मीडिया लोकतंत्र का चौथा प्रहरी (स्तम्भ) कहलाता ही नहीं बल्कि हैं भी। स्वाधीनता आंदोलन और तत्पश्चात स्वाधीन भारत में दूसरा स्वाधीनता आंदोलन जिसे ‘‘लोकतंत्र बहाली आंदोलन‘‘ कहां गया अर्थात आपातकाल में मीडिया का रोल बहुत ही सराहनीय प्रभावी और अपनी सकात्मकता उपस्थिति दर्ज कराने वाला रहा है। मीडिया हॉउस में तत्समय भी सत्ता पक्ष एवं विपक्षी विचारों के लोग रहकर थोडा बहुत प्रसारण के विषयों को प्रभावित करते रहे हैं। तथापि मीडिया हॉउस के अपने कुछ बंधनों के बावजूद वे उससे उपर उठकर जहां समाज-देश हित की बात रही हो या नागरिकों के अधिकारों की बात है, उन सबको जीवंत रख उन्हें उद्देश्यपूर्ण गतिशीलता देते रहे हैं। परन्तु पिछले कुछ समय से खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के मामलें में यह कहने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं रह गई है कि अब मीडिया की हालत ‘‘आगे नाथ न पीछे पगहा‘‘ तरह की हो गई है। अब मीडिया को गोदी मीडिया, मोदी मीडिया में वर्टिकल (सीधे) रूप से विभाजित कर दिया गया है। बावजूद इसके मीडिया के दोनों विभाजित रूप अपने मूल उद्देश्यों व दायित्वों को निभाने में आजकल प्रायः असफल ही पाये जा रहे है। ऐसा लगता है कि ‘‘हंसा थे सो उड़ गये,कागा भये दिवान‘‘। पिछले काफी समय से मीडिया के गिरते स्तर के अनेकोंनेक उदाहरण आपके सामने आये हैं। फेहरिस्त लंबी है जिन्हे यहां उद्हरण करने की आवश्यकता नहीं है। तथापि हाल में ही ऐसे एक उद्हरण कर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिससे आपके सामने मीडिया के वर्तमान चरित्र का स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है।
100 करोड़ लोगों के टीकाकरण का ऐतिहासिक लक्ष्य को पूर्ण कर देश जिस दिन जश्न मना रहा था और जिनके नेतृत्व में यह लक्ष्य पूर्ण हुआ, ऐसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उदगारों को अपने को देश का सबसे तेज व सबसे आगे और सबसे बड़ी टीआरपी कहने वाला मीडिया हॉउस इंडिया टुडे ग्रुप का न्यूज चैनल आज तक ने दिन के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के चलते प्रसारण को अचानक बीच में रोकते हुये ब्रेकिंग न्यूज शीर्षक देते हुये फिल्मी कलाकार शाहरूख खान के बेटे आर्यन खान जो कि नारकोटिक्स ड्रग्स के एक आरोपी है, की यह न्यूज कि उसके जमानत आवेदन पर सुनवाई मुम्बई उच्च न्यायालय में मंगलवार को होगी, के लिये प्रधानमंत्री की न्यूज को ब्रेकिंग किया। हद हो गई ‘‘ठकुर सुहाती‘‘ की। प्रधानमंत्री की महत्वपूर्ण 100 करोड़ लोगों की टीकाकरण की विश्व विख्यात उपलब्धि की न्यूज की तुलना में आरोपी आर्यन खान की जमानत आवेदन की सुनवाई की न्यूज का ब्रेकिंग न्यूज बन जाना देश के मीडिया हॉउस के सेटअप, एजेड़ा व मानसिकता को दर्शाता है।
ऐसा लगता है कि फिल्म उद्योग से जुड़े हुए कलाकारों के बच्चों को उनकी ‘कला’ का सार्वजनिक प्रर्दशन किये बिना देश का सेलिब्रिटी बनाने के लिए मीडिया हाउस अपना रोल बखूबी अदा करने को न केवल तैयार है बल्कि कर रहा है, बशर्ते आप किसी अपराध के आरोपी हो जाएं? आर्यन खान के मामले में यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता हुआ दिख रहा है। कलाकार की प्रतिभा का प्रदर्शन हुए बिना मीडिया ने आर्यन खान को देश का ऐसा सेलिब्रिटी बना दिया है ,जो जेल में क्या खा रहा है, कैसे सो रहा है उससे कौन मिलने आ रहा है इत्यादि मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज का बन गया भाग है।
आखिर आर्यन खान देश का कौन सा ऐसा सेलिब्रिटी और मीडिया की ‘‘नाक का बाल‘‘ है, जो देश के ही नहीं बल्कि विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी बड़ा होकर प्रधानमंत्री की न्यूज को ब्रेक कर उसकी न्यूज को दिखाना न्यूज मीडिया के दिमागी स्तर का खोखलापन को ही बतलाता है। नशीली दवाईयों के आरोपी बनने के पूर्व आर्यन खान का नाम मुम्बई फिल्म उद्योग के बाहर कितने लोगों ने सुना था? आखिर ‘‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली‘‘। निश्चित रूप से देश के कुछ ही ऐसे कलाकार है जो बहुत बड़े सेलिब्रिटी होकर प्रधानमंत्री से उनकी तुलना की जा सकती है, जैसे लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन आदि हो सकते है, लेकिन शाहरूख खान का बेटा ‘‘न तीन में न तेरह में‘‘ कोई सेलिब्रिटी नहीं है। स्वयं शाहरूख खान भी उतने बड़े सेलिब्रिटी नहीं है, जिनके लिए भी इस तरह की ब्रेकिंग न्यूज की जाय। यदि आज तक को आम लोगों व नागरिक की समझ का एहसास नहीं है, परख व समझ नहीं है तो, वह इस मुद्दे पर एक सर्वे क्यों नहीें करा लेते? सड़े सड़े मुद्दों पर मीडिया की सर्वे कराने की (कु)उद्देश्य आदत तो पुरानी है? ताकि उसको समझ में आ जाये और भविष्य में इस तरह ‘‘अशर्फियों को छोड़ कोयलों पर मुहर लगाने‘‘ जैसी बचकाना गलती से बचा जा सके। ‘‘अंधों में काना राजा’’ की स्थिति ‘‘आज तक’’ की हो सकती है। इसका यह मतलब कदापि नहीं है की वह सर्वेश्रेष्ठ चैनल हो गया है।
जहां तक न्यूज चैनलों के विषय वस्तु और स्तर की बात है, उनके बीच कोई खास अंतर नहीं है। मीडिया हॉउस कह सकते है कि हम तो वही परोसते है, जिसे जनता पसंद करती है या जिसे सुनना व देखना चाहती है, उसे दिखाना हमारी मजबूरी है। हमें अपने स्तर पर विषय व प्रसारण के गुणात्मक चयन करने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। जबकि जनता यह कह सकती है कि उसे जो दिखाया जा रहा है, वह उसे देखने के लिये मजबूर बल्कि अभिशप्त है क्योंकि समस्त मीडिया का लब्बो लुबाब ऐसा ही है जैसे कि न ‘‘तेल देखे न तेल की धार‘‘। सवाल मुर्गी पहले आयी या अंड़ा यह नहीं है? बल्कि मीडिया जिस कारण वह स्वयं को देश के लोकतंत्र को प्रहरी मानता है, वह तभी महत्वपूर्ण स्थिति को तभी साबित (औचित्य) कर सकता है, जब वह अपने इस महत्वपूर्ण दायित्व व जिम्मेदारियों को सही तरीके से निभाएं।
सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या के प्रकरण में अधिकाशतः पूरी तरह से रिपोर्टिंग गलत सिद्ध हो जाने के बावजूद मीडिया ने कोई सबक नहीं लिया हैं। जहां आत्महत्या को मीडिया ट्रायल द्वारा हत्या सिद्ध कर आरोपी तक तय कर दिये गये थे, वहाँ आज तक आत्महत्या को प्रेरित करने वाली धारा तक नहीं लगी है। अतः मीडिया को सनसनीखेज व गलत एजेंडा लेकर चलाने वाली न्यूजों से बचना होगा, यदि उन्हें अपनी बची कुची विश्वनीयता को बनाये व बढाये रखना है, तो।
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