पिछले कुछ समय से ‘‘महंगाई‘‘ व ‘‘भ्रष्टाचार‘‘ का मुद्दा ‘राजनीति’, राजनैतिक दलों या अन्य किसी के लिये भी अमूनन विवाद का विषय नहीं रहा गया है। सालों लंबे समय से महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हुए समस्त पक्ष अर्थात सरकार व विपक्ष और उनको वोट देने वाले नागरिकों ने इसे (भ्रष्टाचार व महंगाई) को अपनी कार्य प्रणाली की ‘‘कार्यकुशलता’’ (सरकार ने) विपक्ष ने इसे एक ‘‘रूटीन’’ और (नागरिकों ने) इसे जीवन की एक ‘‘नियति’’ मान लिया है। अर्थात शासन व विपक्ष को इसे मुद्दा बनाए बिना ही राजनीति करनी पड़ रही है। क्योंकि इन दोनों ज्वलंत व नागरिकों के जीवन स्तर को नियत्रिंत करने वाले मुद्दों पर फिर चाहे शासन पर कोई भी राजनैतिक पार्टी आरूढ़ रही हो, इन दोनों मुद्दों के लिये जिम्मेदार समस्त तंत्रों को काबू में नहीं ला पाए है और उन्हे नियत्रिंत करने में बुरी तरह से विफल रहे है। अर्थात मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की। इसलिये ‘‘इलाज‘‘ करने की इरादा ही शायद अब त्याग दिया गया है। यह कहना ज्यादा सामयिक व उचित होगा कि अब ‘भ्रष्टाचार’ व ‘मंहगाई’ समस्त तंत्रों में गहराई तक उतर कर धुलमिल होकर स्वयं का ‘‘स्वतंत्र व प्रथक‘‘ अस्त्तिव खोकर ‘तंत्र’ का ही भाग हो गई है। जिस कारण से वह अब राजनैतिक मुद्दे की सूची से बाहर ही हो गयी है।
यद्यपि भ्रष्टाचार के मामले में निश्चित रूप से वर्तमान एनडीए सरकार का प्रदर्शन (परफॉर्मेंस) कहीं बेहतर कहा जा सकता है। जहां पर यूपीए की सरकार समान ‘‘पीएमओ‘‘ पर कोई भ्रष्टाचार के मामले में उंगली नहीं उठा पाया है, और संस्थागत भ्रष्टाचार के कांडों (स्केंडल) के आरोप भी तुलनात्मक रूप से कम व सतही ही लगे है। अन्यथा नीचे के स्तर तक भ्रष्टाचार ‘‘शिष्टाचार नवाचार और एक अलिखित नियम‘‘ सा बन गया है। इसीलिए नागरिकों को भी इसे जीवन की एक आवश्यक बुराई मानकर इसके साथ जीना ही होगा। जो ‘‘शैली’’ नागरिकों ने मजबूरी में सीख ली है व वे इसके अब अम्यस्त भी हो गये है। बकौल गालिब ‘‘मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गयी’’। और इसीलिये अब तो ‘‘इसे‘‘ शायद बुराई मानने से भी परहेज किया जाने लगा है। आज के लोकतंत्र की ‘‘राजनीति’’ और व्यक्तिगत जीवन के ‘‘विकास‘‘ में अब यह एक ‘‘संजीवनी‘‘ का काम करने सा लग गई हैं, ऐसा लगता है। उपरोक्त भूमिका लिखने का मकसद मात्र यह है कि, क्या आज वास्तव में तीनों पक्षों में से किसी भी पक्ष के लिए महंगाई एक मुद्दा रह गई है? इस पर आज थोड़ा हटकर विचार करते है।
आज जब चारों तरफ महंगाई की आग में आम नागरिक झुलसने के लिए विवश हैं, और झुलस रहे है, तब उनका महंगाई के विरुद्ध उस तरह का ‘‘विरोध’’ पब्लिक डोमेन में नहीं आ रहा है, जैसी कि तीव्र प्रतिक्रिया पूर्व में हुआ करती थी, क्योंकि तब वह जिंदा बहस तथा चर्चा का ज्वलंत मुद्दा हुआ करती थी। इसी प्रकार वर्तमान शासक जो पूर्व में विपक्ष हुआ करते था, उनकी आवाज महंगाई के संबंध में वैसे ही होती थी, जैसे वर्तमान में विपक्ष की, जो पूर्व में शासक हुआ करती थी। अर्थात महंगाई के संबंध में सत्ता पक्ष और विपक्ष के तर्क में आश्चर्यजनक रूप से ‘‘गहरी समानता‘‘ व लगभग ‘‘एकरूपता’’ देखने को मिलती है व होती है। दोनों ‘‘मियां की जूती मियां के सर’’ पर मारने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। सिर्फ ‘‘स्थान’’ परस्पर बदल (एक्सचेंज हो) जाते हैं। खैर! देश के वर्तमान राजनैतिक पटल पर कम से कम कहीं तो राजनैतिक दल एक साथ खड़े हुये दिख रहे हैं? ये क्या कोई कम बात है?
इस महंगाई के दौर में सबसे प्रमुख बात यही कही जाती है कि ‘‘रुपए का अवमूल्यन‘‘ हो कर व्यक्ति की क्रय क्षमता ‘‘कम‘‘ हो गई है। यह बात आर्थिक विशेषज्ञों के दृष्टिकोण से तो सही हो सकती है। लेकिन मैं इसके दूसरे पहलू की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि ‘‘न्यायालय’’ और ‘‘सरकार’’ दोनों की नजर में रुपए का ‘‘अवमूल्यन‘‘ न होकर उसके ‘‘मूल्यांकन‘‘ में वृद्धि हो गई है। वह कैसे! इसे आगे समझते हैं।
पहले बात ‘‘रुपए‘‘ के मूल्य की ही कर ले। आपको याद ही होगा कि देश के माननीय उच्चतम न्यायालय ने अवमानना के मामले में प्रशांत भूषण को न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाकर उन्हें ₹1 के फाइन भरने पर जेल जाने से छूट प्रदान की थी। इस निर्णय के पूर्व तक क्या आपके हमारे जीवन में एक रुपए का कोई मूल्य रह गया था? उच्चतम न्यायालय ने एक रूपए के मूल्य को पुर्नस्थापित किया। इस प्रकार स्पष्ट है ₹1 का मूल्य का पुर्नस्थापना उच्चतम न्यायालय के द्वारा की जाने पर शायद ‘‘₹1‘‘ को भी अब ‘‘गर्व‘‘ महसूस हुआ होगा की ‘‘रुपया‘‘ होने के बावजूद न्यायालय के इस निर्णय के पूर्व तक उसकी कोई ‘‘औकात‘‘ ही नहीं बची थी। भिक्षावृत्ति करने वाला भी ₹1 का नोट लेने से इंकार कर देता था। इस प्रकार ₹1 के महत्व को हमने देखा, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के मामले में स्थापित किया। जिसके कारण प्रशांत भूषण एक रुपए जमा करके जेल जाने से बच गए। आइए अब ‘‘पैसे‘‘ का ‘‘मूल्य‘‘ देखते हैं, जिसे सरकार कैसे व किस प्रकार ‘‘पुनर्स्थापित‘‘ कर रही है।
एक आम नागरिक की नजर में क्या 10, 20, 50 या 90 पैसे की कोई ‘‘वैल्यू‘‘ (मूल्य) रह गई है? इसका उत्तर निसंदेह निर्विवाद रूप से ‘‘नहीं‘‘ ही है। लेकिन इसके बावजूद मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि, आपकी नजर में ही अब उक्त पैसे की वैल्यू इतनी ज्यादा हो गई है कि, आप इस कारण से बढ़ रही महंगाई के विरुद्ध गुस्से में हैं। मेरा मतलब पेट्रोल डीजल की कीमत में बढ़ोतरी को लेकर आपकी परेशानी व झुनझुनाहट से है। सरकार पेट्रोल व डीजल के मूल्य में पिछले कुछ-कुछ समय में ‘‘पैसों‘‘ की वृद्धि करके पेट्रोल के मूल्य को एक सैंकड़े के आसपास तक ले आई है, जब पेट्रोल का मूल्य ₹100 के आसपास हुआ तब, आपको एहसास हुआ, कि जिस प्रकार बूंद बूंद से सागर भरता है, उसी प्रकार मात्र कुछ कुछ पैसों की लगातार बढ़ोतरी ने पेट्रोल के मूल्य का शतक बना दिया। अब आपको ‘‘पैसे का मूल्य‘‘ भी ‘‘रुपए के मूल्य‘‘ की तुलना में ज्यादा लग रहा होगा और समझ में आ गया होगा।
इस प्रकार पैसे के मूल्य की बढो़त्री होने के कारण सरकार, बैंक और समस्त व्यापारिक पैसे के लेन देन के लिये समस्त जिम्मेदार लोगों को एक अकवंर्ड स्थिति में ला दिया है जहां 50 पैसे से ऊपर होने पर 1 ₹ और 50 पैसे से कम होने पर 0 माने जाने की प्रचलित मान्यता प्राप्त थी। लेकिन यह स्थापित मान्यता को पैट्रोलियम मूल्यों में पैसों से वृद्धि करते समय प्रथक कर दिया।
क्या इस ‘‘पुर्नमूल्यांकन‘‘ व पुर्नस्प्रतिष्ठा दिलाने के लिए आपको सरकार और उच्चतम न्यायालय को इस बात के लिए बधाई व धन्यवाद नहीं देना चाहिए? जहां एक ओर रुपए के पुर्नमूल्यांकन से नागरिक को ‘‘राहत‘‘ (जेल जाने से) मिली है, तो दूसरी और ‘‘पैसे‘‘ के पुर्नमूल्यांकन से नागरिक तकलीफ भोग रहा है। यह विचित्र खेल वर्तमान में निरीह और ‘‘मूंडी गई भेड़’’ के समान चुपचाप भुगत रही जनता के सामने हो रहा है, जिसके लिए स्वयं जनता ही ज्यादा जिम्मेदार है, और कोई नहीं? क्योंकि प्रत्येक गलत चीज का विरोध करने का जो मूल अधिकार संविधान में नागरिक को दिया है, उस अधिकार को नागरिक गण शायद भुला बैठे हैं या अपने को पूरी तरह उनके द्वारा चुनी गई सरकार पर निर्भर होकर इसे अपनी नियति ही मान रहे हैैं। इसीलिए संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के अधिकार की सुरक्षा के लिये स्वयं जनता को ही आगे आना होगा जो न केवल उनके स्वयं के हित में होगा बल्कि अंततः देशहित में भी होगा।
फिलहाल इतना ही! पेट्रोल पदार्थ के मूल्य के विरोध के संबंध में सरकारी नीति की विवेचना अगले लेख मेंय अन्यथा लेख यहाँ लम्बा हो जायेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें