वास्तव में यह किसान आंदोलन किसके लिए? और किन मांगों? को लेकर शुरू हुआ था, इस को जानना अत्यंत जरूरी है। तभी आप वस्तु स्थिति का सही आकलन कर पाएंगे। निश्चित रूप से किसानों का सबसे संगठन, अखिल भारतीय किसान संघ (बी.के.यू) के साथ देश की अन्य छोटी-बड़ी लगभग 500 से ज्यादा संघो से मिलकर संयुक्त किसान मोर्चा बना। इसके बैनर तले देश की जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत से अधिक किसान जिन्हें जनता से लेकर सत्ता व विपक्ष अन्नदाता कहते थकते नहीं हैं, की विभिन्न लम्बित समस्याओं को लेकर यह आंदोलन प्रारंभ किया गया था। संयुक्त किसान मोर्चे ने किसानों की खुशहाली के लिए 6 प्रमुख मांगे रखी। आंदोलन प्रारंभ करने के पूर्व तीनों कृषि कानूनों की वापसी, एमएसपी पर खरीदी की गारंटी के लिए कानून, विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक 2020-21 को रोका जाना और नए प्रदूषण कानून (वायु गुण्वत्ता प्रबंधन के लिये आयोग अधिनियम) से धारा 15 को हटाने की मांग थी। बाद में इस आंदोलन से उत्पन्न मांग अर्थात आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज मुकदमे की वापसी, और शहीद हुए किसानों के परिवारों को मुआवजा व पुर्नवास, तथा शहीद स्मारक निर्माण की मांग जोड़ी गई। अतिरिक्त मांग के रूप में लखीमपुर खीरी हत्याकांड में धारा 120बी के अंतर्गत आरोपी केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री की बर्खास्तगी व गिरफ्तारी की भी थी।
इनमें से दो सबसे महत्वपूर्ण मांगे जिस पर किसान नेता सबसे ज्यादा जोर देकर शोर कर रहे थे, वे एक तरफ तीनों कृषि कानून की वापसी तो, दूसरी तरफ एमएसपी के लिए कानून निर्माण की बात। परंतु जब प्रधानमंत्री जी ने मीडिया के माध्यम से तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा की, तब संयुक्त किसान मोर्चा ने यह कहकर आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया था कि, हमारी मुख्य मांग कानून वापसी के साथ एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की भी है। तीनों कानूनों की वापसी की मांग इसलिए की गई थी, क्योंकि उसके रहते एमएसपी मिलना संभव नहीं था।
सरकार अपनी पीठ जरूर थपथपा सकती है कि उसे एमएसपी पर कानून बनाने की लिखित गारंटी आंदोलन समाप्ति के लिए नहीं देनी पड़ी। (अर्थात साँप भी मर गया व लाठी भी नहीं टूटी) जिसे किसान नेताओं ने अपनी ‘‘नाक की बाल’’ (प्रतिष्ठा का प्रश्न) बना लिया था। इस प्रकार यदि किसान नेताओं ने तीनों कानून की सरकार से वापसी करा कर उनकी नाक नीची करवाई तो, एमएसपी पर कानून बनाए बिगर माने सरकार ने आंदोलन की वापसी करा कर संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की भी नाक नीची ही हुई। केवल यहां तक ही नहीं, बल्कि सरकार ने एमएसपी के लिये प्रस्तावित कमेटी में एसकेएम की किसानों के प्रतिनिधि के रूप में उन किसान नेताओं को जिन्होंने कृषि कानून का समर्थन किया था को शामिल न करने की मांग की थी, पर भी कोई आश्वासन नहीं दिया। साथ ही सरकार ने सरकार की ओर से किसान प्रतिनिधित्व के रूप में शामिल किये जाने वाले व्यक्तियांे के समिति में नामों की घोषणा नहीं की, जैसा कि एसकेएम ने मांग की थी। किसान नेताओं खासकर राकेश टिकैत की यह महत्वपूर्ण इच्छा कि टेबिल पर बातचीत के दौरान सहमति की घोषणा हो, को सरकार ने विफल कर अपनी खोई हुयी प्रतिष्ठा की कुछ भरपाई अवश्य की है। तो क्या हिसाब बराबर? बिल्कुल नहीं!
तीनों कृषि कानूनों के जो फायदे छोटे किसानों को मिलने थे, उन कानूनों के समाप्त हो जाने के बाद उन फायदों के लिए कोई लड़ाई न तो एसकेएम ने की और न ही सरकार ने, जो लगातार कानून वापिस लेने की घोषणा करते समय भी उन कानूनों के फायदे का बखान कर रही थी। परोपकारी जनोपयोगी सरकार के रूप में सरकार का यह दायित्व था कि, किसानों को उक्त विलुप्त कानूनों में प्रावधित किए गए फायदे छोटे किसानों को पहुंचें। वे अब कैसे पहुंचेंगे, इस बाबत कोई भी योजना, आश्वासन या कथन नहीं किया गया। यहां पर सरकार और किसान नेता दोनों असफल रहे।
इस आंदोलन का लेखा-जोखा, खाता-बही पूरा करने में एक और जहां आपको किसान के खाते में यह उपलब्धि जोड़नी होगी कि इतना लंबा चला आंदोलन को तोड़ने के लिये समय-समय पर की गई समस्त चाले, प्रयास, कोशिशें अंततः असफल होकर संयुक्त किसान मोर्चा एक मजबूत संगठन के रूप में पहचान बनाकर मजबूत होकर उभर कर निकला है, जो भविष्य में किसानों के हित के लिए लड़ता रहेगा और सरकार पर हमेशा तलवार लटकती रहेगी। इसी प्रकार सरकार के खाते में इस बात को जोड़ना होगा कि किसानों के आगे झुकती दिखती हुई सरकार ने अंततः आखिरी समय में किसानों की ‘‘एमएसपी’’ पर कानून बनाने की बात का कोई लिखित आश्वासन न देकर, और समस्त मुद्दों पर सहमति की घोषणा टेबिल पर बातचीत के बजाए पत्र के द्वारा कर उन्हें हिट विकेट आउट कर अपनी गिरती साख को कुछ हद तक बचाने में सफल अवश्य रही है।
केन्द्रीय कृषि सचिव का केन्द्रीय शासन की ओर से लिखा गया उक्त पत्र एक नई बहस को भी जन्म दे सकता है। क्योंकि उन्होंने पत्र में सिर्फ भाजपा शासित राज्यों के मुकदमे वापस लेने का उल्लेख किया है। इस संबंध में पंजाब सरकार की सार्वजनिक घोषणा का भी उल्लेख किया गया। लेकिन अन्य राज्यों के संबंध में केन्द्र द्वारा अपील करने की बात कही है। जब भाजपा शासित राज्य उत्तर-प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा से सहमति लेने का उल्लेख पत्र में है तब अन्य विपक्षी शासित प्रदेश तमिलनाडू, आंध्रप्रदेश, राजस्थान इत्यादि से पत्र लिखने के पूर्व क्यों नहीं सहमति ली गई? अथवा उनसे अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने सहमति देने से इंकार कर दिया? स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।
इस आंदोलन के अंतिम दौर के परिणाम ने कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर की विश्वसनीयता को भी जरूर कुछ कम किया है। 22 जनवरी को 11वीं दौर की बातचीत के बाद लम्बे समय एसकेएम व कृषि मंत्री की बीच कोई संवाद स्थापित न होने के कारण गृहमंत्री अमित शाह के हस्तक्षेप के बाद एसकेएम के दो नेताओं युद्धवीर सिंह और बलवीर राजेवाल को किये गये फोन के बाद ही पत्रों का संवाद प्रारंभ होकर अंततः सहमति का निर्णय हुआ। इससे लगता है कि समझौंते के अंतिम दौर में नरेन्द्र सिंह तोमर को अलग-थलग रखा गया। वैसे भी नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) के देश में एक ‘‘नरेन्द्र’’ के रहते दूसरे नरेन्द्र की आवश्यकता महसूस करने का दुःसाहस कौंन कर सकता है?
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