प्रधानमंत्री ने ओलंपिक खेलों में अर्जित उल्लेखनीय उपलब्धियों को ‘‘ध्यान’’ में रखते हुये ख़ासकर पुरूष व महिला हॉकी टीमों की असाधारण प्रर्दशन के साथ उल्लेखनीय सफलताएँ (ओलंपिक इतिहास में पहली बार महिला हॉकी टीम गत विजेता को हराकर सेमीफाइनल में पहुंची) मिलने पर‘‘ खेल का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘‘राजीव गांधी खेल रत्न’’ का नाम बदलकर ‘‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न‘‘ नाम करने की घोषणा की। परंतु यहां पर ‘‘किसी‘‘ को पुरस्कृत करने के बजाए ‘‘दूसरे‘‘ को तिरस्कृत करने की भावना ज्यादा दिखती है। अन्यथा नाम बदलने के बजाय एक नए राष्ट्रीय खेल पुरस्कार की घोषणा की जाती? आमतौर पर जब किसी को पदक देकर या उनके नाम के पुरस्कार की घोषणा कर सम्मानित किया जाता है, तब उनके लाखों करोड़ों प्रशंसकों में प्रसन्नता की लहर सी दौड़ जाती है। परन्तु यहां पर तो सर्वोच्च खेल पुरस्कार का नाम ध्यानचंद के नाम पर "स्थानापन्न" करने के निर्णय की जानकारी मिलने पर उनके प्रशंसको के सालों पुराने खुदरे घाव ‘‘भरे‘‘ न होकर ‘‘हरे भरे‘‘ हो कर "तरोताजा" हो गये। देश कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक सूत्र, एक आवाज में सिर्फ और सिर्फ ध्यानचंद को ‘‘भारत रत्न’’ देने की माँग लंबे समय से करते चला आ रहा है। यह माँग तब और तेज हुई जब, देश में पहली बार ‘‘खेल‘‘ (स्पोर्ट्स) में वर्ष 2014 में क्रिकेट के ‘‘मसीहा‘‘ कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया गया। ‘‘एक नजीर सौ दलीलों से बेहतर होती है‘‘। यद्यपि इसके पूर्व खेल में ‘‘भारत रत्न’’ देने की कोई प्रथा या नियम नहीं था।
मेरे कई साथियों ने कहा कि आज सचिन व ध्यानचंद की तुलना करने का समय नहीं आ गया है क्या? उनकी श्रेष्ठता की तुलना में आप लेख लिखिये। दोनों में से सर्वश्रेष्ठ कौन है? यह बतलाइये। वाल्मीकि रामायण में कहा गया हैः-‘‘अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः‘‘ अर्थात ‘‘अप्रिय किंतु सत्य बात कहने वाले वक्ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ होते हैं‘‘। मैंने कहा दोनों देश के सर्वकालीन अपने अपने क्षेत्र के बेजोड़ "हीरो (लीजेंड़)" है और उनकी तुलना करना उचित, सामयिक व संभव नहीं है। परंतु बारम्बार अनुरोध पर मैंने आगे तुलना करने का दुःष्साहसिक प्रयास किया है। आखि़र ‘‘ख़लक का हलक़ कौन बंद कर सकता है‘‘। किसी भी व्यक्ति की भावना को ठेस न तो मैं पहुंचाना चाहता हूं न ही यह उद्देश्य है। लेकिन जब लगातार यह कहां जाये कि सर्वश्रेष्ठ में सर्वश्रेष्ठ (बेस्ट ऑफ द बेस्ट) कौन है, तब यह कार्य भी करना पड़ता है।
ध्यानचंद अपनी करिश्माई खेल के कारण पूरे विश्व में हॉंकी के ‘‘जादूगर‘‘ कहलाये। वर्ष 1928 के अपने प्रथम ओलंपिक में ही ध्यानचंद द्वारा 14 गोल करने पर नीदरलैंड (हालैंड) के अधिकारियों ने शंका व्यक्त करते हुये कहा कि कहीं उनकी हॉकी में चुम्बक तो नहीं लगी हुई है? और वह आशंका निराधार पाए जाने पर उन्हे ‘‘हॉकी का जादूगर’’ कहा गया। विश्व के वे एक मात्र सर्व कालीन हॉकी के जादूगर कहलाए, क्योंकि उनके पहले और बाद में आज तक विश्व में कोई भी हाॅकी खिलाड़ी निसंदेह उन ऊंचाईयों, क्षमता और प्रतिभा को छू नहीं पाया है, जिसके लिये ध्यानचंद जाने जाते हैं। और उनकी अविच्छिन्न (अनवरत), पहचान, परसेप्शन, उन्हे विश्व का अभी तक का सबसे बड़ा हॉकी का खिलाडी के रूप में ‘‘पर्याय’’ व मिथक बनाती है। (भूतो न भविष्यति)
सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के ‘‘भगवान‘‘ कहे जाते हैं। विश्व क्रिकेट के इतिहास में सबसे ज्यादा रिकार्ड शायद उनके ही नाम से हैं। यद्यपि 20वीं सदी में सुनील गावस्कर ने कई विश्व रिकार्ड बनाकर क्रिकेट में भारत का झंडा गाड़ा था। तब यह कहा जाता था ‘‘सन्नी‘‘ जैसा कोई नहीं? लेकिन क्रिकेट खेल ही ऐसा है, जहां ‘‘रिकार्ड बनते ही तोड़ने‘‘ के लिए। इस कारण ‘‘लिटिल मास्टर‘‘ सुनील गावस्कर के रिकार्ड को सचिन तेंदुलकर ने तोड़कर विश्व क्रिकेट में अपना एक अलग स्थान बनाकर ‘‘मास्टर ब्लास्टर‘‘ कहलाए। परन्तु ऐसा लगता है विराट कोहली से लेकर वर्तमान में खेल रहे क्रिकेटरस, सचिन के समस्त नहीं तो कुछ रिकार्डो को तो भंग कर (तोड़) सकते है। क्रिकेट व हॉकी के खेल में यह एक मौलिक अंतर है। एक तरफ जहां सामान्य कल्पना के बाहर कठिन रिकार्ड (हॉकी) बनाना मुश्किल होता है, वही दूसरी ओर (क्रिकेट) रिकार्ड तोड़ने के लिए ही बनाया जाते हैं और टूटते है।
सचिन द्वारा बनाएं प्रत्येक रिकार्ड को यदि एक जगह समाहित किया जाए तो एक किताब लिखी जा सकती है। इन रिकार्ड दर रिकार्ड बनाने के कारण ही वे क्रिकेट के ‘‘भगवान‘‘ कहलाये। ‘‘भगवान‘‘ का अर्थ ‘‘आस्था‘‘ से जुड़ा है, जो एक ‘‘जीवन‘‘ आसमान की ओर टकटकी निगाहों से ‘‘भगवान‘‘ को महसूस कर अपनी आस्था को मजबूत कर अच्छे जीवन निर्वाह की ओर चल पड़ता है। वहीं दूसरी ओर जादूगर की ‘‘जादूगरी की कला से‘‘, कला प्रेमी जनता मोहित, मंत्रमुग्ध होकर उसको अपनाने का प्रयास करती है। इस प्रकार जादूगरी ‘‘उत्प्रेरणा‘‘ (उत्प्रेरक) का कार्य करती है। जबकि ‘‘भगवान प्रेरणा‘‘ का कार्य करते है। इन दोनों में आश्चर्य करने वाली विरोधाभासी दिखनी वाली स्थिति यह हैै कि ‘‘लौकिक’’ रूप से हम ‘‘भगवान’’ को ‘‘अलौकिक‘‘ रूप में देखते है। जबकि वास्तविकता में ‘‘भगवान‘‘ (सचिन तेंदुलकर) आज भी हमारे आँखों के सामने हैं। ईश्वर उनको खू़ब लम्बी आयु दे, ताकि लंबे समय तक वे क्रिकेटर्स के प्रेरणास्रोत बने रहें। विपरीत इसके ‘‘जादूगर‘‘ (हाॅकी के) जो ‘‘लौकिक‘‘ रूप में से ही जादूगरी दिखा सकता है, वह ‘‘अलौकिक‘‘ हो गए। अब उनकी यादों और वीडियो के माध्यम से ही हम उन्हे महसूस व देख सकते है। वास्तविक दर्शन नहीं कर सकते हैं। ‘‘जिंदगी भले ही एक ही पीढ़ी की होती है लेकिन शोहरत पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है‘‘।
एक और कारण दोनों ध्यानचंद और सचिन तेंदुलकर के व्यक्तित्व को अलग ठहराती है। जर्मन शासक, तानाशाह एडोल्फ हिटलर ने वर्ष 1936 ओलंपिक में ध्यानचंद के करिश्माई खेल के कारण जर्मनी को बुरी तरह से (8-1) से हराने पर ध्यानचंद को जर्मन नागरिकता, जर्मनी की तरफ से खेलने एवं मुहमांगी भारी धनराशी देने का प्रस्ताव किया था, जिसे उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए यह कहा था कि ‘‘मुझे भारतीय ही बने रहने दीजिये‘‘। चूंकि बात ब्रिटिश इंडिया के समय की थी, इसलिए बात ‘‘नागरिकता‘‘ तक जा पहुंची थी। परंतु सचिन स्वतंत्र भारत के जन्मे भारतीय नागरिक हैं। इसलिए उन्हें ध्यानचंद जैसी परिस्थितियों से गुजरना नहीं पड़ा। दोनों के बीच समय परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर होने के कारण ही सचिन "लोकप्रिय ब्रांड" बन कर अरबों के मालिक हुए, तो ध्यानचंद ‘‘ठन ठन गोपाल‘‘। तथापि हाॅकी के कारण ही उन्हे सेना में पदोन्नती मिलती गई। सचिन को जब वर्ष 2014 में ‘‘भारत रत्न’’ दिया गया तब इलेक्ट्रानिक मीडिया का तुलनात्मक रूप से अत्यधिक विस्तार और प्रभावी होने के कारण तेंदुलकर सिर्फ क्रिकेट के ही नहीं बल्कि देश के एक बहुत प्रसिद्ध व लोकप्रिय व्यक्ति बन गये।
हाॅकी देश का राष्ट्रीय खेल है, (अधिकृत रूप से नहीं) तो क्रिकेट सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। ‘प्रसिद्धि‘ का यह अंतर ही दोनों के व्यक्तित्व में भी अंतर ड़ालता है। 16 नवंबर 2013 में राजनैतिक दृष्टि व कारणों से वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए तत्कालीन शासक पार्टी ने ध्यानचंद के ज्यादा मजबूत दावे को तथा पीएमओं द्वारा दी गई लगभग स्वीकृति को दरकिनार करते हुए सचिन की लोकप्रियता का फायदा उठाने के लिये न केवल सचिन को भारत रत्न देने की घोषणा की गई। बल्कि इसके पूर्व उन्हे राज्यसभा में भी (वर्ष 2012में) नामांकित किया गया था। उन्हे "पद्मविभूषण व राजीव गांधी खेल रत्न" से भी नवाजा गया। इस प्रकार सचिन तेंदुलकर का अप्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक उपयोग किया गया। सचिन ‘‘ढाई दिन की बादशाहत‘‘ को इंकार कर नहीं सके, जैसा कि ‘‘गायत्री परिवार‘‘ के प्रमुख डा. प्रणव पंड्या ने राज्यसभा से मनोनीत किए जाने का प्रस्ताव मिलने पर विनम्रता पूर्वकअस्वीकार कर दिया था। और यहीं पर सचिन का व्यक्तिगत व्यक्तित्व (खेल का नहीं) कहीं न कहीं तुलनात्मक रूप से ध्यानचंद की तुलना में कमोत्तर प्रतीत होता सा दिखता है।
एक और अंतर दोनों के ‘‘नामकरण‘‘ को लेकर दिखता है। ध्यानचंद ‘द्ददा’ का मूल नाम ‘‘ध्यान सिंह‘‘ था। ध्यान सिंह को सेना के प्रशिक्षण से दिन में समय न मिल पानी से वे रात्रि में प्रकाश के अभाव के कारण चंद्रमा की रोशनी में अभ्यास करते थे, जिस कारण से उनका नाम ‘‘ध्यान चंद‘‘ हो गया। अर्थात ‘‘कर्म‘‘ के कारण उनका नाम "ध्यानचंद" हुआ। इसके विपरीत सचिन का नाम उनके पिता ने अपने चहेते तत्कालीन प्रसिद्ध संगीतज्ञ "सचिन देव बर्मन" के नाम पर किया था।
अंत में विश्व क्रिकेट के "अजूबा", "मसीहा" कहे जाने वाले भीष्म पितामह "सर डॉन ब्रेडमैन" ने ध्यानचंद और सचिन के बाबत् जो कहा था उससे आपको दोनों व्यक्तित्व का मूल्यांकन समझ में आ जायेगा। ऑस्ट्रेलिया में एक मैच के दौरान ताबड़तोड़ गोल करने देख मैच समाप्ति के बाद डॉन ब्रैडमैन ने ध्यानचंद से कहा ‘‘आप तो ऐसे गोल कर रहे थे मानो रन बना रहे है’’। इसी प्रकार सचिन के बाबत् कहा था ‘‘वह सचिन में अपना ‘‘अक्श‘‘ देख रहे है’’।
इस देश की "माटी के दोनों लालों" के द्वारा देश का नाम "विश्व पटल" पर पहुंचाने के लिए मैं उन्हे प्रणाम करता हूं। और साधुवाद।
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