प्रदेश में 28 विधानसभा की सीटों पर हो रहे उपचुनावों के दौरान ही एक और कांग्रेसी, दमोह के विधायक राहुल सिंह लोधी का इस्तीफा होकर भाजपा की टिकट पर उपचुनाव लड़ने की शर्त पर भाजपा में शामिल कर लिए गए। उपचुनावों के प्रचार के बीच राहुल सिंह को दमोह विधानसभा के भाजपा के नेता व कार्यकर्ताओं की ‘‘छाती पर सवार करवा के’’ मुख्यमंत्री आखिर भाजपा के उन कार्यकर्ताओं को ‘‘कोने में ठकेल कर’’ क्या ‘‘संदेश’’ देना चाहते है?
आपको याद ही होगा! अभी दो वर्ष भी व्यतीत नहीं हुये है, जब मध्यप्रदेश विधानसभा के हुये आम चुनाव में कांग्रेस को अल्प बहुमत मिला और ‘‘अनाथ’’ कांग्रेस के ‘‘नाथ’’ कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार का गठन हुआ। परंतु 15 महीनों में ही ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनैतिक आकांक्षाएं व महत्वाकाक्षाएं गुलाटी खाने लगी और अपने कट्टर समर्थक 22 व 3 अन्य विधायकों के साथ मिलकर विधानसभा की सदस्यता से सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया और कमलनाथ सरकार को गिराकर उसे पुनः ‘अनाथ’ कर दिया। परिणाम स्वरूप ‘‘मामा’’ शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार पुनः आरूढ़ हुई। सरकार बनने के बाद भी दल बदल का सिलसिला चलता रहा और 3 कांग्रेसी विधायकों ने इस्तीफा देकर भाजपा की सदस्यता ली। सरकार बनाने के लिए जितने विधायकों की बहुमत की आवश्यकता थी, उससे कहीं ज्यादा सरकार के गठन के पूर्व ही कांग्रेस से विधायकों को तोड़कर सशर्त भाजपा में शामिल कराया गया।
इस घटनाक्रम से उन समस्त पुराने भाजपाइयों को मानो तो सांप ही सूंघ गया हो, जहां से वे पिछले चुनाव में कांग्रेसी विधायकों से चुनाव हार गये थे। ये भाजपाई नेतागण और उनके समर्थक गण भाजपा के ऐसे कट्टर समर्थक रहे हैं, जिन्होंने व उनके परिवारों ने जनसंघ से लेकर वत्र्तमान भाजपा के खडे विराट वृक्ष की ‘‘जड़ों को रोपा‘‘, ‘‘सींचा’’ और ऐसा ‘‘वट’’ वृक्ष बनाया, जिसकी ‘‘छाया’’ में वे सब जीवन के अंतिम समय तक ‘‘सम्मानपूर्वक रहने की इच्छाशक्ति व आकांक्षा पाले’’ हुए हैं। लेकिन रास्ता की लालसा व मौका परस्ती के कारण उन्हे ‘‘दूध की मक्खी’’ की तरह निकाल कर फेक दिया गया। चूंकि भाजपा की सरकार का गठन हो रहा था, इसलिए उन नेताओं व कार्यकर्ताओं ने एक अनुशासित सिपाही होने के नाते ‘‘खून का घूंट पी कर’’ भी ‘‘नेतृत्व‘‘ की बात को स्वीकार कर अपनी ‘‘राजनीतिक जीवन पूंजी’’ को पार्टी हित में ‘‘न्यांैछावर’’ कर दिया। लेकिन बात यही समाप्त नहीं होती है।
सरकार के गठन के बाद भी और उपचुनाव के दौरान इस तरह से कांग्रेस विधायकों का निरन्तर इस्तीफा दिलवा कर भाजपा में शामिल कर ‘‘किस बात’’ का ‘‘मैसेज’’ दिया जा रहा है, वह उन क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं के समझ से परे है। और यह बात उनके उनकी ‘‘खोपड़ी के उपर से जा रही’’ है। यह बात तो तय है कि ये समस्त इस्तीफें सिंद्धान्तों की खातिर तो हुए नहीं है? उन्होंने इसी शर्त पर इस्तीफा दिया है कि होने वाले उपचुनावों में भाजपा के चुनाव चिन्ह पर उन्हें चुनाव लड़ाया जायेगा। इसका क्या यह अर्थ नहीं निकलता है कि यदि भाजपा में राजनैतिक सम्मान व पद पाना है तो, अब आपको ‘‘कांग्रेस के रास्ते‘‘ से होकर ही आना पड़ेगा? दशहरा उत्सव अभी हाल ही सम्पन्न हुआ है। ‘‘लक्ष्मण’’ व ‘‘विभीषण’’ का महत्व सर्व ज्ञात है। तत्समय सही विकल्प न होने के कारण विभीषण का औचित्य सही था। परन्तु लगता है कि वर्तमान भाजपा ‘लक्ष्मण’ की बजाय ‘विभीषण’ के रास्ते को ज्यादा उचित मान रही है। विभीषण को वर्तमान में किस हेय दृष्टि से देखा जाता है? तो क्या वास्तव में यही सही रास्ता है? यह भाजपा कार्यकर्ताओं को तय करना हैं।
आखिर राहुल सिंह के इस्तीफें की आवश्यकता क्यों पड़ी? जब आपके पास पर्याप्त बहुमत हो गया है, तो अपने खून पसीने से पार्टी को मजबूत मुकाम हासिल कर बने ‘‘नेताओं‘‘ को छोड़कर/उपेक्षा कर कांग्रेस के नेताओं को उनकी जगह चुनाव से लड़़ा कर पार्टी के प्रति निष्ठावान नेताओं की अर्जित राजनीतिक पूंजी को क्यों छीना जा रहा है? राहुल सिंह लोधी जो दमोह से भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री जयंत मलैया को हराकर विधायक बने थे, के अब आगामी उपचुनाव में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने के कारण, उनकी राजनीतिक विरासत पार्टी ने छीन ली, जिसकी फिलहाल कतई आवश्यकता नहीं थी। चर्चित ‘‘डंपर कांड’’ के दौरान एक समय शिवराज सिंह की जगह जयंत मलैया के नाम मुख्यमंत्री पद के लिए चर्चित था और उनके पिता स्व. श्री विजय कुमार मलैया भी जनसंघ के जमाने से पार्टी से जुड़े रहे और प्रदेश के कोषाध्यक्ष भी रहे। डॉक्टर गौरीशंकर मुद्रित शेजवार, दीपक कैलाश जोशी, तेज सिंह सैंधव, व लाल सिंह आर्य, जय भान सिंह पवैया, रुस्तम सिंह, रामलाल रौतेल राव, देशराज सिंह यादव जैसे कई भाजपाई नेता है, जिन्हे अगली विधानसभा में भी टिकट इसीलिये नहीं मिल पाएगी, क्योंकि उनकी जगह कांग्रेस से आये विधायक भाजपा के उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ रहे है। और भाजपा नेतृत्व के लिये इन सब को जिताना न केवल नैतिक रूप से बल्कि सरकार के अस्त्तिव के लिए भी आवश्यक है। भाजपा के अंदरखाने की एक अपुष्ट खबर यह भी है कि ‘‘महाराजा’’ के उड़ते पंखों को सीमा में बांध दिया जाए, ताकि उनकी राजनैतिक सौदेबाजी की क्षमता को नियत्रिंत किया जा सकें। जिससे ‘‘राजा’’ भी अपना राजनैतिक तड़का लगाने को तैयार है। वैसे तो राजनीति में सब चीज जायज होती है। लेकिन भाजपा के लिये जब उसकी जरूरत न हो तब संघ के तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक के समान भाजपा कार्यकर्ता की कीमत पर यह ‘खोटी’ ‘‘राजनीति’’ उचित नहीं है। कांग्रेस का एक जमाना था, जब ‘‘फूलछाप कांग्रेसी’’ कहे जाते थे। अब जमाना पलट गया है, अब वे ‘‘पंजाछाप भाजपाई’’ कहलाते है। भाजपा के वफादार नेताओं को अंगूठा दिखाकर एवं कांग्रेस के बेवफा नेताओं को अंगूठी का नगीना बनाने का क्या संदेश जाता है? ‘‘यानी घर का जोगी जोगड़ा और आन गांव का सिद्ध?’’
लेकिन ऐसा लगता है की इस ‘‘ओपन एजेड़े’’ के साथ छिपा हुआ कुछ अन्य एजेंडा भी है। नेतृत्व शायद कुछ ऐसे मजबूत नेताओं को किनारा करना चाहते है, जो सालों से पार्टी के स्तम्भ रहे है, भले ही वे पिछले विधानसभा चुनाव में चुनावी राजनीति में हार गये हो। शायद इसी का फायदा उठाकर मुख्यमंत्री इस छिपे हुये एजेंडे के तहत कांग्रेसी विधायकों को पद का लोभ व लालच देकर भाजपा में ला रहे है, जिसकी अब कदापि आवश्यकता नहीं है। कम से कम पूरे तपे हुये तपनिष्ट सिद्ध नेताओं की कीमत पर तो नहीं होना चाहिये। इस छिपे एजेंडे का कहीं यह दुष्परिणाम न हो जाए कि भाजपा का कड़क धूप, ठड़ व बरसात को झेल कर बना तपोनिष्ठ कार्यकर्ता पार्टी को मजबूत करने की बजाय मजबूरी में अपने अस्तित्व व सम्मान की खातिर इस चुनाव में चमत्कारी निर्णय लाकर पार्टी को सबक न सिखा दें? इसीलिए केन्दीय नेतृत्व को इस बात को ध्यान में लेकर चिंतन करने की महती आवश्यकता है। हर बार ‘‘शार्ट कर्ट’’ (सुगम व सरल) रास्ता अपनाना घातक हो सकता है?
वर्तमान में तो राजनीति में तो ‘‘राहुल’’ शब्द "अपशगुन' ही है। लेकिन मध्य प्रदेश भाजपा के लिए "राहुल" ठीक वैसे ही वरदान सिद्ध हो सकता है जैसा केंद्र में।
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