जिस प्रकार 1 से लेकर 10 तक की गिनती होने के बाद वापिस एक के अंक पर ही आना होता है। ठीक उसी प्रकार सरकार व किसानों के बीच चल रही 10 वें दौर की बातचीत के समापन के बाद ग्यारवें दौर की बातचीत में परिणाम असफल होकर दोनों पक्ष वापिस वहीं पर पंहुच गये, जहां से बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ था। सामान्यतः किसी भी ‘‘आंदोलन’’ का यह एक मान्य सिद्धान्त है कि, उनकी समस्त मांगे न तो सच व सही होती हैं और न ही पूर्ण की जाती हैं या पूर्ण हो पाती हैं। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र के समस्त बिन्दु, मुद्दे वास्तविक धरातल पर न तो सच व सही होते हैं और न ही पार्टी की सरकार बनने की स्थिति में भी वह पूरा कर पाती है या करने की इच्छा रखती है। कुछ न कुछ जुमले बाजी अवश्य ही होती है, जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति के खाते में काले धन के 15 लाख रुपये जमा किये जाने की घोषणा, प्रथम कैबिनेट में कर्ज माफ़ी की स्वीकृति आदि आदि। कुछ मुद्दे सिर्फ सचित्र व सुंदर छपे हुये घोषणा को मात्र अंलकृत करने के लिये, उसे लोक-लुभावन बनाने के लिये जोड़े व लिखे जाते हैं। किसान आंदोलन की समस्त मांगों का भी कमोबेश यही रूप व चरित्र है।
मूलरूप से किसानों का आंदोलन, प्रारंभ में मुख्य रूप से एमएसपी को क़ानून बनाने की मांग को लेकर प्रांरभ हुआ था। यह आज भी समझ से परे है कि ‘‘हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा’’ अर्थात, अतिरिक्त रूप से बोझ आये बिना, एमएसपी को क़ानूनी रूप देने में सरकार को दिक्कत क्या है? सरकार इसे आजतक भी स्पष्ट करने में असफल रही है। सिवाए इसके, कि ‘‘सरकार एमएसपी दिये जाने का लिखित आश्वासन देने का‘‘ कथन लगातार कर रही है। लिखित आश्वासन को क़ानूनी अमला पहनाने में हिचक क्यों? जिस प्रकार एक सही सामान्य कथन को भी विश्वसनीयता प्रदान करने के लिए उसे शपथ पत्र पर दिया जाता है, ठीक उसी प्रकार यदि इसे भी क़ानूनी ज़ामा पहना दिया जाता तो आंदोलन कर रहे किसान नेताओं की ज़मीन ही खिसक जाती और आंदोलित आम किसान उसे स्वीकार कर ‘‘ट्रैक्टर‘‘ सहित (26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली प्रस्तावित की गई है) अपने खेत खलिहान वापिस चला जाता। उसे ट्रैक्टर को राजपथ पर लाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। किसानों को ‘‘उन्हीं के पिच‘‘ पर मात दी जा सकती थी। इस सीमा तक तो सरकार की असफलता, अक्षमता और अविवेक पूर्ण नीति ही परिलक्षित होती है।
परंतु सरकार ने आगे बढ़कर इस दोष को दूर करने हेतु उक्त तीनों कृषि सुधार क़ानूनों के क्रियान्वयन पर रोक की इच्छा व्यक्त करके विद्यमान परिस्थितियों को देखते हुए एक बहुत बड़ा साहसिक व सामने वाले पक्ष को संतुष्ट करने वाला क़दम उठाया है, जिसके लिये सरकार की, ख़़ासतौर से कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की भूरि-भूरि प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिये। वह इसलिए भी की, जिस सरकार ने संसद में संवैधानिक रूप से प्रस्ताव पारित कर तीनों क़ानून बनाये हों उन क़ानूनों को, समझौते हेतु सहमति बनाने के उद्देश्य से वह 18 महीने तक लागू न कर, प्रभावहीन करने की इच्छा व्यक्त करना साधारण क़दम नहीं है। सरकार ने ‘‘पूरे कुएं में बांस ड़ाल कर’’ देख लिया है। इस प्रकार सरकार अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर मुक्त हो गयी। जिस कारण किसानों की सबसे बड़ी मांग, कि तीनों कृषि क़ानून रद्द किये जायें, के लगभग 99 प्रतिशत निकट पंहुुच गयी। एक क्रिकेटर को जब 99 रनों के बाद शतक बनाना होता है तब एक रन और जोड़े जाने में वह कई बार हड़बड़ाहट में असफल हो जाता है। वही हाल यहां पर किसान के सहयोग से बनने वाले एक सैकड़ा (शतक) का भी हुआ। परन्तु यहां पर ऐसा नहीं हुआ कि एक रन सरकार की हड़बड़ाहट के कारण नहीं बन पाया हो, दरअसल वह ‘गेंद’ फेंकी ही नहीं गयी और वह रिजेक्ट कर दी गयी। इस प्रकार सरकार 99 पर ही अटक गयी। परन्तु यदि सरकार शतक बना लेती (किसान सरकार के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते) तो इसकी ख़ुशी में किसान सहित पूरा देश शामिल होता।
चूंकि सरकार किसानों की मांगों को ‘‘अटका बनिया दे उधार की तर्ज पर‘‘ पूरा होने के निकट तक खींच चुका था और सुप्रीम कोर्ट की गठित कमेटी के अस्तित्व में होने के बावजूद (किसान संगठनों को उन नामों के निष्पक्ष न होने के कारण आपत्ति थी) सरकार एक नयी कमेटी किसानों की सहमति से बनाने को तैयार हो गयी। तब उक्त तीनों क़ानूनों के जीवन-मरण के निर्णय को उक्त सहमति से बनने वाली समिति पर छोड़ दिया जाना ज्यादा उचित होता। वैसे भी किसानों की यह ज़िद बच्चों वाली है, या किसी दुर्भावना से अभिप्रेरित है, इसमें अंतर करना अब मुश्किल लग रहा है। क्योंकि एक सार्वभौमिक सरकार ने संसद द्वारा पारित वे क़ानून जहां अभी भी उनके समर्थन में न केवल सांसदों का बहुमत विद्यमान है, बल्कि किसानों का एक महत्वपूर्ण वर्ग भी उनके समर्थन में है, के कारण उक्त तीनों क़ानूनों को ‘‘कराल काल के विकराल गाल’’ में समा जाने देना न तो प्राकृतिक है और न ही न्यायिक व औचित्यपूर्ण होगा। सरकार ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि किसान संगठन उक्त तीनों क़ानूनों के ‘‘काले प्रावधान’’ (किसानों के अनुसार) सरकार के समक्ष तथ्यों और सुझावों के साथ पेश करें। सरकार उन पर गंभीरता पूर्वक पुनर्विचार करने के लिये तैयार है। आपको आम खाने से मतलब है, न कि गुठलियां गिनने से। ‘‘बद अच्छा पर बदनाम बुरा’’ वाली स्थिति ठीक नहीं होती है। अतः आप क़ानून को बदनाम मत कीजिये, क़ानून के अवांछित व गलत प्रावधानों को बताइये। यही सही और सकारात्मक क़दम होगा और तभी सहमति पर पहुंचने का मार्ग प्रशस्त होगा।
सामान्यतः किसी आंदोलन के लम्बे चलते जाने पर हमने यह कहते हुए जरूर सुना है कि आंदोलनकारियों के सब्र की परीक्षा मत लो, उनका सब्र टूट जायेगा, जिससे बाढ़ आ जायेगी। लेकिन यहां पर तो सरकार के सब्र की परीक्षा ही ली जा रही है, ऐसा लगता है। कुछ लोग तो सरकार के सब्र को तोड़कर ‘सैलाब’ लाने के लिये कुछ न कुछ ख़ुराफात कर समझौते में रूकावट पैदा करने की कोशिश भी कर रहे हैं, जैसा कि कृषि मंत्री ने आरोप भी लगाया है। जिस प्रकार आदोंलनकारियों के 65 दिन से चले आ रहे अंहिसात्मक आंदोलन के धैर्य व शांति की प्रंशसा की जानी चाहिए व विश्व रिकाॅर्ड में दर्ज की जानी चाहिये, वही स्थिति सरकार की भी रही है। सरकार द्वारा बातचीत के विभिन्न दौरों में कुछ न कुछ आगे बढ़कर सकारात्मक क़दम, उठाने व स्वीकार करने के (बावज़ूद इसके कि किसानों का एक समूह संसद द्वारा पारित का़नूनों का समर्थन कर रहा है) द्वारा सरकार भी अपने धैर्य की परीक्षा में सफल रही है। यह भी वल्र्ड़ रिकाॅर्ड में दर्ज किया जाना चाहिये। इन दोनों तथ्यों के वल्र्ड रिकाॅर्ड में दर्ज करने के अलावा एक और चीज, तो रिकाॅर्ड के लिए नहीं रह गई है? वह है 65 दिनों से लगातार 11 दौर की बातचीत होने के बावजूद कोई परिणाम न निकलने वाला तथ्य भी शायद विश्व रिकाॅर्ड ही होगा। इस परीक्षा में परीक्षक व परीक्षार्थी दोनों फेल हो गये या दोनों पक्ष परीक्षक बन गये? परीक्षार्थी कोई नहीं रहा, इसीलिये परिणाम नहीं आये। इसका आंकलन तो भविष्य में इतिहास ही करेगा।
एक बात जरूर किसानों से पूछना चाहता हूं कि मैंने आंदोलन के संबंध में लिखे कई लेखों में सकारात्मक रूप से कुछ सुझाव दिये है। एमएसपी पर क़ानून के मुद्दे पर किसान नेता कहीं न कहीं आम किसानों के साथ छल कर उन्हे भ्रमित कर रहे हैं। एमएसपी का क़ानून बन जाने से भी एक आम 5 एकड़ से कम रक़बे वाला लघु किसान जो कि कुल किसानों की संख्या का लगभग 85 से 90 प्रतिशत तक है, उनमें से अधिकांशतः को तो एमएसपी का फायदा ही नहीं मिल रहा है। क्योंकि किसान नेता वे दो मांगें स्पष्ट ,प्रमुख व प्रभावी रुप से नहीं कर रहे हैं, जो उनको लाभ मिलने के लिये जरूरी हैं। एक तो एमएसपी का का़नून सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बल्कि समस्त निजी मंडियों पर भी लागू होना चाहिए। और दूसरा यह कि न्यूनतम ख़रीदी जो अभी कुल कृषि उत्पादन का मात्र 6 से 8 प्रतिशत तक ही सीमित है, उसकी ख़रीदी की मात्रा बढ़ायी जाकर न्यूनतम मात्रा की ख़रीदी का क़ानून भी बनाया जाना चाहिये। और उसमें भी 80 प्रतिशत तक छोटे किसानों की ख़रीदी को प्राथमिकता दी जाये। तभी धरतीपुत्र कहे जाने वाले अधिकतम किसानों को इस क़ानून का फ़ायदा मिल पायेगा और तभी आंदोलन सफल कहलायेगा। क्योंकि एमएसपी का क़ानून बन जाने के बावजूद भी ख़रीदी न किये जाने की स्थिति में क़ानून का कोई उल्लंघन नहीं होगा। अन्यथा अभी तो जो लोग एमएसपी पा रहे हैं, वे किसानों के नेता बन कर मंच पर सुशोभित हैं, और जो एमएसपी की आस लगाये बैठे हैं, वे ‘‘धरतीपुत्र‘‘ मंच के सामने धरती पर "विस्थापित" हैं। हर आंदोलन व संगठन के समान ही अंतिम सीमा पर खड़े रहने वाले (अन्त्योदय का असली पात्र) व्यक्ति की वही स्थिति वर्तमान में विद्यमान है। यह शाश्वत कटु सत्य है। जिस पर नेताओं की "नेतागिरी" और मीडिया की "पत्रकारिता" का ध्यान नहीं जाता है।
अंत में वर्तमान में चल रहे आंदोलन व तदनुसार वार्ता के संबंध में एक सबसे महत्वपूर्ण और स्थापित तथ्य यह है कि, सामान्यतया किसी भी मांग या आंदोलन के संबंध में दोनों पक्षों की मानसिकता दो कदम आगे बढ़ाकर एक कदम पीछे खींचने की रहती है, ताकि अंततः समझौते पर पहुंचने की गुंजाइश बनी रहे। वर्तमान संदर्भ में सरकार ने तो इस मानसिकता का पूर्ण पालन किया है, विभिन्न दौर की बातचीत के दौरान कुछ महत्वपूर्ण संशोधन प्रस्तावित कर सरकार अपने स्टैंड से पीछे हटी है। लेकिन आंदोलित किसान नेताओं के इस मानसिकता की ओर तनिक भी न देख पाने के कारण, अंगद के समान पैर जमा लेने से (टस से मस हुए बिना), वार्ता के परिणाम नहीं निकल पाए हैं, इस सच को किसान नेताओं को गंभीरता से लेना चाहिए। यदि भविष्य में वार्ता के टेबल पर आना है तो?
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