भारत की अफगानिस्तान-तालिबान नीति लगभग पिछले 1 महीने से चल रहे घटनाक्रम में भारत ने विदेश नीति के दृष्टि से लगभग अपने को ‘‘असंबद्ध दिखता हुआ रख‘‘ ‘‘गुटनिरपेक्ष नीति‘‘ की बजाएं ‘‘निरपेक्ष विदेश नीति‘‘ बनाई हुयी है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अफगानिस्तान के संबंध में भारत ने "को नप होउ हमहिं का हानी" की नीति अपनाते हुए "कुछ न देखने व न करने" का दृष्टिकोण बनाया हुआ है, यही विदेश नीति है। अथवा भारत "विभूषणम् मौनम् पंडिताणाम्" कि उक्ति पर अमल कर रहा है? परंतु "मौन की नीति" हर जगह समय उचित और सफल नहीं होती है। इस संबंध में अपनाई गई विदेश नीति शायद इतनी प्रभावकारी हो गई है कि तालिबान ने अपने सत्ता पर आरूढ़ होने का निमंत्रण जिन 6 देशों को भेजा है, उसमें ‘‘असंबद्ध भारत‘‘ शामिल नहीं है। शायद यह कदम भारत की तालिबान के प्रति अपनाई गई नीति का दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकारोक्ति ही है। क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से तालिबान ने उस देश रूस को भी निमंत्रित किया है, जिसने अमेरिका से भी पहले तालिबान के अस्तित्व पर संकट पहुंचाने का प्रयास किया था।
जिस प्रकार राजनीति में कोई स्थाई शत्रु-मित्र नहीं होता है, वही सिद्धांत विदेश नीति पर भी लागू होता है। और शायद यही कारण है कि आक्रामक देश होने के बावजूद रूस और अमेरिका ने तालिबान से अपने संबंधों पर विचार करने में ‘‘ट्विस्ट’’ किया है। शायद इसी कारण से तालिबान से अमेरिका सुविधाजनक तरीके से बिना और नुकसान हुए पूर्व में हुए शांति समझौते के अनुसार तालिबान द्वारा निश्चित की गई डेडलाइन 31 अगस्त के पूर्व निकल पाया। बल्कि पंजशीर में नियंत्रण को लेकर चल रहा सैनिक संघर्ष में पंजशीर द्वारा पूरे विश्व से सहायता की अपील करने के बावजूद अमेरिका सहित कोई देश अभी तक सामने नहीं आया है।
भारत वह देश है, जिसने वर्ष 1915 में अफगानिस्तान के ‘काबुल’ में ‘‘आजाद’’ भारत की अनंतिम निर्वासित सरकार का गठन राजा (हाथरस उ.प्र.) महेन्द्र प्रताप सिंह ने अब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतउल्ला के साथ मिलकर किया था। मतलब भारत के अफगानिस्तान के साथ लंबे समय से पड़ोसी देश होने के नाते संबंध रहे हैं। वहां के आर्थिक विकास में भारत के योगदान को कमतर कर नहीं देखा जा सकता है। आज भी भारत सरकार की 23000 हजार करोड़ से अधिक की विकास योजनाएं का कार्य अफगानिस्तान में चल रहा है, जिसको पूरा करने की अपील तालिबानी नेताओं ने की है। बावजूद इसके जहां अफगानिस्तान में सरकार के विस्थापन से लेकर स्थापन तक, सबसे महत्वपूर्ण रोल भारत का होना चाहिए था, वहां भारत अनुपस्थित है या अनुपस्थित कर दिया गया है? अथवा भारत अफगान मामले में अस्तित्वहीन हो गया है। तालिबान द्वारा चीन को महत्वपूर्ण साझीदार बताकर और कट्टर भारत विरोधी देश पाकिस्तान मुख्य सूत्रधार बनकर फिलहाल तालिबान को अपने इशारों पर नचाने में सक्षम दिख रहा है। तालिबान की कथनी व करनी में भारी अंतर को वास्तविक मानकर ही कार्य योजना बनानी होगी क्योंकि "ओछे की प्रीत बालू की भीत" ही साबित होती है।
ऐसी स्थिति में पाकिस्तान द्वारा तालिबानियों के माध्यम से भविष्य में भारत में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने की आशंका से निपटने के लिए भारत के लिए क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि वह पंजशीर (अफगानिस्तान का एक महत्वपूर्ण प्रदेश) जिसने भारत सहित विश्व के देशों से सहायता की गुहार की है, वहां अपना सैनिक अड्डा स्थापित कर उसे सहायता देकर तालिबानियों पर अपना कुछ शिकंजा और नियंत्रण कर सके? कुछ सूत्रों के अनुसार अमेरिका वहां पर अपना सैनिक अड्डा स्थापित करने की सोच रहा है। भारत पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश कहलाता है और श्रीलंका में अपनी सेना भेज चुका है। भौगोलिक दृष्टि से भारत के लिए महत्वपूर्ण एक और पड़ोसी देश ‘‘म्यांमार‘‘ में भी 1फरवरी 2021 को चुनी हुई सरकार का ‘‘तख्ता पलट‘‘ कर सैनिक शासन लागू हुआ था। तब भी वहां के नागरिक गण से लेकर विश्व, भारत से कुछ सक्रिय कदम उठाए जाने की आशा कर रहे थे,जो निराशा में बदल गयी। जैसा कि कहा भी आता है "भरोसे की भैंस पाड़ा ही जनती है"।
चूँकि अफगानिस्तान में अब पुनः शासक बने तालिबान आतंकवाद के ‘‘पर्याय’’ रह चुके हैं व है। इसलिये आतंकवाद से लड़ने की नीति को भारत को बदलना होगा। "तेल देख तेल की धार देख" वाली नीति को छोड़ना होगा और आतंकवादियों की आतंकी कार्रवाई का रास्ता देखते हुए मात्र जवाबी कार्रवाई करने के बदले, भारत को अमेरिका और जर्मनी, इजराइल इत्यादि देशों से सीख लेते हुए आगे होकर मुख्य आतंकवादी और आतंकवाद के जनक को अमेरिका के समान उनकी मांद में घुसकर मार कर आना होगा, तभी हम देश से आतंकवाद की जड़ को मूल से समाप्त कर पाएंगे। ऐसा करने में भारत को दिक्कत क्या है? यह बात आम नागरिकों के समझ से परे है। वर्तमान भारत एक शक्तिशाली देश है। देश के प्रधानमंत्री इस समय के विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय हेड ऑफ स्टेट है, यह सर्वे अभी हाल में ही आया है। प्रधानमंत्री मोदी 56 इंच का सीना लिए हुए हैं।" हाथी के पांव में सबका पांव होता है", क्योंकि कोई भी अंतरराष्ट्रीय कानून या प्रथा (कस्टम्स) भारत को घोषित आतंकवादियों को कहीं से भी पकड़कर मारने से नहीं रोकती है। ‘‘एक सिर के बदले दस/ सो गर्दन काट कर लाएंगे’’ ऐसे बयानवीर नेताओं को यह समझाना जरूरी है कि हमारी एक गर्दन भी क्यों कटे? इस संबंध में अमेरिकन सोच सोचने और विचारने की गंभीर आवश्यकता है। "मुंहबंद कुत्ता शिकार नहीं कर सकता", अतः पंचशीर की ‘‘नाॅर्दन अलायंस’’ को सहयोग देकर हम उक्त विषय में एक कदम आगे बढ़ने का संकेत अवश्य दे सकते हैं, जो भारत में तालिबान द्वारा आतंकवाद को बढ़ाने की आशंका को रोक सकता हैं। अंततः भारत को इस "असमंजता" से बाहर निकलना ही होगा कि क्या तालिबान एक संप्रभुता प्राप्त फौजी शासना देश है अथवा आतंकवादी शासित देश है? क्योंकि अफगानिस्तान में सत्तारूढ़ हुए तालिबानी मंत्रिमंडल में 37 में से 20 मंत्री संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित आतंकवादी व्यक्ति हैं ।
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