बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

'चिट्ठी’ से महाराष्ट्र में उठा भूचाल! मुख्यमंत्री/राज्यपाल बर्खास्त किये जाने चाहिये?

हमारे देश की लोकतंत्रीय व्यवस्था ने यद्यपि अप्रत्यक्ष लोकतंत्रीय प्रणाली अपनाई हुई है। तथापि देश का वास्तविक शासक प्रधानमंत्री ही होता हैं, जिसका चुनाव प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष संसदीय प्रणाली द्वारा होता है। लेकिन इसी व्यवस्था में तीन बड़े संवैधानिक पद राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति (देश के लिये) और राज्यपाल (प्रदेश के लिए) तथा केन्द्र शासित प्रदेश के लिए ‘उपराज्यपाल’ होते है, जो पद के लिये ‘‘शोभामय’’ होने के बावजूद तकनीकि रूप से ‘‘वास्तविक’’ शासकों के ऊपर ही होते है। यह प्रश्न आज इसीलिए पुनः उठ खड़ा हुआ है, क्योंकि महाराष्ट्र के महामहिम राज्यपाल महोदय ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मंदिरों को खोलने के लिए चिट्ठी लिखी हैं।

राज्यपाल को किसी भी विषय पर अपने प्रदेश की जनता के हित में मुख्यमंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए न केवल चिट्ठी लिखने का अधिकार है, बल्कि वे विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव को जनहित में रोक कर, पुर्नविचार के लिए मंत्रिमंडल के पास वापिस भेज सकते है। कुछ विशिष्ट स्थितियों में तो वे सरकार को निर्देश भी दे सकते है। यहां तक तो ठीक है। परन्तु आज यहां पर उनके अधिकार क्षेत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न उक्त ‘चिट्ठी’ क्या वास्तव में राजनीति से परे है, जनहित में है, अथवा उनके व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा के तहत लिखी गई है? इसकी विस्तृत व निष्पक्ष चर्चा किये जाने की जरूर आवश्यकता है। राज्यपाल की उक्त चिट्ठी बिल्कुल भी ‘‘राजनीति से परे‘‘ नहीं है। यदि चिट्टी के लिखें मज़मून (जो स्पष्ट रूप से राज्यपाल की निष्पक्षता को संदिग्ध बनाती है) को छोड़ भी दे तब भी राज्यपाल का गोवा के मुख्यमंत्री जहां के भी वे राज्यपाल है, को उसी मुद्दे पर अर्थात मंदिर खोलने के लिए चिट्ठी न लिखने की स्थिति, जो उनकी पूर्व राजनीतिक पृष्ठभूमि व गोवा की सरकार की राजनीतिक स्थिति ‘‘समान‘ होने के कारण ही हुई है, महामहिम के ‘‘राजनीतिक एजेंडे‘‘ को स्पष्ट रूप से उभारती है। यह चिट्ठी महामहिम ने उस वक्त क्यों नहीं लिखी, जब सरकार द्वारा ‘‘बार‘‘ खोले गए थे, जिसका हवाला इस चिट्टी में देकर उन्होंने अपने (कु) तर्क को बल देने का (असफल) प्रयास किया है।  

इसमें कोई दो मत नहीं है कि राज्यपाल भी इस देश के एक संभ्रांत नागरिक है। और नागरिक होने के नाते उनके स्वयं का व्यक्तिगत अधिकार, नागरिक अधिकार तथा संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार और मानवाधिकार उन्हें प्राप्त है। क्या ये अधिकार पद पर रहते हुये स्थगित हो जाते है? प्रश्न सबसे बड़ा यहां पर यही है। यदि इन अधिकारों में से किसी का भी उल्लघंन सरकार या संस्थागत व्यवथापिका द्वारा हो रहा है, तो उनसे लड़ने के लिए, उसका विरोध करने के लिए और उन अधिकारों की रक्षा के लिए, बात जब शासन के विरूद्ध लड़ने की हो तब, इस संवैधानिक पद पर बैठेे रहकर भी क्या राज्यपाल अपने अधिकारों की रक्षा की लड़ाई लड़ सकते है? राजनैतिक शुचिता और नैतिकता (जो आज एक दूर की एक ‘‘कोड़ी’’ हो गई है) का यह तकाजा है कि उक्त अधिकारों की लड़ाई के लिये महामहिम संवैधानिक पद से इस्तीफा देकर ही एक ‘‘नागरिक’’ की हैसियत से देश के संविधान द्वारा प्रदत्त कानून का उपयोग करते हुये अपने स्वाभिमान की रक्षा की जानी चाहिये। यही एक सही व आदर्श स्थिति होगी। परन्तु देश का यही तो दुर्भाग्य है कि, चालाक व धूर्त राजनितिज्ञों ने इस नैतिकता व आदर्शवाद को जनता से छीनकर स्वयं को इन ‘‘आवरणों’’ से ढ़ककर इतना सुशोभित कर लिया है कि इस संबंध में वे उस जनता को आदर्शवाद व नैतिकता का सिर्फ पाठ सिखाने के कार्य को ही अपना आदर्श व नैतिक होना मानते है, जिस जनता की नैतिकता व आदर्शवाद को इन नेताओं ने ही अपने कार्यो व कार्य प्रणाली के द्वारा छींना हो।

‘‘महामहिम’’ यह लिखते है, जब बाजार, माल, चित्रपटगृह सब खोल दिये गये हो, तो ‘मंदिर’ क्यों नहीं खोले जा रहे है? तंज कसते हुये लिखते हैं, ‘‘लाकडॉउन का मजाक उडाया गया था, तो अब लाकडॉउन क्यों लगाया जा रहा है।’’ महाराष्ट्र के राज्यपाल आगे लिखते हुये मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को यह भी याद दिलाते है कि वे ‘‘हिन्दुत्व’’ के मजबूत पक्षधर रहे है, और सार्वजनिक रूप से भगवान श्री राम के प्रति अपनी भक्ति भी व्यक्त की है। उनके द्वारा विट्ठल रुक्मणी मंदिर का दौरा किया गया था। लेकिन दूसरी तरफ ‘‘देवी देवताओं’’ के स्थलों को नहीं खोला गया है। आगे फिर प्रश्नवाचक कथन लिखते है, ‘‘क्या आपने अचानक खुद को धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) बना लिया है?’’ इस शब्द का पत्र की लेखनी में चयन न केवल देश के लिए बहुत घातक है, बल्कि यदि कोई सामान्य व्यक्ति उक्त बात कहता या लिखता तो उसके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही भी की जा सकती है। परन्तु संवैधानिक पद पर बैठे हुये माननीय ऐसे कथन कर रहे है, तो क्या वे यह भूल गये है कि, देश के संविधान का एक प्रमुख तत्व धर्मनिरपेक्षता है व स्वयं महामहिम भी इससे बंधे हुये है? और ‘‘हिन्दुत्व होना’’ ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ का ही भाग है, जिसे समय-समय पर न्यायालय ने परिभाषित भी किया है। तब महामहिम इन दोनों शब्दों ‘‘हिन्दुत्व’’ व ‘‘धर्म निरपेक्षता’’ को एक दूसरे के विपरीत क्यों बता रहे है? क्या धर्मनिरपेक्ष होना एक अपराध है, गाली है, तो संवैधानिक पद पर बैठे महामहिम ने एक ‘‘हिन्दुत्व’’ वाले मुख्यमंत्री के धर्मनिरपेक्ष न होने से संविधान के विरूद्ध कार्य करने के कारण उन्हे मुख्यमंत्री पद से क्यों नहीं बर्खास्त कर दिया? क्या राज्यपाल के कहने का यह अर्थ कदापि नहीं निकलता है कि महामहिम व मुख्यमंत्री सेकुलर नहीं है? 

इस बात को भी महामहिम ने ध्यान में रखना चाहिये कि देश में सबसे ज्यादा कोरोना का संक्रमण महाराष्ट्र राज्य में ही है। अतः जहां तक ‘‘बार‘ खोलने का बात है, राज्यपाल शायद इस बात को भूल गये है कि सर्वप्रथम केंद्र सरकार द्वारा जारी ‘‘एसओपी‘‘ में ही बार खोलने की बात कही गई थी। जब स्वयं केन्द्र सरकार की नजर में ‘‘धार्मिक स्थानों‘‘ की अपेक्षा ‘‘बार‘‘ खोलने की प्राथमिकता हो तो, सिर्फ और सिर्फ राज्य सरकारों को इसके लिये दोषी ठहराना कहां तक उचित है? अनलॉक 5 के चलते केन्द्र सरकार स्वयं यह नहीं मान रही है कि पूरे देश में समस्त गतिविधियां पूर्ण रूप से जारी की जा सकती है। इसीलिये इन पर निर्णय लेने का विवेकाधिकार राज्य सरकारों पर छोड़ा गया है। तब राज्यपाल की यह चिट्टी जो ‘‘पत्र की चारों तरफ की सीमाएं ’’सुंदर’’ सी लिखावट के बंधन से सजी हुई आबद्ध है, क्या वह क्षेत्राधिकार का उल्लघंन करने के कारण ‘‘सुंदरता‘‘ को नष्ट करती हुई नहीं लगती है? यह स्पष्ट नहीं है कि राज्यपाल ने उक्त चिट्टी स्वयं के अधिकार के हनन होने के कारण लिखी है या उनके पास इसके संबंध में कोई ज्ञापन, मांग पत्र या शिकायत आई है, जिसे उन्होनें मात्र ‘पोस्टमैंन’ की तरह अग्रेषित किया हो? जो सामान्य रूप से एक राज्यपाल का कार्य होता है। इसीलिए उद्धव ठाकरे का यह जवाब ठीक तो हो सकता है कि ‘‘मुझे अपना हिन्दुत्व साबित करने के लिए राज्यपाल के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं हैं।’’ परन्तु यदि वे स्वयं भी संवैधानिक नैतिकता की मर्यादा का पालन करते हुये महामहिम पद की गरिमा को बनाये रखने के लिए इस तरह के बयान नहीं देते तो, शायद उनकी गरिमा व साख और ज्यादा अच्छी बनी रहती।

अंत में; राज्यपालों के मुंह तभी खुलते हैं, जब राज्यपाल जिन राजनीतिक परिवेशों व पृष्ठभूमि से आते हैं, उसी पृष्ठभूमि व विचारधारा के विपरीत या केंद्र शासित पार्टी की विरोधी पार्टियों की राज्य सरकारों के होने पर ही महामहिम ‘‘सरकार‘‘ पर निशाना साधते हुए अपने विचार व्यक्त करते हैं। अन्यथा तो वे सरकारों की हां में हां ही मिलाते रहते हैं। क्या आपने उत्तर प्रदेश, राजस्थान व मध्यप्रदेश में इतनी वीभत्स घटनाएं होने के बावजूद वहां के राज्यपाल को मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर चिंता व्यक्त करते हुये देखा है? इस संबंध में राकांपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार का प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखी जाना न केवल सामयिक है, बल्कि इस चिट्ठी में जो ‘‘तेवर‘‘ दिखाए गये हैं, वह तो और भी साहसिक है और यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता को ही दर्शाता है।

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