‘‘मुंह में राम, बगल में छुरी‘‘।‘‘कथनी-करनी में अन्तर‘‘!
‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ‘‘ के प्रमुख मोहन भागवत ने गाजियाबाद में ‘‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच‘‘ के कार्यक्रम में मुस्लिम लेखक की किताब ‘‘मींटिग ऑफ मांइड ए ब्रिजिंग इनेशिएटिव’’ की लांचिंग के अवसर पर हिन्दुत्व के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही। ‘‘हिंदू मुस्लिम अलग नहीं।‘‘ ‘‘सभी भारतीयों का ‘डीएनए‘ एक है‘‘। ‘‘जो लोग चाहते है कि ‘‘मुसलमान यहां नहीं रहे, वे सच्चे हिन्दु नहीं हैं‘‘। और ‘‘लिंचिंग‘‘ ‘हिन्दुत्व’ विरोधी है।‘‘ लेकिन जैसी कि उक्ति है,“अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः“ अर्थात अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ ही होते हैं। इन कथनों पर एक ‘‘भूचाल‘‘ सा आ गया और विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न व्यक्तियों की कड़ी प्रतिक्रियाए सामने आयी हैं।
इसी कड़ी में शामिल “बहुजन समाज पार्टी“ (बीएसपी) की अध्यक्षा ‘‘सुप्रीमों’’ सुश्री मायावती ने बाकायदा बुलाई गई एक पत्रकार वार्ता में उपरोक्त बयान जारी कर मोहन भागवत जी के उपरोक्त कथन की कड़ी आलोचना की, जो स्वाभाविक रूप से होनी ही थी। परंतु शायद अनजाने में मायावती ने कुछ सीमा तक यह सही कथन किया कि भागवत जी के “मुंह में राम और बगल में छुरी“। कैसे! सरसंघचालक की दृष्टि में भगवान ‘‘राम‘‘ का नाम मुंह से बोल देने से, व्यक्त कर देने से ही इस देश की समस्याएं धीरे-धीरे सुलझेगीं। वह इसलिए कि राम नाम जपने से आपके मन में उनके “आदर्श जीवन“ व सर्वहारा गुणों की ओर किंचित चलने का भाव अवश्य पैदा होगा। इसलिए उनके मुंह में ‘‘राम‘‘ है, जिसे मायावती ने सही पहचाना।
जहां तक ‘‘बगल में छुरी‘‘ का प्रश्न है, वह उन लोगों के लिए है, जो राम को न तो पूर्ण रूप से जानते हैं, और न ही उन्हें मानते हैं। जैसा कि कहा भी गया है कि “बूढ़े तोते राम नाम नहीं पढ़ते“। इसलिए वे उनके नाम के “अप्रतिम“ प्रभाव से अपरिचित हैं। ऐसे लोगों को “छुरी“ (तलवार) की ड़र से ही उन्हें देश के मान, सम्मान, आत्मसम्मान, अखंडता और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने की ओर मोड़ा जा सकता है, जो ‘राम भाव‘ में पूर्ण रूप से निहित हैं। परंतु यहा पर मायावती की स्थिति दूसरी है ! अर्थात ‘‘मुंह में छुरी‘‘ (राम नहीं) और बगल में राम वाली स्थिति है, जो कम से कम भागवत जी की नहीं है, जिसका प्रमाण पत्र स्वयं मायावती ने ही ’आरोप’ लगा कर दे दिया हैं। अर्थात “करघा छोड़ तमाशा जाय, नाहक चोट जुलाहा खाय“ वाली स्थिति मायावती ने स्वयं की कर ली है।
जहां तक ‘‘कथनी और करनी में अन्तर हैं‘‘ का प्रश्न है, जिसे दिग्विजय सिंह ने भी उठाया है। यह प्रश्न भी उसी व्यक्ति या संस्था, संगठन के लिए उठाया जा सकता है, जो कुछ करता हैं अथवा करने का प्रयास करता है। चूंकि मायावती को भारत रत्न डॉ भीमराव अम्बेडकर के नाम पर तथाकथित “देश सेवा“ के नाम पर दलितों की सिर्फ राजनीति ही करना हैं। इसलिए देश के लिए कुछ करने का जज्बा न होने के कारण कथनी और करनी के अन्तर को समझना उनके लिए थोड़ा मुश्किल है। कुछ करने वाला, कुछ करने की सोच रखने वाला व्यक्ति ही कथनी-करनी के अन्तर को समझ सकता हैं। अन्यो के बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि “न तीन में न तेरह में, मृदंग बजावे डेरा में“। ये लोग सिर्फ जुमलेबाजी ही कर सकते हैं। यह सब जानते है कि सरसंघचालक जी जुमलेबाजी में विश्वास नही रखते हैं। वे जो कहते हैं वह करने का प्रयास करते हैं, और करते हैं। अनुच्छेद 370 की समाप्ति का (अप्रत्यक्ष) उदाहरण आपके सामने हैं। अतः कथनी-करनी में जो अन्तर दिखता हैं, वह वास्तव में अन्तर न होकर कार्य करने के प्रयास में लगने वाला समय है, (70 साल मेें जो नहीं हुआ वह 7 साल में हो गया; अनुच्छेद 370 की समाप्ति) जिसे कथनी-करनी का अन्तर कह दिया जाता है। सुश्री मायावती और दिग्विजय सिंह सहित हर राजनेता को कम से कम इस सिद्वान्त का पालन अवश्य करना चाहिए कि जो स्वयं “कॉॅच के घर में रहते है“, और यदि उनकी नजर में उनके विपक्षी भी ‘‘कॉच के घर‘‘ में रहते हैं, तो उन्हें विपक्षियों पर पत्थर मारने का “नैतिक या बौद्विक“ आधार नही मिल जाता हैैं।
मायावती के इन कथनों में कितनी असत्यता व विरोधाभास है, इसे आगे समझा जा सकता हैं। एक तरफ मायावती कहती है कि ‘‘आरएसएस के बिना बीजेपी का अस्तित्व बिलकुल भी नही हैं‘‘ और दूसरी तरफ कहती हैं ‘‘बसपा हमेंशा से ही ‘संघ‘ की (भाजपा की नहीं) नीतियों का विरोध करती रही हैं।‘‘ क्या वे यह भूल गई है कि उत्तरप्रदेश जो देश का सबसे बड़ा राज्य हैं, जहां से होकर ही सामान्यतः देश का शीर्षर्स्थ नेतृत्व तय होता हैं, उस उत्तरप्रदेश में भाजपा के साथ मिलकर ही उन्होनें (वर्ष 1995 में) सरकार बनाई थी।(कालस्य कुटिला गतिः!!) तब क्या तत्समय भाजपा का अस्तित्व आरएसएस के बिना था? संघ क्या वर्ष 1995 के बाद अस्तित्व में आया? यह बेहतर रूप से मायावती ही बता सकती हैं? कथनी व करनी का आरोप जो वह लगा रही है, वास्तव में यह उनका स्वयं का ही चरित्र हैं, जो उपरोक्त उदाहरण से स्वयंसिद्व हैं। मायावती का उक्त कथनी-करनी के अन्तर के चरित्र का होना यह आरोप मात्र नही हैं, बल्कि सत्ता के लिए सिद्वान्तहीन राजनीति का उनके चरित्र का सबसे बडा उदाहरण हैैं।
मोहन भागवतजी के बयान को अविश्वसनीय ठहराते समय मायावती स्वयं उक्त कथन के ‘‘भावार्थ’’ व संभावित परिणाम की सत्यता से शायद परेशान हो गई, ऐसा लगता है। संघ के प्रति उनके पूर्वागृह के कारण अविश्वसनीय लगना बतलाना उनकी मनःस्थिति को ही दर्शाता हैं परन्तु यदि उक्त बयान भविष्य में ‘‘अविश्वसनीय से विश्वसनीय’’ हो गया अर्थात विश्वास पर खरा उतर गया तब? मायावती सहित समस्त विरोधियांे की जमीन ही खिसक जायेगी। यही “भई गति सांप छछूंदति केरी“ जैसी स्थिति वाली बात ’एआईएमएएम’ के अध्यक्ष प्रमुख असदुद्दीन औवेसी, ‘‘तुष्टीकरण के महान पोषक‘‘ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और अन्य नेताओ द्वारा मोहन भागवत के बयान पर दी गई प्रतिक्रियाओं पर अंग्रेज़ी की एक प्रोवर्ब “बर्ड्स ऑफ द सेम फीदर फ़्लॉक टुगेदर“, सटीक लागू होती है।
मुसलमानों के प्रति संघ प्रमुख की सद्भावना के भाव से दिग्विजय सिंह और मायावती को शायद बहुत कष्ट हो गया कि उक्त भाव कों उन्होनें अपने राजनीतिक क्षेत्र में अनाधिकृत “अतिक्रमण“ मान लिया। क्योंकि महा तुष्टीकरण की नीति के साथ मुसलिम वर्ग जिस पर वे अपने एकाधिकार का भ्रम पाले हुयें हैं, के अंह पर “चोट“ और तथाकथित बनाई गई घोर मुस्लिम विरोधी संघ की छवि की संघ प्रमुख द्वारा की गई उक्त मरहम पट्टी ने उन्हें शायद सातवें आश्चर्य में डाल दिया। दिग्गी राजा को राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक की प्रतिक्रिया से तो कुछ सदबुद्वि अवश्य लेनी चाहिए, जहां उन्होनें कहा कि ‘‘यदि भागवत जी का ह्रदय बदल रहा तो हम उसका स्वागत करते हैं।‘‘ यही बात दिल्ली के पूर्व गवर्नर नजीब जंग ने भी कही हैं। यद्यपि यहा नवाब मलिक शायद कुछ गलत हैं, क्योंकि ‘मोहन‘ ने हिन्दुत्व की कोई नई परिभाषा नहीं गढी, वे तो पूर्व से ही यही भाव लिए हुए दूसरे शब्द विन्यासों के द्वारा यह कहते चले आ रहे है। लेकिन अब की बार प्रभावशाली आकर्षित करने वाले “शब्दो“ के भाव शायद नवाब मलिक को मनमोहित कर गए। ’मन मोहन‘‘ (सिंह) वाले (कांग्रेस की अंगूठी के नगीने) दिग्विजय सिंह “दिग्गी राजा“ के ‘मन‘ को भी शायद संघ प्रमुख का अगला कथन “भा“ जाए? ताकि वे भी भागवतजी के प्रशंसक हो जायेगें? जैसा उन्हें तंज कसते हुये कहां। “देशहित“ में इन्ही आशाओं के साथ!
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