दिनांक 17 जनवरी 2021 को श्री रुकमणी बालाजी मंदिर का स्वर्ण कुंजी अर्पण समारोह के संपन्न होते ही मंदिर का संचालन जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी शंकर विजयेंद्र सरस्वती जी कांची कामकोटि पीठम् को सौंप दिया गया।
श्री रुकमणी बालाजी मंदिर देश खासकर मध्य प्रदेश में मेरे ‘‘बैतूल‘‘ की एक पहचान बन चुका है। इस मंदिर के निर्माण से लेकर पूरा होने तक मैं इससे बिल्कुल भी नहीं जुड़ा था। लेकिन जब मंदिर में मूर्ति स्थापना व प्राण प्रतिष्ठा करने के कार्यक्रम की बात आयी, तब संस्थापक अंकल सेम वर्मा जी ने मुझे बुलाकर चर्चा की। कार्यक्रम के संयोजक की हैसियत से तब मैं मंदिर से जुड़ा। भगवान बालाजी के आदेश, कृपा और सब कुछ उनकी इच्छा अनुसार ही बैतूल जिले का अभी तक का सबसे बड़ा ऐतिहासिक प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम हुआ। जिसने न केवल रुक्मणी बालाजी मंदिर की प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिये, बल्कि बैतूल बाजार का नाम बालाजीपुरम् के रूप में प्रसिद्ध होकर देश खासकर मध्य प्रदेश में गौरवान्वित हुआ।
आज बालाजी मंदिर की समस्त संपत्ति का स्थानांतरण और ‘स्वर्ण कुंजी अर्पण समारोह‘ (कार्यक्रम को जो नाम दिया गया है), मुझे लगता है कि यह वर्मा जी के व्यक्तित्व को उनके कृतत्व व उनके द्वारा किये गये कार्यों की तुलना में कहीं न कहीं कमजोर करता है। कैसे? आइये आगे इसका विश्लेषण करते हैं। ‘‘परोपकाराय सतां विभूतयः‘‘ अर्थात परोपकार ही सज्जनों की संपत्ति है।
यह कहना बिल्कुल गलत है कि रुक्मणी बालाजी मंदिर की समस्त संपत्ति का हस्तांतरण आज हुआ है। जिस दिन वर्मा जी ने मंदिर की आधारशिला रखी और जैसे-जैसे सीमेंट, रेत, लोहा लगाकर एक एक ईंट जोड़ते गये ,तत्समय ही उक्त संपत्ति भगवान बालाजी को हस्तांतरित हो गयी। क्योंकि उसका उपयोग उस निमित्त ही किया जा रहा था। ‘‘जलबिंदुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः‘‘।
वर्मा जी का व्यक्तित्व एक आम भारतीय व्यक्तित्व नहीं है, बल्कि उसमें भारतीयता के साथ-साथ कुछ न कुछ ‘एन. आर. आई.’ के गुण भी शामिल हैं। इसलिये उनका हमेशा यह कथन रहा कि उन्होंने कुछ नहीं किया, जैसे जैसे सामान मंदिर निर्माण में लगता गया, वैसे वैसे ही वह भगवान को अर्पित होता गया। इस प्रकार जब सब कुछ पूर्व में अर्पित हो चुका है, समर्पित हो चुका है, हस्तांतरित हो चुका है तो, फिर आज क्या हस्तांतरित हुआ? जब सेम वर्मा जी ने मंदिर का निर्माण ही नहीं किया तो, उसका हस्तांतरण कैसे कर सकते हैं? यह बात वह कई बार सार्वजनिक रूप से भी कह चुके हैं कि भगवान बालाजी ने उनके हाथों से यह मंदिर बनवाया है, उन्होंने नहीं बनाया है। उनका यही सबसे बड़ा गुण है कि सब कुछ करके कुछ भी याद न रखना। ‘‘विद्या ददाति विनयम‘‘ अर्थात विद्या विनय की जननी है, अर्थात सब कुछ भगवान के हाथों हुआ है, यह विश्वास, यह धारणा (परसेप्शन), यह विचार ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। और इसलिए मेरे मत में यह कहना कि आज संपत्ति का हस्तांतरण हुआ है, उनके व्यक्तित्व का अवमूल्यन करना होगा। और उनके योगदान को कम करके आंकना होगा। मुझे विश्वास है कि श्री सेम वर्मा मेरे इस मत से सहमत होंगे और यदि नहीं है तो, वह कृपया मुझे बताएं ताकि मैं स्वयं को सुधार सकूं।
दूसरी बात क्या भगवान को कोई ‘‘ताले’’ में रख सकता है? जिसकी कुंजी का अर्पण समारोह आज हुआ है। वास्तव में यहां भी उनके व्यक्तित्व की दूसरी थ्योरी लागू होती है। भगवान बालाजी ने अपने भक्त सेम वर्मा को अपने ‘‘चाबी ताले‘‘ के द्वारा बांधकर इस तरह से नियंत्रित करके रखा है कि वह भगवान बालाजी की सेवा में स्वस्थ जीवन की पूरी अवधि में लगे रहे। लेकिन भगवान बालाजी की यह भी चिंता रही है कि, उम्र के चढ़ते इस पड़ाव के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से शारीरिक और मानसिक अवस्था में धीरे-धीरे शिथिलता आने के कारण ऐसे हाथों में वह ‘‘ताला चाबी‘‘ जाये, जो सेम वर्मा समान या उससे भी ज्यादा अच्छे तरीके से भगवान बालाजी की सेवा कर सकें। ताकि भक्त सेम वर्मा जी को भी इस बात का संतोष हो कि जिंदगी की अंतिम चमक देखते समय तक मजबूत और सक्षम हाथों में सौंपे गये मंदिर का इतना विकास हो गया है कि उनकी आंखें भी चकाचौंध हो जायें। भगवान बालाजी की शायद यह भी सोच रही कि इस मंदिर का हस्तांतरण इस तरह से हो कि भविष्य में बार-बार हर 20-25 सालों में हस्तांतरण न करना पड़े। शायद इसीलिये भगवान बालाजी ने यह हस्तांतरण एक व्यक्ति को न कर ऐसी संस्था को किया, जिसका अस्तित्व सृष्टि के अस्तित्व के साथ जुड़ा हो। ताकि भगवान बालाजी की यह चिंता हमेशा के लिए समाप्त हो जाये। आज जो कुछ भी हुआ है, वह इन्हीं दो सोचों का परिणाम, फल व परिणीति है।
परंतु आज अर्पण समारोह में जिस तरह से सेम वर्मा जी को ‘‘बड़ा दान देता‘‘ के रूप में प्रस्तुत किया गया या प्रस्तुत करने का आभास दिया या कराया गया, वह निश्चित रूप से सही नहीं था। दान में एक पक्ष सामान्यता ‘‘मांगने वाला ग्रहीता‘‘ होता है, तो दूसरा पक्ष ‘‘दाता‘‘ होता है। यहां पर तो स्वयं वर्मा जी कांची कामकोटी पीठम से अनुनय विनय करने गए थे, ‘‘पीठम‘‘ ने स्वयं आगे होकर कुछ मांगा नहीं था। फिर ‘‘सबको देने वाला दाता‘‘ को कोई कुछ दे सकता है क्या? बड़ा दान देने वाले के भाव में गर्वोक्ति के साथ उसकी भाव भंगिमा अलग ही दिखती है। लेकिन आप सब ने देखा है कि सेम वर्मा जी अपनी बात प्रस्तुत करते करते किस तरह से भावुक व भाव विभोर हो गए थे। गर्व का तो नामोनिशान ही नहीं था। इसलिए आज जो कुछ हुआ, वह उनका पूर्ण ‘‘समर्पण‘‘ था न कि दान। उनका आज भाव विभोर होने का भाव वैसा ही था जैसा कि जब कोई व्यक्ति के मन में अपनी बिटिया की शादी संपन्न होने के बाद अश्रुपूरित विदाई के समय जो भाव उत्पन्न होते हैं, उसमें अपने से दूर होने के भाव के साथ साथ एक अच्छे भविष्य की खुशी के भाव भी शामिल होते हैं। शायद यही भाव अंकल सैम वर्मा के थे।
अंत में आपका ध्यान एक बात की हो ओर और आकर्षित कराना चाहता हूं। कार्यक्रम मंच के पीछे जो बैनर लगा था, उसमें एक तरफ जगद्गुरु शंकराचार्य जी सरस्वती जी की फोटो थी, तो दूसरी तरफ संस्थापक सेम वर्मा की फोटो थी। सेम वर्मा की फोटो के साथ एक और छुपा हुआ चेहरा था, उनकी अर्धांगिनी श्रीमती जयदेवी वर्मा का। हमारी संस्कृति में कहां यही जाता है कि पुरुष की सफलता के पीछे स्त्री का हाथ ज्यादा होता है। यह सिद्धांत यहां पर पूर्णता लागू होता है और यही पर नहीं रुकता है, बल्कि एक भारतीय नारी होने के श्रीमती जयदेवी वर्मा ने ‘‘केन्द्र को बटने‘‘ नहीं दिया और इसीलिये उन्होंने अपने पति सेम वर्मा के साथ अपनी फोटो नहीं लगने दी। यह उनकी त्याग और महानता का प्रतीक है। जय जय जय बालाजी। बालाजी भगवान नए और पुराने का मिश्रण इस तरह से करने का आशीर्वाद दे ताकि भविष्य में नए और पुराने प्रबंधकों की बात ही न उठे। सब बालाजी के भक्त, सेवक, कारसेवक हैं, यही आज हम सबका दायित्व है। जिसे सच्चे मन से सही दिशा में पूरी ताकत के साथ पूर्ण रूप से निभाने में भगवान बालाजी लगातार दिशा, निर्देश, आदेश के साथ आशीर्वाद दें, इन्हीं आकांक्षाओं के साथ जय बालाजी। जय कांची काम कोटी पीठम।
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