मंगलवार, 17 नवंबर 2020

चुनाव परिणाम ‘‘आप आये’’(बिहार में) ‘‘बहार‘‘ आयी।

 


‘‘बिहार’’ के आये इस चुनाव परिणामों ने पिछले चुनावों के अपने चरित्र को कमोवेश प्रायः बनाये रखा है। तो फिर बिहार का चरित्र क्या है? आईये इसको जानने का प्रयास करते है। याद कीजिए! पिछले विधानसभा के चुनाव में लगभग समस्त ‘‘ओपिनियन व ‘‘एग्जिट पोल’’(निर्गम मतानुमान) को नकारते हुये ‘‘जेडीयू‘‘ व ‘‘आरजेडी’’ के गठबंधन को बहुमत प्राप्त हुआ, और स्टुडियोज मंे विश्लेषण करने बैठे चुनावी पंडितों व विशेषज्ञों तक को भी आश्चर्यचकित होना पड़ा था। इस चुनाव परिणाम ने भी एग्जिट पोल के इतिहास को लगभग पुनः दोहराया है। सिर्फ एबीपी न्यूज सी वोटर का एग्जिट पोल ही लगभग सटीक बैठा है। यद्यपि इस चुनाव परिणाम में भी कुछ मिथक बनें, तो कुछ टूटे भी है। अत इन दृष्टिकोण सेे इन चुनावीे परिणामों का गहराई से अध्ययन कर 

विश्लेषण किया जाना आवश्यक हैं। 

‘‘बिहार’’ में हार शब्द शामिल है। वैसे तो ‘‘हार‘‘ का विपरीत शब्द ‘‘जीत‘‘ होता हैं। परन्तु ‘हार’ का एक अर्थ ‘‘जीत‘‘ भी होता है। कैसे! जब जीतने के बाद ‘‘हार‘‘ (माला) पहनायी जाती हैं। अर्थात सामान्य रूप से बिना हार (माला) के जीत का प्रदर्शन नहीं होता है। यह चुनाव परिणाम दोनों गठबंधनों को एक साथ जीत दिलाता है, अथवा अहसास कराता है, तो हार भी दिलाता है या असहास भी कराता है।ं यह इस चुनाव की एक महत्वपूर्ण विशेषता हैं। यह कैसे! बात पहले जीत की कर ले! एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलने से उसे जीत मिल गई। इसका सीधा अर्थ यही है कि महागंठबन हार गया। यह सीधा सा ‘‘अंकगणित’’ व धरातल पर लागू होने वाला परिणाम है। लेकिन जब मैं यह कहता हूं कि एनडीए के साथ ‘‘महागंठबन’’ की जीत भी हुई है, तब इसके राजनैतिक मायने होते है। राजनैतिक-सार्वजनिक जीवन में पूर्ण विजय या सफलता तभी मानी जाती है, जब आप अकंगणित के आकडों को जीतने के साथ उससे जुड़े परशेपशन (अनूभूति) पर भी विजय प्राप्त करंे, जो बिना शक के इस चुनाव में सिर्फ बीजेपी ने ही प्राप्त ही की। 

लालू यादव के जेल में रहने के बाद एक तरफ 31 वर्षीय 9 वीं पास तरफ तेजस्वी यादव थे, जिनके उपर कभी राजनीति के हीरो रहे व वर्तमान में विलेन लालू की बदनामी की छाया व छाप थी। लेकिन लालू की प्रति छाया के बिना तेजस्वी का यह पहला चुनाव था। चुनाव प्रारंभ होने की घोषणा के बाद उनकी पार्टी के दलित नेता शक्ति मलिक की हत्या का आरोप भी उन पर व उनके भाई पर लगा था। यद्यपि डेढ़ साल वे उपमुख्यमंत्री जरूर रहे, लेकिन राजनीति का अनुभव तुलनात्मक रूप से बहुत कम था। जबकि उनके राजनैतिक विरोधी बडे़ नाम व स्टार नीतीश कुमार सहित देश के समस्त यशवस्वी विश्वसनीय राजनैतिक स्टारस् से तेजस्वी कैसे मुकाबला कर पायेगा, इसका आंकलन चुनाव प्रांरभ के पूर्व तक राजनैतिक पंडितों नगणय मान रहे थे। क्योकि विधानसभा के पूर्व हुये लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी राजद को एक भी सीट नहीं मिली थी।

चुनाव की घोषणा होने के बाद समय बीतते-बीतते तेजस्वी का ’तेज’ भी निखरने लगा और वही ‘तेज’ पूरे बिहार में बहार कर अपना रंग दिखाने लगा। उनकी सभाओं में भी उतनी वह भीड़ दिखने लगी, जितनी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में आती थी। सभाओं के भीड़ के समस्त रिकार्ड ध्वस्त हो गये। 

इन सबसे अलग महत्वपूर्ण बात यह रही कि बहुत ही कम अनुभवी लेकिन राजनैतिक परिवार में पैदा हुये युवा कम पढ़े लिखे तेजस्वी नेे रोजगार को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाकर उसे चुनाव में एक नरेटिव बनाने मंे पूर्णतः सफल रहे। यद्यपि हम पीछे मु़ड़कर देखे तो दूर-दूर तक ऐसा नरेटिव निश्चित होते कभी नहीं देखा गया। यद्यपि अन्य मंागों के साथ एक मांग रोजगार की होने के बावजूद वह मुख्य मुद्दा कभी भी नहीं बन पाया। लेकिन इस तेजस्वी ने बिना किसी शक व सुबहा के उक्त चुनावी मुद्दा बना कर समस्त राजनैतिक पाटियों को उस मुद्दे पर केंद्रित कर दिया। यही उसकी सूझबूझ व सबसे बड़ी राजनैतिक सफलता है। यह सफलता इसलिए भी बड़ी है, कि बिहार वह प्रदेश रहा है जिसे मडंल-कमंड, अगड़ा-पिछड़ा, पिछड़ा-अतिपिछड़ा, मंदिर-मंस्जिद जैसे विवादित मुद्दों ने जकड़ रखा है और उन मुद्दों से बिहार हारा नहीं और न ही कभी बाहर आया और न ही उससे बाहर लाने का प्रयास कभी किया गया। 

पिछले विधानसभा और उसके बाद हुये लोकसभा के चुनाव में मिले आरजेडी के वोटों का प्रतिशत और प्राप्त सीटों का भी आंकलन करे तो यह स्पष्ट है कि पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में राजद को 6 सीटे कम मिली, लेकिन तब जदयू का साथ था। तथापि आज इन चुनावों में विधानसभा में वह न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी (भाजपा से भी 1 सीट ज्यादा मिले) बल्कि लगाकर मतों में भी इजाफा हुआ हैं। (लगभग 9 प्रतिशत की वृद्धि)। इस प्रकार इसके पूर्व के विधानसभा के चुनावों में जहां जदयू राजद के लिये एक एसेटस् थी जो अब साथ में नहीं है। परन्तु वर्तमान में कांग्रेस एक बोझ बन गई। बावजूद इन सबके राजद की यह हार के बाद भी उसकी  जीत ही कहलाएगी।

‘‘एनडीए’’ ‘‘सुशासन कुमार‘‘ के नेतृत्व में सुशील कुमार के साथ बिना ‘‘चिराग‘‘ के बहुमत की रोशनी से, आराम से सरकार बना लेगी, यह आंकलन राजनैतिक पडिंतांे का भी रहा। स्वयं एनडीए ने भी दो तिहाई बहुमत का दावा किया। परन्तु लोजपा ने अधिकतर  पाटियों की जीत में सफल अंड़गे लगाये। फिर चाहे वह घोषित विरोधी पाटी जदयू हो या भाजपा जो चिराग घोषित सहयोगी पाटी थी। राजद, कांग्रेस सहित अधिकतर पाटियों के वोट काटकर ‘‘वोट कटवा’’ पार्टी बनने में उसको कोई गुरेज परहेज नहीं थे। 2 सीटों से घटकर 1 सीट हो जाने के बावजूद चिराग पासवान वह परशेप्शन जीतने में विजयी रहे जो उन्होंने  जेडीयू को हराने का संकल्प लिया था। तथापि वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने से रोक नहीं पाये।  

माले व असदुद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम के विपक्ष में व सत्ता के साथ न होने के बावजूद बहुत फायदा में रही और उन्हांेने अपनी संख्या बल में क्रमशः 8 व 5 की बढ़ोतरी की। असदुद्दीन औवैसी पहली बार ही बिहार के चुनाव में उतरे और वह झंडा गाढ़ कर अब उनका अगला कदम पश्चिम बंगाल होगा। ‘हम’ व ‘वीआईपी’ भी फायदे में रही है, जो एनडीए में रहे। जबकि चुनाव के पूर्व वह तेजस्वी के साथ थे। सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी ऐसी रही जो सिर्फ घाटे ही घाटे में रही है, जो परिपाटी (कांग्रेस मुक्त भारत) मोदी के आने के बाद से लगभग चली आ रही है। देश के उपचुनावों ने भी कांग्रेस की उक्त घाटे की स्थिति पर ही मुहर ही लगाई है। 

एक सबसे महत्वपूर्ण बात इस चुनाव की जो रही जिस पर किसी भी राजनैतिक पंडितों से लेकर राजनैतिक पाटियों ने ध्यान नहीं दिया वह 15 वर्ष का लालू का जंगलराज के विरूद्ध 15 वर्ष के सुशासन बाबू के नीतीश कुमार का सुशासन। समस्त पक्ष-विपक्ष व आंकलनकर्ता इस बात को भूल गये कि पिछला विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार व लालू ने साथ मिलकर लड़ा था, जिससे दोनों के गठबंधन को भारी विजय प्राप्त हुई थी। जिसका अर्थ यही होता है कि न केवल नीतीश कुमार स्वयं ने उक्त तथाकथित 15 वर्ष के लालू के जंगलराज को गलत नहीं समझा या उसे भुला दिया और जनता भी उस पर अपने मतों की सील लगाकर उक्त जंगलराज के मुद्दे को पिछले विधानसभा के चुनाव परिणाम ने दफना कर समाप्त कर दिया था। इस प्रकार पिछले विधानसभा के चुनाव में दोनों के बंधन को जिताकर सरकार बनाकर मजबूत किया लेकिन शायद फेवीकोल का घोल न चढ़ने के कारण व जोड़ मजबूत नहीं बन पाया और ड़ेढ़ वर्ष में ही चाचा भतीजे के उक्त परस्पर बंधन टूट गये। 

बात मध्यप्रदेश के उपचुनावांे की भी कर ले जैसा की मैंने ऊपर लिखा ‘‘अंकगणित’’ हमेशा सही स्थिति को नहीं दर्शाते है। मध्यप्रदेश की 28 में से 19 सीट जीतने के बावजूद भाजपा जीती नहीं, हारी है। उसको समझने के लिये थोडा सा आपको माथे पर बल देना होगा। याद कीजिये! इन 28 में से 25 सीटे भाजपा के ‘‘पास’’ थी। अब 25 सीटों में से 19 पर विजस प्राप्त करना और कांग्रेस की 3 सीटों की जगह 9 सीटों पर विजय प्राप्त करना जीत किसकी हुई है, आप खुद आंकलन कर सकते है। आप कह सकते है कि पिछले विधानसभा के चुनावों में 25 कांग्रेस की टिकिट पर विधायक चुने गये थे, इसीलिए कांग्र्रेस की हार है। आपने जब 25 विधायकों को शामिल किया तब भाजपा नेतृत्व ने यह माना था कि इन सबका व्यक्तित्व तो प्रभावशाली है, परन्तु ये लोग गलत पार्टी में थे। और अपनी आत्मा की आवाज के कारण इस्तीफा देकर भापजा के साथ आये हंै और आपने भी अंर्तमन से उन्हे स्वीकार किया था कि उनके जुड़ने से पार्टी की स्थिति मजबूत होगी। एक अच्छे व्यक्ति का एक अच्छी पार्टी से जुड़ने के बाद ‘‘सोने पर सुहागा’’ जैसी स्थिति होने के बाद 9 लोगांे की हार को आप कैसे जीत कह सकते है? और उसका बचाव कैसे किया जा सकता है? इसीलिए मैं बार-बार यह कहता हूं वास्तविक जीत वही कहलाती है जहां आंकडांे के साथ परसेप्शन भी जीता जाये। जैसे भाजपा ने बिहार चुनाव में दोनों पर विजय प्राप्त कर की।  

इसीलिए यह चुनाव दिवाली के अवसर पर सबके लिये कुछ न कुछ मुस्कुराहट रही परन्तु कांग्रेस की दिवाली न होकर दिवाला निकल गया।


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