प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रस्तावित नए संसद भवन का शिलान्यास करने जा रहे हैं। वैसे तो कोई भी शिलान्यास का ‘‘स्वागत‘‘ ही होना चाहिए, क्योंकि यह ‘‘विकास का प्रतीक‘‘ होता है। और फिर शिलान्यास जब देश के प्रधानमंत्री के हाथों हो तब तो वह सूअवसर ‘‘सोने में सुहागा‘‘ हो जाता है। लेकिन यहां पर मामला दूसरा है, जो अभी तक स्वतंत्र भारत के इतिहास में देश के प्रधानमंत्री के स्तर पर ‘‘अनोखा‘‘ है। प्रधानमंत्री जी उस योजना ‘‘नए संसद भवन का शिलान्यास‘‘ करने जा रहे हैं, जिसके बाबत देश की ‘‘सर्वोच्च अदालत‘‘ ‘‘सुप्रीम कोर्ट‘‘ ने लगभग ‘फटकार‘ लगाते हुए ‘‘मन को न भाने‘‘ वाली ‘‘टिप्पणी‘‘ ही नहीं की, बल्कि नए संसद भवन के ‘‘निर्माण‘‘ पर अगले आदेश तक ‘‘रोक‘‘ भी लगा दी हैं। तथापि शिलान्यास के कार्यक्रम पर कोई रोक नहीं लगाई है। वास्तव में ‘‘सेंट्रल विस्ता परियोजना‘‘ के अंतर्गत यह नया संसद भवन बन रहा है। इस योजना को माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई है जहां पर पांच नंबर को जस्टिस ए. एम. खानविलकर की बेंच ने सुनवाई पूर्ण कर प्रथम आदेशाथ रखा है। यद्यपि प्रकरण में कोई आदेश या अंतरिम रोक आदेश पारित नहीं किया गया है। लेकिन जैसे ही उच्चतम न्यायालय ने सरकार के संसद के भूमि पूजन की सूचना को पड़ा, स्वतः संज्ञान लेते हुए प्रकरण में सोमवार को सुनवाई करते हुए सरकार को कड़ी फटकार लगाई। क्या प्रधानमंत्री के लिए ऐसी स्थिति में यह उचित होगा कि वह एक ऐसी योजना ‘‘संसद भवन‘‘ जो स्वयं ही ‘‘कानून बनाने का हृदय स्थल‘‘ है, का शिलान्यास करें। जिसके निर्माण पर रोक लगाने के लिए एक अंतरिम कानूनी निर्देश (औपचारिक आदेश नहीं) देश की सर्वोच्च अदालत ने दिए। अर्थात शिलान्यास के दिन एक भी ईट न लगाई जाकर निर्माण कार्य प्रारंभ नहीं हो पाएगा, जिसका शिलान्यास/भूमि पूजन प्रधानमंत्री करने जा रहे हैं। जबकि शिलान्यास व विधि विधान से किए गए ‘‘सर्व धर्म पूजन‘‘ का मतलब ही यही होता है कि, अब आप निर्माण कार्य को प्रारंभ करें। आखिर ऐसी स्थिति में शिलान्यास की इतनी जल्दी क्यों है? वैसे भी अभी संसदीय चुनाव दूर है। जहां हमारी ‘‘परिपक्व होती लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली‘‘ में चुनावों के नजदीक आते ही आनन-फानन में आधे अधूरे शिलान्यास किए जाने की परंपरा ‘‘विकसित‘‘ होती जा रही है। शायद प्रधानमंत्री जी का यह इरादा हो कि आगामी नए सांसदों के लिए नई संसद भवन में बैठने का व्यवस्था पूर्ण हो जाए। वैसे भी कोविड-19 से उत्पन्न आर्थिक संकट कोरोना काल में इस ‘‘संवैधानिक संस्था संसद‘‘ के लिए बनने वाले भवन के निर्माण में लगने वाले इतने अनुउत्पादक खर्चे के बाबत कई लोगों ने उंगली उठाई है। क्योंकि 1927 से बना हुआ वर्तमान संसद भवन आज भी उतना ही उपयोगी है जितना उस समय जब वह बना था।
वैसे इस कार्यक्रम में एक और त्रुटि दृष्टिगोचर हो रही है कि, महामहिम उपराष्ट्रपति जो कि राज्यसभा के पदेन अध्यक्ष होते हैं, उनके नाम का उल्लेख इस कार्यक्रम में नहीं है। सिर्फ लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला जी का नाम है। जबकि यह भवन लोकसभा और राज्यसभा दोनों के लिए बन रहा है। सरकारी विज्ञापन में उक्त त्रुटि स्पष्टतः दर्शित हो रही है! यद्यपि यह मुझे नहीं मालूम कि शिलान्यास के पत्थर में उनका नाम है अथवा नहीं।
निश्चित रूप से शिलान्यास के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा किया यह कथन कि आज का दिन ऐतिहासिक है, सही है। यह दिन और भी कारणों से ऐतिहासिक है। ऐतिहासिक इसलिए भी है कि संविधान द्वारा स्थापित देश के कानून के निर्माण के ‘‘मंदिर‘‘ के निर्माण को आज एक अंतिम अदालती कानूनी बंधन कारी आदेश के द्वारा आज प्रारंभ नहीं किया जा सकता है। आज का दिन ऐतिहासिक इसलिए भी है वर्ष 1921 में वर्तमान संसद भवन का ‘‘भूमि पूजन‘‘ उस तरह के सर्वधर्म सद्भाव के पूजन के साथ नहीं हुआ होगा, जैसा आज के शिलान्यास के अवसर पर संपन्न हुआ। और आज का दिन ऐतिहासिक इसलिए भी होना चाहिए कि राज्यसभा जिसे संसद का ‘‘उच्च सदन‘‘ कहा जाता है, के ‘‘पदेन‘‘ अध्यक्ष उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के नाम का उल्लेख न होना है। वैसे भी मोदी जी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘‘ऐतिहासिक‘‘ कार्य करने के लिए जाने जाते हैं। वैसे मोदी जी यहां पर ऐतिहासिक कार्य करने के साथ साथ एक राजनीतिक चूक जरूर कर गए प्रतीत होते लगते हैं। इस बड़े अति महत्वपूर्ण अवसर पर यदि नरेंद्र मोदी महामहिम उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू जो आंध्रा के हैं को, इस कार्यक्रम में सम्मान दिलवा देते तो निश्चित रूप से इसका फायदा भाजपा को "दक्षिण" में जरूर मिलता जहां भाजपा हैदराबाद के रास्ते से आगे बढ़ बढ़कर पैर जमाना चाहती है। फिर भी समस्त अंतर्विरोध के बावजूद 21वीं सदी के देश के विकास का प्रतीक बनने वाले इस संसद भवन के शिलान्यास पर देशवासियों को बधाई और मोदी जी को धन्यवाद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें