शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

31 अगस्त! अमेरिका ‘‘आतंकवाद’’ को ‘‘समाप्त’’ या ‘‘मजबूत’’ करने के लिए ‘‘जिम्मेदार’’ माना जायेगा?

विश्व की 3 प्रमुख शक्तियों में से एक, बल्कि कुछ एक मामलों में तो दोनों प्रभावशाली देशों चीन व रूस से भी ज्यादा बड़ी महाशक्ति अमेरिका है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका के नाम से जानी जाती है। यह महाशक्ति अतीत में विभिन्न मामलों में विश्व के विभिन्न देशों को अपनी शर्त्तो को मनवाने के लिये चेतावनी व डेडलाइन देती रही है। परन्तु ‘उल्टी गंगा’ देखिये! एक छोटे से ‘‘तालिबान’’ ने अफगानिस्तान की जमीन से समस्त विदेशी सैनिकों की वापसी की 31 अगस्त की डेडलाइन (समय सीमा) देकर और उसका समयावधि के समाप्त होने के 24 घंटे पूर्व ही सुपर पॉवर अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, नाटो देश सहित समस्त विदेशी फौजों की रवानगी कराकर डेडलाइन का पालन करवाकर अपनी ताकत का लोहा मनवाकर विश्व को चौंका दिया। हमारी संस्कृति में एक बड़ी कहावत है ‘‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’’ लेकिन अमेरिका के अम्यर्पण (लगभग समर्पण) ने इस मुहावरे को ही बदलकर ‘‘ऊट कंकड के नीचे’’ कर दिया है। स्वयं अमेरिका ने इसे विश्व का सबसे बड़ा एयर लिफ्ट बतलाया, जिसमें 123000 से ज्यादा लोगो को लिफ्ट कर अफगानिस्तान से बाहर लाया गया। 2 फरवरी 2020 के ‘‘दोहा’’ में अमेरिका (ट्रम्प प्रशासन) व तालिबान के बीच शांति समझौता होकर अमेरिका सेना की अफगानिस्तान से वापसी पर सहमती बनी थी, जिसके तारतम्य में अतंतः विदेशी सेनाओं की उक्त वापसी की कार्यवाही पूर्ण हुई।

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यहाँ पर यह है कि अफगानिस्तान में 20 साल रहकर भी अमेरिका ने ‘‘क्या खोया और क्या पाया’’? एक तो यह निश्चित रूप से अमेरिकन नागरिकों के सोचने का विषय है। लेकिन दूसरा विश्व पर वर्तमान व आगे इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह भी एक सोचनीय विषय है। 11 सितम्बर को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के वर्ल्ड ट्रेंड़ सेंटर में ‘‘अलकायदा’’ द्वारा विश्व के इतिहास में सबसे बड़ा नुकसानदायक आतंकवादी हमला किया गया था, जिसमें 57 देशों के करीब 3000 (2996) लोगों की दर्दनाक मौत हुई थी। 9/11 के हमले के एक महीने बाद से ही अमेरिका ने 2 मई 2011 को (‘‘ऑपरेशन इंड्योरिंग फ्रीडम’’) के तहत तालिबान के खि़लाफ युद्ध छेड़कर अफगानिस्तान में चल रही तालिबानियों की सरकार को न केवल सत्ता से अपदस्थ कर नई सरकार का गठन किया, बल्कि 9/11 के लिए जिम्मेदार आंतकवादी नेता अलकायदा सरगना (प्रमुख) ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के भीतर घुसकर एबटाबाद शहर में निस्तनाबूद किया। 

इस लड़ाई में अमेरिका ने न केवल अपनी सेनाएं बल्कि करोड़ों की संख्या व अरबों डॉलर के अत्याधुनिक हथियार, साजो समान जैसे एम 16 असाल्ट रायफलें, माइन गाडी़ बख्तरबंद गाडियां, ब्लैक हॉक, हेलीकॉपटर, फाइटर बांबर आदि अमेरिकन व अफगानिस्तान के सैनिकों को उपलब्ध कराता रहा। एक अनुमान के अनुसार तालिबान से लड़ाई में अमेरिका अभी तक 2 बिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च कर चुका है। अमेरिका पर हुये इस आतंकवादी हमले के 20 वर्ष पूरे हो रहे है। तब यह प्रश्न बेहद प्रांसगिक हो जाता है कि 31 अगस्त को अमेरिका ने अफगानिस्तान को छोड़ते समय ‘‘कसाई के खूंटे’’ से बांधकर जाते-जाते विश्व को क्या दिया? 

सबसे दुभार्गयपूर्ण व चिंताजनक स्थिति विश्व के लिए 31 अगस्त को जो बन रही है, उसने चिंता में ड़ाल दिया है। वह यह कि अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान छोड़ते समय इन घातक हथियारों को न तो पूर्णतः नष्ट ही किया गया और न ही अमेरिकन सैनिक इन्हे अपने साथ ले गये। बल्कि ऐसा लगता है कि वे हथियार उन तालिबानियों को अमेरिकन सौनिकों को सुरक्षित जाने देने के रास्ते के बदले में चौथ वसूली के रूप में सौंप दिये गये है। कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका ने फायटर हेलीकॉप्टर व प्लेन को निष्क्रिय किया है। लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि ये निष्क्रिय किये गये हथियार सुधारे जाने योग्य होकर उपयोग लायक है कि नहीं? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका अपने लड़ाकू एयरक्राप्ट को उड़ाकर वापिस अमेरिका क्यों नहीं ले आये? अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलने की इससे बेहतर नज़ीर और कुछ हो नहीं सकती है कि‘‘निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन, बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’’। 

तालिबानी मूलतः आंतकवादी रहे हैं जो एक कट्टर सुन्नी इस्लामिक संगठन है। जिसे वर्ष 1994 में पाकिस्तानी आएसआई की छत्र छाया में ही आतंकवादी मुजाहिद कमांडर मोहम्मद उमर ने स्थापना की थी। तालिबानियों की पहचान पूरे विश्व में एक आंतकवादी संगठन के रूप में रही है। जब पहली बार तालिबानी अफगानिस्तान में सत्ता में आये, तब मात्र तीन इस्लामिक देशों पाकिस्तान, सउदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात ने ही मान्यता दी थी। जबकि आज जब लगभग 90 देशों ने सुरक्षित निकलने के लिए तालिबानियों ने समझौता किया है। यद्यपि ‘‘सज्जनों और दुर्जनों’’की मैत्रीछाया रूपी होती है किंतु विश्व में तालिबान की स्थिति और उसके प्रति विश्व दृष्टिकोण में यह अंतर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। इससे भारत का सबसे ज्यादा चिंतित होना स्वाभाविक हैं। क्योंकि वह पहले से ही पाकिस्तानी आंतकवादियों से जूझ रहा है, उनका सामना कर रहा है। तालिबानियों को भी पाकिस्तान की जमीन से लेकर हथियारों व पैसों तक का संरक्षण प्राप्त रहा है। क्योंकि ‘‘चूहे का जाया बिल ही खोदता हैं’’। चूंकि पाकिस्तानी मूल की तुलना में पंख्तून ज्यादा बहाद्दुर व उग्रवादी होते है। अंतः उनके आतंकवादी होने पर भारत के लिए समस्या का बढ़ना स्वाभाविक है। प्रेसीडेंट जो बाइडेन ने तालिबान की तुलना में अलकायदा व आएसआइएस को ज्यादा खतरनाक आतंकवादी संगठन बतलाया है। जिससे अमेरिका का पूर्णतः स्वार्थ प्रकृट होते दिखता है। 

प्रश्न यह उठता है कि क्या अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में इस बेहद गैर जिम्मेदाराना व्यवहार व पूर्ण स्वार्थ से भरी कार्यवाही के कारण आतंकवाद को मजबूत करने के लिये मजबूत खुराक देने के लिये जिम्मेदार नहीं ठहराया जायेगा? यह अधिकार किसी भी देश को नहीं है कि अपने वतन के लोगों की जान बचाने के लिए दूसरे वतन के लोगों की जान की सुरक्षा को खतरे में ड़ाले। भारत सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के महत्वपूर्ण पद पर विराजमान है। देश का नेतृत्व एक मजबूत और विश्व में अपनी मजबूती के लिए जाने जाने वाले नरेंद्र मोदी के ह़ाथों में है। दोहा में तालिबान प्रतिनिधि व भारतीय राजदूत के बीच हुई औपचारिक मुलाकात-बातचीत का स्वागत किया जाना चाहिये। चूंकि उक्त बातचीत तालिबान के पहल पर की गई, मतलब ‘निंद्रा’ से भारत को उसी तालिबान ने उठाया जिन्हे ही निंद्रा के लिये जिम्मेदार माना था, जैसा कि मैने पूर्व में लिखा था। भारत की अध्यक्षता में हुई सुरक्षा परिषद की बैठक में अफगानिस्तान की धरती का आतंकवाद के लिये उपयोग न होने का प्रस्ताव उपस्थित 13 सदस्यों की सर्वसम्मति से पारित हुआ है। तथापि चीन व रूस इसमे अनुपस्थित रहे। विश्व के देशों के नागरिक व सरकारें यह उम्मीद करती है कि भारत अपना रोल इस समय बखूबी निभाएं। 

धन्यवाद।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Popular Posts