26 नवंबर 2020 से प्रारंभ होकर 9 दिसंबर 2021 को समाप्त (या स्थगित? कुछ क्षेत्रों में स्थगित होना बतलाया गया है) हुए किसान आंदोलन का प्रारंभ-समाप्ति, उपलब्धि-अनुपलब्धि, संवाद-संघर्ष, हिंसा-अहिंसा, समयावधि आदि समस्त समग्र दृष्टि से आंकलन का परिणाम बहुत कुछ अप्रत्याशित, अनपेक्षित व अनूठा हो सकता है। कुछ लोग इसे सरकार की जीत, या किसानों की जीत, तो कुछ खट्टे-मीठे उपलब्धि की बात कह सकते हैं। परन्तु वास्तव में क्या हुआ और आम साधारण सीमांत किसान जिसके नाम पर और जिसके लिये यह आंदोलन वास्तव में शुरू किया गया और सरकार द्वारा अंततः प्रायः मांगे मानकर समाप्त करवाया गया, ऐसा परसेप्शन बनाया गया। परन्तु आखिर इससे किसको क्या हासिल हुआ? यह गंभीर, विचारणीय एवं चिंतनीय प्रश्न नहीं, विषय है।
मतलब! सरकार व किसान नेताओं की विश्वसनीयता? (सरकार ने भी एमएसपी को कानूनी दर्जा के लिये समिति बनाने की मांग कही थी, जो नहीं की गई) 378 बहुमूूल्य दिनों (समय) की बर्बादी? ठंड-धूप-बरसात को सहता हुआ निरीह किसान का मजबूत शरीर? जन-धन की छति। (700 से ज्यादा किसानों की मृत्यु)। कोरोना काल में देश की आर्थिक तंगी की स्थिति में भी पैसों का अनावश्यक अपव्यय? (आंदोलन का शाही खर्चा) संसद की सर्वोच्चता पर सिद्धांतः नहीं बल्कि कार्यरूप से प्रश्नवाचक चिन्ह? (संसद में पारित कानून की वापसी) लोकतंत्र में बहुमत की बजाय अल्पमत की विजय! (अल्पमत को स्वीकार कर कानून रद्द किए गए) दृढ़, मजबूत, अटल छवि (प्रधानमंत्री की) में चुनावी राजनैतिक मजबूरी के कारण दरार? शब्दावली, वाक्यों व कथनों का गिरता निम्न से निम्नतर स्तर और न जाने क्या क्या क्या? आपको मेरे इन कथनों पर आश्चर्य अवश्य हो सकता है। लेकिन यदि आप इसका विश्लेषण आगे देखेंगे तो, आप भी अपने को ठगा सा ही महसूस पाएंगे।
सबसे बड़ा प्रश्न आज यह उत्पन्न होता है कि किसान आंदोलन की समाप्ति के बाद ‘‘एसकेएम’’ की मुख्य मांग एमएसपी को कानूनी दर्जा मिलने की क्या पूरी हो गई? आज जो सहमति बनी, घोषणा हुई और केन्द्रीय सरकार की ओर से जो लिखित पत्र केन्द्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल ने भेजा, उसमें एमएसपी प्रभावी बनाने के लिये समिति गठित करने का निर्णय की बात कही गई। उक्त प्रस्तावित समिति में केन्द्र व राज्य सरकार कृषि वैज्ञानिक एवं किसान प्रतिनिधि के साथ ‘‘एसकेएम’’ के प्रतिनिधी भी शामिल होंगे। यानी ‘‘गयी भैंस पानी में’’। क्योंकि उक्त पत्र में एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने संबंध कोई सहमति या उल्लेख कहीं नहीं है, जो मांग काफी पुरानी थी और मूल रूप से जिस की ही लड़ाई ‘‘एसकेएम’’ लड़ रहा था। प्रधानमंत्री ने जब तीनों कानून वापसी की घोषणा की थी, तब भी उन्होंने उक्त घोषणा के साथ एमएसपी को अधिक कारगार, प्रभावी बनाने के लिए एक कमेटी बनाई जाने की बात स्पष्ट रूप से कही थी। जब एमएसपी पर यही स्थिति व इसी बात को मानना था, तब आंदोलन को प्रधानमंत्री की कानून वापसी की घोषणा के दिन ही क्यों नहीं समाप्त कर दिया गया? इसका जवाब देने में किसान नेता हकला जाएंगे। परन्तु वे अपनी असफलता को छुपाने के लिये बेशर्मी से खुशियों का इज़हार कर रहे हैं।
इस पूरे आंदोलन और सरकार के रुख से छन कर निष्कर्ष रूप में यह ध्वनि निकलती है कि, इस आंदोलन के समस्त पक्ष अर्थात संयुक्त किसान मोर्चा, केंद्र व राज्य की सरकारें, राजनैतिक दल, मीडिया और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, सबने मिलकर इस आंदोलन के माध्यम से देश के आम व ‘‘आंदोलनजीवी’’ किसानों को मूर्ख बनाकर सिर्फ ठगा ही है। वह कैसे! इस बात को आप को समझना होगा। वास्तव में किसानों का मुद्दा या समस्या एमएसपी पाने की नहीं है। 1952 से एमएसपी चली आ रही है। एमएसपी का मतलब होता है, विभिन्न सरकारी एजेंसी अर्थात भारतीय खाद्य निगम, नागरिक आपूर्ति निगम, नाबार्ड, स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन, राज्य विपणन संस्थाएं आदि केंद्रीय व राज्य स्तर पर तथा व्यापारियों द्वारा कृषि मंडी में कृषि उत्पादों की खरीदी सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम मूल्य पर न हो। मुझे कोई भी किसान नेता यह सरकार या बतला सकती है क्या कि मंडियों में जहां पर अधिकांश खरीदी किसानों की कृषि उत्पाद की, आती है, वहाँ पर क्या सरकार द्वारा घोषित मूल्य से कम पर कृषि उत्पाद की खरीदी होती है? यह होना संभव नहीं है। एक भी उदाहरण रिकॉर्ड पर मिलना संभव नहीं है। परन्तु खरीदी न होने का मतलब कदापि एमएसपी न मिलना नहीं है।
अतः समस्या एमएसपी से कम पर खरीदी की नहीं है, बल्कि कृषि उत्पाद की जाने की है। वास्तविक समस्या ’कृषि उत्पाद की न्यूनतम मात्रा की खरीदी की है। यदि सरकार या उसकी एजेंसीज् कृषि उत्पाद नहीं खरीदते हैं, तो एमएसपी की गारंटी का कानूनी आधार बन जाने के बावजूद भी वे कानून के उल्लंघन के दोषी नहीं पाए जाएंगे। क्योंकि खरीदी न करना कानूनन् तब भी एक संज्ञेय अपराध नहीं होगा, जब तक की न्यूनतम मात्रा की खरीदी न करने पर सजा होने का कानून न बने। इसके बनाने की मांग कोई भी नहीं कर रहा है। क्या यह किसानों की आंखों में धूल झोकना नहीं हैं? एमएसपी न मिलने का मूल कारण उचित मात्रा में कृषि उत्पादों की खरीदी न होना मात्र है। यद्यपि आखिरी में आंदोलन के अंतिम चरण में कहीं-कहीं दबी जबान में यह बात जरूर कही गई। परंतु वह भी अंदर खाने में ‘‘हाथों के तोते उड़ जाना’’ समान ही सिद्ध हुई।
अतः यदि ऐसी न्यूनतम मात्रा की खरीदी का कानून बनाया जाता है तो, उसमें यह व्यवस्था भी की जानी आवश्यक है कि 5 एकड़ से कम खाते वाला छोटा सीमांत किसान (जो कृषको की कुल संख्या का लगभग 80 प्रतिशत है) की मंडी में आयी उपज की पूरी खरीदी हो, 5 से 10 एकड़ की 50 प्रतिशत और इससे अधिक वालों की 10 प्रतिशत खरीदी की गारंटी हो। कुछ इस तरह की या इससे मिलती-जुलती व्यवस्था कानूनी रूप से किए जाने पर ही आम जरूरतमंद किसानों की जरूरतें कुछ हद तक पूरी हो पाएगी व बड़े प्रभावशाली किसानों का वर्चस्व कम होकर वे सीमांत कृषकों का हक छीन नहीं पायेगें। चंूकि आंदोलन चलाने वाले मंच पर बैठे नेता एमएसपी पाने वाले बड़े किसान नेता है। अतः छोटे किसानों के हित की बात कौंन करेगां? वह तो मंच के सामने ठंड में ठिढुरकर, गर्मी में तपकर व बरसात में भीग कर नीचे बैठा रहा। उसे तो ‘‘न माया मिली न राम’’ सिर्फ ‘‘ठन-ठन गोपाल’’!
एक अनुमान के अनुसार सरकार अभी तक कुल कृषि उत्पाद का सालाना लगभग मात्र 8 प्रतिशत ही वह भी कुछ उत्पादों (फिलहाल 23 फसलों) की ही एमएसपी पर खरीदी कर रही है। यह मात्रा व कृषि उत्पादों की संख्या बढ़ाई जाकर खरीदी की न्यूनतम मात्रा की सीमा निश्चित किया जाना अति आवश्यक है। तभी आम किसानों को वास्तविक फायदा मिल सकता है। अतः किसानों की मांग एमएसपी के साथ न्यूनतम मात्रा की खरीदी के लिए कानून बनने की मांग होनी चाहिए थी, जो वास्तव में नहीं रही। इसीलिए आज आम किसान समस्त पक्षों द्वारा ठगा हुआ है। सही है, ‘‘मरे को मारे शाह मदार’। बावजूद इसके वह अपने ठगे जाने को महसूस व समझ भी नहीं पा रहा है। आंदोलन की समाप्ति के बाद किसान जिस तरह से खुशियों इजहार करते हुये घर वापिस जा रहे हैं, इससे किसानों के ठगे जाने का उन्हे एहसास न होने की तथ्य की पुष्टि होती है। शायद इस देश के आम किसान की नियति भी ही यही है। देश की लोकततांत्रिक राजनीति का इससे बड़ा दुर्भाग्य और कुछ नहीं हो सकता है। ‘‘इस हमाम में सब नंगे हैं’’। इस अटल सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है।
अन्नदाता आंदोलन स्थल से क्या लेकर घर खेत, खलियान वापस जा रहे हैं? इस दृष्टि से यदि आंकलन किया जाए तो किसानों के खाते में आयी सबसे बड़ी उपलब्धि संसद द्वारा पारित तीनों कृषि कानूनों की वापसी ही है, जो आज तक के इतिहास में पूर्व में शायद ऐसा कभी नहीं हुआ। परंतु ‘‘ओस चाटने में प्यास नहीं बुझती’’। यदि यही सबसे बड़ी उपलब्धि किसानों की दृष्टि में होती तो, निश्चित रूप से आंदोलन प्रधानमंत्री की घोषणा के दिन ही समाप्त हो जाता, जो नहीं हुआ। मतलब ‘‘एमएसपी’’ को कानूनी दर्जा देने की उनकी मांग कानून वापसी की मांग से ऊपर रही, जो अंततः पूरी नहीं हुयी। यह तब हुआ, जब सरकार का बार-बार इस पर यह स्पष्ट कथन व संदेश रहा कि एमएसपी थी, है, और रहेगी। बावजूद इसके सरकार ने एमएसपी की गारंटी के लिए कोई कानून बनाने का लिखित आश्वासन या यहाँ तक कि इसका उल्लेख भी सरकार की ओर से केन्द्रीय कृषि सचिव द्वारा दिए गए पत्र में नहीं है। अतः निष्कर्ष रूप में आंदोलन वापसी के लिये हुई यह सहमति आम किसानों की पीठ पर छुरा घोपनें समान है।
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