लखीमपुर खीरी के तिकुनिया गांव में घटित वीभत्स, नरसंहार हत्याकांड में 8 लोग मारे गये। इनमें से 4 किसान आरोपी आशीष मिश्रा जो कि केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा उर्फ टेनी के सुपुत्र की एक्सयूवी गाड़ी से कुचलकर मारे गये। 1 पत्रकार और 3 राजनैतिक कार्यकर्ताओं (भाजपा) की भीड़ ने हत्या कर दी। उक्त वीभत्स कांड की जांच हेतु उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त एसआईटी पर माननीय उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुये असाधारण कदम उठाते हुये राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक सदस्यीय न्यायिक आयोग पर भरोसा न करते हुये एक सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) हाईकोर्ट जज जस्टिस राकेश जैन की नियुक्ति की। साथ ही एसआईटी के जांच अधिकारियों की सूची मंगाकर तीन इंसपेक्टर श्रेणी के अधिकारियों की जगह यूपी के न रहने वाले यूपी केडर के तीन आई.पी.एस. अधिकारियों को एसआईटी में नियुक्त करने के निर्देश दिये। वरना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त एस आई की हैसियत तो यह थी कि-
वही कातिल, वही शाहिद, वही मुंसिफ़ ठहरे,
अक़रबा मेरे करें क़त्ल का दावा किस पर।
इस तरह की जब भी कोई घटनाएं घटित होती है तो,पीडि़त जनता व नेताओं द्वारा न्यायिक जांच की ही मांग की जाती है। क्योंकि वही एकमात्र सही व निष्पक्ष जांच मानी जाती है, जिसमें जनता को भी भागीदारी करने का मौका मिलता है। ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय द्वारा एक सदस्ययी न्यायिक जांच पर भरोसा न करने का मतलब साफ है कि उच्चतम न्यायालय उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त जज पर भरोसा नहीं कर रही है। न्यायिक जांच पर प्रश्न नहीं है। बल्कि यह उत्तर प्रदेश की न्यायिक स्थिति पर एक गंभीर प्रश्न हैं? उच्चतम न्यायालय के निर्देश में हो रही जांच में एसआईटी ने अंततः रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट के आधार पर सीजीएम न्यायालय में धारा 279, 338, 304ए हटाकर और उसकी जगह भारतीय दंड संहिता की धारा 326, 307, 302, 34 एवं 120बी, लगाये जाने का आवेदन दिया, जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
तत्पश्चात ही वस्तुतः जहां मुकदमें की कानूनी लड़ाई और जांच तेजी से होनी चाहिये थी, अर्थात एक तरफ एफआईआर में पूर्व से ही दर्ज केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा उर्फ टेनी का बयान लिया जाना था। तो दूसरी ओर अभियुक्तों द्वारा मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के आदेश के विरूद्ध सक्षम न्यायालय में अपील तथा अग्रिम जमानत के लिए कार्यवाही की जानी चाहिये थी। परन्तु बजाए इसके चलती राजनीति की धार और तेज हो गई और दोनों पक्ष बल्कि तीनों पक्ष सत्ता पक्ष, विपक्ष और पीडि़त पक्ष अपनी-अपनी तलवार भांझकर सामने आ गये।
एक तरफ पीडि़त पक्ष, एफआईआर में दर्ज अभियुक्त मंत्री को पूर्व से चली आ रही बर्खास्तगी और गिरफ्तारी की मांग पर तुरंत जोर देने लगा तो, सरकार हमेशा की तरह यह कहकर कि कानून अपना काम कर रहा है और करेगा, पल्ला झाड़कर अपना बचाव करने लगी। इस घिसे-पिटे ‘‘स्टीरियो टाइप’’ बचकाने तर्क के साथ सरकार व पार्टी आरोपी मंत्री के बचाव में आगे आकर यह कथन कि हमारी सरकार द्वारा बैठाई गई एसआईटी की जांच रिपोर्ट में ही तो हमारे ही मंत्री पुत्र के खिलाफ रिपोर्ट आई है। इसका मतलब स्पष्ट है कि न केवल सरकार बल्कि जांच एजेंसी निष्पक्ष रूप से कार्य कर न्याय दिलाने की ओर अग्रसर हो रही है। तथ्यात्मक रूप से समस्त पक्षों के तर्क, बहुत कुछ तथ्यों पर आधारित होने के बावजूद राजनीति कैसी की जाती है, खासकर उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी चुनाव के परिपेक्ष को देखते हुये इसे आगे देखना आवश्यक है।
केन्द्रीय एवं संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी का यह कथन कि, चूंकि मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है, जो उक्त पूरे मामले को देख रहा है, निरीक्षण व परिवेक्षण कर रहा है, तब इस मामले में सरकार का हस्तक्षेप कदापि उचित नहीं होगा। बचाव में दिया गया उक्त तर्क प्रकरण की वीभत्सता, गंभीरता व स्वरूप को देखते हुए एक मजाक ही कहलायेगा। इसी तरह की प्रतिक्रिया केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने भी दी। उन्होंने कहा कि कानून अपना काम कर रहा हैं। बिना किसी भेदभाव के निष्पक्षता के साथ कार्यवाही हो रही है और इस पर किसी के ज्ञान (विरोधी दलों) की जरूरत नहीं है। बकौल अकबर इलाहाबादी-
क़ौम के गम में डिनर खाते हैं हुक़्काम के साथ
रंज़ लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
घटना की वीभत्सता से उत्पन्न रोष के प्रभाव को कम करने के लिए तथा आगे और प्रतिक्रिया स्वरूप स्थिति रौद्र रूप न ले ले, को देखते हुये उत्तर प्रदेश सरकार ने पुलिस जांच, एसआईटी व न्यायिक आयोग की घोषणा कर जांच शुरू कर दी थी। उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुये जांच के तरीके दिशा और गति से असंतुष्ट होकर तीन बार सरकार को फटकार लगाते हुय हस्तक्षेप कर एसआईटी में मूलभूत परिवर्तन कर एक न्यायिक सदस्य की नियुक्ति करवायी। तत्पश्चात उस जांच की गति व दिशा कुछ हद तक ठीक हुई। एसआईटी के उक्त कार्यवाही का श्रेय लेते समय नेतागण इस तथ्य को भूल गये।
जांच एजेंसी की निष्कलंकता व पवित्रता को प्रमाणित करने वाले लोगो को इस बात पर ध्यान देना होगा कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश में होने वाली जांच के बावजूद ‘‘बालू की दीवार पर टिकी हुई’’ हमारी जांच एजेंसी की जो कार्यपद्धति है व सत्ता का जो चरित्र व तंत्र विद्यमान है, उसके कारण सत्ता से अप्रभावित हुये सही जांच करने में आंशिक रूप से ही सफल हो पाती है, जैसा कि जैन हवाला कांड में उच्चतम न्यायालय की लताड़ के बावजूद सीबीआई ने आधे अनमने मन से आधी अधूरी जांच की थी और सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायी।
अतः यह कहना तथ्यों के विपरीत है कि यह जांच उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित की गई एसआईटी द्वारा की जा रही है। इसके विपरीत एसआईटी में लगे जांच अधिकारीगण व स्टाफ राज्य के गृह मंत्रालय के अधीन है। दुर्भाग्यवश? अथवा सौर्भाग्यवश? जो मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा और षड़यत्रंकर्ता के रूप मंे उसके पिताजी केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री जिनके अधीन पूरे देश का पुलिस विभाग आता है। क्या देश का लोकतंत्र इतना परिपक्व और कार्यपालिका खासकर पुलिस विभाग इतनी स्वच्छ, सक्षम, साहसी और ईमानदार हो गयी है कि इन विशिष्ट परिस्थितियों के रहते केंन्द्रीय गृह राज्यमंत्री के सुपुत्र के खिलाफ चल रही जांच 100 प्रतिशत ईमानदारी के साथ हो सके? यदि प्रधानमंत्री सिर्फ गृह राज्य मंत्री से गृह विभाग ही छीन ले ते तो भी इतना भद नहीं होती। यदि उत्तर प्रदेश सरकार ने उसके द्वारा नियुक्त एसआइटी (उच्चतम न्यायालय के परवेेक्षण में) के द्वारा दी गई रिपोर्ट के आधार पर कानून की धारा बढ़ायी है, तो निश्चित रूप से उससे उसकी 50 प्रतिशत निष्पक्षता तो सिद्ध होती है। परन्तु सरकार की कानून के प्रतिबद्धता न केवल 100 प्रतिशत होनी चाहिये, बल्कि ऐसा होते हुये भी निष्पक्ष दिखना भी चहिये।
केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री के अधीन वह पुलिस विभाग आता है, जो केन्द्रीय मंत्री के सुपुत्र की आपराधिक जांच कर रही है, तो निष्पक्ष होकर भी (यदि यह मान लिया जाए) निष्पक्ष दिखना संभव नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसा कि न्याय का यह मान्य सिद्धांत है कि न्याय न केवल मिलना चाहिये, बल्कि न्याय होते हुये दिखना भी चाहिये। इस प्रकार 50 प्रतिशत नकारात्मक प्रभाव को इस पूरे प्रकरण में वह भाजपा नकार रही है, जिनके नेता लालकृष्ण आडवानी और एनडीए के अध्यक्ष रहे शरद यादव जैसे व्यक्तियों ने जैन हवाला कांड में नाम आने मात्र पर अपने-अपने पदों से इस्तीफा दे दिया था। क्या मामला कोर्ट मंे लम्बित होने से अभियुक्त को प्रत्येक स्थिति के लिये प्रत्येक स्थिति के लिये अभयदान मिल जाता है?
मंत्री को बर्खास्त करना या उसके द्वारा इस्तीफा देना तो दूर बल्कि ‘‘एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा’’वाली स्थिति तब हो गई, जब केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री, आरोपी ने जिस तरह का व्यवहार पत्रकारों से किया, वे अपना वही पुराने अंदाज में दिखने लगे, जिसके लिये वे न केवल जाने जाते है। बल्कि खुद सार्वजनिक रूप से उक्त घटना के पूर्व दावा भी कर चुके है। सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति का लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहलाने वाले मीडिया पर ऐसे दुर्जन प्रहार का संज्ञान आखिर कौंन लेगा? मीडिया (संबंधित पत्रकार) ने भी अभी तक इस संबंध में कोई एफआईआर दर्ज नहीं कराई है। क्या उनके भी हाथ पाव फूल गये? मंत्री महोदय ने जब गलत व्यवहार किया है और यदि उन्होंने कानून का उल्लघंन नहीं किया है, जिस कारण से यदि एफआईआर दर्ज नहीं कराई गई है तो, फिर ‘‘एक हाथ से ताली बजाने की कोशिश’’ करती हुई मीडिया की इस हाय तौबा का मतलब क्या है? अपशब्दों का बवाल राजनेताओं में ही नहीं बल्कि मीडिया में भी प्रचलित है। वे अपने को सबसे ऊपर मानकर कालर खड़ी कर दूसरों को कुछ न मानकर मुह से उन पर बंदूक छोड़ने पर गुरेज़ नहीं करते है।
अंततः अटल बिहारी वाजपेयी के ‘‘राजधर्म’’को अपनाने की नीति को आगे बढ़ाते हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे अच्छी बात तो यही होगी कि वे मंत्री अजय मिश्रा को तुरन्त अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर ‘‘देर आयद दूरूस्त आयद’’ की तर्ज पर ठीक उसी तरह जिस प्रकार तीनों कृषि कानून बिल को वापस लिया गया, अपनी दृढ़ छवि को बनाए रखे, जो देश के लिए भी आवश्यक है। उनका यह कदम लोकतंत्र को और मजबूत ही करेगा। पुरानी कुछ अच्छी परिपाटी व उदाहरणों को आगे बढ़ाने में भी यह सार्थक सिद्ध होगा।
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