‘‘गणपति बप्पा मोरिया‘‘ ‘‘अगले बरस तू जल्दी आ’’ के जयकारों के साथ हमेशा की तरह गणेश जी का विसर्जन हो गया। पिछले वर्ष कोविड-19 की विश्व व्यापी महामारी से हमारा देश भी पीडि़त होने के कारण पूरे देश में प्रायः सार्वजनिक रूप से गणेश जी की स्थापना व कार्यक्रम नहीं हुये थे। इस वर्ष महामारी के प्रकोप कम हो जाने पर गणेश उत्सव कार्यक्रम की अनुमति शासन-प्रशासन द्वारा कोविड-19 की महामारी को देखते हुए लागू महामारी अधिनियम के अंतर्गत जारी विभिन्न प्रतिबंधों और सावधानियों का पालन करने की शर्त के साथ दी गई। सामान्यतया प्रायः निचले प्रशासनिक स्तर पर उत्सवों के पूर्व शांति समिति की बैठक बुलाई जाकर नागरिकों के प्रतिनिधियों को समझाइश व आवश्यक निर्देश दिये जाते है। बावजूद बैठक, कानून और नियमों का न तो नागरिकों ने उन प्रतिबंधों और सावधानियों का पालन किया है और न ही ‘‘अंगूठा दिखाते इन उच्छृंखल‘‘ नागरिकों से कानून का पालन करवाने के लिए जिम्मेदार प्राधिकारियों द्वारा उक्त कानून को लागू करवाने की कोई अपनी इच्छा शक्ति दिखाई हो। हम सब ने ‘‘आंखें नीची‘‘ कर बेशर्म निगाहों से समस्त संबंधित व्यक्तियों को या तो बेशर्मी से अथवा निष्क्रिय रहकर कानून का उल्लंघन होते करते देखा है। इस प्रकार पूरे देश में किस तरह से कोविड-19 के प्रतिबंधों का उल्लंघन ही नहीं, बल्कि उसे एक मजाक बना दिया गया है। क्या यह ‘‘घर फूंक तमाशा देखने‘‘ जैसा नहीं है? पूरे देश में कोविड-19 के नियमों के उल्लंघन का एक भी प्रकरण कहीं भी दर्ज हुआ हो, ऐसा मीडिया ने कहीं रिपोर्ट नहीं किया है। क्या ‘‘कुएं में ही भांग पड़ी हुई है‘‘?
जब शासन-प्रशासन और नागरिकों तीनों पक्ष अच्छी तरह से यह जानते हैं की ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों के अवसर पर उक्त नियमों का पालन न तो किया जा सकता है और न ही ‘‘शठे शाठ्यम् समाचरेत‘‘ की नीति को चरितार्थ करते हुए उनका पालन करवाया जाना संभव है। तब ऐसी अवस्था में शासन-प्रशासन द्वारा धार्मिक उत्सवों, कार्यक्रमों के अवसर पर उक्त नियम से छूट के लिए आवश्यक अधिसूचना जारी क्यों नहीं की जाती? ताकि हमारी आंखों के सामने नियमों के उल्लंघन का नंगा नाच तो नहीं हो पाता। यदि इसी तरह से नियमों के उल्लंघन होते रहे, तब एक समय ऐसी स्थिति आ सकती है कि जब हम कानून के उल्लंघन के आदतन होकर, गहन अपराधों के लिए भी लोगों के मन दिमाग की स्थिति ऐसी हो जाए कि, वे यह प्रकल्पना करने लगे हैं कि कानून तो सिर्फ किताबों में ‘‘शोभा बढ़ाने‘‘ के लिए बनाए जाते हैं। उनको लागू करने वाली एजेंसी कभी भी कानून की ताकत का उपयोग कानून की ‘‘छाती पर मूंग दलते‘‘ तत्वों पर लागू करने के लिए नहीं करती है। तब ऐसी स्थिति में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अतः सभ्य समाज में सुशासन और सू प्रशासन में हम सबका मिलकर यह सामूहिक प्रयास होना चाहिए कि वे कानून जो हमें और समाज को नियमित स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए बनाए जाते हैं, उनका अक्षरसः पालन करने की आदत ड़ालें।
तीसरी लहर की जो बात कही जा रही है, वह उपरोक्त परिस्थितियों एवं मीडिया के इस संबंध में उदासीनता को देखते हुये वह उक्त आशंका को बल प्रदान कर सकती है। और चूंकि ‘‘गेहूं के साथ घुन भी पिसता है‘‘ अतः इस बात का विशेष ध्यान शासन-प्रशासन को रखने की आवश्यकता है।
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