अमेरिका सेना की वापसी के प्रेसीडेंट ‘‘जो बाइडन’’ के निर्णय के परिणाम स्वरूप अफगानिस्तान में नई तालिबानी हुकुमत का शासन होकर वह जब से स्वतंत्र हुआ है और अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में तालिबान ने अपना झंडा फहराकर एक प्रदेश पंजशीर घाटी को छोडकर शेष प्रदेशों पर रा प्रायः अपनी हुकुमत स्थापित की हैं। तब से ही मेरे कई सहयोगी और मीडिया मित्रों ने मुझ से बार-बार यह अनुरोध किया कि ’’तालिबान’’ पर आपका अभी तक कोई लेख नहीं आया है, जबकि ज्वलंत विषयों पर प्रायः आपके लेख आते हैं। अतः आप इस विषय पर एक लेख जरूर लिखिए।
वास्तव में अफगानिस्तान में लगभग 2300 अमेरिकी सैनिकों के मारे जाने के बाद अमेंरिका सेना की वापसी के साथ ही तालिबानी-अफगानिस्तान संबंधी “इतनी अधिक बहुआयामी सामग्री“ भारत सहित विश्व पटल पर मीडिया के विभिन्न माध्यमों से आ चुकी हैं कि लेख लिखने की हिम्मत ही नही कर पाया। वैसे भी वरिष्ठ सम्मानीय पत्रकार स्तंभ लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष डॉ वेद प्रताप वैदिक (जिन्होनें मेरे लेखों के संकलन की किताब ‘‘कुछ सवाल जो देश पूछ रहा है आज?’’ का विमोचन किया था), विदेश नीति मामलों के विशेषज्ञ, खासकर भारत-अफगान नीति के मर्मज्ञ माने जाते हैं। वे अभी तक इस विषय पर 5 लेख लिख चुके हैं, जहां पर डॉ वैदिक ने भारत-अफगान-तालिबान नीति की सारगर्मित विवेचना की है। इस कारण से भी लेख लिखने की जरूरत महसूस नहीं हुई। फिर भी डॉ. वैदिक द्वारा विस्तार से लिखे गए मुद्दों को स्वीकारते हुए इस लेख में मैं कुछ अनछुए भावों को लेकर यह लेख डॉ. वैदिक को समर्पित करता हूं। लेख इसलिए भी लिख रहा हूॅ कि मेरे शुभ चिंतकों द्वारा स्वयं मुझ पर भी कुंभकरण की नींद के आरोप न लग जायें, जैसा कि इस लेख में सरकार पर लग रहे हैं।
एक कहावत है ’’दीवाल पर जो इबारत लिखी हो, उसे व्यक्ति ने हमेशा पढ़ना चाहिए’’ चाहे वह उसके कितनी ही खिलाफ क्यों न लिखी गयी हो। तभी भविष्य में उस मुद्दे व समस्या से निपटा जा सकता है। ’’तालिबान’’ के मामले में उक्त मुहावरा वर्तमान में भारत सरकार पर “सटीक“ सा बैठता है। विश्व में खासकर पडोसी देशो में हो रही राजनैतिक अस्थिरता, आंतरिक युद्ध व सत्ता पलट की स्थिति में देश के नेतृत्व का सबसे बड़ा कर्त्तव्य व सर्वोपरि जिम्मेदारी अपने राष्ट्रीय हितों की अनिवार्य रूप से रक्षा करना होती हैं। दुर्भाग्यवश भारत पडोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा (रूस-अमेरिका को घुटने टिकवाकर) रचे गये इतिहास को सिर्फ इसलिए पढ़ने का प्रयास नहीं कर रहा हैं, कि तालिबान को वह दुश्मन देश मानकर (जो वास्तव में है भी), उसके वर्तमान अस्तित्व को स्वीकार करने की मनोदशा फिलहाल भारत की लगती नहीं है। तथापि तालिबान समस्या से विश्व में सबसे ज्यादा लंबे समय तक प्रभावित यदि कोई देश रहेगा तो वह सिर्फ ‘‘भारतीय महाद्वीप’’ का देश भारत ही है। क्योंकि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओकेे) की 106 किलोमीटर की सीमा अफगानिस्तान से लगती हैं। जैसा कि जी-7 समिट (शिखर सम्मेलन) के अध्यक्ष ब्रिटिश सांसद टोम टंगनधात सहित कई सांसदों ने अफगान समस्या पर चर्चा के लिए बुलाई गई बैठक में भी भारत को बुलाए जाने की जोरदार वकालत की। भारत-अफगान के संबंध बहुत पुराने रहे हैं और इन में उतार-चढ़ाव भी आते रहे है।
अफगानिस्तान में 5 साल तक तालिबानियों के सत्ता में रहने के बाद वर्ष 2001 में अमेरिकी नेतृत्व की सेना ने तालिबान को अफगानी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था। पूर्व में भी 10 साल तक रूस भी अफगानिस्तान में रहा लेकिन तालिबान लड़ाकों के आगे झुक कर वहां से रूस को भी हटना पड़ा। लेकिन जब से तालिबानियों का अफगानिस्तान में 20 साल बाद पुनः कब्जा हुआ है, तब से ही भारत “भई गति सांप छछूंदर केरी“ की अवस्था में है। क्योंकि पाकिस्तान द्वारा भारत में खासकर कश्मीर में संचालित आतंकवादियों की गतिविधियों के साथ और एक गैंग पाकिस्तान की ‘‘अंगूठी की नगीना“ तालिबानियों की, वह भी पाकिस्तान द्वारा पोषित होेने के कारण भारत के लिए निश्चित रूप से चिंता का यह एक बड़ा विषय है। लेकिन इस कटु सत्य को तो हमें स्वीकार करना ही पडे़गा कि तालिबानियों का अफगानिस्तान पर लगभग पूर्ण कब्जा व नियन्त्रण होकर वे अब उसके “शासक“ हो गये है। अतः हम जब तक उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते है, तब तक हम उससे निपटने के लिए सही कारगर नीति नहीं अपना पायेंगें। “ए ब्लाइंड मैन इज़ नो जज ऑफ कलर्स“। तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा करने पर इसे तालिबानियों ने स्वतंत्रता की जीत बताया है। इसलिए भारत की ओर से एक “त्वरित कूटनीतिक प्रतिक्रिया व पहल“ की आवश्यकता थी, जिसके अभाव में देश की विदेश नीति पिछड़ गई है, ऐसा लगता है।
मीडिया द्वारा भाजपा प्रवक्ताओं से इस संबंध मेे बार बार प्रतिक्रिया पूछे जाने पर जवाब में अधिकृत राजनयिक प्रतिक्रिया देने से बचते हुये यही कहा कि भारत की प्रथम प्राथमिकता अपने देश के नागरिकों को सुरक्षित वापस देश लाने की है। (जो “आपरेशन देवी शक्ति“ द्वारा नागरिको को वापस लाया भी जा रहा हैं।) दूसरी अफगानिस्तान में अभी सरकार का गठन ही नहीं हुआ है। यह एक प्रकार से विदेश नीति को विभाजित करने का प्रयास मात्र ही है, क्योंकि यह दोनों ही मुद्दे अंततः विदेश नीति का ही तो भाग है। अतः ये दोनों ही तर्क बेहद लचीले और भारत जैसे सार्वभौंमिक राष्ट्र की विश्व में वर्तमान मजबूत स्थिति को देखते हुए व अफगानिस्तान में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका के रहने के कारण उचित प्रतीत नहीं लगती है। “ये पर्दा छुपाता कम और दिखाता ज्यादा हैं’’। खासकर जब भारत सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष हो, जिसका कार्य ही विश्व के राट्रों को आतंकवादियों व विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान करना है। स्वयं सुरक्षा परिषद ने अफगानिस्तान की राजधानी काबूल पर तालिबान के कब्जें के तुरंत बाद 16 अगस्त को जारी बयान की तुलना में दो हफ्ते में ही 27 अगस्त को अफगानिस्तान के संबंध में जारी विज्ञप्ति, में ‘तालिबान’ शब्द का उपयोग आश्चर्यजनक रूप से नहीं किया। ऐसी स्थिति में हम भारतीय नागरिक हमारे विदेश नीति निर्धारको से कुछ ज्यादा ही उम्मीद रखते हैं।
हमारे देश के प्रधानमंत्री को विश्व की प्रमुख महाशक्तियों के राष्ट्राध्यक्षों से भी कई मामले में आगे बताया जाता है। और वास्तव में हमारे प्रधानमंत्री की क्रियाशीलता व बौद्धिक क्रियाकुशलता के कारण विश्व पटल पर उन्होनें अपनी व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण छाप अवश्य छोड़ी है। ऐसे मजबूत प्रधानमंत्री के रहते हुए ऐसी लचर अफगान नीति क्यों? पूरे विश्व को ज्ञात हैं कि 3-4 प्रमुख तालिबान नेताओं के बीच ही सत्ता की भागीदारी होना है, जिन्होने अमेरिकी सेना से टक्कर लेकर अपना लोहा बनवाया। मोहम्मद उमर के साथ मिलकर मुल्ला बरादर ने वर्ष 1994 में एक सुन्नी इस्लामिक कट्टरपंथी राजनीतिक आंदोलन पाकिस्तानी ‘‘आएसआई’’ (इंटर सर्विसेस इंटिलिजेंस) की सहायता से तालिबान (तालेबान) स्थापना करने के बाद, बर्तमान में मुल्ला बरादर ही तालिबान के प्रमुख नेता हैं।
जब रूस और अमेरिका जिसने पहले तालिबान को जन्म देकर पुष्ट किया, फिर नष्ट करने का प्रयास किया। बावजूद इसके दोनो देश अफगानिस्तान में भी तालिबानियों के पुर्नस्थापित होने से तालिबानी नेताओं से न केवल प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष संपर्क रख रहे हैं, बल्कि तालिबानी अफगानिस्तान को मान्यता देने की भी सोच रहे हैं। तब हमारा देश राजनैतिक संवाद स्थापित करने में लगभग अक्रमणय की स्थिति में क्यों हैं? देश के विपक्षी दलों की स्थिति भी कमोवेश यही है। प्रधानमन्त्री द्वारा अफगान समस्या पर चर्चा के लिए बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में विपक्षी दलों ने कोई ठोस सकारात्मक सुझाव सरकार को इस अक्रमणयता व असमंजस की स्थिति से निकलने के लिए नहीं दिये। इससे लगता है कि इस तालिबानी-अफगान समस्या ने देश के सभी नेताओं की राजनयिक सोच को लकवा मार दिया हैं। यह स्थिति कब तक बनी रहेगी, यह एक भारी प्रश्न है? जो न केवल हमारे देश की साख को विश्व में प्रभावित कर रही हैं। बल्कि अंततः लंबे समय में भारत-अफगान रिश्तों के संबंध में हमारे देश के राष्ट्रीय हितों को भी प्रभावित करेगी।
विदेशी मंत्री, रक्षा मंत्री या सरकार के प्रवक्ता की बजाय हमारे प्रथम रक्षा प्र्रमुख (चीफ ऑफ डिफेंस) (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत का बयान आया, जहां उन्होंने तालिबान को "20 साल पुराना वाला ही तालिबान" ठहराते हुये अप्रत्यक्ष रूप से तालिबानियों के खिलाफ लगभग धमकी भरा अंदाज में यह कहा कि अफगानिस्तान से भारत की ओर होने वाली गतिविधियों से देश में आंतकवाद जैसे ही निपटा जायेगा। यह अनावश्यक कथन होकर वर्तमान स्थिति को देखते हुये बुद्विमद्ता पूर्ण या औचित्य पूर्ण नहीं कहा जा सकता हैं। तथापि भारत की यह पहली अधिकृत प्रतिक्रिया मानी जा सकती हैं। वैसे भारत सरकार ने शाब्दिक प्रतिक्रिया न देते हुए अफगानिस्तान से अपने राजदूत वापस बुलाकर व दूतावास बन्द कर कार्य रूप में जो प्रतिक्रिया दी है, वह मौजूद विधमान परिस्थितियों को देखते हुए व भविष्य में हमारी अफगानिस्तान के साथ के रिश्तो को दृष्टिगत करते हुए उसमें एक रूकावट जरूर बन सकती हैं।
जहां तक भारत का सवाल है, तालिबानियों ने अभी तक भारत के प्रति कोई धमकी या भारतीय नागरिकों पर कोई अत्याचार नहीं किए हैं, न ही ऐसी कोई मीडिया रिपोर्ट अभी तक की हैं। विपरित इसके उन्होंने अफगानिस्तान में चल रही विभिन्न परियोजनाओं को पूरा करने के लिए न केवल भारत से कहा हैं, बल्कि कश्मीर को भारत-पाक का आन्तरिक मामला भी बतलाया हैं। तालिबान के कमांडर शैख मोहम्मद अब्बास ने भारत के साथ आर्थिक व व्यापारिक संबंधो के साथ बेहतर संबंध बनायें रखने की इच्छा जाहिर की हैं। भारम अभी तक 23000 हजार करोड़ रू. से अधिक निवेश अफगानिस्तान में कर चुकी है। तथापि इन बयानों की “बिटवीन द लाइन्स“ पढ़ने पर मिले निष्कर्षाे के आधार पर तालिबानियों व उनके इरादांे (आशय) पर एकदम से विश्वास करना भी घातक हो सकता है। फिर भी हमारे अफगानिस्तान के साथ पूर्व अनुभव को लेते हुए, ख़ासकर तालिबान का हमारे प्रति घोषित/अघोषित और पूर्व कार्य प्रणाली को ध्यान में रखकर सरकार को आगे आकर कुछ सकारात्मक सक्रिय कदम अवश्य उठाने होंगे। संयमता जरूर बरतियें, जैसा कि सर्वदलीय बैठक में सरकार ने अपना पक्ष रखा हैैं। परन्तु असमंजता को दूर करना भी जरूरी हैं। चूंकि भारत के लिए तालिबान एक कैंसर जैसा हैं। अतः उसका इलाज भी वैसा ही करना पड़ेगा।
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