प्रथम भाग
जब भी किसी प्रसिद्ध ‘पत्रकार’ अथवा ‘वकील’ पर ‘‘आपराधिक कानून’’ के तहत कोई कार्यवाही की जाती है या शुरू किए जाने का प्रयास होता है, तब प्रायः कार्यवाही करने वाले तंत्रों के ‘हाथ पाव फूल’ जाते हैं। क्योंकि पत्रकार और वकील जगत समाज के प्रमुख वर्ग माने जाते है तथा प्रायः वे स्वयं भी इस बात की तसदीक करते है। इस कारण से वे अपने-अपने समूह वर्ग के सदस्यों के व्यक्तिगत हित में यह नारा लेकर खड़े हो जाते हैं कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया और पहला स्तंभ ‘न्यायपालिका’ जिसका वकील वर्ग एक महत्वपूर्ण भाग है, खतरे में आ गया है। ‘‘प्रतिबद्ध’’ न्यायपालिका का खतरा है’’‘‘प्रेस की आजादी को खतरा है’’ और इस खतरे को जब तब बदनाम‘‘आपातकाल‘‘ का नाम दे दिया जाता है।
बात ‘रिपब्लिक टीवी’ के मालिक अर्नब गोस्वामी की मुंबई पुलिस द्वारा 2 साल पुराने (बंद) खात्मा लग चुके प्रकरण में की गई गिरफ्तारी के मामले की है। उक्त मामला इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक को रिपब्लिक टीवी के द्वारा बकाया भुगतान न करने के चलते तनाव के रहते नाइक व उसकी मां ने आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या के पूर्व स्व. नाइक ने पत्र लिखकर अर्नब पर आर्थिक व्यवहार व धोखाधड़ी का आरोप लगाने पर अर्नब के विरूद्ध प्रकरण पंजीबद्ध किया गया था, जिसमें तत्कालीन फडणवीस सरकार के समय खात्मा रिपोर्ट लग गई थी। मई 2020 में उनकी बेटी अदन्या नाइक की नई शिकायत के आधार पर पुनः जांच के आदेश दिये गये और तदानुसार उक्त गिरफ्तारी की हुई कार्यवाही पर पुनः ध्यान आकर्षित हुआ है।
इसके कुछ समय (लगभग ढ़ाई महीने) पूर्व प्रसिद्ध वकील मानवाधिकार व जनहित याचिका विज्ञ प्रशांत भूषण के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने 1 रूपये के मूल्यांकन को बढ़ाकर रूपये का सम्मान बढ़ाकर, प्रशांत भूषण को 1 रूपये जुर्माना भरने के आदेश दिये थे। मुंबई पुलिस द्वारा जिस तरह व तरीके से अर्नब गोस्वामी की उक्त प्रकरण में गिरफ्तारी की गई है और पूर्व में भी पिछले कुछ समय से उनके विरुद्ध विभिन्न आपराधिक अधिनियम के अंतर्गत मुंबई पुलिस द्वारा तीन-तीन बार कार्यवाही की गई है, उन सब सम्मिलित कार्यवाहियों से निश्चित रूप से मुंबई पुलिस और अंततः महाराष्ट्र सरकार की नियत व कार्यवाही पर सवालिया निशान व ऊंगली उठना स्वाभाविक ही है।
देश की ‘चलताऊ’ राजनीति के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए अर्नब के प्रकरण में सत्ता व कानून के दुरुपयोग के आरोप लगना लाजमी है और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति भी चलना तय है। परंतु महत्वपूर्ण प्रश्न यहां पर यह है कि अर्नब गोस्वामी के साथ विगत कुछ समय से जो कुछ भी हुआ है, और हो रहा है वह महाराष्ट्र सरकार द्वारा ‘तंत्र’ के तथाकथित दुरुपयोग का मामला हो कर भी क्या उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अर्थात संपूर्ण मीडिया के विरुद्ध कार्यवाही माना जाना चाहिये? ठीक इसी प्रकार प्रशांत भूषण के विरुद्ध की गई कार्रवाई को भी क्या संपूर्ण वकीलों की जमात के विरुद्ध कार्रवाई माना जाएगा? क्योंकि फैसला आने के बावजूद तत्पश्चात सीनियर वकीलों के एक बड़े समूह ने इस संबंध में सीधे मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र देकर फैसले से असहमति व्यक्त करते हुये सजा देने का विरोध किया था, जो शायद न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ है। क्या इन आधारों पर व्यक्तिगत घटना को सम्पूर्ण वर्ग द्वारा अपने उपर हमला मानकर प्रतिकार किया जाना चाहिये? क्योंकि ‘‘आर भारत टीवी’’ लगातार धमकी भरी प्रतिक्रिया द्वारा यह कह रहा है कि राजनैतिक प्रतिशोध के चलते की गई गिरफ्तारी के कारण न्यायहित में पीड़ित अर्नब को तुरंत छोड़ा जावें। दोषी अधिकारियों को निलंबित किया जाये। अन्यथा 120 करोड़ जनसंख्या के रोड़ पर आ जाने की आशंका है। अर्नब के माध्यम से समस्त ‘‘मीडिया’’ ‘वर्ग’ को पीड़ित रूप में कटघरे में लाने की मंशा के चलते सभ्य समाज में उक्त विषय का गंभीर व अति संवेदनशील बनाये जाने के प्रयास पर गंभीरता से निष्पक्ष रुप से चर्चा कर सही हल व निष्कर्ष निकालने की भविष्य के लिये आवश्यकता है। आइए इसी दिशा में कुछ हल ढूंढ़ने का आगे प्रयास करते हैं।
अर्नब गोस्वामी यद्यपि रिपब्लिकन टीवी के प्रधान सम्पादक हैं, जिस कारण से वे चैथे स्तंभ के एक भाग भी हैं, परन्तु पहले वे देश के ‘‘एक नागरिक’’ हैं। प्रश्न यह है कि इस देश में नागरिकों (अर्नब, एक नागरिक सहित) के साथ ज्यादती क्या पहली बार हो रही है? इसके पूर्व में नहीं होती रही ? या भविष्य में नहीं होगी? बेशक एक श्रेष्ठ, स्वस्थ्य व परिपक्व लोकतंत्र में किसी भी नागरिक के साथ एक असहिसष्णुतापूर्वक और कानून का दुरूपयोग कर, पक्षपातपूर्ण एवं बदनियति से प्रतिशोधात्मक कार्यवाही नहीं की जानी चाहिये। परन्तु सुधार के लिये समस्त रूकावटों व सावधानियों के किये गये प्रबंध के बावजूद लोकतंत्र के जन्म से अभी तक यही होता आ रहा है। यद्यपि इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उसका जवाब भी वही असहिसष्णुता, कानून को अपने हाथ में लेना, न्यायपालिका पर अनावश्यक दबाव या घोर अनुउत्तरदायित्व कार्य कलाप हो सकता है। जब किसी भी नागरिक के साथ किसी भी प्रकार ज्यादती होती है तो, उसके पास एकमात्र संवैधानिक अधिकार न्यायालय की शरण में जाकर अपने मूल अधिकारों की रक्षा करना होता है। और अपने संवैधानिक व कानूनी अधिकारों के गैर कानूनी रूप से हनन किये जाने पर सक्षम न्यायालय से हर्जाना मांगने का अधिकार भी होता है।
आपराधिक कानून के अंतर्गत किसी भी आरोपी की गिरफ्तारी के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने काफी समय पूर्व एक विस्तृत गाइड़लाईन जारी की थी, जिसे न्यायालय के निर्देशानुसार प्रमुख अखबारों में व्यापक रूप से प्रकाशित भी किया गया था। बावजूद इसके उक्त निर्देशो का कितना पालन होता आता आया है? आरोपी को हथकड़ी लगाने के संबंध में भी उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 1978 में सुनील बतरा विरूद्ध दिल्ली प्रशासन के प्रकरण में तत्पशाच कई प्रकरण में जारी गाइड़लाईन का आज भी निरतंर उल्लघंन होता आ रहा है। उच्चतम न्यायालय से लेकर अधीनस्थ न्यायालयों ने और अपनंे को सबसे जिम्मेदार चैनल कहने वाला रिपब्लिक टीवी ने कब? न्यायालय के उक्त बंधनकारी निर्देशों का पालन न होने की आवाज उठाई और उसे न्यायालय की अवमानना मानकर आवश्यक कार्यवाही की मांग कर अपने अतिरिक्त उत्तरदायी या उत्तरदायी होने का परिचय कराया? या इस विषय को लेकर रिपब्लिक टीवी ने क्या न्यायपालिका की गरिमा की सुरक्षा लगातार तीन महीने सुशांत कांड के समान रिपोर्टिंग की? क्योंकि उक्त मुद्दे लोकहित, जनहित, न्यायहित व देशहित से जुड़े है, जिनका रखवाला होने का दावा रिपब्लिक टीवी लगातार करते आ रहा है। राष्ट्रहित के एकमात्र झंडेवरदार सिर्फ रिपब्लिक टीवी ही नहीं है? अन्य अधिकांश चैनल भी अपना अपना सहयोग इस दिशा में देते आ रहे है।
मतलब साफ है, सार्वजनिक जीवन जीने वाले ‘‘सम्मानीयों’’ पर जब कभी कानून का ड़ंडा वैध या अवैध रूप से पड़ता है, तब ‘खुद’ पर आसमान टूट पड़ने के कारण उसे ‘‘तंत्र’’ का मुद्दा बतलाकर देशहित खतरे में हैं, का विलाप करने लगते है। जबकि उनका गलत तरीके से निज स्वार्थ वश उक्त विलाप करना ही देशहित के विरूद्ध है। तब हम क्या उस नागरिक के साथ हुई ज्यादती व्यक्तिगत घटना को ‘‘संपूर्ण तंत्र की असफलता‘‘ या उस पूरे ‘‘नागरिक समाज‘‘ के साथ हुई ज्यादती से जोड़ सकते हैं, प्रश्न यह है?यदि हाँ तो फिर एक ‘‘नागरिक’’ अर्नब गोस्वामी के साथ हुई ज्यादती की घटना को सम्पूर्ण प्रेस जगत के साथ जोड़कर और आपातकाल की परिभाषा तक ले जाना, क्या अपने आप में एक ज्यादती नहीं होगी? क्योंकि अर्नब के विरूद्ध प्रस्तुत मामले में की गई कार्यवाही एक आर्थिक व्यवहार व षड़यंत्र के आरोपों के तहत की गई है। न कि एक पत्रकार का दायित्व निभाते हुये ‘‘कोपभाजन’’ बनने के कारण हुई है।
अर्नब यद्यपि एक प्रमुख पत्रकार है, तथापि वे संपूर्ण मीडिया के पर्यायवाची या प्रतिबिम्ब नहीं है,हमें व उन्हे समझना होगा। पुलिसिया तरीके से पुलिस कार्यवाही पर गुस्सा होना/आना स्वभाविक व जायज है। परन्तु पब्लिक डोमेन में रहने वाले खासकर पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति के लिये गुस्से में संतुलन खोना सही नहीं है। जब प्रमुख वर्ग (मीडिया) के एक ख्याती प्राप्त व्यक्ति के साथ शासन-प्रशासन तंत्र द्वारा सत्ता, अधिकारों, नियमों व कानून का दूरूपयोग कर ज्यादती की जाती है, तभी वह प्रमुख व्यक्ति ज्यादती के दर्द को महसूस व अहसास कर पाता है। अन्यथा उनके वर्ग के एक सामान्य व एक सर्वबेहाल आम नागरिक जैसे न जाने कितने नागरिक तंत्र के दुरूपयोग का दिन-प्रतिदिन शिकार होते रहते है। परन्तु उनकी न तो स्वयं की कोई आवाज होती है और न ही कोई उठाता है और वह आवाज एक नामचिन के साथ हुई कथित अत्याचार के शोर में दब जाती है। आम निरीह नागरिक के साथ हुई ज्यादती के गहरे दाग तभी लोगों केा दिखते है या उनका दर्द महसूस होता है, जब तक वह पीड़ित नागरिक पत्रकार या वकील का चोला नहीं पहन लेता है।
अब जब तंत्र में आवश्यक या अल्प सुधार भी न हो पा रहा हो, शायद तभी समस्त सार्वजनिक जीवन के प्रमुख व्यक्तिगण अत्याचार से पीड़ित होने पर ही तंत्र की इस कमी को दूर करने के लिये कुछ न कुछ सुधार करने के बाबत अवश्य सोचेंगें और आवश्यक कदम उठा पायेगें। आज के युग में यह भी तंत्र के इलाज का एक मजबूरी में उठाया हुआ कारगर तरीका हो सकता है, और तंत्र को सुधारने की इस दृष्टि से भी अर्नब और उसके साथ खड़े लोगों को सोचने की नितांत आवश्यकता है।
*द्वितीय भाग*
रिपब्लिक एवं आर भारत टीवी के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी के साथ ज्यादती, पक्षपात पूर्ण रवैया, राजनैतिक प्रतिशोध व दुश्मनी निकाले जाने की बात मीडिया में कम परन्तु आंशिक रूप से राजनैतिक क्षेत्रों में ज्यादा की जा रही है। क्या उसी पैरामीटर व प्लेटफार्म पर ‘अर्नब’ को भी खड़ा नहीं करेगें? सर्वप्रथम अर्नब क्या एक राजनैतिज्ञ है? जो राजनैतिक द्वेश की बात की जा रही है। शायद हो सकता है, वे एक विशिष्ट राजनैतिक एजेंड़ा लेकर पत्रकारिता कर रहे हो? तभी तो राजनैतिक प्रतिशोध की बात स्वयं रिपब्लिक टीवी भी कर रहा है।
अर्नब पर हुई ज्यादती पर अमित शाह से लेकर तमाम प्रमुख भाजपा नेताओं के बयान आये जिन्होंने इस घटना को लोकतंत्र के चैथे स्तंभ पर हमला से लेकर आपातकाल तक बता दिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो इसे लोकतंत्र का गला घोटना बता दिया। परन्तु ‘‘राजनैतिक’’ आरोप के चलते शायद योगी यह भूल गये कि उनके स्वयं के ‘‘उत्तम प्रदेश’’ उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर का नमक रोटी प्रकरण, जिसमें मिड़-डे-मील के रखरखाव के संबंध में पत्रकार पवन जायसवाल की गिरफ्तारी, बिजनौंर के एक गांव में पांच पत्रकारों के विरूद्ध दलित समुदाय के पानी न लेने-देने की खबर को फर्जी बताते हुये मुकदमा दर्ज करना, आजमगढ़ में पुलिस की बिना नम्बर की गाड़ी की खबर दिखाने वाले पत्रकार पर प्रकरण दर्ज करना, न जाने ऐसे कितने मुकदमे दुर्भावना पूर्ण व पत्रकारों को अनुचित दबाव में लाने के लिये व प्रताड़ित किये जाने के लिये दर्ज किये जाते रहे है। तब लोकतंत्र व मीडिया कितना मजबूत हुआ होगा? रिपब्लिक टीवी टीवी ने राष्ट्रहित में पत्रकारों के साथ हुये उक्त समस्त अत्याचारों पर कितना हाय तोबा मचाया? (सुशांत की सियासत के समान) यह बात भी अर्नब के छिपे राजनैतिक ऐजेंड़ा की पुष्टी ही करती है क्योंकि प्रायः अन्य पाटियों के नेताओं के बयान अर्नब के समर्थन में नहीं आये।
सार में ‘निष्पक्षता’ व कत्र्तव्य पालन की उम्मीद रखने वाले व्यक्ति से क्या स्वयं की निष्पक्षता, कत्र्तव्य निवर्हन व ‘सच’ की उम्मीद नहीं की जानी चाहिये? क्या अर्नब इस बैरोमीटर पर खरे उतरते है? कहा भी जाता है, ‘‘कांच के घर में रहने वाले व्यक्ति को दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेकना चाहिये’’। बात कड़वी हो सकती है। अर्नब के साथ हुई उक्त घटना के लिये यदि आप पूरे तंत्र व राष्ट्र को खीचेगें, आरोपित (ब्लेम) करेगें, (तथाकथित) प्रेस की आजादी को खतरा है, आवाज बुलंद करने वालों को भी तब अपने तर्क को वजन देने के लिये अर्नब को भी उसी पैमाने से उसी तराजू में तौंलकर निष्कलंक दिखाना होगा। तभी आप की बात का वजन कई गुना बढ़ पायेगा। वैसे भी हमेशा सबको आयना दिखाने के साथ कभी-कभी स्वयं को भी आयने के सामने रखना चाहिये, ताकि वास्तवित धरातल का अहसास महसूस होता रहे।
अर्नब की तथाकथित ‘निष्पक्षता’, राष्ट्रहित व मीडिया रिपोर्टिंग के कुछ मूलभूत मान्य तथाकथित सिंद्धातों के कत्र्तव्य पालन का एक सुपरिचित उदाहरण है, सुशांत केस का मीडिया कवरेज। एक सुशांत सिंह फिल्मी कलाकार की आत्महत्या की घटना का कोई ‘‘सामाजिक सरोकार’’ या ‘‘देश की सुरक्षा’’ से कोई लेना-देना नहीं था जो आत्महत्याओं की अन्य अनके घटनाओं के समान एक सामान्य घटना मात्र है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास में अभी तक किसी मीडिया हाॅउस ने लगातार इतने लम्बे समय (लगातार तीन महीने से ज्यादा) का स्लाट किसी एक ‘‘सामान्य’’ घटना को नहीं दिया है जो रिपब्लिक भारत ने किया है। उक्त घटना के तथाकथित आरोपियों का मीडिया ट्रायल कर दोषी भी करार कर दिया गया। इसी के चंद दिन बार हुई दूसरे कलाकार ‘समीर शर्मा’ की आत्महत्या को रिपब्लिक टीवी ने कितने समय का स्लाट दिया? क्या सिर्फ इसलिए नहीं कि वह कलाकार ‘बिहार’ का नहीं था या मुंबई के मुख्यमंत्री निवास से उसके तार नहीं जुड़ पा रहे थे? इस लगातार प्रसारण के पीछे अर्नब का उद्देश्य क्या है? जिस घटना पर आत्महत्या के अलावा सीबीआई जांच में भी अभी तक कुछ अतिरिक्त (उकसाने के) साक्ष्य भी नहीं ढूढ़ पाई है, तब उसे हत्या का नाम देकर एक नागरिक को देश के सामने हत्यारा घोषित कर उसकी प्रतिष्ठा को धूल चटाना (जो अब वापिस नहीं आ सकती है) व उसके लिये माफी भी न माँगना; क्या यही सही व न्याय दिलाने वाली पत्रकारिता है?
माननीय मुबंई उच्च न्यायालय ने (जिससे स्वयं अर्नब ने मामलों में सहायता पायी है) भी सुशांत प्रकरण में इतनी ज्यादा हो रही मीडिया ट्रायल पर ‘‘एनबीए’’ व सूचना मंत्रालय से कार्यवाही करने की बात कही तो, अर्नब ने अपने को उस न्यूज ब्राड़कास्ट एसोशियेसन से हटाकर खुद का एक नया संघ ‘‘न्यूज ब्राड़कास्टिंग फेड़रेशन’’ बना लिया। कानून का पालन करने के बड़े-बड़े दावा करने वाले अर्नब गोस्वामी के पास क्या कानून का पालन करने का यही तरीका बचा था?
अर्नब ‘‘एक व्यक्ति’’ नहीं ‘‘भारत की आवाज’’ है। ‘‘120 करोड़ लोग’’ इस मुद्दे पर खड़े है, यह ‘‘अघोषित आपातकाल’’ है। ‘‘पूछता है भारत’’। ऐसी रिपोर्टिग ‘‘आर भारत’’ टीवी कर रहा है। हमने तो ‘‘आपातकाल’’ के समय भी ‘‘जेपी आंदोलन’’, में 100 करोड़ लोगों को आंदोलन के साथ खड़े होते नहीं देखा, जब सिर्फ मीडिया ही नहीं बल्कि पूरा ‘‘लोकतंत्र’’ ही खतरे में था। मीडिया के आपके अन्य समस्त साथीगण घटना की वैसी निरंतरता व प्रमुखता से रिपोर्टिंग नहीं कर रहे। वे ही जब आपके साथ नहीं है, तब 100 करोड़ लोग जिन्हे रोजी-रोटी से ही फुरसत नहीं है, उनके सहित 120 करोड़ लोगों का अर्नब के साथ होने का दावा कर क्या रिपब्लिक टीवी सही रिपोर्टिंग कर रहा है? यह घटना कौन सी धार्मिक मामलों या देश की सुरक्षा से जुड़ी है, जहां रिपब्लिक टीवी धार्मिक क्षेत्र के विभिन्न संतो व ‘सेना’ के रिटायर्ड मेजर जनरल आदि की प्रतिक्रियाएं अर्नब के समर्थन में लेकर दिखा रहा है। क्या अपने बचाव में ऐसे बचकाने दावे निष्पक्ष, स्वच्छ व सही मीडिया रिपोर्टिंग है? दुर्भाग्य से या सुनियोजित तरीके से घटित घटना से उत्पन्न आग की अग्नि को शांत करना ‘देशहित’ है या किसी व्यक्तिगत घटना के कारण व्यक्तिगत हितों के लिये जबदस्ती उन्माद पैदा करने का प्रयास करना राष्ट्र हित है? यह अर्नब व जनता को तय करना है।
उक्त घटना के लिये बार-बार सोनिया, राहुल गांधी का नाम लेकर आप कौन सी निष्पक्षता व सही रिपोर्टिंग कर रहे है? इसका क्या यह मतलब नहीं निकाला जाए कि मोहम्मद साद की अभी तक भी गिरफ्तारी न होने के लिये आपके उक्त नजरिये से मोदी ‘‘जिम्मेदार’’ है? क्या आपने मोहम्मद साद की गिरफ्तारी का मुद्दा जिसका निश्चित रूप से राष्ट्र की सुरक्षा व आमजन के स्वास्थ्य से संबंध है, को सुशांत के समान ऐजेंड़ा बनाकर लगातार प्रश्न उठाकर ‘साद’ का ‘‘मीडिया ट्रायल’’ किया जैसा कि आपने सुशांत प्रकरण में ‘रिया’ का किया था? रिपब्लिक टीवी की रिपोर्टिंग कितनी निष्पक्ष व तथ्य लिये हुये है, यह मुंबई उच्च न्यायालय ने उसके समक्ष दायर फिल्म उद्योग से जुड़े 34 अभिनेता-निर्माता द्वारा दायर की गई याचिका पर रिपब्लिक टीवी, टाइम्स नाऊ, व टीवी 9 का उल्लेख करते हुये यह कहा कि ये मीडिया हाॅउस न्यूज न देकर अपनी ओपिनियन दे रहे है। उच्च न्यायालय ने इसके लिये इनके वकीलों को कड़ी फटकार भी लगाई।
यदि आपके साथ आपके व्यक्तिगत विरोधी अथवा अन्य कारणों से हुये विरोधियों ने निष्पक्ष होकर कानून का पालन नहीं किया है तो, लोकतंत्र में कानून के राज में आपको अपनी रक्षा में इसके विरोधी बर्ताव करने का अधिकार स्वयंमेव नहीं मिल जाता है? सभ्य समाज में आपको अपने अधिकारो की रक्षा के लिये कानूनी प्रक्रिया की सहायता से व एक उत्तरदायी नागरिक का दायित्व निभाकर ही चलना होगा। अराजकता का जवाब अराजकता नहीं हो सकता है। जहां रिपब्लिकन टीवी इस गिरफ्तारी की घटना को लगातार पिछले 100 घंटे से सिर्फ उक्त घटना की ही रिपोर्टिग कर रही है। इसके पश्चात कुछ अन्य समाचार के शीर्षक व वीडियो क्लिक दिखाये गये। वहीं वह देश में और विदेश में हो रही अन्य घटनाओं को रिपोर्टिग लगभग नहीं के बराबर है। जैसे अमेरिका में हो रहे राष्ट्रपति के चुनाव की। जबकि अन्य टीवी चैनलों में इस घटना के साथ अन्य घटनाओं की रिपोर्टिग भी हो रही है। क्या सिर्फ इसलिये कि आप उस चैनल के मालिक है? यदि बात सिर्फ शुद्ध पत्रकारिता की है, तब टीवी चैनल को अर्नब के मालिक होने के प्रभाव से हटकर मुक्त होकर एक स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से इस घटना व अन्य समाचारांे को प्रसारित करना चाहिये।
अंत में अर्नब ने जमानत के आवेदन में कानून के उस प्रावधान का पालन न करने का गंभीर आरोप लगाया कि पुलिस ने सक्षम न्यायालय से बंद हो चुके प्रकरण में पुनः जांच प्रांरभ करने के पूर्व अनुमति नहीं ली जो कि गलत व तथ्यों के विपरीत है। उक्त प्रकरण में शिकायतकत्र्ता अदन्य नाइक द्वारा दायर अपराधिक याचिका क्रमांक 1543/2020 में दिनांक 22.09.2020 को मुबंई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को जांच के निर्देश दिये प्रतीत होते है। इस प्रकार उनका यह कहना कि उक्त कार्यवाही अवैध होकर प्रारंभ से ही शून्य है, प्रथम दृष्टियता गलत प्रतीत होती दिखती है। क्योंकि अर्नब की गिरफ्तारी पर न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 14 दिनों का न्यायिक हिरासत दी है, जमानत नहीं दी। हाईकोर्ट ने भी अनुरोध के बावजूद तुरंत अंतरिम सहायता न देकर प्रकरण अगले दिन और फिर आगे सुनवाई के लिए रख दिया और आज जमानत देने से इंकार कर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका निरस्त कर दी। अर्थात हिरासत को अवैध (शून्य) नहीं किया, शून्य करणीय (वायडेबल) जरूर हो सकती है।
एक समय जब अर्नब टाइम्स नाऊ में थे, तत्समय उनका स्तर इतना ऊँचा था कि मैंने अन्य समस्त चैनलों को देखना छोड़ दिया था। मुझे याद आता है रामजेठमलानी व राज ठाकरे ही ऐसे शख्स रहे जो अर्नब का सामना प्रभावी होकर कर पाये। रिपब्लिक टीवी प्रारंभ करने के बाद अर्नब स्वयं पत्रकार कम बल्कि एक विशिष्ट ऐजेंड़ा लिये हुये कार्य करते हुये दिख रहे है, यह अर्नब के गिरते स्तर का प्रमाण है।
चूंकि मैं एक वकील हूं और यदि पत्रकार नहीं भी हूं तो, लेखक होने के कारण उसी जीनस का तो हूं ही। इसीलिए उक्त दोनों रूपों में आये अपने विचारों को आपके साथ साझा कर रहा हंू व उपरोक्त सिद्धांत अपने पर भी लागू करता हूं।
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