जनप्रतिनिधियों के उपरोक्त सिद्धांतों व कर्त्तव्यों को उल्लेखित करने का मात्र आशय यही है कि आपकी यादों को तरोताजा कर इस कोरोना काल मंे आपके जनसेवक जनप्रतिनिधि उपरोक्त भावना से कितने युक्त है या ‘‘युक्ति’’ से ‘‘युक्त’ है इस ओर आपका ध्यान मोड़ना चाहता हंू। चूंकि कोरोना संकट काल का संबंध मुख्यरूप से ‘‘स्वास्थ्य’’ से ही है, बाकी समस्याएं कोरोना का उत्पाद है। इसलिये मैं इन माननीय जनप्रतिनिधियों के स्वास्थ्य संबंधित सेवाओं के दावे, उत्तरदात्यिव व कर्त्तव्यों का ही उदहरण कर रहा हूं।
इस कोरोना संकट काल में आम जनता के साथ कई वीआईपीज व वीवीआईपीज संक्र्रमित हुये हैं। फिलहाल मैं आपका ध्यान इन्ही तक सीमित रखना चाहता हूं। पिछले कुछ दिनों में कुछ प्रमुख व्यक्ति जो संक्र्रमित हुये है। वे है, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, (चिरायु अस्पताल) प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी.डी शर्मा, भाजपा संगठन मंत्री सुहास भगत, मंत्री नरोत्तम मिश्रा, अरविंद भदौरिया, विश्वास सांरग, तुलसीराम सिलावट एवं रामखेलावन पटेल (समस्त होम आइसोलेशन), पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया (मैक्स अस्पताल), कर्नाटक के मुख्यमंत्री, बीएस येदियुरप्पा (मनीपाल अस्पताल) स्वास्थ्य मंत्री बी. श्रीरामुलु (होम आइसोलेशन) तमिलनाडु के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहीत (कावेरी अस्पताल) केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह (गुरूग्राम के मेदांता अस्पताल) मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान (मेदांता अस्पताल) अर्जुन राम मेघवाल (एम्स अस्पताल) दिल्ली प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन, (मैक्स अस्पताल) उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष व सांसद स्वतंत्र देव सिंह एवं मंत्री बृजेश पाठक (होम आइसोलेशन) उत्तराखंड के मंत्री सतपाल महाराज (एम्स अस्पताल) तेलंगाना के मंत्री चमकुरा मल्लारेड्डी (होम आइसोलेशन) महाराष्ट्र सरकार के मंत्री जितेंद्र अवध, अशोक चव्हाण, (नादेड़ निजी अस्पताल) अब्दुल सत्तार एवं धनंजय मुडे़ (होम आइसोलेशन) बिहार सरकार के मंत्री शैलेश कुमार (होम आइसोलेशन) छत्तीसगढ नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक (एम्स अस्पताल) गुजरात मुख्यमंत्री विजय रूपाणी (होम आइसोलेशन) आदि आदि।
इन सब वीआईपीओं में एक प्रायः सामान्य (कामन) बात यह है कि, ये सब सत्ता पर आरूढ हुये जनप्रतिनिधिगण अपने-अपने प्रदेशों मंे अपनी सरकारों के द्वारा बनाये गये शासकीय अस्पतालों मंे भर्ती न होकर निजी अस्पतालों में इलाज हेतु भर्ती हुये है या घर में क्वारंटाइन किये गये है। सिर्फ कुछ ही ‘‘माननीय’’ शायद केन्द्रीय सरकार के मंत्री होने के कारण ‘‘एम्स’’ जो केन्द्रीय सरकार द्वारा संचालित अस्पताल है, पर विश्वास जमे रहने के कारण भर्ती हुये है। यहां और एक बात का उल्लेख करना अनावश्यक नहीं होगा कि मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ मुख्यमंत्री रहते हुए हाथ के अंगूठे के इलाज के लिए शासकीय हमीदिया अस्पताल में भर्ती हुए थे। इसे एक अपवाद माना जाए या और कुछ? यह एक अलग विषय है, जिस पर फिर कभी चर्चा करेंगे। कहीं यह आंशका तो नहीं फलीभूत नहीं हो जायेगी कि उन माननीयों के एम्स व होम क्वारटाइन होने की वस्तु स्थिति की सत्यता की जांच के लिये ‘विपक्ष’ ‘‘जांच आयोग’’ के गठन की मांग तो नहीं कर देगा? ये सब वे जिम्मेदार ‘माननीय’ है जो सस्ती, अच्छी दुरूस्त व उच्च श्रेणी की स्वास्थ्य सेवाएं शासकीय अस्पतालों में अपने-अपने प्रदेशों की जनता को देने का दावा करते रहे है व तथाकथित रूप से दे रहे है। मतलब इन माननीयों ने शासकीय अस्पतालों को समस्त सुविधायों से युक्त कर दिया है। बावजूद इसके वास्तविकता व सच्चाई यही है, कि इन माननीयों ने इन शासकीय अस्पतालों की उच्च स्तर की सेवा का लाभ स्वयं क्यों नहीं लिया?
इसके दो ही अर्थ निकलते है। एक वास्तव में अस्पतालों में उस स्तर की सुविधाएं अभी तक उपलब्ध नहीं है, जिनका वे दावा करते रहे हैं। दूसरे वे यह जानते है कि, वहां की व्यवस्था इतनी लचर व खोखली है कि वे अपनी स्वयं की जान को जानबूझ कर खतरे में नहीं ड़ालना नहीं चाहते है। शायद ऐसा तो नहीं कि सरकारी अस्पतालों में अच्छी व्यवस्था के चलते भीड़ होने के कारण ‘बैड़’ खाली न होने के कारण ‘‘इच्छा’’ के बावजूद ‘माननीय’ भर्ती न हो पाये हो? यह भी तो हो सकता है कि ‘सेवक’ होने के कारण ‘‘मालिकों’’ ंके लिये बनाई गई सुविधा का लाभ लेने से वे कतरा (हिचक) रहे हो? यदि ऐसा नहीं है, तो फिर इन माननीयों ने कभी यह भी सोचा है कि, शासकीय अस्पतालों में उनके भर्ती न होने से ‘‘जनता जर्नादन’’ जिनके आप ‘‘आइकॉन’’ है के दिलों दिमांग में आपकी शासकीय अस्पतालों की व्यवस्था के प्रति कितना विपरीत प्रभाव पड़ेगा? और फिर सक्षम जनता भी सरकारी अस्पतालों में भर्ती होने से परहेज करेगी। इससे शासकीय स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराने नहीं लगेगी?
आप जानते ही है, देश में कोविड़-19 से संक्रमित व्यक्ति अभी तक 22 लाख से ऊपर हो गई है। आंकडांे की बाजीगरी के खेल में सरकार द्वारा आंकड़ो के माध्यम से अपनी उपलब्धियों को गिनाकर कर स्वयं को व आपको संतुष्ट करना चाहती है। मार्च, अप्रैल व मई महीने में जब संक्रमितों की संख्या कम थी, तब भारत सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय विश्व के अधिकांश देशों से देश की तुलना कर अपनी वाह वाही ले रही थी। अब जब संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, तो केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग स्वास्थय लाभ (रिकवरी) व मृत्यु रेट के विभिन्न समयांे के विभिन्न देशों के स्वयं के लिये ‘माकूल’ आंकड़ों को चुनकर तुलनात्मक आंकडे़ प्रदर्शित कर पुनः अपनी तथाकथित सफलता के झंडे़ गाढ़ रहा है। अर्थात कोरोना काल में संक्रमितों की संख्या या संख्या दर कम या ज्यादा प्रत्येक स्थिति में वैज्ञानिक रूप देते हुये आंकडों का इस तरह से घालमेल कर आपको गुमराह किया जा रहा है। ताकि आपको मार्च से लेकर अभी तक ‘सूखा’ (संक्रमित बीमार) पड़ने के बावजूद भी हरा ही हरा दिखता रहे। सिर्फ कोविड़-19 के इस कोरोना संकट काल में किसी भी स्तर पर केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने किंचित रूप से भी कभी यह नहीं स्वीकारा कि, उनसे कहीं चूक भी हुई है या कोई ‘‘कमी’’ रह गई है। यह सब इसीलिये संभव हो रहा है, क्योंकि सरकार आपकी ‘‘समझ’’ को अच्छी तरह से ‘‘समझती’’ है। ‘‘समझाने व समझने’’ का यह दौर आगे भी चलता-दौड़ता ही जायेगा, इस बात का पूर्ण विश्वास है?
अंत में, शायद इसीलिए कहा गया है हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते है।
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