पेट्रोलियम उत्पादों के लगातार बढ़ते मूल्यों पर पक्ष-विपक्ष जो पूर्व में ‘‘विपक्ष और सत्ता पक्ष‘‘ थे, की ‘‘नीतियों‘ (इसे ‘‘नीति’’ के बदले ‘‘राजनीति‘‘ कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा) का विस्तृत अध्ययन करने पर जो निष्कर्ष निकलता है, उसमें आम जनता अपने को ठगा सा महसूस कर रही है। कैसे!
वर्तमान में पेट्रोल, डीजल और रसोई ईंधन गैस के जो दर (रेट्स) लगातार बढ़ रहे हैं, उस पर वर्तमान सत्तापक्ष और विपक्ष इस बढ़ोतरी को लेकर अब क्या कहती हैं, और जब वर्तमान विपक्ष सत्ता में और सत्ताधारी पार्टी विपक्ष में थी, तब दोनों पार्टियां क्या कहती थी? आप पाएंगे; दोनों ही पार्टियों के सत्ता और विपक्ष की भूमिका में आश्चर्यजनक रूप से समस्त तर्क, मत व विचार लगभग समान व एकरूपता लिए हुए हैं। दोनों ‘‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’’ और ‘‘चोर चोर मौसेरे भाई’’ हैं। एक ‘‘नागनाथ (पूर्व सत्ता पक्ष) है, तो दूसरा सांपनाथ’’। यह बात जरूर है कि ‘‘नाग’’ की तुलना में सांप को कम नुकसानदायक माना जाता है। स्पष्ट है, पेट्रोलियम उत्पाद के संबंध में पूर्व में दोनों दलों द्वारा अपनाई गई यह नीति का परिणाम हुआ है कि, दोनों प्रमुख दलों की स्वयं की अब कोई "मूल अवधारणा या नीति" न रहकर पेट्रोलियम उत्पादों ने "स्वयं" ही आगे आकर सत्ता पक्ष और विपक्ष की नीति को स्थाई रूप से तय सा कर दिया है, ऐसा लगता है।
मतलब पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्यों के बढ़ने या कम होने पर सरकार या विपक्ष का अपना स्वयं का कोई ‘‘विजन‘‘ या ‘‘नीति’’ न होकर दोनों दल चाहे वे ‘‘सत्ता‘‘ में रहे हो अथवा ‘‘विपक्ष‘‘ में, उनके रोल और नीति को पेट्रोलियम उत्पादों ने स्वयं ही एक नीति निश्चित कर दी है। जिन्हें दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूमिका अर्थात पक्ष या विपक्ष जिस भी स्थिति रहे हो, अपनाते चले आ रहे हैं। इससे यह स्पष्ट है कि दोनों ही पक्ष जनता के हितों की बात न कर जब राजनैतिक दृष्टिकोण से अपने विरोधियों की आलोचना करना और अपने ‘‘कमजोर पक्ष‘‘ (अधिक दर) को मजबूती प्रदान कर ‘‘अपना उल्लू सीधा करना’’, यही नीति चलते आये है, जिससे ‘‘निरीह‘‘ जनता मानने व भुगतने को मज़बूर है।
आपको याद होगा, देश के उपभोक्ताओं के लिये पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण की नीति को यूपीए सरकार ने "सरकारी नियंत्रण से मुक्त‘‘ कर कंपनियों के पाले में डाल दिया था, यह कहकर कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) के बढ़ते घटते मूल्य के आधार पर पेट्रोलियम कंपनीयां देशी बाजार में पेट्रोल-डीजल के दाम को तदनुसार निर्धारित कर सकेगीं और इसलिए अब पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ने के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। इसे डायनमिक प्राइसिंग कहते है। यह "आधिकारिक सैंद्धातिक" स्थिति है। परन्तु वास्तविक रूप से धरातल पर उतरी हुई नहीं है। यह इस बात से सिद्ध होती है कि दिन-प्रतिदिन, हफ्ता-पख़वाड़ा डीजल-पेट्रोल के मूल्यों में होने वाली वृद्धि ‘‘चुनाव के समय’’ अवकाश ले लेती है। यह छुट्टी सरकार ही तो देगी? अंर्तराष्ट्रीय बाजार तो नहीं? "आदर्श चुनाव संहिता लागू" होते ही मूल्य वृद्धि भी "आदर्श" दिखाने के लिए "रुक" जाती है?
हमने तत्समय भी देखा था कि अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने पर तो हमारी देशी बाजार में मूल्य अवश्य बढ़ जाते थे, लेकिन मूल्य कम होने पर उसका प्रभाव (लाभ) तेल कंपनियां हम उपभोक्ताओं को लगभग नहीं देती थी। इस प्रकार पेट्रोलियम उत्पाद सरकार के लिए एक बहुत बड़ी आय (रेवन्यू) एकत्रित करने का एक सुगम ‘‘हथियार‘‘ बन गया। आपको याद होगा, यूपीए सरकार में अंतरराष्ट्रीय मार्केट में जब वर्ष 2003-04 में 20 डालर प्रति बैरल से वर्ष 2011-12 में 110 डालर प्रति बैरल मूल्य तक क्रूड आयल की कीमत बढ़ गई थी, तब भी देश में ₹ 65 के आसपास पेट्रोल बिकने पर तत्कालीन विपक्ष भाजपा ने किस तरह से हो हल्ला हंगामा कर देश भर में प्रदर्शन किया था। विरोध के "प्रतीक' बैलगाड़ी, साइकिल, सिलेंडर, पदयात्रा आदि एक समान ही रहे, सिर्फ झंडे-डंडे अलग रहे। नरेंद्र मोदी व देश की खुशकिस्मती से अंर्तराष्ट्रीय मार्केट में क्रूड ऑयल की कीमत कम होकर 45-50 डालर प्रति बैरल तक गिरने के बाद वर्तमान में 60-65 डालर हो जाने के बावजूद भी देश के भीतर पेट्रोल डीजल की कीमत कम होने के बजाएं बढ़ती ही जा रही है, जो आज ₹100 प्रति लिटर के आसपास तक पहुंच गई है। पिछले छः सालो में पेट्रोल पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी 12 बार बढ़ाई जाकर (मात्र 2 बार कम की गई) पिछली यूपीए सरकार की तुलना में अभी तक की अधिकतम एक्साइज ड्यूटी वर्तमान सरकार ने लगाई है। वर्तमान में भारतीय तेल कंपनियां लगभग 30 प्रति लिटर की कीमत पर कच्चा तेल आयात कर एक्साइज डूयटी, वेट व डीलर कमीशन जुड़कर लगभग 100 प्रतिलिटर डीज़ल हो गया है। इससे यह स्पष्ट है कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमत का सीधा संबंध विेदेश में कच्चे तेल की कीमत से नहीं, बल्कि देश में लग रहे विभिन्न टैक्स व डीलर कमीशन से है।
केंद्र सरकार का यह आरोप कि राज्य सरकारों ने पेट्रोलियम प्रोडक्टस् पर वेट की दर बढ़ा दी है और उन्हें डीजल-पेट्रोल की कीमतें कम करने के लिए वेट की दर भी कम करनी चाहिए, अपनी जिम्मेदारी से बचने और जनता की ‘‘आंखों में धूल झोंकने’’ का यह तर्क, नहीं मात्र कुतर्क ही है। यूपीए की तुलना में एनडीए के समय राज्य सरकारें (अधिकांश राज्यों में एनडीए की ही सरकारें हैं) द्वारा लगाया गया वेट की औसतन दर ज्यादा बढ़ाई गई है, जिसके लिए स्वयं एनडीए ही जिम्मेदार है। देश में विभिन्न राज्यों में पेट्रोलियम उत्पादों पर वेट की "असमान दरों" को दूर कर पूरे देश में एकरूपता लाने के लिए केंद्रीय सरकार पेट्रोलियम उत्पादों को "जीएसटी" के अंतर्गत क्यों नहीं ला रही है? जब अधिकांश राज्य सरकारें और व्यापारी वर्ग इस बात के लिए तैयार है। देश में मात्र पांच राज्यों में ही तो विपक्ष एवं सहयोगियों की सरकारें है। उनमें से भी अधिकांश राज्य पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के अंर्तगत लाने के लिए तैयार हैं। ऐसी स्थिति में एक राष्ट्र, एक झंडा, एक नागरिकता, एक राष्ट्र भाषा, एक कर, एक दर के विचार को मजबूत करने वाली भाजपा की सरकार द्वारा जीएसटी के अंतर्गत पेट्रोल उत्पादों को न लाने और उससे उत्पन्न परिणाम/दुष्परिणाम के लिए सिर्फ केंद्र सरकार ही जिम्मेदार मानी जाएगी। हिमायती सरकार यह भी भूल रही है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर कर लगाने व बढ़ाने से नागरिक को स्वयं "एक ही बार" ही कर देना नहीं होता है। बल्कि ड़ीजल के मंहगा होने से ट्रांसपोर्ट की लागत बढ़ जाने से माल की लागत बढ़ जाने के कारण एक उपभोक्ता को हर खरीदे गये माल पर अप्रत्यक्ष रूप से कई बार टैक्स देना होता है, जो "बहु बिन्दु" टैक्स हो जाता है। इस पर न तो सरकार की नागरिकों के प्रति चिंता है और न ही नागरिक बहु बिन्दु टैक्स बावत चिंतित है।
आश्चर्यजनक रूप से वर्तमान में भाजपा भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य निर्धारण नीति को ‘‘यूपीए सरकार ने लागू की थी’’, कहकर उससे अपना पल्ला झाड़ अवश्य रही है। लेकिन वह यह बतलाने को तैयार नहीं है कि, यदि वह नीति ग़लत है तो, भाजपा सरकार नीति को बदल कर पूर्व स्थिति में क्यों नहीं ला देती है? न ही भाजपा यह बतला रही है कि ऐसा करने में कौन सी संवैधानिक या क़ानूनी अड़चन है? लेकिन आश्चर्य तो आज उससे भी ज्यादा इस बात का होता है कि, जनोंमुखी सरकार के मंत्री गण और पार्टी के प्रवक्ता गण पेट्रोलियम उत्पादों की मूल्य वृद्धि के औचित्य को इस आधार पर सही ठहराने का प्रयास कर रहे हैं कि, ‘‘देश के बहुमुखी चौमुखी विकास‘‘ में प्रत्येक नागरिक का सहयोग होना चाहिए। पेट्रोलियम उत्पादों पर लगे कर के माध्यम से सरकार के पास रेवेन्यू (राजस्व) का एक बड़ा ‘‘स्त्रोत‘‘ आ रहा है, जहाँ नागरिकों से कर रूप में वसूले गये इन रूपयों का उपयोग, देश की विकास के लिए बन रही "योजनाओं के क्रियान्वयन" में लग रहा है। इसलिए नागरिकों का यह दायित्व है कि वे कर के रूप में अपने अंशदान को राष्ट्रीय हित में दें।
निश्चित रूप से देश के विकास में एक नागरिक की भागीदारी की सरकार की ‘‘सकारात्मक‘‘ सोच को अवश्य धन्यवाद देना चाहिए। लेकिन दुख का विषय तो यह है कि, यही कार्य (मूल्य वृद्धि के माध्यम से योगदान का) यूपीए सरकार के समय में जब हो रहा था, तब तत्कालीन विपक्ष भाजपा ने नागरिकों को देश के विकास में सहयोग देने के लिए डीजल पेट्रोल की महंगाई में भागीदार होने के लिए जन आंदोलन चलाकर "निरुत्साहित" क्यों किया? वास्तव में यदि केंद्र सरकार प्रत्येक नागरिक की देश के विकास में टैक्स (कर) देकर अपना अंशदान से सहयोग करने की भावना को मजबूत करना ही चाहती हैं तो, फिर सरकार ‘‘सब्सिडी‘‘ क्यों देती हैं? और सब्सिडी प्राप्त करने वाले नागरिकों को देश के विकास में योगदान से ‘‘वंचित‘‘ क्यों करती हैं? सरकार जब कोई टैक्स, कर, उपकर, अतिरिक्त कर, सेस, अतिरिक्त सेस, ड्यूटी इत्यादि विभिन्न नामों से लगने वाले ‘‘कर‘‘ को कम करती हैं, या हटाती है तब अपनी पीठ थपथपाने के लिए और शाबाशी पाने के लिए जनता को रिलीफ़ (सहायता) देने की बात कहती हैं? इस तरह का ‘‘दोहरा चरित्र‘‘ चाहे कोई भी राजनैतिक पार्टी या गठबंधन हो, इस देश की राजनीति को कब तक चलायेगा? क्योंकि अब यह कहना तो बेमानी होगा कि राजनीति में दोहरा चरित्र चलता है।
मूल्य वृद्धि के संबंध में अज़ीबोग़रीब तर्क की श्रंखला में कभी ‘‘मौसम‘‘ तो कभी वैश्विक संक्रमित महामारी "कोरोना' को भी कारण बता दिया जाता है। केंन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री के कथनानुसार अंर्तराष्ट्रीय बाजार में ईधन का उत्पादन कम होना और अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए ओपेक व ओपेक प्लस देशों के द्वारा ईधन का उत्पादन कम करने से अंर्तराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि हुई है। सांसद महेन्द्र सिंह सोलंकी का यह हास्यादपद और गरीब जनता के "भूखे पेट" को चुभने वाला बयान आता है कि, अगर पेट्रोल के मूल्य में वृद्धि हो रही है तो, उसी अनुपात में लोगों की आमदनी भी "बढ़ी" है।
निश्चित मानिए! भारतीय जनता ‘‘नृप होउ, हमहिं का हानी’’ की लीक पर चलने वाली है और उसकी ‘‘अन्याय‘‘ सहने की आदत काफी पुरानी है व वह इसकी अभ्यस्त हो चुकी है। जनता की अपने अधिकार क्षेत्रों के अधिकार के लिए संघर्ष करने की मानसिकता पूरे देश में न तो एक जैसी है और न ही समस्त वर्गों में एक जैसी है। मात्र कुछ वर्ग स्वयं होकर और कुछ वर्ग "उकसाए" जाने पर "अधिकारों' के लिए आंदोलनरत होते है। अन्यथा जनता तो उस दुधारू गाय के समान है, जिसका सब कुछ दूध से लेकर गोबर तक राजनेता छीन कर अपने उपयोग में ले लेते हैं और बदले में उसको खाने के लिए जरूरी मिलने वाला चारा भी राजनेता खा जाते हैं।
क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी आदि एक से एक वीर पुरुष और शांतिप्रिय शखि़्सयत/व्यक्तित्व हुए वाले देश में वर्तमान में नागरिकों की जो ‘‘सुप्त व अचेतन अवस्था‘‘ हैं, क्या वह हम आपको "आंदोलित" नहीं करती है? देश के आम नागरिकों का यह सोच क्या उचित है कि देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए आज फिर कोई गांधी, बोस, भगत सिंह, पं. दीनदयाल उपाध्याय पैदा हो जाए? एक नागरिक अपने अपेक्षित उत्तर दायित्वों जिसकी पूर्ति नहीं कर रहा है, से विमुक्त व मुक्त होकर ऐसे वीरों की ओर सिर्फ "टकटकी निगाहों" से देखने से क्या "संतुष्ट" हुआ जा सकता है? सबसे बड़ा "यक्ष" प्रश्न आज यही है?
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