चूँकि मैं स्वयं भी वकील हूं और सामान्य तया एक वकील व एक नागरिक की नजर में किसी भी न्यायाधीश का निर्णय न्यायिक होता है, अर्थात न्याय लिए हुए होता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णयो को छोड़कर (वहां भी ‘‘पुनरावलोकन‘‘ का अधिकार है) बाकी समस्त न्यायालयों की न्यायाधीशों के निर्णय से सहमत/असंतुष्ट होने पर गुण-दोष के आधार पर संबंधित पक्ष को सुपीरियर (वरिष्ठ) न्यायालय में जाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। तथापि पिछले कुछ समय से न्यायालयों के न्यायिक निर्णयों की संबंधित पक्षों, समाज के अन्य लोगों, बुद्धिजीवियों, मीडिया इत्यादियों द्वारा अपने अपने हितों और सुविधा व विचारों के अनुकूल निर्णयों की सार्वजनिक आलोचना आजकल एक फैशन सा बन गया है। यह कितना उचित या अनुचित है, और किस सीमा तक यह आलोचना या प्रत्यालोचना की जा सकती है, यह एक अलगदा विषय है, जिस के विवाद में मैं फिलहाल नहीं जाना चाहता हूं।
परंतु वकील होने के साथ-साथ एक नागरिक और एक लेखक की हैसियत से टूल किट मामले में ‘‘दिशा रवि‘‘ की जमानत के प्रकरण में अतिरिक्त सेशन जज माननीय न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा द्वारा की गई तीखी टिप्पणियों पर अपने विचार व्यक्त करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूं। कारण बड़ा साफ है। स्वाधीन भारत के 74 साल के स्वतंत्र न्यायपालिका के इतिहास में ‘‘लोकतंत्र और स्वतंत्रता के अधिकार‘’ के संबंध में एक निचली अदालत के न्यायाधीश द्वारा की गई इस तरह की शायद ही कोई टिप्पणी सार्वजनिक डोमेन में सामने आई हो। उक्त टिप्पणियों पर चर्चा करूं, इसके पहले आप कृपया उनकी टिप्पणीयों को पढ़ें, जो निम्नानुसार हैं
‘‘जिस टूल किट की बात की जा रही है उसका किसी तरह के हिंसा से कोई संबंध नहीं दिखता है‘‘
‘‘किसी लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार को राह दिखाने वाले होते हैं। वे सिर्फ इसलिए जिलों में नहीं भेजे जा सकते क्योंकि वह सरकार की नीतियों से असहमत है‘‘।
‘‘व्हाट्सएप गु्रप बनाना टूलकिट एडिट करना अपराध नहीं हैं’’
‘‘देशद्रोह का मामला सिर्फ सरकार के टूटे गुरुर पर मरहम लगाने के लिए नहीं थोपा जा सकता है।’’
‘‘विचारों में मतभेद असहमति यहां तक कि नापसंद करना भी सरकार की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए मान्य तरीके हैं।’’
‘‘दिशा के अलगावादी सोच के सबूत नहीं है।’’
‘‘ऋग्वेद का जिक्र कर कहां अलग-अलग विचारों को रखना ही हमारी सभ्यता का हिस्सा है।’’
‘‘फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन में ग्लोबल ऑडियंस को टारगेट करना भी शामिल है। उसमें किसी तरह का कोई बैरियर नहीं हो सकता है‘‘
‘‘किसी भी लोकतांत्रिक देश में उसके नागरिक सरकार की अंतरात्मा की आवाज होती हैं।
स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय ‘‘आपातकाल‘‘, जहाँ 18 महीने की दमन पूर्ण और अत्याचार की अवधि में व्यक्तिगत नागरिक स्वतंत्रता तार-तार हो गई थी, के समय एक ‘‘पोस्टकार्ड‘‘ को भी ‘‘बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका‘‘ (हेवीएस कार्पस) मानने वाली उच्चतम न्यायालय व तत्पश्चात न्यायिक सक्रियता लिए हुए न्यायपालिका विभिन्न अवसरों पर उनके न्यायालय के समक्ष प्रकरणों पर सरकार के विरुद्ध या अन्य ‘‘तंत्रों‘‘ पर न्यायालय की आई कड़ी प्रतिक्रिया को हमने पिछले 74 सालों के स्वतंत्र भारत के गुजरते इतिहास में देखा है। एक ऐसे मामले में जहां पर ‘‘निर्णय‘‘ आने के पूर्व ही जिस ‘‘टूलकिट‘‘ को आधार बनाकर सरकार से लेकर लगभग पूरे मीडिया ने इसे ‘‘देशद्रोह‘‘ का बड़ा दस्तावेज बताते हुए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कर गिरफ्तारी की कार्यवाही की गई। उस पर न्यायपालिका की उक्त टिप्पणियां भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में निश्चित रूप से ‘‘एक मील का पत्थर‘‘ सिद्ध होगी, ऐसा मेरा मानना है।
हालांकि माननीय न्यायाधीश की उक्त टिप्पणियां पर विवाद हो सकता है और प्रश्न उठाया जा सकता है कि माननीय न्यायाधीश के सामने जब मामला सिर्फ जमानत की सुनवाई के लिए था, तब न्यायाधीश मामले के मूल मुद्दे/विषय पर लगभग निष्कर्ष पर पहुंचते हुए लगभग निर्णय कैसे दे सकते हैं? वे प्रकरण के मुख्य मुद्दे (हिंसा व देशद्रोह के आरोप) पर अपने ‘‘लगभग निष्कर्ष‘‘ (भले ही वह तकनीकी रूप से ‘‘अंतिम‘‘ न हो) को ‘‘सार्वजनिक‘‘ कैसे कर सकते हैं? इससे केस के ‘‘ट्रायल‘‘ पर क्या प्रभाव नहीं पड़ेगा? अभी तक हम निचली अदालतों के न्यायाधीशों द्वारा जमानत के आवेदन में अपराधियों के विरुद्ध की गई टिप्पणियों पर उच्च अदालत में यह कहकर आपत्ति करते हैं कि, इससे प्रकरण के ट्रायल पर विपरीत प्रभाव हो सकता है। लेकिन मैंने कभी भी ‘‘अभियोजन‘‘ के पक्ष में यह दलील सुनी नहीं है। माननीय न्यायाधीश की उक्त टिप्पणी ने इस बिंदु पर कानून विदो को जरूर विचार करना चाहिए।
इसके बावजूद माननीय न्यायाधीश ने जो साहस दिखा कर वास्तविक तथ्यों को रेखांकित कर सामने लाया है, उसके लिए निश्चित रूप से वे साधुवाद के पात्र हैं! उनके इस साहस की प्रशंसा भी की जानी चाहिए। साधुवाद व प्रशंसा इसलिए की जा सकती है, क्योंकि उक्त टिप्पणियां निर्णय का ‘‘एग्जीक्यूटिव भाग‘‘ न होकर विचारों की अभिव्यक्ति है। इन टिप्पणियों से मीडिया को पुनः एक बार सबक लेने की आवश्यकता है कि वह कोई ‘‘न्यायिक निर्णय‘‘ आए बिना आरोपी का मीडिया ट्रायल करना बंद कर दें। यही स्वस्थ पत्रकारिता होगी। सरकार ने अभी सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं जो अगले 3 महीने में लागू किए जाएंगे। इसी प्रकार मीडिया ट्रायल पर भी प्रतिबंध लगाने के लिए कुछ न कुछ अंकुश लिए हुए दिशा निर्देश जारी किए जाने की भी आवश्यकता है।
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