किसान आंदोलन के 21 दिन हो गये है। लेकिन अभी तक दोनों पक्षों के अंतिम निष्कर्ष व निर्णय पर पंहुच न सकने के कारण स्थिति रबड़ के समान खिंच कर वापिस न आने के कारण पूर्वतः दो विपरीत छोरों पर (दिल्ली सीमा के दोनों पार) रुकी हुई है। लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि इन 21 दिनों में कुछ भी सकारात्मक व नकारात्मक घटित नहीं हुआ है। वास्तव में इन 21 दिनों में किसान आंदोलन को लेकर बहुत कुछ पानी बह चुका है। समझौता वादी सरकार व आंदोलनकारी किसान संगठनों एवं नेताओं के बीच उत्पन्न होने वाली आवश्यक ‘‘समझदारी‘‘ के अभाव के कारण अहंकार (ईगो) के रहते चलते समझौते के मुद्दों के करीब पंहुचने के बावजूद समझौता नहीं हो पा रहा है। जिसमें देश की आम जनता परेशान हो रही है। ‘‘स्थिति’’ की उलझी हुई वर्तमान स्वरूप पर सोचने के पूर्व आपको यह समझना होगा कि वास्तव में किसानों की वास्तविक समस्या क्या है? और उसका सही हल क्या है, या हो सकता है, जो सरकार कर सकती है।
आइये सबसे पहले हम किसानों की समस्यायों व मांगों की बात कर लें! संसद में पारित तीनों कृषि सुधार कानूनों को समाप्त करना न तो किसानों की मूल मांग है और न ही होनी भी चाहिए। यह मुख्य मांग के उपर एक आवरण मात्र है, जो समझौते पर पहुंचने की की मूल शर्त ‘‘दो कदम आगे और एक कदम पीछे हटने‘‘ की स्थिति बनाये रखने के लिए हो सकती है। याद कीजिए! वर्तमान आंदोलन प्रारंभ होने के पूर्व और तीनों कृषि सुधार अध्यादेश के लागू होने के बीच की अवधि (समय) में किसानों की अध्यादेशों को समाप्त करने की मांग नहीं थी। किसानों की यह मांग जायज इसलिए भी नहीं हो सकती है, खासकर उस स्थिति में, जब लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये जनप्रतिनिधियों अर्थात सांसदों के बहुमत द्वारा संसद के दोनों सदनों में उक्त तीनों कृषि सुधार अध्यादेशों की जगह बिल पारित कर कानून बनाया गया है। अतः यह मांग किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं की जा सकती है। इसमें सरकार की ‘‘सार्वभौमिकता’’ और ‘‘विश्वसनीयता’’ का प्रश्न ही निहित नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक सरकार का यह एक दायित्व भी है कि, वह संसद द्वारा पारित कानून की मर्यादा को यथासंभव बनाएं रखे। .
सरकार जब उक्त तीनों कानूनों में आवश्यक संशोधन करने को तैयार है, तब किसानों को यह बतलाना होगा कि उक्त तीनों अधिनियमों की कौन-कौन से प्रमुख प्रावधान व धाराएं उनके हितों के विपरीत है, जिन्हें खत्म या उसमें संशोधन किया जाना अति आवश्यक है। यह एक सत्य व सिद्ध तथ्य है कि, किसी भी अधिनियम में बहुत से प्रावधान मात्र अलंकारिक व सजावटी होते है, जिनके रहने या न रहने से अधिनियम के मूल उदेश्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसीलिए किसानों को कानून समाप्त/रद्द करने की अपनी अनावश्यक जिद को छोड़कर ही आगे बढ़ना होगा। उन्हें शून्य करने की बजाय उसमें समस्त आवश्यक संशोधन के लिये किसानों का न केवल स्वयं को तैयार करना होगा, बल्कि सरकार को भी इसके लिए तैयार करना कराना होगा। उत्पन्न विवाद को सुलझाने का एक यही मूल आधार, तथ्य व कार्य चरित्र होना चाहिए। यदि किसान संघ व उनके नेता कानून भंग न करने की बात को मान लेते है तो, उनकी मुख्य मांग जो रहती है वह एमएसपी को कानून बनाने की है। सरकार ने कभी भी एमएसपी की महत्ता को कम करने या उसे देने को अस्वीकार नहीं किया है। और लिखित रूप में एमएसपी देने की बात को पांचवी दौर की बातचीत के दौरान स्वीकार भी किया है। तब फिर वह उसके कानून बनाने की मं मांग को स्वीकार कर मामले का पटापेक्ष क्यों नहीं कर देती है?
किसानों की एमएसपी को कानून बनाने की मांग को सरकार स्वीकार कर आवश्यक कदम उठाए; उसके पूर्व मैं किसानों सहित देश के नागरिकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना महत्वपूर्ण व उचित समझता हूं कि मात्र एमएसपी के कानून बन जाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। एमएसपी पिछले 55 सालों से चली आ रही है व वर्तमान के साथ में आगे भी चलेगी। इस बात पर दोनों पक्षों में कोई विवाद/मतभेद नहीं है। चल रही एमएसपी की व्यवस्था वास्तव में क्या सही है? समस्या यह है। वास्तव में क्या समस्त किसानों को एमएसपी मिल रही है? यदि आप धरातल पर जाकर मूल रूप से किसानों को एमएसपी मिलने में हो रहे परेशानी का जायजा लेंगे, तब आप दावों के बिल्कुल विपरीत वस्तुः स्थिति पाएंगे। तब आप यह इस सत्य से रूबरू हो पायेगें कि "न्यूनतम समर्थन मूल्य" को कानून बनाये जाने से भी समस्या का हल नहीं होगा। बल्कि इसके साथ आपको "आवश्यक न्यूनतम मात्रा में खरीदी" का "कानून: बनाने की बात भी करनी ही होगी और सरकार को भी उसे मानना ही होगा। सरकार जो अभी तक कुल उत्पाद का अधिकतम आठ-दस प्रतिशत फसल की उपज की खरीदी ही मंडी में करती चली आ रही है, वह मात्रा इतनी कम होती है कि, न्यूनतम मूल्य का कानून बन जाने के बावजूद भी 90 प्रतिशत किसानों को खरीदी कम होने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा नहीं मिल पाता है। यही वास्तविकता है। सरकार व उसकी कृषि उपज खरीदने वाली एजेंसियां भी कानून बन जाने के बावजूद भी कानून के घेरे में नहीं आ पाएंगी। क्योंकि उन्हें कानून के उल्लंघन का दोषी इसलिये नहीं ठहराया जा सकेगा कि उपज क्रय करने की स्थिति में वे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही खरीदी करेगी। लेकिन "फंडस" की कमी के कारण वास्तव खरीदी कम या न कर सकने से कानून का उल्लघंन नहीं होगा।
इसीलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ न्यूनतम मात्रा की खरीदी का कानून बनाया जाए तभी अधिक संख्या में किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा मिल पाएगा। उक्त प्रस्तावित कृषि उपज की न्यूनतम मात्रा में खरीदी का कानून बनाने में सरकार को यह भी प्रावधान कर सुनिश्चित करना होगा कि 5 एकड़ से कम रकबा वाले किसानों में से न्यूनतम 80 प्रतिशत किसानों से और इसमें शामिल उन सब विक्रेता किसानोें से उनके उपज के रकबे के आधार पर, अनुपात में बराबरी की खरीदी की जावें। क्योंकि देश की कुल जनसंख्या के 70-75 प्रतिशत लोग किसान है जिसमें 5 एकड़ से कम छोटे किसानों की संख्या लगभग 90 प्रतिशत हैं। इससे किसानों की स्थिति अच्छी नहीं तो पहले सेे बेहतर अवश्य होगी। जब आपका आशय, दृष्टिकोण व इच्छा साफ सुथरी है, आपके दिल में कोई खोट नहीं है, तब सरकार को यह कानून बनाने में क्या आपत्ति होनी चाहिए? यह भी समझ से परे है कि किसान संगठन सिर्फ एमसएपी के कानून की बात क्यों कर रहे हैं? परंतु आवश्यक न्यूनतम मात्रा में खरीदी की बात और मांग नहीं कर रहे हैं। इसलिए मुझे लगता है कि दोनों पक्ष दिशाहीन तर्क विर्तक करने में जुटे हुये है।
एक बात और आंदोलन जब देशव्यापी और मजबूत रूप से प्रारंभ होता है और शीघ्रता शीघ्र तुरंत-फुरंत बातचीत के द्वारा आंदोलन के समाप्त होने की संभावना नहीं दिखती है, तब "असफल" सरकार का एक मात्र उद्देश्य आंदोलन को तोड़ना ही हेाता है। इसके लिए सरकार साम, दाम, दंड, भेद सहित तीन-चार हथियारों का उपयोग करती रही है। प्रथम आंदेालन को लम्बा खींचा जाये, ताकि आंदोलन अपनी समय के भार व शनैः शनैः कमजोर होती शक्ति के कारण खत्म होता चला जाये। दूसरा आंदोलन से जुडे संगठनों में टूट की जाये, उनमें से कुछ लोगों व नेताओं को तोड़़ा जाए। तीसरा आंदोलन को बदनाम किया जाये। आंतकवादी, खालिस्तानी, टुकडे-टुकडे गैंग, सीएए समर्थक, देशद्रोही इत्यादि-इत्यादि। और इन तरीको में सरकार सफल होती दिख भी रही है।
एक और आरोप सरकार ने आंदोलनकारियों पर यह लगाया है कि आंदोलन राजनीति के हत्थे चढ़ गया है। वैसे भी आजकल नीति पर राजनीति नहीं की जाती है, बल्कि ‘‘राजनीति’’ पर ‘‘राजनीति’’ होती है। आरंभ से ही आंदोलनकारियों का यह दावा रहा है कि उनका यह किसान आंदोलन पूर्णतः गैर राजनैतिक है। इसके लिए किसान संगठनों ने आवश्यकता बरतने के साथ-साथ कुछ कडे़ कदम भी उठाएं है। आपको याद होगा, केंद्रीय सरकार की आपत्ति के बाद किसान संगठनों ने योगेंद्र यादव को सरकार से बातचीत करने के लिए भेजें अपने डेलिगेशन में नहीं भेजा था, जो एक राजनीतिक पार्टी स्वराज पार्टी के अध्यक्ष हैं। अभी तक किसी भी राजनैतिक पाटियों के झंडे बेनर व नेताओं को मंच पर आने नहीं दिया गया और न ही ‘‘आंदोलन’’ का "वक्ता प्रवक्ता" बनने दिया है।
परन्तु सरकार के साथ आंदोलनकारियों की पांचवी दौर की असफल बातचीत के बाद आंदोलनकर्ताओं ने पूरे देश में भाजपा के मंत्रियों का घेराव का आह्वान कर भाजपा को किसान आंदोलन पर राजनीति करने के आरोप मढ़ने के लिये एक साक्ष्य व प्रमाण दे दिया। आंदोलनकारियों का यह कदम राजनैतिक रूप से प्रेरित दिखाई देने का कारण बड़ा स्पष्ट है। कृषि राज्य सूचि में (विषय) होने के कारण जैसा कि आंदोलनकारी भी दावा करते हैं, कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारो को है। अतः उन प्रदेशों में जहां पर कांग्रेस की सरकारे है, क्या उन्होंने ‘‘एमएसपी‘‘ के लिए कानून बना दिया? नहीं। सिर्फ पंजाब को छोड़कर। कदापि इन राज्यों ने केन्द्रिय अधिनियम को लागू न करने के लिए विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित करने की बात जरूर कहीं है। अतः ऐसे कांग्रेस के मंत्रियों को आंदोलनकारियों ने बहिष्कार से मुक्त क्यों रखा? इस कारण चाहे अनचाहे, जाने अनजाने में किसानों के उपर राजनीति करने के आरोप लगाने के लिये सरकार को बल मिलता है।
वैसे विगत दिवस किसान आंदोलनकारियों के एक प्रमुख नेता पंडित शिवकुमार शर्मा ‘‘कक्काजी‘‘ जो कि मध्यप्रदेश के ही है, व पूर्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की किसानों के बीच कार्य करने वाली शाखा-संगठन भारतीय किसान संघ के मध्य भारत प्रांत के मुखिया भी रहे है, उनके व केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बीच "एबीपी न्यूज चैनल" के माध्यम से हुई बातचीत ने एक नये समझोते की आशा अवश्य जगाई है। देश का आम नागरिक यह उम्मीद करता है कि समस्त पक्षों को "सद्धबुद्धि" आये और एक कदम आगे चलकर दो कदम पीछे चलने की नीति का सम्मान कर कृषकों के हितेषी समझौते पर पंहुचा जाये, जिसका सरकार पहले ही दिन से दावा कर रही है। सुखद परिणाम की प्रत्याशा में!
अंत में जहां तक किसान आंदोलन पर पांच सितारा सुविधाओं के आरोप का प्रश्न है, इस कोरोना काल में देश की बढ़ती मजबूत आर्थिक व्यवस्था का कहीं यह द्योेतक तो नहीं है? इसकी विवेचना फिर कभी। लेकिन निश्चिित रूप से इस आंदोलन के अनुशासन व आंदोलनकारियों के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक समस्त जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति की इस ठंड में भी की गई बहुत अच्छी पांच सितारा व्यवस्था के साथ आंदोलन को "हाईटेक" करने से "आंदोलन" के बाबत जो "कल्पना" एक आम आदमी के दिमांग में अभी तक रही है, उस पर पुर्नविचार करने के लिए जरूर मजबूर कर दिया है। "स्वामीनाथन आयोग" के आधार पर "एमएसपी" तय हो, यह भी एक विषय चिंतन है। लेकिन लेख लम्बा होने के कारण इन पर फिर कभी अलग से विचार करेगें।
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