बिना ‘‘जांच के ‘‘एफआईआर‘‘ की ‘‘वापसी‘‘ या ‘‘नस्ती‘‘ कानूनी रूप से कितनी ‘‘उचित‘‘ है?
लोकतंत्र में चुना हुआ लोकप्रिय शासन (सरकार) प्रशासन के माध्यम से जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति करने का प्रयास कर ‘‘जन सेवा’’ करने में प्रयासरत रहता है। लोकतंत्र की सही यही पहचान है। ‘शासन’ के संबंध में प्रशासन का मतलब मुख्य रूप से ‘सामान्य प्रशासन’, ‘न्याय प्रशासन’ और ‘पुलिस प्रशासन’ से होता है। पृथक-पृथक स्वतंत्र अस्तित्व लिए परस्पर बेहतर सामंजस के साथ उक्त तीनों भागों (अंगों) द्वारा कार्य करने पर ही शासन; शासन करने में सफल हो सकता है। पुलिस प्रशासन; शासन का एक महत्वपूर्ण अंग होता है, जिसकी कार्यप्रणाली पर ही जनता के बीच शासन की छवि निर्भर करती है। पुलिस कार्यप्रणाली पर चर्चा करने पर स्वाभाविक रूप से ‘‘एफआईआर‘‘ शब्द सामने आ जाता है।उक्त भूमिका लिखने का तात्पर्य मात्र यह है कि वर्तमान में असम व मिजोरम के बीच दुर्भाग्यवश चल रही पुलिसिया झड़पे व तनातनी के दुष्परिणाम व दुष्प्रभाव व उससे उत्पन्न बिन्दु का एक गंभीर आकलन हो सके।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में किन्ही राज्यों जिनकी सीमाएँ परस्पर मिलती है, के बीच खूनी झड़प पुलिस बलों के बीच नहीं हुई, जैसी की दुर्भाग्यवश असम और मिजोरम की पुलिस के बीच कछार जिले में अंतर-राज्यीय सीमा पर हाल (26 जुलाई) में ही हुई झड़प में असम पुलिस के 5 जवान सहित सात लोग मारे गए। ‘‘स्ट्रेटिजिक ऑफेसिव प्रिसिपल ऑफ वार’’ राष्ट्र के दो प्रदेशों के बीच लागू नहीं होता है। यद्यपि सीमा विवाद को लेकर दोनो राज्यों के बीच नागरिकों का परस्पर संघर्ष व नागरिकों व पुलिस के बीच संघर्ष का विवाद तो पुराना है। एक राज्य के लिए वे जवान ‘‘शहीद‘‘ हुए तो दूसरे राज्य के लिए क्या...? ‘‘अपने बेरों को कोई खट्टा नहीं बताया’’। देश के गृहमंत्री अमित शाह द्वारा 25 जुलाई को शिलांग में ली गई समस्त पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री की बैठक के तुरंत बाद हुई यह घटना ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश एक है‘‘ पर एक ‘‘कलंक‘‘ है।
लेख के मुख्य विषय ‘‘एफआईआर‘‘ पर आ जाएं। दोनों राज्यों के बीच हुए उक्त खूनी संघर्ष के बाद मिजोरम सरकार ने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा नौकरशाहों सहित 6 पुलिस के अधिकारियों व अन्य 200 अज्ञात पुलिस कर्मियों के विरुद्ध हत्या के प्रयास और आपराधिक षड़यंत्र के अपराध की एफआईआर अर्थात् प्रथम सूचना पत्र दर्ज कर ली। यद्यपि मिजोरम के मुख्य सचिव ने यह कथन जरूर किया है कि मुख्यमंत्री ने सरमा को शामिल करने की मंजूरी नहीं दी है। मुख्यमंत्री के विरूद्ध ऐसी शायद प्रथम एफआईआर है। यद्यपि कुछ समय पूर्व ही विभिन्न शहर का नाम बदलने को लेकर अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के विरूद्ध स्टुडेंट यूनियन ने एफआईआर दर्ज की थी। इसी प्रकार असम पुलिस ने भी मिजोरम के राज्य सभा सदस्य के. वनलावेना व अनेक पुलिस अधिकारियों के विरूद्ध हत्या के प्रयास सहित विभिन्न धाराओं में आपराधिक प्रकरण दर्ज किए गये हैं। तदनुसार दो राज्यों की पुलिस ने प्रकरण दर्ज व्यक्तियों के उपस्थित होने हेतु समनस् भेजे। केंद्रीय गृह मंत्री के हस्तक्षेप के बाद मिजोरम के मुख्यमंत्री ने असम के मुख्यमंत्री के विरूद्ध एफआईआर वापस लेने का निर्णय लिया, तदनुसार असम के मुख्यमंत्री ने भी राज्यसभा सांसद के विरूद्ध वापस लेने का निर्देश दिया, ताकि परस्पर बातचीत का वातावरण बन सके।
सबसे बड़ा प्रश्न यहां यही उत्पन्न होता है की एक दर्ज एफआईआर क्या बिना जांच के राजनीतिक अथवा क़ानून व्यवस्था के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वापस ली जा सकती है? प्रथम सूचना पत्र दर्ज होने के बाद ही जांच प्रारंभ की जाकर तथ्य पाए जाने पर सक्षम न्यायालय में अपराध/अपराधों के विरुद्ध चालान प्रस्तुत किया जाता है। अथवा एफआईआर के तथ्य; तथ्यहीन पाये जाने पर प्रथम सूचना पत्र नस्ती (फाईल) भी की जा सकती है। न्यायालय में चालान प्रस्तुत होने के बाद भी शासन के अनुरोध पर न्यायालय की अनुमति से अपराधिक प्रकरण वापिस लिया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 154 में यही व्यवस्था है।
अतः एफआईआर संज्ञेय अपराध का पहला लिखित महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है, जिसका दुरूपयोग राजनैतिक हथियार के रूप में नहीं किया जाना चाहिये। परन्तु वर्तमान में हमारी शासन व्यवस्था इस तरह की हो गई है कि पुलिस प्रशासन स्वतंत्र रूप से कार्य करने में स्वयं को लगभग अक्षम पाते हैं। राजनैतिक दबाव के चलते एफआईआर दर्ज होने से लेकर जांच प्रक्रिया व निष्कर्ष तक प्रभावित होती है। अर्थात् राजनैतिक सत्ता का भरपुर (दुरू)/(उ)पयोग पुलिस प्रशासन के माध्यम से अपराधिक मामलों में हस्तक्षेप करने में होता है। यह कटु सत्य पुनः असम व मिजोरम सरकारों द्वारा परस्पर एक दूसरे के विरूद्ध एफआईआर दर्ज करने से लेकर फिर वापिस लेना से स्थापित होती हैं। क्योंकि दोनों मामलों में एफआईआर तथाकथित घटित हुये अपराध के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आने वाले जांच अधिकारी (थाना/चौकी) द्वारा स्वयं न की जाकर घटना की जांच किये बिना मुख्यमंत्री के निर्देशों पर की गई। फिर वापिस लेने की कार्यवाही भी मुख्यमंत्री के निर्देशों पर की गई। गोया शासन का कार्य एफआईआर दर्ज करना या वापिस लेना ही रह गया है? इस प्रकार यहाँ पर भी दोनों सरकारों द्वारा एफआईआर का (उ)/(दुरू)पयोग एक राजनैतिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु राजनैतिक टूल के रूप में किया गया है व जा रहा है जो संवैधानिक, का़नूनी व नैतिक रूप से सिद्धांतः गलत है। क्योंकि इस प्रकार शासनाधिकार का दुरूपयोग होने से यह दुरूपयोग प्रायः अपने राजनैतिक विरोधियों के विरूद्ध व उपयोग हितेषियों के लिये होता रहा है व रहेगा, जिस पर रोक लगाये जाने की अत्यंत आवश्यकता है। तभी आम जनता का पुलिस तंत्र की क्षमता, कार्यकुशलता व निष्पक्षता पर विश्वास जम पायेगा।
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