देश में इस समय ‘‘किसान आंदोलन‘‘ के बाद सबसे ज़्यादा चर्चा और मीडिया में छायी हुई विषय वस्तु यदि कोई है, तो वह पश्चिम बंगाल में होने वाले आगामी विधानसभा के आम चुनाव। जहां पर प्रमुख रूप से तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच गला-काट प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप राजनीतिक संघर्ष, मारामारी की सीमा तक काफी पहले से ही पहुंच चुकी है। ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल एक बार फिर ‘‘प्लासी के युद्ध की स्थिति में‘‘ पहुंच चुका है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में काफी पहले से यह एजेंडा बना लिया है कि यदि पश्चिम बंगाल से ममता की विदाई ‘‘ममता पूर्वक‘‘ संभव न तो येन केन प्रकारेण पूरी ताकत के साथ ‘‘विदाई‘‘ दे दी जाए। अर्थात ‘‘सीधी उंगली से घी न निकले’’ तो ‘‘उंगली टेढ़ी’’ करने में कोई गुरेज नहीं।
इस मामले में नरेंद्र मोदी और अमित शाह काफी दूरदर्शी दृष्टि वाले नेता है, जिन्होंने अपने नेतृत्व की दूरदर्शिता की छाप कई बार स्थापित व सिद्ध भी की है। इसी कड़ी में कई लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि प्रधानमंत्री जी ने जो ‘‘दाढ़ी‘‘ बढ़ा रखी है, वह पश्चिम बंगाल में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव को दृष्टि में में रखते हुए राष्ट्रीय कविवर रवींद्र नाथ टैगोर की जन्म भूमि व कर्मभूमि पश्चिम बंगाल के होने के कारण ‘‘बंगाली सेंटीमेंट्स‘‘ से जुड़ने के लिए की गई है। खैर! भाजपा नेतृत्व के सतत प्रयास का ही आज यह परिणाम है कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का मोर्चा व कांग्रेस को पीछे छोड़ भाजपा पिछले पांच वर्षो में चतुर्थ स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच गई।
मैं बात कर रहा था, प्रधानमंत्री की पश्चिम बंगाल के हल्दिया में 7 फरवरी को हुई सरकारी सभा की। जिसमें लगभग 5000 करोड़ से ऊपर की पश्चिम बंगाल के विकास जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास प्रधानमंत्री द्वारा किया गया। ‘निमंत्रित’ होने के बावजूद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस कार्यक्रम में नहीं पहुंची। 23 जनवरी को कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में सुभाष चंद्र बोस की 125वी जयंती पर हुए कार्यक्रम में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में दर्शकों के एक वर्ग द्वारा ‘‘जय श्रीराम’’ के नारे लगाकर उनका तथाकथित मजाक उडाये व चिड़ाए जाने को लेकर ममता बेहद ख़फा है। उक्त सभा में प्रधानमंत्री को धन्यवाद देने के अतिरिक्त यह कहकर कि बुलाकर ‘‘अपमान अस्वीकार्य‘‘ है, ममता अपना भाषण दिये बिना वापस मंच पर बैठ गई। यद्यपि नारे प्रधानमंत्री की सहमति या अनुमति से नहीं लगे थे। लेकिन किसी व्यक्ति को चिढ़ाने के उद्देश्य से भगवान श्रीराम के पावन नाम को एक माध्यम बनाया जाये, यह अपने आप में एक निंदनीय कृत्य है। परंतु ठीक इसके विपरीत, एक भारतीय हिन्दू के भगवान श्रीराम के नारे से चिढ़ना तो और भी ज्यादा शर्मनाक व निंदनीय है। यदि ममता को भगवान श्रीराम के नारे से सार्वजनिक रूप से इतनी चिढ़ है (जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है) तो ममता ने प्रत्युत्तर में प्रधानमंत्री के मंच पर चढ़ते समय अपने कार्यकर्ताओं से ‘‘अल्लाह हो अकबर‘‘ के नारे क्यों नहीं लगवा दिए। निश्चित रूप से इस पर मोदी की वह प्रतिक्रिया नहीं होती, जो ममता ने की थी।
हल्दिया का कार्यक्रम एक पूर्णतः सरकारी कार्यक्रम था। यह भाजपा की कोई चुनाव रैली तो थी नहीं? शायद इसीलिए ममता ने यह तय कर लिया कि आगे वे प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा नहीं करेगी। क्योंकि ‘‘काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती है‘‘। ममता की प्रधानमंत्री के सरकारी कार्यक्रम से ‘‘सउद्देश्य अनुपस्थिति‘ क्या एक संवैधानिक पद में बैठे हुए व्यक्ति द्वारा अपने से ऊंचे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का अपमान व अनादर नहीं है तो क्या? साथ ही लोकतंत्र में यह जनता का भी अनादर है। वास्तव में यहां पर ममता मंच साझा कर प्रधानमंत्री से बंगाल के लिए एक ‘‘आर्थिक पैकेज‘‘ की मांग करके स्वयं को जन हितैषी दिखा कर प्रधानमंत्री को संकोची (ऑकवर्ड) स्थिति में लाकर अपने कौशल व राजनैतिक चातुर्य का सार्वजनिक प्रदर्शन कर सकती थी! तथापि प्रधानमंत्री ने ममता की अनुपस्थिति में, अपने उद्धबोधन में ‘‘ममता मयी’’ न होकर (कभी किसी समय वह हुआ करते थे) ‘‘निर्ममतापूर्वक ममता की निर्ममता को उजागर किया‘‘। प्रश्न यह कि एक पूर्णतः सरकारी कार्यक्रम में जिसमें सरकारी योजनाओं का उद्धघाटन-शिलान्यास किया गया हो में, प्रधानमंत्री द्वारा ममता बनर्जी व राज्य सरकार की राजनैतिक रूप से आलोचना करना कितना नैतिक, उचित और जायज है?
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृहमंत्री अमित शाह से लेकर भाजपा के पश्चिम बंगाल के राष्ट्रीय प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय आदि अनेक नेताओं का पश्चिम बंगाल का लगातार सतत दौरा चल ही रहा है, जिसमें वे ममता सरकार के विरुद्ध लगातार तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ममता को जनता के बीच सफलतापूर्वक ‘‘विलेन‘‘ ठहरा रहे हैं। यह उनका अधिकार भी है। नरेंद्र मोदी जी को भी भाजपा की रैली में भाजपा नेता के रूप में सरकार व मुख्यमंत्री की आलोचना करने का पूर्ण अधिकार है, इसमें कोई शक़-वो-शुबह नहीं है। लेकिन एक केंद्रीय सरकारी कार्यक्रम में राज्य सरकार की ‘‘राजनैतिक‘‘ आलोचना करना कहां तक उचित है?
यदि ममता बनर्जी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 125 वीं जयंती के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के खि़लाफ कुछ बोलती तो, क्या वह जायज व उचित होता? बिल्कुल नहीं! विपरीत इसके, इससे तो अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी एक खराब संदेश ही जाता। यद्यपि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का प्रधानमंत्री की उपस्थिति में मंच से ‘‘जय श्रीराम’’ के नारे लगाने पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर ‘‘अतिथि को निमंत्रण देकर, बुलाकर, बेइज्जत व असम्मानित करने का कथन’’ करना, साथ ही अपने उद्बोधन में कुछ न बोलना भी समय व कार्यक्रम की गरिमा को देखते हुए वांछनीय व सही नहीं था। भारतीय राजनीति में तो प्रत्येक राजनीतिज्ञ को हर पल ‘‘राजनीति‘‘ करने का खूब अवसर मिलता रहता है। परंतु कुछ अवसर ऐसे होते हैं जहां ‘‘राजनीति‘‘ छोड़कर ‘‘नीतिगत‘‘ बात ही करना चाहिए। ‘‘अन्यथा करधा छोड़ तमाशा जाए, नाहक चोट जुलाहा खाए‘‘ वाली स्थिति बन जाती है। उक्त अवसर भी एक ऐसा ही ‘‘अवसर‘‘ था। वक्त की नज़ाकत को देखकर ही अपने विषय व कथनों का चयन प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किया जाना फिर चाहे वे नरेन्द्र मोदी हो अथवा ममता बनर्जी।
प्रधानमंत्री ने कोलकाता के विक्टोरिया पैलेस में ममता बनर्जी की उपस्थिति में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती ‘‘पराक्रम दिवस’’ के रूप में मनाने के कार्यक्रम में अपने उद्बोधन में ममता या उनकी सरकार पर कोई कटाक्ष या आलोचना नहीं की थी। तब बीपीसीएल की एलपीजी इंपोर्ट टर्मिनल व डोभी-दुर्गापुर नेचुरल गैस पाइपलाइन सेक्शन को राष्ट्र को समर्पित करने वाले पूर्णतः सरकारी कार्यक्रम में ममता की अनुपस्थिति में ममता व पश्चिम बंगाल सरकार पर राजनैतिक आरोप लगाने को उचित और ‘‘सामयिक‘‘ नहीं कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री जी को इससे बचना चाहिए था।
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021
प्रधानमंत्री की (सरकारी कार्यक्रम में) मुख्यमंत्री ममता के प्रति ‘‘ममत्व’’ की कमी! कितना औचित्य पूर्ण?
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