"त्वरित टिप्पणी’’
माननीय उच्चतम न्यायालय ने ‘‘अवमानना’’ के मामलें में आखिरकार आज प्रशांत भूषण को जिन्हे पूर्व में दोषी पाया गया था, बहुप्रतिक्षित ‘‘सजा’’ सुना ही दी। ‘‘सजा’’ ‘‘एक रूपये का जुर्माना’’ (फाइन) और जुर्माना अदा न करने पर तीन महीनों की साधारण जेल तथा तीन साल तक वकालत करने पर प्रतिबंध लगाया गया। जुर्माना; एक रूपये जमा न करने पर विकल्प में जो सजा दी गई है, उक्त एक रूपये का मूल्याकंन आप खुद ही "विकल्प का मूल्यांकन" करके कर सकते है।
‘‘अवमानना’’ का यह प्रकरण कई मामलों में विशिष्टता लिए हुये है। प्रथमत: इस मामले में किसी भी व्यक्ति ने प्रशांत भूषण के विरूद्ध अवमानना की शिकायत नहीं की थी। प्रशांत भूषण द्वारा लिखे गये दो तथाकथित आपत्तिजनक ट्वीटस पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर प्रशांत भूषण को नोटिस दिया गया था। इससे एक विचार कौंधता है कि, क्या उच्चतम न्यायालय मानहानि का दृष्टिकोण लेकर, पूरे देश में न्यायालयों के बाबत लिखे जाने वाले लेख, टिप्पणी, भाषण इत्यादि का पर्यवेक्षण करते है? इसके पूर्व माननीय उच्चतम न्यायालय ने कितने बार स्वतः संज्ञान से यही कार्यवाही की है? चुकि माननीय उच्चतम न्यायालय देश की सर्वोच्च न्यायालीन संस्था है, तो क्या अधीनस्थ न्यायालय को भी इस तरह का 'संज्ञान' नहीं लेना चाहिए? यदि वे ऐसा संज्ञान नहीं लेते है तो, यह उच्चतम न्यायालय की अवमानना तो नहीं होगी?
दूसरी बात इस प्रकरण में ‘‘बार’’ के सम्मानीय प्रतिष्टित वकीलों ने भी न्यायालय को प्रभावित करने का प्रयास किया है। लगभग 1000 से ज्यादा अधिवक्ताओं ने एक ज्ञापन उच्चतम न्यायालय को प्रशांत भूषण के पक्ष में दिया था। यह शायद पहली बार हुआ कि एक व्यक्ति को दोषी "घोषित" किए जाने के बाद 'सजा' सुनाये जाने के पूर्व दोषी पाये जाने के निर्णय का विरोध किया गया। क्या सिर्फ इसलिए कि दोषी व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के एक सम्मानित वकील है? क्या इसके पूर्व बार के सदस्यों ने इस तरह से कभी हस्तक्षेप किया है? ज्यादा अच्छा यह होता कि वे एक पुर्निविचार याचिका दायर करते? अटॉर्नी जनरल वेणु गोपाल ने भी न्यायालय से प्रशांत भूषण को चेतावनी देकर कोई सजा न देने का तर्क रखा था। यह भी इस प्रकरण की एक विशिष्टता है जहां महान्यायवादी अटॉर्नी जनरल की ओर से उपस्थित न होकर स्वयं प्रशांत भूषण के पक्ष में बोले हैं। ऐसा लगता है, माननीय उच्चतम न्यायालय कहीं न कहीं इस प्रकरण में उपरोक्त ज्ञापन के कारण दबाव व दुविधा में रही हो सकती हैं। उक्त दबाव कितना प्रभावी रहा होगा यह एक गंभीर चिंतन का विषय होगा। एक तरफ माननीय न्यायाधिपति उच्चतम न्यायालय की गरिमा को बनाये रखने के लिए प्रशांत भूषण से माफी मांगने के न्यायालय के अनुरोध के बावजूद उनके द्वारा मांफी न मागने पर वे सजा देने के लिए मजबूर व मजबूत थे। दूसरी ओर कड़क सजा न देकर साफ्ट होकर स्वयं को साफ्ट कॉर्नर बना लिया। एक रूपया जमा न करने पर विकल्प में दी गई सजा दो विपरीत दूरस्थ सिरों के समान है। न्यायालय "न्याय" व "न्यायपालिका" के बीच प्रमुख भूमिका अदा करने वाले "वकीलों" को शायद नाराज नहीं करना चाहती थी। इसीलिए शायद इस तरह की सजा का निर्णय आया। लेकिन इस दुविधा के चलते माननीय न्यायालय ने इसे एक 'अलग' (आइसोलेट) केस न रखने से यह एक "नजीर" बन गई है। भविष्य में किसी भी व्यक्ति द्वारा "माननीय का मान" न रख पाने के कारण दोषी पाये जाने पर वह व्यक्ति इस नजीर का उदहरण देते हुये मात्र एक रूपये में छूट सकता है।
एक महत्वपूर्ण बात औ! जस्टिस अरूण मिश्रा 2 सितम्बर को रिटायर्ड होने वाले है। यदि आज सजा नहीं सुनाई जाती तो, इस मामलें में फिर से नई बैंच के सामने सुनवाई होती। 27 व 29 जून को किये गये ट्वीटस पर "दो महीने" के भीतर सुनवाई होकर निर्णय भी आ गया। परन्तु इन्ही प्रशांत भूषण पर नवंबर 2009 से चल रहे ‘‘अवमानना’’ का एक मामला उच्चतम न्यायालय में अभी भी 'लम्बित' है। अतः प्रस्तुत मामलें में सुनवाई में कुछ 'जल्दबाजी' सी प्रतीत होती लगती है?
आश्चर्यजनक रूप से, उच्चतम न्यायालय ने एक रुपए जमा करने के लिए 15 दिन का वक्त दिया है। सामान्यतया जब इस तरह के जुर्माने होते हैं, तब तुरंत पैसे जमा न करने पर कोर्ट उठने तक की सजा दी जाती है। लेकिन यहां पर एक रुपए जमा करने के लिए 15 दिन का समय दिया गया, वही माननीय उच्चतम न्यायालय ने करोड़ों रुपए की कुछ वसूली के मामलों में तुलनात्मक रूप से इस तरह की सुविधा नहीं दी । इसका अर्थ यही निकलता है कि न्यायालय ने जी "सजा" देते समय भी प्रशांत भूषण को जेल न जाना पड़े, उसका एक रास्ता बनाने का प्रयास किया प्रतीत लगता है।
प्रशांत भूषण ने उच्चतम न्यायालय व अटॉर्नी जनरल के अनुरोधों को यह कहकर स्वीकार नहीं किया कि, मुझे पीड़ा है। मुझे अदालत का अवमानना का दोषी ठहराया गया है। मैं सदमे में हूं। आगे उन्होंने कहा कि मेरा बयान सद्धभावनापूर्ण था। अगर मैं इस अदालत से मांफी मांगता हूं तो यह मेरी "अंतरात्मा" व उस "संस्था" की जिसमें मैं "आस्था" रखता हूं, की अवमानना होगी। प्रशांत भूषण का उक्त कथन शायद नये विवाद को जन्म दे सकता है। व्यक्ति और संस्था में कौन बड़ा है? निःसंदेह संस्था को ही बड़ा माना जाता रहा है। लेकिन यहां पर उन्होंने स्वयं की अंतरात्मा की आवाज को ‘संस्था’ से यदि बड़ा माना नहीं तो उसके 'बराबर' अवश्य ला दिया है।
चूँकि मैं जूम ऐप (ऑन लाईन) के माध्यम से ‘‘स्वराज्य अभियान से’’ आज जुड़ा था, जहां पर सजा सुनने के बाद प्रशांत भूषण के पिताजी शांति भूषण ने यह कहा कि पूरे देश से एक-एक रूपया उच्चतम न्यायालय में जमा कर देना चाहिए। प्रशांत भूषण इस पर क्या निर्णय लेते है, यह देखने की बात होगी।
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