ऐसे धार्मिक जलसों में जरूर शरीक होना चाहिए, चाहे वे धार्मिक जलसे उनकी निजी धार्मिक आस्था से अलग भी क्यों न हो। ओवैसी बड़े वकील भी हैं। वह यदि उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को ही पढ़ लेते तो, वे वैसा विवादित ब्यान ही न देते। दुनिया में भारत अकेला लोकतांत्रिक देश नहीं है, अन्य लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देशों अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन में भी वहां के राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री हर प्रकार की धार्मिक गतिविधियों में शामिल होते हैं।
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भारत के प्रधानमंत्री होने की हैसियत से मोदी की नजर में सर्व धर्मो सम भाव है और समान है। ओवैसी !इसमें बहुसंख्यकों द्वारा माने जाने वाला हिन्दू धर्म भी शामिल है, इस तथ्य को भी अपने दिलो दिमाग में रख लीजिये। हिन्दू धर्म के धर्मावलंबियों, साधु संतों व श्रीराम जन्म भूमि निर्माण ट्रस्ट के 5 अगस्त के निमंत्रण को करोड़ों भारतीय नागरिकों सहित विश्व के करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं का आदर व सम्मान करते हुए प्रधानमंत्री अयोध्या जाकर अपना "राष्ट्रीय कर्तव्य" निभाएं। प्रधानमंत्री ने कभी यह नहीं कहा कि गिरजाघर, (चर्च) मस्जिद, जिनालय (जैन), गुरुद्वारा का कहीं भी निर्माण होगा और उन्हें आमंत्रित किया जाएगा तो, वे प्रधानमंत्री की हैसियत से नहीं जाएंगे। ओवैसी को यदि प्रधानमंत्री की धर्मनिरपेक्षता का प्रमाण पत्र ही चाहिए तो वे देश में एक भव्य मस्जिद का निर्माण करें और प्रधानमंत्री को आदर पूर्वक निमंत्रित करें। वास्तविक सही स्थिति आईने के समान स्पष्ट हो जाएगी। राज्यों के मुख्यमंत्रीगण भी समय समय पर धार्मिक पूजा स्थलों में शिलान्यास, उद्घाटन व अपनी निजी आस्था व्यक्त करने हेतु आधिकारिक रूप से आते जाते रहते है, तब ओवैसी कहां थे? अभी-अभी एनडी टीव्ही चैनल से ओवैसी बात करते हुये कह रहे थे कि, सरकार को ‘धर्म’ से ऊपर रहना चाहिए और आदर्श स्थिति वहीं होगी, जब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्री निवासों पर किसी तरह के धार्मिक जलसों का आयोजन ही न हो। यह उनकी ‘‘नकारात्मक निष्क्रिय’’ सोच है, ‘‘सकारात्मक क्रियात्मक’’ सोच नहीं है। यदि सरकार सब धर्मो का समान रूप से आदर सम्मान करते हुये समान रूप से अपनी भागीदारी करें तो, वह सिद्धांतः व व्यवहारिक दोनों रूप से धर्म से ऊपर उठकर धर्म निरपेक्षता की ओर बढ़ता हुआ एक मजबूत कदम ही होगा। श्रीराम जन्म भूमि के तथाकथित ऐतिहासिक रूप से बाबरी मस्जिद होने के मुद्दे के कारण भी ओवैसी प्रधानमंत्री के वहां जाने का विरोध कर है, जो सर्वथा उचित नहीं हैं। पुर्नर्विचार याचिका खारिज होने के बाद उच्चतम न्यायालय ने अंतिम रूप से जब यह निश्चित कर दिया है कि, विवादित ढ़ाचा बाबरी मंस्जिद न होकर राम जन्म भूमि है। तब न्यायालीन सुनवाई के दौरान दिये गये उन्ही तर्को का सहारा लेकर उसे अपने "विरोध" की ढ़ाल बनाना कदापि उचित नहीं है।
वास्तव में ओवैसी उल्टी गंगा बहाना चाहते हैं। इस बात को वे भूल गए हैं या जानबूझ कर भूलना चाहते हैं कि, नरेन्द्र मोदी संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ हो जाने के बाद एक आदर्श नागरिक व ‘‘स्वयं सेवक’’ के रूप में (जो वे है) अपनी सम्पूर्ण निजता को उन्होंने पूरी तरह से त्याग दिया है। अब उनका "व्यक्तिगत धर्म और आस्था" सार्वजनिक रूप से दर्शित, प्रदर्शित और प्रचारित करने की विषय वस्तु नहीं रह गई है। उनका ‘व्यक्तिगत’ कुछ नहीं रहा और उनका सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित होकर "सार्वजनिक" हो गया है। व्यक्तिगत धार्मिक आस्था पीएमओं के भीतर तक ही सीमित है। आदर्श स्थिति तो वही होगी, जब प्रधानमंत्री अपने व्यक्तिगत विचार स्व: आस्था व स्व: धार्मिक आस्था एवं व्यक्तिगत निष्ठा से परे होकर (ऊपर उठकर) राष्ट्र के मुखिया होने के नाते सिर्फ राष्ट्र के प्रति निष्ठा व आस्था रखते हुये ‘‘एक ही दृष्टि सार्वजनिक "जनहित‘‘ को सामने रखकर कार्य करते रहे, जिसका पूरा प्रयास मोदी कर भी रहे हैं। इस बात को आप इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं। जब देश का राष्ट्रपति चुना जाता है, तब चुने जाने के पूर्व जिस राजनीतिक पार्टी का वह सदस्य होता है, उसकी सदस्यता से इस्तीफा दे देता है । राष्ट्रपति बनने के बाद वह दलीय न होकर निर्दलीय सर्वदलीय से भी ज्यादा वह राष्ट्रीय हो जाता है। इसी प्रकार राज्यपाल का पद भी संवैधानिक गरिमामय पद होता है। लोकसभा एवं विधानसभाओं के स्पीकर (अध्यक्ष) भी स्पीकर बनने के पूर्व राजनीतिक पार्टी के सदस्य होते हैं। लेकिन स्पीकर पद पर चुनाव द्वारा या सर्वसम्मत रूप से चुने जाने के पश्चात वे संबंधित राजनीतिक पार्टी से इस्तीफा दिए बिना भी नैतिक मान्यता को मानते हुये राजनीतिक पार्टी के सदस्य नहीं रहते है। वे विश्वास मत या अविश्वास प्रस्ताव पर वोट भी नहीं ड़ालते है। यद्यपि नीलम संजीव रेड्ड़ी देश के पहिले स्पीकर रहे, जिन्होंने औपचारिक रूप से पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। इसी आधार पर नरेन्द्र मोदी के ‘‘प्रधानमंत्री की हैसियत‘‘ (निजता के न होने से) से किसी भी ‘‘धर्म के धार्मिक पूजा स्थल‘‘ पर जाना स्वागत योग्य कदम होना चाहिए व उसका व्यापक स्वागत किया जाना चाहिए, न की उसे आलोचना का विषय बनाया जाना चाहिए। यह सिर्फ छुद्र राजनीति का ही घोतक मात्र है।
श्रीराम मंदिर निर्माण किसी का व्यक्तिगत कार्य नहीं है। यह सोमनाथ मंदिर निर्माण के समान राष्ट्रीय अभियान है। यह भारत राष्ट्र की आस्था और स्वाभिमान का प्रतीक है। इस के भूमि पूजन और शिलान्यास समारोह में प्रधानमंत्री क्यों न जायें जिसे राष्ट्र के करोड़ों लोगों ने चुना है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में भी यह एक वादा रहा है। प्रधानमंत्री पहले भी प्रयागराज, केदारनाथ, गुरुद्वारों, देश विदेश की कई मस्जिदों आदि में जाते रहे हैं। तब आपत्ति क्यों नहीं ली गई थी?
वैसे श्रीराम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट, जो उक्त शिलान्यास कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है, का वृहत राष्ट्र हित में यह दायित्व हो जाता है कि, उक्त कार्यक्रम में प्रमुख हिन्दू साधू संतों मठाधीशो के साथ-साथ प्रतीक स्वरूप समस्त धर्मो के कम से कम एक एक धार्मिक गुरूओं को उक्त ऐतिहासिक अवसर पर गवाह के रूप में अवश्य निमत्रिंत करें। साथ ही हिन्दू धर्म के "आदि शंकराचार्य" द्वारा स्थापित चारों पीठ के शंकराचार्यओं को निमत्रिंत करने मैं भी ‘‘राजनीति’’ न होकर "राम नीति होनी चाहिये। जैसा कि कुछ क्षेत्रों से खबरें छन-छन के आ रही है। इस तरह से ओवैसी जैसे नेताओं को भी माकूल जवाब मिल जायेगा। यू भी, ओवैसी का यह बयान स्वयं को मीडिया में चर्चित व विवादित बनाये रखने की श्रृखंला में एक कदम आगे बढ़ाने जैसा भर ही हैं। सिवाय इसके कुछ और नहीं।
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