प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों 5 अगस्त 2020 के 12ः44 मिनट और 8 सेकेंड से अभिजीत मुहूर्त में भगवान श्रीराम की जन्म स्थली पर भूमिपूजन हुआ। दुनियाँ में वह क्षण एक ऐतिहासिक पल (धरोहर) के रूप में दर्ज हो गया है। इस ऐतिहासिक घटना की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में प्रमुख रूप से प्रधानमंत्री की भगवान श्री रामलला को साष्टांग दंडवत करती हुई फोटो ही प्रमुख रूप से अधिकतम प्रकाशित हुई है। अन्य महत्वपूर्ण फोटो जैसे शिलान्यास करते हुए या पूजा करते हुये इत्यादि समय की ज्यादा दृष्टिगोचर नहीं हुई। यहां तक तो ठीक था। लेकिन जिस तरह से प्रतिक्रियाएं मीडिया खासकर सोशल मीडिया में ‘‘इस फोटो‘‘ को (वायरल) प्र्रचारित कर व्यक्त की जा रही हैं, वह उचित नहीं कही जा सकती। सर्व प्रथम कुछ प्रतिक्रियाओं की बानगी देखिएः-
‘‘प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी’’
भगवान श्री राम के चरणों में साष्टांग दंडवत हैं।
अद्भुत, अकल्पनीय, अविश्वसनीय‘‘।
‘‘यह फोटो इतिहास बन गई‘‘
प्रभु श्रीराम के भक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘‘रामलला को साष्टांग दंडवत’’ होकर प्रणाम करना ‘‘अद्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय‘‘ कैसे? यह समझ से परे है। वास्तव में उक्त फोटो एक आत्म स्वाभिमानी, व्यक्ति जो प्रधानमंत्री के पद पर आरूढ़ है के, अंहकार (यदि कुछ है) को झुका कर अहंकार रहित व्यक्तित्व को भर प्रदर्शित करती है। वह शायद ऐतिहासिक क्षण इसी रूप में हो सकता है। लेकिन मैं ऐसी टिप्पणियां करने वालों से यह जानना चाहता हूं कि, उक्त कृत्य (व फोटो) में अद्भुत अकल्पनीय व अविश्वसनीय क्या है? सर्मपण, सम्मान व स्नेह एक साथ भारतीय संस्कृति में चार तरीकों से व्यक्त किया जाता है। प्रथम हाथ जोड़कर प्रणाम। दूसरा आधा झुककर प्रणाम। तीसरा पूरा झुककर सामने वाले के पैर छूते हुये प्रणाम। और अंतिम पूर्ण समर्पण के साथ पेट के बल लेटकर साष्टांग दंडवत प्रणाम। (जैसा कि नरेंद्र मोदी ने किया है।) नमस्ते के द्वारा भी अभिवादन किया जाता है, लेकिन इसमें समर्पण की भावना नहीं होती है, मात्र औपचारिकता ही होती है। साष्टांग दंडवत प्रणाम हमेशा नहीं, कभी कभार अति प्रमुख अवसरों पर ही किये जाते है। सामान्यतः उपर वर्णित अन्य तीन तरीकों से ही लोग प्रणाम करते है।
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पहले, मां के बेटे हैं। एक मां जो बेटे की प्रथम गुरू होती है व ईश्वर तुल्य होती है, को प्रणाम करने को क्या आप उक्त अलंकारित शब्दों से सुशोभित कर सकते है? कदापि नहीं! वास्तव में यह मां के प्रति बेटे का सर्मपण, सम्मान व स्नेह मात्र है। ठीक इसी तरह नरेन्द्र मोदी का देश के प्रधानसेवक के रूप मे रामलला के आगे साष्टांग प्रणाम भी वही मां के प्रति लिये श्रद्धापूर्ण समर्पण जैसी भावना के समान ही है! तो फिर व्यक्ति के प्रधानमंत्री हो जाने मात्र से उन्हे अपनी साष्टांग प्रणाम करने की संस्कृति से ओतप्रोत कर्तव्य और अधिकार से आप वंचित कैसे कर सकते हैं? यह बिल्कुल सामान्य मानवीय व स्वभाविक संस्कृति युक्त क्रिया है। इसलिए प्रधानमंत्री ने वही किया, जो इस अवसर पर किसी भी इंसान को चाहे वह किसी भी पद पर बैठा हो, उसे करना चाहिए था।
हमें इस बात को विश्लेषित करना होगा कि, सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी ‘‘पद‘‘ के कारण ही ‘‘सम्मानीय’’ हो जाते हैं। लेकिन जो ‘‘(व्यक्ति का) व्यक्तित्व महान‘‘ होता हैं, वह अपने ‘‘व्यक्तित्व‘‘ एवं कृतित्व के बल पर उस ‘पद’ को ‘‘महान‘‘ बनाता हैं, शपथ लेकर जिस पर वह आरूढ़ होता हैं। मोदी ऐसे ही व्यक्ति हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को और ऊंचा उठाया है। न कि प्रधानमंत्री के पद ने मोदी के व्यक्तित्व को ऊंचा बनाया है! यह बात जरूर है कि प्रधानमंत्री के पद ने, उन्हें एक अवसर (प्लेटफार्म) जरूर दिया है जहां वे अपने व्यक्तित्व का राष्ट्र हित में सफलतापूर्वक ज्यादा अच्छे तरीके से सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकें।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एकदम सामान्य, लेकिन पूर्ण श्रद्धा व आदर पूर्ण भाव के साथ अपने अंतर्मन से भगवान श्रीराम की शुभ अभिजीत मुहूर्त में विधि विधान के साथ पूजा की है। यह पहली बार नहीं है, वरण इससे पहिले भी मोदी संसद भवन के प्रवेश द्वार की सीढ़ी को प्रणाम कर चुके है। अतः इस तरह की अवांछित टिप्पणियां करके आप स्वाभिमानी, अभिमानी लेकिन अंहकार रहित व्यक्ति के अंदर अहंकार व घमंड को पैदा करने और बढ़ाने में ही सहायक होगंे। अतः देश हित में ऐसी टिप्पणियों से बचिये।
अंत में एक बात और! प्रधानमंत्री पद का ‘‘वैभव’’ इतना विशाल होता है, कि पूजा कराने वाले ब्राह्मण देवता भी शायद ‘‘अलाैंकिक रूप से अभिभूत’’ एवं विस्मृत हो गये थे। शायद इसीलिए वे ‘‘यजमान’’ की हैसियत से बैठे नरेन्द्र मोदी को संकल्प दिलाते समय ‘‘नरेन्द्र दामोदर दास मोदी’’ की जगह ‘श्री’ नरेन्द्र दामोदार दास मोदी बोल गये। ‘श्री’ शब्द का उपयोग अनावश्यक व औचित्य हीन था। पूजा पाठ कराने वाले ब्राह्मण देवता का ‘‘अभिजीत मुहूर्त’’ के समय पर करने के लिए कोई सही त्रुटि विहिन वैकल्पिक (फुलपू्रफ) व्यवस्था बना कर रखनी थी, ताकि ब्राह्मण देवता का ध्यान मुहूर्त के पास आने के समय पर पूजा से बार-बार भठकता नहीं।
खैर फिर भी 492 साल की प्रतिक्षा कर एक ऐतिहासिक सुखद (अंत नहीं) प्रारंभ होने के लियेे पूरे विश्व के सनातनियों को बधाई व प्रणाम। कई बार महत्वपूर्ण घटनाएं सिर्फ स्वयं के जीवन में उतारने के लिए होती है, उन पर प्रतिक्रियाएं देने की स्थिति नहीं होती है। लेकिन जब उनका प्रस्तुतिकरण कुछ इस तरह से हो जाता है कि, वह प्रस्तुतिकरण स्वयं ही प्रतिक्रिया को निमत्रिंत कर देता है। शायद ऐसा ही ऐतिहासिक समय के व्यतीत हो जाने के बाद उनके प्रस्तुतिकरण ने ही मुझे भी यह प्रतिक्रिया लिखने हेतु आकर्षित किया।
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