‘‘पुलिस संज्ञान‘‘ के लिए कानून में संशोधन की आवश्यकता!
‘‘भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक’’ में प्रत्येक नागरिक को ‘‘संपत्ति’’ और ‘‘जान’’ की ‘‘सुरक्षा’’ के साथ-साथ परिवार की सुरक्षा के लिये भी ‘‘आत्मरक्षा’’ का मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। इसका मूल आधार व सिंद्धान्त यह है कि, कई बार घटित हो रही हिंसक अपराधिक घटनाओं में हिंसा के शिकार ‘‘भुगतयमान नागरिकों’’ को इतना वक्त भी नहीं मिल पाता है कि, वे अपने बचाव के लिए पुलिस सहायता की मांग कर पाये। तब ऐसी स्थिति से निपटने के लिये ही यह आत्मरक्षा का अधिकार दिया गया है। आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ कानूनी ही नहीं, बल्कि मौलिक भी है। आत्मरक्षा का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में मिले जीवन के अधिकार के तहत आता है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसलों में इस बात पर जोर दिया हैै कि, राइट टू सेल्फ डिफेंस एक मौलिक अधिकार है। परन्तु गाली गलौज के खिलाफ राइट टू सेल्फ डिफेंस उपलब्ध नहीं है। यानी अगर कोई आपको गाली देता है, तो आप इसके जवाब में उसको गाली नहीं दे सकते हैं। आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ शारीरिक हमले के खिलाफ ही उपलब्ध है। यह अधिकार पूर्ण रूप से अबाघित नहीं है, बल्कि इसमें सबसे बड़ा प्रतिबंध यह है कि, एक नागरिक को आत्मरक्षार्थ केवल उतने ही प्रतिरोधी बल का उपयोग करने की विधिक स्वतंत्रता है, जितनी परिस्थितियों में अति आवश्यक है।
‘‘आत्मरक्षा के अधिकार’’ की बात इसीलिए ध्यान में आयी, क्योंकि हाल ही में घटित उत्तर प्रदेश में ‘‘बलिया गोलीकांड‘‘ में आरोपी ठाकुर धीरेन्द्र प्रताप सिंह के द्वारा गोली चालान से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई, व हिंसा में दूसरे पक्ष के भी कई लोग घायल हो गयें । उक्त घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुयें वहां के विधायक सुरेन्द्र सिंह ने जातिवाद (ठाकुर) के आधार यह दावा किया (जबकि अभियुक्त ने ऐसा कोई दावा नही किया था) कि आरोपी ने अपनी व परिवार की जान की सुरक्षा में आत्मरक्षार्थ गोली चलाई। आगे वे एक तथ्यात्मक महत्वपूर्ण बात कहते है कि, यदि वह गोली चालन नहीं करता तो, उसके परिवार के 10-12 लोगों की हत्या हो जाती, जो कुछ सदस्यों के घायल होकर अस्पताल में भर्ती होने से सिद्ध है। वास्तव में आत्मरक्षा का यह अधिकार भारतीय दंड संहिता में वर्णित है और उसको हमारी न्यायिक प्रणाली ने भी मान्यता दी है। इसी कारण इस आधार पर कई हत्या के अपराधियों को न्यायालयों ने छोड़ा भी है।
प्रश्न यहाँ पर यही उत्पन्न होता है कि, क्या वास्तव में यह अधिकार कानून्न व न्यापालिका द्वारा मान्यता देने के बावजूद वास्तविकता लिये हुये व्यवहारिक रूप से एक नागरिक को प्राप्त है? यह प्रश्न इसलिए भी पैदा होता है कि आपराधिक न्यायशास्त्र में पुलिस की विभिन्न जांच एजेंसीज, एस.टी.एफ. सीबीआई सीआईडी आदि की एक निर्धारित जांच प्रकिया होती है। परन्तु जांच की इस प्रक्रिया में नागरिक के आत्मरक्षा का अधिकार के संज्ञान लेने का कोई अधिकार या प्रावधान जॉच टीम को नहीं है। मतलब जांच के दौरान जांच टीम यदि यह पाती भी है कि हिंसा का शिकार अभियोगी ने उक्त आत्म रक्षा के अधिकार के तहत निर्धारित सीमा के अधीन ही अपनी जान व सम्पत्ति की सुरक्षा करते हुये आवश्यक बल का प्रयोग किया हैं। और तदनुसार हमलावर आरोपी की मृत्यु होती है, तब वह ‘‘हत्या‘‘ का ‘‘आरोपी‘‘ नही है, यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ न्यायालय को ही है। अर्थात जॉच में पाए गये तथ्यों के आधार पर उक्त निष्कर्ष पर पहूंचने के बावजूद जांच अधिकारी इस निष्कर्ष का संज्ञान लेकर उस अभियुक्त को छोड़ नहीं सकते है और उसके विरूद्ध धारा 302 के अंतर्गत अपराध पंजीयत करके न्यायालय में चालान प्रस्तुत करना ही होगा।
लेकिन इसी अधिकार से जुडी हुई एक हास्यास्पद बात यह भी है, कि एक अपराधी के प्रथम सूचना पत्र में धारा 302 के अपराध के लिये नामित (दर्ज) होने के बावजूद भी, यदि जांच के दौरान पुलिस जांच, सीआईडी जांच या अन्य कोई जांच या समक्ष अधिकारी या न्यायालय के आदेश के अंतर्गत की गई जांच अधिकारी यह पाते है कि, उसके विरूद्ध धारा 302 के अंतर्गत अपराध नहीं बनता हैै, तो वहां पर पुलिस को यह ‘‘अधिकार‘‘ है कि वह आरोप पत्र से उस अभियुक्त का नाम हटा कर शेष अभियुक्त/अभियुक्तों के विरुद्ध न्यायालय में चालान प्रस्तुत कर दे। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, जब एक अभियुक्त को 302 का ट्रायल हुये बिना जांच के दौरान पाये गये तथ्यों के आधार पर पुलिस को उसे अभियुक्त न मानने का अधिकार है। तब यही सिंद्धान्त पुलिस के लिये आत्मरक्षा के अधिकार का संज्ञान लेने के लिये क्यों नहीं लागू किया जाता?
इस क्षेत्र से जुड़े हुये न्यायविद्व, फौजदारी अधिवक्तागण, बुद्विजीवीगण और मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्यिों की तरफ से पुलिस को यह क्षेत्राधिकार देने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में आवश्यक संशोधन किये जाने की मांग क्यों नहीं आई? यह एक बड़ा अनुत्तरित प्रश्न है? इस आवश्यक सुधार के लिए समस्त संबंधितो सहित शासन को भी गंभीरता से इस पर विचार करने की आवश्यकता है। वह इसलिए कि हमारी न्यायिक प्रणाली में कई बार दी गई सजा भुगतने की बजाए बजाय सजा देने की प्रकिया से गुजरना ज्यादा कष्टदायक भुगतयमान होता है। अर्थात प्रॉसिक्यूशन (अभियोजन) पर्सिक्यूशन (उत्पीडन) में बदल जाता है। मतलब लम्बी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरता हुआ आरोपी इतना उत्पीडि़त व हलकान हो जाता है कि अंततः अपराध से छूट जाने के बावजूद उसकी साख, उसका सब कुछ इस ट्रायल के दौरान समाज व परिजनों के बीच व उनकी दृष्टि में खो जाती है। जिसे किसी भी स्थिति में पुनः वापिस प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः न्यायिक प्रक्रिया के व्यवहारिक कष्टकारी भुगतयमान परिणाम को यदि आप आत्मरक्षा के अधिकार के साथ रखेगें, जोड़ कर देखेंगे तब आप यह महसूस कर पायेगें कि उस व्यक्ति को वास्तविकता में क्या फायदा हुआ? जब वर्षों ट्रायल (मुकदमा) चलने के बाद आत्मरक्षा के अधिकार के आधार पर आरोपी दोष मुक्त होता है, तब वह जेलों की सलाखें से बाहर तो आ जाता है। (क्योंकि सामान्यतया हत्या के आरोपी को जमानत नहीं मिल पाने के कारण वह जेल में ही रहता है)। परन्तु यदि आत्मरक्षा के उक्त अधिकार का संज्ञान लेने का क्षेत्राधिकार पुलिस क पास भी होता तो दोषमुक्त हुए आरोपी का न्यायालय में ट्रायल ही नहीं होता और इस प्रकार उसके अनावश्यक रूप से जेल में रहने से उसकी स्वतत्रंता के मूल व कानूनी अधिकार का न्यायिक प्रक्रिया (पुलिस द्वारा नहीं) द्वारा जो उल्लंघन हो रहा है वह नहीं होता।
कुछ रूढिवादी, प्रतिक्रियावादी या प्रतिगामी अथवा कुछ अति सक्रियता वादी लोग चोह चिल्लाहट कर यह कह सकते है कि पुलिस को यह अधिकार दिये जाने पर वह उसका दुरूपयोग कर सकती है। अधिकारों के दुरुपयोग की बात तो वर्तमान में प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान है। बावजूद इसके क्या हम इस आधार पर आवश्यकतानुसार नए कानून का निर्माण या विद्यमान कानूनों में संशोधन नहीं कर रहे हैं? अतः यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक में वर्णित जान माल की सुरक्षा का अधिकार को वास्तविक अर्थो में धरातल पर उतारकर उसका लाभ एक नागरिक को देना है, तो शासन और ला कमीशन व विधायिका का यह दायित्व है कि वह भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में आवश्यक उचित संशोधन करके पुलिस की विभिन्न जांच एजेंसी को जांच के दौरान उक्त अधिकार के अस्तित्व मे पाए जाने पर उसका संज्ञान लेने का अधिकार दिया जावे। ताकि इस आधार पर एक निर्दोष व्यक्ति का गैरकानूनी ट्रायल न होकर उसकी स्वतंत्रता सुरक्षित रह सकें। अन्यथा इन अधिकारों को समाप्त किया जाना ही उचित होगा।
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