मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष गिरीश गौतम ने ‘‘माननीय’’ विधायकों की “बोली संतुलित रहे“, इसके लिये विधानसभा में माननीयों द्वारा अमाननीय, “असंसदीय“ शब्दों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। जैसे पप्पू, फेंकू, चोर, झूठा, मूर्ख, नालायक़, बेवक़ूफ़, मामू, मंदबुद्धि, बंटाधार इत्यादि शब्द जैसी कि मीडिया की रिपोर्टिंग है, प्रतिबंधित किये जा रहे हैं। जिस प्रकार देश की सर्वोच्च नियामक संस्था ‘‘लोकसभा’’ में अमर्यादित शब्दों के इस्तेमाल पर पूर्ण रोक लगाई गयी है, उसी तर्ज़ पर मध्यप्रदेश विधानसभा में भी असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगायी जा रही है। विधानसभा सचिवालय द्वारा इन असंसदीय शब्दों को सूचीबद्ध कर एक ‘‘मार्गदर्शिका’’ बनायी जाकर “माननीयों“ को मुहैया करायी जायेगी। यह भी कहा जा रहा है कि 300 शब्दों की डिक्शनरी 3 महीनों के भीतर बनाई जायेगी। साथ ही “माननीयों“ का इस संबंध में प्रशिक्षण वर्ग भी होगा। पर सबसे बड़ा प्रश्न! स्वयं को मार्गदर्शक मानने वाले ‘‘माननीय’’ उनके लिये बनायी गयी मार्गदर्शिका का पालन करेगें?
सूची में आने वाले शब्दों को “असंसदीय“ कहने की व्याख्या करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि क्या इन शब्दों को “असंसदीय“ कह कर विधायिका के बाहर इन अशिष्ट शब्दों को “संरक्षण“ तो नहीं दिया जा रहा है? वह इसलिये क्योंकि इन्हें संसद या विधानसभा के भीतर “असंसदीय“ वर्गीकृत कर संसद या विधानसभा के बाहर ‘‘गुड़ खाकर गुलगुलों से परहेज़’’ करते हुए इन शब्दों के इस्तेमाल करने की खुली छूट रहेगी? सूचीबद्ध होने वाले शब्द जब “अमर्यादित“ हैं और आपको “तमीज़“ सिखाना ही है, तो अमर्यादा, बदतमीज़ी पर प्रतिबंध की अधिकारिक सीमा सिर्फ विधानसभा के अंदर (वेल) तक ही क्यों? इसके उत्तर में ही आपकी (भाजपा की) इन निंदनीय शब्दों पर प्रतिबंध लगाने की वास्तविक ‘नियत’ की ‘नियति’ के दर्शन हो पायेगें?
आश्चर्यजनक बात यह भी है कि इन असंसदीय, अशोभनीय, अपशब्द, अशिष्ट, अमर्यादित, असंवेदनशील, असहनशील, आपत्तिजनक ज़ुमलेबाज़ी जैसे शब्दों का उपयोग ‘‘माननीयों’’ द्वारा न हो सके, वास्तविक रूप से पूर्णतः इन शब्दों को बोलने से रोका जा सके, इसकी कोई प्रभावी, प्रणाली, तंत्र या उपाय, जिसके द्वारा इसे हक़ीक़त में ज़मीनी धरातल पर यथार्थत: उतारा जा सके, की कोई संरचना, प्रारूप, दृष्टि, विज़न स्पीकर ने उक्त कथन के साथ प्रस्तुत नहीं की है। इससे एक अच्छे उद्देश्य का ‘‘दूरस्थाः पर्वताः रम्याः’’ के समान सिर्फ काग़ज़ात पर ही रह जाने का अंदेशा बढ़ जाता है। और यह स्थिति ही अपने आप में एक “ज़ुमलेबाज़ी“ सिध्द हो सकती है, जैसा कि प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ज़ुमलेबाजी के ‘‘मास्टर’’ माने जाते हैं। जिनका मानना है कि ‘‘माल चाहे जैसा भी हो, हांक हमेशा ऊंची लगानी चाहिये’’। वास्तव में इसके लिए कौन से क़ानून व नियम हैं अथवा बनाये जायेगें, जिनका कड़ाई से पालन कर माननीयों को इन शब्दों के प्रयोग से रोका जा सकेगा? स्पीकर द्वारा यह स्पष्ट करना निहायत ज़रूरी है। अन्यथा इन सारी ‘‘उठा-पटक के बाद वही ‘‘बह्वारंभे लघुक्रिया’’ अर्थात ‘‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’’ जैसा अंजाम होगा।
अभी तक की जो परंपरा रही है, उसमें अध्यक्ष को यह विशिष्ट (एक्सक्लूसिव) विवेकाधिकार/विशेषाधिकार होता है कि उनकी नज़र में जो शब्द असंसदीय हैं, उन्हें वह विधानसभा कार्यवाही से निकाल दे। इस प्रकार कार्यवाही में शामिल होकर भी वे शब्द "तकनीकी" रूप से कार्यवाही के भाग नहीं होते है । लेकिन बात वहीं पर आकर सिमट जाती है कि जिस प्रकार एक चमचमाती, सफ़ेद शर्ट में दाग़ लग जाये तब धुलने के बाद दाग़ निकलने के बाद भी हल्के से चिन्ह रह जाते हैं, जो दाग़ लगने की याद हमेशा दिलाते हैं। ठीक उसी प्रकार विधानसभा की कार्यवाहियों में से असंसदीय शब्दों के विलोपन के बावज़ूद उन शब्दों की गूंज बनी रहती है। जिस प्रकार दाग़ के चिन्ह को पूर्णतः समाप्त करने के लिये एक शक्तिशाली डिटर्जेन्ट की ज़रूरत होती है, उसी प्रकार "माननीयों" पर उक्त व्यवस्था प्रभावी रूप से लागू करने के लिए एक स्ट्रांग कड़क व भारी दंड विधान लिये हुए क़ानून की आवश्यकता होगी। साथ ही यदि माननीयों की दी जाने वाली विभिन्न सुविधाएं, अनुलाभ पर अस्थाई रोक लगाकर आर्थिक चोट पहुंचाने से भी उक्त व्यवस्था प्रभावी रूप से लागू हो सकती है।
प्रश्न यह नहीं है कि "माननीय" कौन से शब्द सदन में बोल पायेंगे अथवा नहीं? बड़ा प्रश्न यह है कि कौन से शब्द "अपशब्द" होकर "असंसदीय" माने जायेगें? और उससे भी बड़ा प्रश्न यह कि ‘‘थूक कर चाटने" जैसी स्थिति के बजाय, अर्थात शब्दबाणों के द्वारा किसी की "पगड़ी उछालकर" और फिर सदन की कार्यवाही के रिकाॅर्ड से हटाने के बजाय, उनके बोलने पर कड़ी दंडात्मक कार्यवाही अर्थात सदस्यता निलंबन या सदस्यता समाप्ति जैसी कड़ी कार्यवाही का प्रावधान होना चाहिये। तभी क़ानून के डर के माध्यम से प्रभावी रूप से असंसदीय शब्दों को बोलने से रोकने में स्पीकर सफल हो पायेगें। क़ानून बनाते समय सज़ा की व्यवस्था करते हुए उसके पीछे मूल भावना भी यही होती है कि दंड ऐसा हो कि सिर्फ उसके डर से व्यक्ति क़ानून का उल्लघंन करने से डरे और बचे।
फिर एक और प्रश्न! विधानसभा जो "लोकतंत्र का मंदिर" कहलाता है, वहां तो इन शब्दों के प्रयोग पर रोक लगायी जाती है। परन्तु इन माननीय सदस्यों द्वारा किसी भी अन्य प्लेटफाॅर्म्स, सार्वजनिक स्थलों, टीवी डिबेट्स इत्यादि जगहों पर इनके इस्तेमाल को उचित और सही कैसे ठहराया जा सकता है? सभी जगह पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जाना चाहिये? जैसा कि एक फ़ारसी कहावत है ‘‘हर सुख़न मौक़ा व हर नुक़्ता मुक़ामे दारद’’ अर्थात हर वह बात जो किसी एक मौक़े पर ग़लत है, हर मौक़ा व मुक़ाम पर ग़लत होगी। जिस प्रकार कोई अपराध घर में किया जाये, सार्वजनिक या धार्मिक स्थल पर किया जाये, वह प्रत्येक दशा में अपराध ही होता है। साथ ही एक महत्वपूर्ण बात- ग़लत, असंसदीय व अपमानजनक शब्दों के प्रयोग पर यह प्रतिबंध सिर्फ ‘माननीयों‘ के लिए ही क्यों? बल्कि समस्त नागरिकों (जो इन माननीयों को चुनते हैं), के लिये भी क्यों नहीं होना चाहिये? जब वे शब्द ‘‘गाली’’ समान ही हैं।
एक बात और- चोर, मूर्ख नालायक़, बेवक़ूफ़, फेंकू, ये शब्द असंसदीय कैसे हो जाते हैं या हो सकते हैं? वस्तुतः ये समस्त शब्द तो किसी व्यक्ति के गुण-अवगुण या चरित्र को "मापने" का एक "बैरोमीटर" हैं। हाँ, यदि सामने वाले व्यक्ति को यह लगता है कि उसके प्रति तथ्यात्मक रूप से इन ग़लत शब्दों का ग़लत प्रयोग किया गया है, जिससे उसकी मानहानि हो रही हैं, तब वह उस व्यक्ति के विरूद्ध मानहानि के लिये सक्षम न्यायालय में जा सकता है। और हाँ; बंटाधार शब्द असंसदीय कैसे? आपको याद होगा वर्ष 2003 में म.प्र. विधानसभा के चुनाव में सुश्री उमाश्री भारती जी ने प्रथम बार बंटाधार शब्द का उपयोग किया था और वह जनता के बीच इतना चला व लोकप्रिय हुआ कि जनता ने उस एक शब्द के अर्थ को समझकर दिग्विजय सिंह की सरकार का बंटाधार कर उसे चलता कर दिया। और जब शब्द अनर्थ नहीं हुआ, तो असंसदीय कैसे? इस शब्द की उत्पत्ति ‘‘जावली‘‘ (74 बंगले स्थित कार्यालय) में स्व. ‘‘अनिल दवे’’ के नेतृत्व में बनी चुनाव प्रचार की नीति के तहत ही गढ़ी गई थी, ऐसा कहा और माना जाता था।
‘फेंकू’ शब्द को भी इसी प्रकार असंसदीय सीमा में लाना उचित नहीं होगा। क्योंकि जो उंची फेंकता है, अर्थात वास्तविक धरातल के विपरीत हवाई बात करता है, उसी को तो फेंकू कहा जाता है। यह एक वास्तविकता हैं। नालायक़, बेवक़ूफ़, भी रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आने वाले सामान्य प्रचलित शब्द हैं। परन्तु ‘‘पप्पू’’ निश्चित रूप से व्यक्ति विशेष के लिए चिन्हित मीडिया द्वारा गढ़ा हुआ शब्द है। ऐसा परसेप्शन बना दिया है। अन्यथा ‘‘पप्पू’’ शब्द अंससदीय शब्द कैसे हो सकता है। "पप्पू" मंदबुद्धि वाले व्यक्ति के लिये तीन शब्दों को एक शब्द में समाहित कर बनाया हुआ शब्द है। चोर शब्द के लिए जरूर साक्ष्य की आवश्यकता है। लेकिन वह भी असंसदीय शब्द नहीं है। बल्कि वह ग़लत-बयानी हो सकती है और ग़लत-बयानी असंसदीय नहीं कही जा सकती है। इसके लिये दूसरी, आपराधिक कार्यवाही विद्यमान क़ानूनों के तहत की जा सकती है।
इस मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण बात जो छूट गयी है, और जिस पर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ है, वह यह कि माननीयों पर तो असंसदीय शब्द के प्रयोग पर रोक लगा दी गयी है, परन्तु माननीय स्पीकर ही यदि इन शब्दों का प्रयोग करने लगें तब उन पर रोक कौन लगायेगा? इसका सीधा उत्तर फिलहाल यहां पर नहीं है। लोकतंत्र के मन्दिर "विधानसभा" के समस्त सदस्यों (विधायकों) के अधिकार समान होते है। स्पीकर भी एक विधायक ही होता है। अतः उसके अधिकार, दायित्व व कर्त्तव्य भी एक समान ही हैं। परन्तु स्पीकर को यह विशेषाधिकर अवश्य होता है कि वह सदन की कार्यवाही को किस तरह से चलाये। अतः लोकतन्त्र में यह कल्पना करना कि स्पीकर की आसंदी पर बैठने वाला विधायक अध्यक्ष के रूप में ऐसी ग़लती नहीं करेगा या नहीं कर सकता है, न्यायोचित नहीं होगा। ‘‘किंग्स मेक्स नो मिस्टेक‘‘ अर्थात राजा कोई ग़लती नहीं करता है के सिंद्धान्त को लोकतंत्र में स्पीकर पर लागू करना एक ख़तरनाक स्थिति होगी। अतः इस उल्लघंन को रोकने की प्रक्रिया भी स्वयं स्पीकर को ही तय करनी चाहिये, जिसे माननीयों की ली जाने वाली क्लास में बताया जाना चाहिये।
अंत में यह बहुत ही दुर्भाग्य ही नहीं वरन अत्यंत एक शोचनीय स्थित है कि देश के संसदीय/विधायिकी इतिहास के लगभग 75 साल पूर्ण होने वाले हैं, और जिसका ध्येय वाक्य आचार: परमो धर्मः होना चाहिये, बावज़ूद इसके, “माननीयों“ को क्या संसदीय है, और क्या असंसदीय है, यह सिखाने की आवश्यकता अभी भी पड़ रही है। अर्थात “तमीज़“ सिखाने की आवश्यकता पड़ रही है। मतलब बदतमीज़ को तमीज़ सिखाना असंसदीय नहीं कहलायेगा? देश का यह कैसा “परिपक्व“ होता लोकतंत्र है, जो कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता हैै? वैसे असंसदीय शब्दों के उपयोग पर रोक ‘‘भारतीय संस्कृति’’ की रक्षा में उठाया गया यह क़दम ही माना जायेगा, जिसके संरक्षण एवं संवृद्धि का दावा भाजपा करती आयी है। इस दृष्टि से ‘‘व्यवहारिक’’ रूप में भाजपा को साधुवाद! क्योंकि तकनीकी रूप से तो यह क़दम यद्यपि स्पीकर (जो कि निष्पक्ष एवं दल विहीन होता है) ने उठाया है। परन्तु एक झंडा, एक राष्ट्रभाषा, कर की एक दर इत्यादि का झंडाबरदार होने के कारण भाजपा को भाषा, संस्कृति की सुरक्षा में उठाये जाने वाले क़दम को विधानसभा के ‘वेल’ से बढ़ाकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश में लागू करने का प्रयास करना होगा। क्योंकि संसद व अधिकतर विधानसभाओं में भाजपा का शासन होने के कारण वास्तविकता में पार्टी द्वारा चयनित व्यक्ति ही स्पीकर होते हैं।
यह “लेख“ डीएनएन चैनल पर हुई डिबेट के विषय को लेकर विस्तारित किया गया है, जिसमें मैं भी शामिल हुआ था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें