पिछले 72 दिनों से चले आ रहे किसान आंदोलन के समर्थन में आयी एक विदेशी नागरिक, प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय पॉप आइकन रिहाना के ‘‘एक ट्वीट‘‘आने के बाद, एक के बाद एक आये अनेक अंतर्राष्ट्रीय शख़सियतों-कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो, प्रसिद्ध पर्यावरणविद् स्वीडिश एक्टिविस्ट कुमारी ग्रेटा थनबर्ग, जिम कोस्टा यूएस हॉउस प्रतिनिधी, क्लाउडिया वेबबे ब्रिटिश सांसद, मिया खलीफा, गायक जे सीन डॉ. जियस, अमांडा केरनी, अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भांजी मीना हैरिस जो एक वकील व लेखिका है, इत्यादि के ट्वीट्स आने पर सरकार से लेकर देश की मीडिया तक में ऐसी तूफान जैसी हलचल मच गई की, प्रतिक्रिया स्वरूप "उल्टी माला फेरते हुए" अनेकों ट्वीट्स की बाढ़ सी आ गयी। स्वयं केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय को बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इन ट्वीट्स व प्रतिक्रियाओं को ‘‘गैर जिम्मेदाराना‘‘ ठहराते हुये यह कहना पड़ा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ समूह इन प्रदर्शनों पर ‘‘अपने ऐजेंडे़" थोप रहे है। कनाडा के उच्चायुक्त को तो विदेश मंत्रालय में बुला कर कर आपसी संबंध बिगड़ने की सीमा तक की गहरी नाराजगी व्यक्त की गई।(यद्यपि अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया के संबंध में विदेश विभाग ने सावधानीपूर्वक बहुत ही सधी हुई प्रतिक्रिया दी)। विदेश मंत्रालय सहित अनेक प्रसिद्ध शख्सियतों द्वारा "हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी" से बचते हुए पक्ष-विपक्ष के इन ट्वीटस् का संज्ञान लेने से यह लगने लगा कि क्या देश का ‘‘राष्ट्रवाद‘‘ इतना कमजोर है, ‘‘या हो गया है‘‘ कि ‘‘वह‘‘ (राष्ट्रवाद) ‘‘राष्ट्र‘‘ को छोड़कर जा रहा है। वह भी उस पार्टी के शासनकाल में जो वर्तमान में प्रखर राष्ट्रवाद की एकमात्र प्रतीक बनी हुई है, जिस कारण उसकी ‘‘सुरक्षा’’ हेतु हमे इतना ‘‘आक्रमक’’ होना पड़ रहा है।
राष्ट्रवाद को ‘‘धक्का लगने‘‘ की चिंता की बात देश के एक प्रबुद्ध वर्ग द्वारा इसलिये की जा रही है, क्योंकि अनेक प्रसिद्ध विदेशी शख़िस़यतों ने किसान आंदोलन के समर्थन में दी गई प्रतिक्रियाओं के रूप में अपने जो मत व्यक्त किए हैं, को उक्त वर्ग द्वारा उसे हमारे देश के आंतरिक मामलों में स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप माना जा रहा है, अथवा बताया जा रहा है। सहजतः जिसे देश किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकता है और न ही करना चाहिये। इस संप्रभुता की रक्षा के लिए देश का प्रत्येक नागरिक सरकार के साथ हमेशा से खड़ा था, खड़ा है, और खड़ा रहेगा।
परंतु यहां पर सबसे बड़ा प्रश्न यही उत्पन्न होता है कि, क्या ये समस्त विदेशी प्रतिक्रियाएं हमारे देश के आंतरिक मामलों में वास्तविक रुप से हस्तक्षेप की सीमा में आती भी हैं अथवा नहीं? इसका विश्लेषण करने के पूर्व आपको इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि किसान आंदोलन के किसी भी नेता या संयुक्त किसान मोर्चा ने "को नृप होऊ, हम का हानि" की तर्ज पर इन विदेशी नागरिकों से किसी भी प्रकार का कोई समर्थन या सहायता की अपील या मांग नहीं की है। परन्तु निश्चित रूप से विदेशी नागरिकों की तरफ से आये हुए इन समर्थनों का स्वागत किसान संगठनों ने अवश्य किया है। यद्यपि आंदोलन में शामिल एक किसान नेता ने जरूर कनाडा के प्रधानमंत्री के किसान आंदोलन के प्रति समर्थन के कथन को देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बताया है।
कुछ एक प्रतिक्रियाओं को छोड़ दिया जाए तो, अधिकतर विदेशी नागरिकों की प्रतिक्रियाओं में या तो किसानों से बातचीत करने का सुझाव दिया है या ‘‘कृषकों को शांतिपूर्ण आंदोलन करने का हक है, यह लोकतंत्र का हिस्सा है‘‘ जैसी उक्तियां कथित की है (जैसा कि अमेरिकन राष्ट्रपति ने तीनों कृषि सुधार कानूनों का स्वागत करते हुए कहा है)। यद्यपि अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया का यह भाग अवांछित था। और यदि अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया के इस भाग की तुलना ‘‘रिहाना’’ की प्रतिक्रिया से की जाए, जहां से यह "टि्वटर-विवाद" प्रारंभ हुआ है तो, निश्चित रूप से अमेरिकन राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया का उक्त भाग भारत अमेरिका के वर्तमान सुद्रड संबंधों को देखते हुए ज्यादा ‘‘कठोर‘‘ है। यद्यपि अभी केंद्रीय शासन की जांच एजेंसियों ने "ग्रेटा टूल किट" जो भारत विरोधी एजेंड़ा चलाने वाली टूल किट (जिसे ग्रेटा ने शेयर किया था) है, के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर जांच प्रारंभ कर दी है। यह बतलाया गया है कि इस "टूल किट' का उपयोग भारत विरोधी प्रचार में लगातार हो रहा है निश्चित रूप से यदि टूल किट में देश को बदनाम करने के षड्यंत्र के साक्ष्य व तथ्य पाए जाते हैं, तो उनके विरूद्ध जरूर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। कुछ एक ने तो इसे "ग्लोबल साजिश" की संज्ञा भी दे दी है। लेकिन अभी तक प्रायः किसी भी विदेशी व्यक्ति ने सरकार की किसानों के संबंध में अपनायी गयी नीति की आलोचना नहीं की है। सरकार द्वारा पारित तीनों कृषि सुधार क़ानूनों की भी इन अधिकांश प्रतिक्रियाओं में आलोचना नहीं की गयी है, जिसे हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहा जा सकता हो। कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप के 75 नौकरशाह सदस्यों ने विदेशी ट्वीटस् का जवाब दिये बिना सीधे केंद्र सरकार को निशाना बनाते हुए एक खुला पत्र लिखकर सरकार के किसान आंदोलन के संबंध में अपनाई गई नीति की आलोचना कर अप्रत्यक्ष रूप से उनका नैतिक समर्थन ही किया है।
दूसरा, सबसे पहली विदेशी प्रतिक्रिया प्रसिद्ध पॉप गायिका रिहाना ने जानकारी के अभाव में जरूर यह कहा था कि ‘‘इस बारे में कोई बात क्यों नहीं कर रहा हैं’’ जो तथ्यपरक न होकर गलत थी। विपरीत इसके, वास्तव में सरकार बाक़ायदा बातचीत कर रही है, और अभी तक हुई कुल 11 दौर की बातचीत सार्वजनिक है। ये विदेशी ट्वीटस् भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की सीमा में आते हैं अथवा नहीं? इसका सही व निष्पक्ष विश्लेषण करते समय आपको यह बात भी ध्यान में लानी होगी कि हमारे देश के नागरिकों और शासनारूढ़ व्यक्तियों की विश्व के विभिन्न भागों में हुई घटनाओं के संबंध में की गई प्रतिक्रियाएं, वक्तव्य और विचार भी क्या दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के अतिक्रमण की सीमा में तो नहीं आते हैं? जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटने के बाद केंद्रीय सरकार की पहल पर यूरोपीय संघ के सांसदों को बुलाकर कश्मीर घाटी में धुमाने से शायद स्वेच्छा से हस्तक्षेप की नई परिभाषा तो गठित नहीं होगी? वैसे "आलोचना" व "हस्तक्षेप" में अंतर है व अंतर करना चाहिए। हर "आलोचना" हस्तक्षेप नहीं है परंतु "हस्तक्षेप" में आलोचना अवश्य शामिल है। वैसे भी यदि लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में "मजबूत" करना है तो "असहमति व आलोचना के स्वर को" सुनने की "क्षमता" बढ़ाने ही होगी।
वर्तमान में जो पैरामीटर हमारे देश के आंतरिक मामलों में तथाकथित हस्तक्षेप को लेकर अपनाया जा रहा है, तो अमेरिका में हुए ‘‘हाउड़ी मोदी‘‘ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना कि ‘‘अब की बार ट्रंप सरकार‘‘ आदि इस प्रकार के हमारे गणमान्य नागरिकों व राजनेताओं के अनेक कथनों व ट्वीट्स को भी उसी पैरामीटर पर नहीं मापा जाना चाहिये? तभी तो आप निष्पक्ष निष्कर्ष निकाल कर न्याय कर पायेंगे। वैसे एक और महत्वपूर्ण बात पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है कि यदि विदेशी तत्व जब सरकार की नीति का ‘‘समर्थन‘‘ कर रहे होते तो उसका स्वागत किया जाता है। तब वह हमारे देश के आंतरिक मामलों में " हस्तक्षेप " नहीं माना जाता है। लेकिन यदि वे "आलोचना" करते हैं तो, उसे हस्तक्षेप के रूप में महिमामंडित कर दिया जाता है। यानी कि "मीठा मीठा गप और कड़वा कड़वा थू"। सकारात्मकता और नकारात्मकता मतों के बीच आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की ‘‘झूलती‘‘ परिभाषा कितनी उचित है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार (कुछ प्रतिबंधों के साथ) सिर्फ देश की सीमा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह देश की सीमा के बाहर जाकर भी विश्व पटल पर व्यापक स्तर तक है, जहां जाकर वह शायद ‘‘मानवाधिकार‘‘ के रूप में परिणित हो जाता है, जाना जाता है। ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता‘‘ ‘‘स्वच्छंदता और उद्दंडता‘‘ में परिणित न हो जाये, इस "लक्ष्मण रेखा" (सीमा) का ध्यान रखने की आवश्यकता ज़रूर है। इस दृष्टिकोण से भी किसान आंदोलन वउस पर आयी विदेशी ट्वीट्स व प्रत्युत्तर में दिये गये जवाब को देखने की आवश्यकता है।
उपरोक्त घटना से संबंधित एक संयोग और देखिए। यह ट्विटर बाजी तब हो रही है जब भारत के लोकतंत्र की प्रतिष्ठा पर ‘‘आंच‘‘ आयी हुई है। इकोनॉमिक्स इंटेलिजेंस यूनिट की हाल ही में आयी सर्वेक्षण रिपोर्ट में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लोकतंत्र की विश्व में स्थिति वर्ष 2014 के 27 वें स्थान की तुलना में फिसल कर आज 53 वें स्थान पर आ गयी है। "लोकतंत्र" की यह गिरावट ट्विटर-बाजी के इस संयोग को देखते हुए कहीं और नीचे तो नहीं चली जायेगी? यद्यपि उक्त रिपोर्ट का आना और ट्विटर-बाजी का यह संयोग भी देश हित में नहीं है। किसान आंदोलन को रोकने के लिए ‘‘बैरिकेड‘‘ के नाम पर कीले व नुकीले छड़ों को बिछाने का कार्य किस ‘‘लोकतंत्र‘‘ की निशानी है? आज तक विश्व के सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र में पूर्व में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में चला ऑल इंडिया रेल कर्मचारियों के आंदोलन से लेकर, जेपी आंदोलन, किसान नेता शरद जोशी व महेंद्र सिंह टिकेट के किसान आंदोलन, मजदूर नेता दत्ता सामंत का मजदूर आंदोलन, बाबा रामदेव ,अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार व काला धन विरोधी आंदोलन आदि आदि हुए एक से बड़े आंदोलन में भी इस तरह के ‘‘अमानवीय अवरोध‘‘ नहीं लगाए गए। आज जब केंद्रीय सरकार और भाजपा शासित अनेक राज्यों की सरकारें अंग्रेजों के समय के गुलामी के प्रतीक चिन्हों और नामों को बदलने की लगभग मुहिम छेड़े हुए हैं। तब ऐसी स्थिति में कील ठोकना भी एक "प्रतीकात्मक" कृत्य है, जिसका अर्थ (नहीं बल्कि अनर्थ) लोकतंत्र की "छाती" (हृदय) में कील ठोकने जैसा निकलता है, जिससे न केवल बचा जाना चाहिए था, बल्कि बचा जा सकता था।( 2 दिन बाद इन लोहे की कीलों की पट्टी को उखाड़ भी दिया गया) क्योंकि इस "कृत्य" से विश्व में लोकतंत्र की स्थिति के अगले सर्वेक्षण में भारत की स्थिति क्या वर्तमान 53 से और नीचे तो नहीं गिर जाएगी ?
कुछ बात अब‘‘राष्ट्रवाद‘‘ ‘‘संप्रभुता‘‘ और ‘‘सार्वभौमिकता‘‘ की भी कर ले जिसे हो रही इस ट्विटर बाजी ने विवाद का एक अखाड़ा बना एक व्यक्ति पर एक नहीं ट्वीट थोड़े के समान दिया है। निश्चित रूप से हमारे देश का ‘‘राष्ट्रवाद‘‘ पूर्ण रूप से मजबूत है और राष्ट्रवाद की पोषक भाजपा के शासन में और मजबूत हुआ है, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए। परंतु स्थिती यह तभी संभव है, जब हम अपने देश की मजबूत राष्ट्रवादिता और संप्रभुता को कुछ लचक (लचीलेपन) का इनपुट दें। अन्यथा एक व्यक्ति का एक लाइन का "ट्वीट" भी एक मजबूत हथोड़ा बनकर एक चोट से ही हमारे मजबूत राष्ट्रवाद में "क्रेक" (दरार) पैदा कर देता है, कर देगा या करने का एहसास (परसेप्शन) करा देगा, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।
जहां एक विदेशी व्यक्ति के ट्वीट के बाद से उत्पन्न हुई परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं में देश की ज्ञानी जानी-मानी हस्तियां, फिल्मी कलाकार जैसे लता मंगेशकर, अक्षय कुमार, अजय देवगन, सुनील शेट्टी, करण जोहर, कगना रनौत, एकता कपूर खिलाडि़यों सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, रवि शास्त्री, अजिंक्य रहाणे आदि के एक के बाद एक ट्वीट्स आ रहे हैं। इनमें से तो कुछ ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति भी शामिल है, जो सामान्यतया इस तरह के मामलों में ट्वीटस नहीं करते हैं। उनके ट्वीट्स का आना जैसे सचिन तेंदुलकर का, जिससे निश्चित रूप से हमारे देश का राष्ट्रवाद कमजोर होता हुआ दिखेगा। यद्यपि इन सब महानुभावों की प्रतिक्रियाएं राष्ट्रवाद को मजबूत करने हेतु ‘‘सामने वालों‘‘ को जवाब देने के लिए ही हो रही है। परंतु यदि हम यह मान लेते कि इन विदेशी प्रतिक्रियाओं से हमारी राष्ट्रवाद की सेहत पर किंचित भी असर नहीं होता है तो, प्रतिक्रियाओं पर प्रत्युत्तर की प्रतिक्रिया देने व इस "दुश्चक्र" (विसीएस सर्किल) की आवश्यकता ही नहीं होती। मैं मानता हूं, जहां तक राष्ट्रवाद का प्रश्न है, हम एक मजबूत राष्ट्रवादी पार्टी भाजपा के शासन में हम अपनी "भारतीय संस्कृति लिए हुए राष्ट्रवाद" को पूर्णतः सुरक्षित व मजबूत रखकर जीवन जी रहे हैं, जिस पर अनावश्यक विवाद से बचा जा कर राष्ट्रवाद के ‘‘तनिक तथाकथित संकट की अनुभूति" (परसेप्शन) को उत्पन्न होने का मौका ही नहीं दे।
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