प्रधानमंत्री के इस आश्चर्यचकित व किसानों के माथे पर 1 साल से उमरी चिंता की लहरों को समाप्त करने वाली वाले का एक दूसरा पहलू भी है, (जैसा कि सिक्के के दो पहलु होते है) जिस पर राजनीतिक दल टिप्पणी कर सकते हैं। आंदोलन के लम्बे समय तक चलने के कारण उत्पन्न थकान, हताशा व निराशा की अवस्था में मुख्य मांग के अप्रत्याशित अचानक स्वीकार हो जाने पर उसका स्वागत न करने का मतलब क्या निकलता है? मांग मानो तो मुश्किल और न मानो तो भी मुश्किल? बिलकुल "भई गति सांप छछूंदति केरी" वाली स्थिति है। मतलब क्या आंदोलन अंतहीन चलता जाए? यदि किसानों की नजर में 700 से ज्यादा किसान मरे (शहीद?) हैं, तो क्या आंदोलन के अंतहीन चलते देने की स्थिति में उनकी संख्या 7000 हो जाए और विपक्ष को दिन प्रतिदिन प्रधानमंत्री पर आरोप लगाने के लिए टीवी चैनलों में बहस में आने का मौका मिले सके? आपको यह अधिकार है, प्रधानमंत्री से पूछिए जिस किसान आंदोलन को अपने आंदोलनजीवी परजीवी किसान कहा था। जिन्हें टिकड़े टुकड़े गैंग, माओवादी, नक्सलियों, खालिस्तानियों और आतंकवादियों तक करार कर दिया गया था, जिसे देशव्यापी आंदोलन न मानकर मात्र बॉर्डर तक सीमित बताया गया। जिनको किसान न मानकर छद्म किसान बतलाया गया और न जाने क्या-क्या? राजनीति में इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। परंतु सत्ताधारी पार्टी के नेताओं द्वारा उपरोक्त सब अलंकारों से आंदोलन को अंलकिृत-विभूषित करने के बावजूद प्रधानमंत्री ने किसानों की मूल प्रमुख मांग को स्वीकार कर किसानों व देश के हित में दरियादिली का ही परिचय दिया है। तब किसान व देश हित में निर्णय होने के कारण विपक्ष को अपना आलोचना कर अधिकार सुरक्षित रखते हुये उसका कम से कम औपचारिक रूप से तो स्वागत करना था? जो नहीं हुआ। सही है, "पेट के रोगी को घी नहीं पचता"। चूंकि प्रधानमंत्री ने उक्त *अलंकारों को वापस लिए बिना, तथाकथित पाकिस्तानी चीनी प्रेरित किसान आंदोलन की मांग स्वीकार कर ली हो, तब इसक क्या अर्थ निकाला जाए? हमेशा के समान आलोचक गण अपना पूर्ण दायित्व निभाने में कहां चूक करते हैं ? अतः निर्णय की आलोचनाएं भी बहुत हुयी। ‘‘बहुत देरी से लिया गया निर्णय है’’। कहावत भी तो इसीलिए है ‘‘देर आयद दुरुस्त आयद’’। ‘‘न्याय में देरी न्याय को अस्वीकार करने के समान है’’ न्याय के इस सिद्धांत को यहां इस राजनैतिक निर्णय पर लागू नहीं किया जा सकता है।
विपक्षी दल यह प्रश्न अवश्य उठा सकते हैं कि यह निर्णय राजनीति से प्रेरित होकर लाभ-हानि को देखते हुए लिया गया है। और यदि ऐसा है भी तो इसमें नई बात कौंन सी है? हर राजनीतिक पार्टी अपने लाभ-हानि को देखते हुए ही तो कदापि देशहित के नाम पर निर्णय लेती है, नहीं लेती है अथवा अनिर्णय की स्थिति होती है। चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में। एक बात पत्थर की लकीर के समान हमेशा से लिखी हुयी है कि कोई भी आंदोलन की पूरी 100 प्रतिशत मांगे न तो स्वीकार होती है न और ही स्वीकार योग्य होती है। आंदोलन खत्म करने में दोनों पक्ष को एक कदम आगे व दो कदम पीछे उठाने ही होते है।
प्रधानमंत्री के इस निर्णय को राजनैतिक चर्चाओं में एक तरफ पाच राज्यों में होने वाले आगामी आम चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब की विधानसभाओं के चुनाव को दृष्टिगत करते हुए राजनैतिक दूरदर्शिता लिए हुए होना बतलाया जा रहा है। इस कारण किसान आंदोलन से भाजपा को जो संभावित नुकसान पहुचने की आंशका का अनुमान किया गया हैं, उसकी क्षतिपूर्ति हो सके। इस निर्णय से प्रधानमंत्री की मजबूत छवि वाली नेता की स्थिति में देश में ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर कहीं न कही आंच पहुंची हैं। इसके अतिरिक्त कहीं न कहीं किसान आंदोलन के संबंध में केन्द्रीय सरकार से निर्णय लेने हुई देरी की चूक अवश्य हुई है। यदि 11 दौर की हुई बातचीत के दौरान ही सिर्फ एमएसपी जिसे स्वयं सरकार लंबे समय से मान रही है, पर कानून का आवरण चढ़ाने की मांग को यदि स्वीकार कर लिया जाता जिससे सरकार को कुछ भी नुकसान नहीं था। क्योंकि निश्चित मात्रा की एमएसपी पर खरीदी की मांग तो किसी भी पक्ष द्वारा नहीं की गई थी जिस से आर्थिक भार बढ़ सकता था । अतः आंदोलन निश्चित रूप से तभी समाप्त हो जाता। और आज संसद द्वारा पारित तीन कानूनों को वापिस लेने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती जो सीमांत किसानों के हित में है। और इतनी बड़ी हुई जनहानि से भी बचा जा सकता था। इससे सरकार की किरकिरी भी हुई हैं।
कानूनों को वापिस लेते समय पार्टी व सरकार ने यह दावा किया है कि यह कानून किसानों के हित मे है और अधिकांश किसान लोग इस कानून से सहमत है। मात्र किसानों के एक वर्ग को सरकार संतुष्ट नहीं कर पायी। यदि एक वर्ग को संतुष्ट करने के लिए बहुसंख्यक की उपेक्षा की जाकर कानून को समाप्त किया जाता है तो न केवल यह देश में नई परिपाटी को जन्म देगी बल्कि भविष्य में यह देश के लिए खतरनाक परिपाटी भी सिध्द हो सकती हैं। संसद जब कानून बनाती है, तो देश का कोई भी कानून ऐसा नहीं कि उसके दुरूपयोग की संभावना विद्यमान न हो या सब जनो को संतुष्ट किया जा सकें। परंतु कोई भी कानून दुरूपयोग की आंशका के चलते या संतुष्टि के आधार पर न तो रद्द किया जाता है, न ही उसे बनाने से रोका जाता है।
प्रमुख मांग के मान लेने के बाद इस आंदोलन में किसकी जीत हुई है और किसकी हार हुई है, इसे कोई भी पक्ष स्वीकार करने को तैयार नहीं है। सिवाएं अन्नदाता सामान्य किसान आंदोलनकारी जिन्होंने मिठाई खाकर और फटाखे फोड़कर अपनी खुशी का खुलकर इजहार किया है। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि "देयर इज़ नो रोज़ विदाउट ए थ्रोन" अर्थात जहां फूल होते हैं वहां कांटे भी होते हैं। शीर्षस्थ किसान नेताओं ने इस तरह की कोई खुशी जाहिर नहीं की और न ही भाजपा नेताओं, प्रवक्ताओं ने प्रधानमंत्री के इस निर्णय का मिठाई खाकर, खि़लाकर व पटाखे फोड़कर स्वागत किया है, जैसा कि वे अन्यथा हमेशा करते आए हैं। मतलब साफ है, जैसा कि हमेशा से चला आ रहा है, हर महत्वपूर्ण निर्णय के पीछे नीति कम, राजनीति, स्वार्थनीति और पार्टी के हित आगे व सर्वोपरि होते है। तीनों कृषि कानूनों बिल को वापिस लेने के निर्णय पर आयी प्रतिक्रियाओं और निर्णयो से यह स्पष्ट हो जाता हैं।
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद किसान संघर्ष समिति की दो बार हुई बैठक में लिये गये निर्णय से यह आंशका बलवती होती जा रही है कि प्रधानमंत्री का उक्त कहे जाने वाला मास्टर स्ट्रोक कहीं आत्मधाती गोल में न बदल जाए अथवा "वाटरलू न सिद्ध हो जाए" ? जिस उम्मीद को लेकर प्रधानमंत्री ने ऐतिहासिक और न्यायोंचित निर्णय की घोषणा इस आशा पर की थी कि किसान व संयुक्त किसान मोर्चा उक्त निर्णय से आत्मविभोर व हर्षित होकर प्रधानमंत्री की घर वापसी की अपील को मानकर आंदोलन का तंबू उखाड़ लेंगे। परन्तु ऐसा लगता है कि "चूल्हे से निकले और भाड़ में गिरे"। एक गवैया (गांव वाला) कहे जाने वाला किसान नेता टिकैत ने ऐसी लगड़ी मारी कि केंद्र सरकार को उफ तक करने का मौका नहीं मिल पा रहा है। प्रारंभिक रूप से प्रधानमंत्री के निर्णय का स्वागत करते किसम ने हुये आंदोलन वापिस लेने से इंकार कर दिया, जब तक कि टेबिल पर बैठकर एमएसपी पर कानून व अन्य मुद्दों पर कोई बातचीत नहीं होगी तब तक आंदोलन पूर्णतः चलता रहेगा। संयुक्त किसान मोर्चा के इस निर्णय से भाजपा "आगे कुआं पीछे खाई" की स्थिति में आ गयी और उसकी मानो "पैरों तले जमीन खिसक गई"।
जिस हाबड़ तोड़ तरीके से प्रधानमंत्री ने निर्णय की घोषणा की उसमें उनकी कुछ त्रुटियों साफ-साफ दृष्टिगोचर होती है, जिससे अपेक्षित परिणाम मिलने पर आशंका के बादल छा गए। पहली सीधे श्रेय लेने व देने के चक्कर में संयुक्त किसान मोर्चा के साथ सरकार की चर्चा कराये बिना ही टीवी के माध्यम से एक तरफा घोषणा कर किसम को श्रेय न दे देने के चक्कर में किसानों को सीधे श्रेय देने का असफल प्रयास किया। यदि टेबल पर बातचीत में उक्त निर्णय लिया जाता तो समस्त मुद्दों पर सहमति बन कर संयुक्त विज्ञप्ति द्वारा निर्णय की घोषणा की जाती तो सकिम को इधर-उधर बगले झांकने का मौका नहीं मिल पाता । दूसरा उनके द्वारा इस आंदोलन में मारे गये किसान व उनके परिवारों के प्रति श्रंद्धाजलि व सहानुभूति के दो शब्द भी न कहना सबसे बड़ी भूल सिद्ध हो गई। तीसरा आंदोलित किसानों की इस आंदोलन से हुई आर्थिक बरबादी के लिए व शहीद हुये किसानों को न तो अभी तक कोई मुआवजा मिला और न ही कोई घोषणा कृषि कानून वापसी के निर्णय के साथ हुई। प्रधानमंत्री एक और गलती यह भी रही कि इन तीनों कानून से जो छोटे कृषको को फायदे होने की बाद जो वे लगातार कह रहे है व अभी भी कानून समाप्ति की घोषणा के समय पर भी कर रहे है, अब उन कानूनों की समाप्ति के बाद उन फायदे की पूर्ति किस तरह से होगी, इसका कोई वैकल्पिक सुझाव या उल्लेख प्रधानमंत्री ने अपने 18 मिनट के भाषण में कहीं नहीं किया । अंतिम गलती एक साल से धूप, ठंड बरसात मैं रोड पर बैठे किसानों के परिवार खासकर महिलाओं के जज्बे के प्रति एक शब्द भी न बोलना। ये सब अल्प छोटे लेकिन महत्वपूर्ण कारण संयुक्त रूप से प्रधानमंत्री की उक्त घोषणा के उपर ज्यादा प्रभावी हो गए लगते हैं। जिससे आम किसान घोषणा से सहमत होता हुआ खुशी का इज़हार करने के बावजूद किसान नेताओं के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाया। इसलिए ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री अपने उद्देश्यों को पाने में पिछड़ रहे है, जो एसकेएम के लिए गए निर्णयो से झलकता भी है।
इस एक निर्णय का एक बहुत ही खतरनाक मैसेज प्रधानमंत्री पर अल्पसंख्यको के तुष्टीकरण के आरोप प्रधानमंत्री लगने के रूप में हो सकता है, जो आरोप भाजपा अन्य दलों पर हमेशा से लगाती चली आ रही है। कहते हैं, "कालस्य कुटिला गति:", प्रधानमंत्री जब स्वयं कहते है कि अधिकांश किसान कृषि बिल से सहमत है, मात्र एक वर्ग को हम संतुष्ट नहीं कर पाये। उनकी संतुष्टि के लिए पूरा कानून वापिस लिया जा रहा है। मतलब साफ है अल्पसंख्यको का तुष्टिकरण ही तो हुआ । अल्पसंख्यक का मतलब जाति विशेष से नहीं बल्कि बल्कि संख्या बल से होता है । यही सिंद्धान्त यहां पर लागू होता है।
प्रियंका गांधी का "विषकुम्भम् पयोमुखम्" के अनुरूप प्रधानमंत्री पर तंज कसते हुए कहना कि एक साल से अधिक दिनों तक जब किसान संघर्ष कर रहे थे, और 700 से अधिक किसानों की शहादत हो गई तब अब माफी किस बात की ? तब मोदी को कोई परवाह नहीं थी। उनका यह कथन दोहरी राजनीति से प्रेरित ही नहीं बल्कि शिकार है। शायद वे यह भूल गई है कि इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुये उनकी हत्या पर पूरे देश में हुये सिख दंगों में हजारों की संख्या में लोगों को मौत के घाट उतारा गया था। तब कई सालों बाद पूरे गांधी परिवार व कांग्रेस पार्टी ने देश से मांफी मागी थी।
जब राकेश टिकैट यह कहते कि सरकार हमें बातचीत के लिए बुलाये तभी बातचीत कर घर वापसी पर विचार होगा निरर्थक हो जाता है जब स्वयं प्रधानमंत्री ने पूर्व में हुई सर्व दलीय बैठक में कहा था कि कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर किसान से केवल एक फोन दूर है। वह एक फोन दूर ही रह गया। न तो किसान ने और न ही प्रधानमंत्री ने निर्णय लेने के पूर्व उक्त एक फोन करने की आवश्यकता समझी।
अंत में एक दिलचस्प बात उभर कर आती है। जब तीनों कृषि कानून पारित किए गए तब यही कहा गया कि यह किसानों के व्यापक हित में है। जब इन कानूनों को वापस लेने का निर्णय की घोषणा की गई, तब भी यही कहा गया यह किसानों के हित में लिया गया निर्णय है। इससे भी ज्यादा मजेदार बात यह रही कि कानून को वापस लेते समय भी कानूनों को गलत न बतलाते हुए उनके गुणों का उल्लेख करते हुए किसानों के हितो में बताया गया । ताली दोनों हाथों से बजती है लेकिन यहां पर एक हाथ से ताली बजा कर उपरोक्त तीन तीन अर्थ निकल कर मोदी है तो मुमकिन है कथन को सिद्ध ही किया है। प्रधानमंत्री द्वारा बिना एहसान लादे यही कर्तव्य का निर्वाह गली तेरी करते हुए किसानों को मिठाई खाने खिलाने व पटाखे फोड़ने का अवसर देने के बावजूद सकम द्वारा आगे के तयशुदा आंदोलन को स्थगित कर प्रधानमंत्री के निर्णय की सकारात्मक प्रतिक्रिया दे सकते थे परंतु एक कदम भी टस से मस हुए बिना खुशी बनाना किस चरित्र का द्योतक है ? एहसान फरामोसी नहीं तो क्या ? यही भारतीय राजनीति की विशेषता व चरम उत्कर्ष है। वैसे इस वापसी निर्णय और उस पर हुई प्रतिक्रिया ने इस मुहावरे को गलत सिद्ध कर दिया है कि मुंह (गाल) फुलाना और मुस्कुराना एक साथ नहीं होता है ।