शनिवार, 31 दिसंबर 2022

‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ दुष्परिणाम-दुरूपयोग?

 

 ‘‘बलात्कार’’ व सहमति के साथ ‘‘सहवास’’ में कुछ तो अंतर रहने दीजिए?                 

हाल में ही कुछ सेलिब्रिटीज की हत्या, वीभत्स हत्या और आत्महत्या होने पर यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि, ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ भारतीय संस्कृति में कितनी जायज व उचित है?‘‘मूलभूत निजता के अधिकार’’ के आधार पर उनके सामाजिक और कानूनी मान्यता देने के पूर्व इसके दुरुपयोग-दुष्परिणाम की कितनी संभावनाएं अंतर्निहित हैं? अतः इस पर वर्तमान बढ़ती हुई घटनाओं को देखते हुए ‘‘राजहंस के समान नीर-क्षीर विवेक बुद्धि’’ से गंभीरता से विचार किए जाने की क्या नितांत आवश्यकता नहीं है?

अभी तुनिषा शर्मा (साथी शीजान खान) द्वारा की गई आत्महत्या (हत्या?) और इसके पूर्व श्रद्धा वाल्कर (शरीर के 35 टुकड़े) (साथी आफताब अमीन पूनावाला) और झारखंड की रूबिका पहाडिन नामक (शरीर के 50 टुकडे) की जघन्य तरीके से हत्या की गई। इन तीनों ही मामलों में वे तीनों युवतियों बिना शादी किए हुए लिव-इन-रिलेशन में साथी व्यक्ति के साथ रह रही थी। अब ‘‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहा से होय’’। जुलाई 2022 में नोयडा में लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाले अजय चैहान ने आत्महत्या कर ली। इस प्रकार महिलाएं ही नहीं, बल्कि लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने वाले पुरूष भी अप्राकृतिक मौत के शिकार हो रहे हैं। ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बात इन मामलों में यह भी है कि युवक और युवती के बीच मनमुटाव, लड़ाई झगड़े हुए जिनकी रिपोर्ट भी की गई, जिसकी जानकारी युवतियांे के माता-पिता को भी थी। बावजूद इसके जब तक वे युवतियाँ इस दीन-दुनिया से बेरहमी से विदा नहीं कर दी गई, उनके माता-पिता से लेकर समाज व स्वयं युवतियों ने उनके लिव-इन-रिलेशन जीवन पर प्रभावी आपत्ति नहीं की, जिसके उक्त दुष्परिणाम देखने को मिले।

उल्लेखित प्रकरणों में तुनिषा शर्मा ने तो परेशान होकर अथवा अन्य कारणों से आत्महत्या कर ली। इनकी माता श्री हत्या का एंगल (दृष्टिकोण) लाने का भी प्रयास कर रही हैं। तूनिषा का साथी शीजान खान के साथ तीन महीने का रिलेशन रहा। मृत्यु के 15 दिन पूर्व ही दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया था। धर्म के साथ उम्र में भी बड़ा अंतर था। श्रद्धा वाल्कर को तो बुरी तरीके से बेरहमी के साथ 35 टुकड़े-टुकड़े कर मौत के घाट उतार दिया गया। उपरोक्त मामलों में युवकों के अन्य कई युवतियों के साथ अंतरग संबंध थे, जो शायद कलह विवाद का कारण बने। कहते है कि ‘‘दूध का जला छाछ भी फूक कर पीता है’’, परन्तु अन्य युवतियों से अनैतिक संबंधों की जानकारी अभिभावकों को होने के बावजूद वे अपनी बेटियों को लिव-इन-रिलेशन से इन जीवन साथियों से अलग नहीं कर पाए, जैसा कि उनकी मृत्यु के बाद अब वे क्रोध, दुख व विषाद् व्यक्त कर रहे हैं। 

इन तीन प्रकरणों में से दो प्रकरणों में मुसलमान युवक जीवन साथी थे, जिस कारण इन प्रकरणों को ‘लव-जिहाद’ का एंगल देने का भी प्रयास किया गया। परंतु इसी तरह के अनेक प्रकरणों में हमने यह देखा है कि ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ के टूटने पर युवती उस साथी युवक के ऊपर बलात्कार का केस दर्ज करवाती है, जिसके साथ वह महीनों, वर्षों साथ में रहकर सहमति के साथ सहवास करती है। उसका यह आरोप कदापि नहीं होता है कि ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ के दौरान उसकी इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती साथी युवक ने सहवास किया। बल्कि आरोप यह लगाया जाता है कि उसके साथ शादी का प्रलोभन देकर शादी न करके धोखा कर या अन्य कोई लालच, धमकी, डर के कारण वह लिव इन रिलेशनशिप में रहती रही। ‘‘अपने बेरों को खट्टा कोई नहीं कहता’’। वास्तव में लिव-इन-रिलेशनशिप के टूटने के बाद युवतियों द्वारा इस तरह की लगभग की जा रही ब्लैकमेलिंग को रोकने के लिए सहमति के साथ किए गए सहवास को किसी भी स्थिति में बलात्कार की परिभाषा में नहीं लाना चाहिए, इस तरह के संशोधन की बलात्कार की परिभाषा में नितांत आवश्यकता है। धोके के साथ ली गई सहमति को धोखधड़ी का अपराध माना जाना चाहिये, जिस प्रकार ऐसी स्थिति में पुरूषों के लिये कानूनी व्यवस्था है। इसी कारण से भा.द.स. की धारा 376 लैंगिक रूप से समान नहीं है।   

बलात्कार में बल शब्द से ही यह स्पष्ट होता है कि बलपूर्वक जबरदस्ती युवती के साथ सहवास करना ही बलात्कार है। एक समय बलात्कार न केवल एक अत्यंत घृणित कृत्यों के साथ शब्द माना जाता रहा, बल्कि उससे एक खौफनाक खौफ और घृणित अपराध का आभास भी होता था। लेकिन आजकल बलात्कार और सहमति के साथ सहवास को बलात्कार की निकट लाकर बलात्कार की परिभाषा में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाकर उसकी व्याख्या व उसकी भयानकता को कम करने का प्रयास एक ओर किया जा रहा है। तो दूसरी ओर कानून को कड़क बनाकर सजा को कड़क कर उक्त अपराध के अपराधी को अधिकतम सजा देने का प्रयास भी किया जा रहा है। निश्चित रूप से सजा को कड़क बनाए जाना तो उचित और जायज है। परन्तु विपरीत इसके बलात्कार की परिभाषा को विस्तृत करने के नाम पर लिबरल (उदार) करना बलात्कार की वीभत्सता भयानक और घृणा को कम करने के ही बराबर है।

वास्तव में लिव-इन-रिलेशनशिप हैं क्या? जब दो व्यस्क अपनी मर्जी से बिना शादी किये एक छत के नीचे रहते है, तो उसे लिव-इन-रिलेशनशिप कहते है। उसकी कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। इसलिए यह अंधों का हाथी’’ बना हुआ है। परन्तु घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा एफ-2 में इसे परिभाषित किया गया है। तथापि उच्चतम न्यायालय ने ऐसे संबंधों की वैधता को बरकरार रखा है। वर्ष 1952 में गोकुल चंद बनाम परवीन कुमारी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि इस तरह कई सालों तक एक साथ रहना शादी ही मानी जायेगी। इसके बाद वर्ष 1978 में उच्चतम न्यायालय ने ‘‘बद्री प्रसाद बनाम डायरेक्टर ऑफ कंसोलिडेशन’’ के मामले की सुनवाई के दौरान बिना शादी किए एक ही घर में रहने को मान्यता दी और कहा कि दो व्यस्क लोगों का लिव-इन-रिलेशनशिप में रहना किसी भी भारतीय कानून का उल्लंघन नहीं है। वर्ष 2022 के पंजाब हाई कोर्ट के एक निर्णय ने विवाह के होते हुए भी दूसरे व्यक्ति के साथ ‘‘लिव-इन-रिलेशनशिप’’ में रहना अपराध नहीं माना है, क्योंकि एडल्टरी (व्यभिचार, परस्त्रीगमन/परपुरुष गमन) को अपराध की श्रेणी से पहले ही हटा दिया गया है, यद्यपि ‘तलाक’ के लिए यह एक वैधानिक आधार आवश्यक माना गया है। तथापि मेरी नजर में पंजाब उच्च न्यायालय का यह निर्णय उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णय के विपरीत है, जहां लिव-इन-रिलेशनशिप को शादी की मान्यता दी है। तदनुसार ही और बालसुब्रमण्यम विरुद्ध सुल्तान के मामले में उच्चतम न्यायालय ने लिव-इन-रिलेशन से पैदा हुए बच्चे के पैतृक संपत्ति में अधिकार को मान्यता दी है। तथापि उच्चतम न्यायालय के द्वारा अवधारित लिव-इन-रिलेशनशिप को शादी की मान्यता देने की अवधारणा पर उसके ब्रेकअप होने पर क्या तलाक लेने की आवश्यकता होगी? यह एक बड़ा प्रश्न है, जो मन में उत्पन्न हुआ है, जिसके जवाब की प्रतीक्षा है।

लिव इन रिलेशनशिप की प्रथम स्टेज वर्तमान समय में सोशल मीडिया के माध्यम से चैट के सिलसिले का चालू होना होता है। फिर द्वितीय स्टेज डेट पर जाने की होती है। तत्पश्चात की अवस्था लिव-इन-रिलेशनशिप की होती है। इसकी कोई निश्चित समय अवधि नहीं है। आधुनिक परिवेश में एक नजर में लिव-इन-रिलेशनशिप एक दूसरे को समझने का बेहतर अवसर देकर परिणामस्वरूप शादी में परिवर्तित होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर लिव इन रिलेशनशिप की अंतिम पड़ाव की यह एक आदर्श स्थिति है। इस दृष्टि से आधुनिक युग में लिव इन रिलेशनशिप का समर्थन किया जा सकता है, यदि शादी के पूर्व शारीरिक संबंध न बनाये जाएं क्योंकि सभ्य व नैतिक समाज में शादी ही शारीरिक संबंध बनाये जाने का एकमात्र वैध लाइसेंस है। परंतु वास्तविकता में यह अक्सर ‘‘दूर के ढोल सुहावने’’ ही सिद्ध होता है, क्योंकि व्यवहार व धरातल पर उक्त आदर्श स्थिति नगण्य ही है। इसलिए इसके वर्तमान में दिन-प्रतिदिन सामने आ रहे दुष्परिणाम को देखते हुए इसका विरोध तेजी से होते जा रहा है। इस पर ठीक उसी प्रकार से प्रतिबंध लगाये जाने चाहिए, जिस प्रकार से संविधान द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकार से पूर्ण (एब्सुलूट) नहीं होते हैं, ताकि भारतीय सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्था चरमराये-भरभराये-ढ़हाये नहीं? क्योंकि यह हमारी संस्कृति की हमारी मूल पहचान है, के विरूद्ध होकर नैतिक व सामाजिक रूप से अस्वीकार है।

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

सुशासन बाबू? न ‘‘सु‘‘ न ‘‘शासन‘‘ सिर्फ ‘‘बाबू’’ रह गये।

बिहार के छपरा जिले में जहरीली शराब से अभी तक लगभग 70 से ज्यादा अकाल मृत्यु होकर काल के गाल में समा चुके हैं। ‘कालस्य कुटिला गतिरू’। आंकड़े इससे भी ज्यादा हो सकते है। बिहार सरकार पर विपक्ष द्वारा ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि सरकार संख्या को दबा रही है। पोस्टमार्टम किये बिना ही शवों को दफनाया जा रहा है। जहरीली शराब से देश में मौत की यह न तो पहली घटना है और न ही बिहार राज्य तक ही सीमित है। परन्तु बिहार के मुख्यमंत्री और समस्त राजनीति के रंगों को अपना कर स्वाद चख चुके सुशासन बाबू बने नीतीश कुमार की ‘‘क्षते क्षार-प्रक्षेपरू’’ रूपी दुर्भाग्यपूर्ण, मानव निर्मित प्रशासनिक लापरवाही व असफलता के कारण उक्त घटना घटी। इससे उत्पन्न आक्रात्मक आलोचनाओं की प्रतिक्रियात्मक बयान, कथन, भाव-भंगिमा नीतीश कुमार की जो आयी है, निश्चित रूप से वह न केवल ‘‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’’ की उक्ति के अनुरूप अकल्पनीय, असोेचनीय व अस्वीकार्य है, बल्कि भौंचक्का करने वाली भी है। एक चुने हुए जनप्रतिनिधि का, जनता की जान-माल की सुरक्षा से लेकर उनकी समग्र विकास का दायित्व होता है, से जनता द्वारा चुने गये मुख्यमंत्री से आम भुगतमान जनता ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद कदापि नहीं कर सकती है। वस्तुतः यह लोकतांत्रिक जन-प्रतिनिधियों की कार्यकुशलता व कार्यप्रणाली की स्थापित मान्य परसेप्शन के एकदम विपरीत है।

शराबबंदी के कारण अवैध शराब के उपभोग से हुई मृत्यु और जहरीले शराब की खपत चाहे शराबबंदी हो अथवा न से हुई मृत्यु में अंतर है। यहां मूल प्रश्न जहरीले शराब के निर्माण, वितरण व उसके उपभोग का है न कि ‘‘शराबबंदी’’ का है, इसको सबको समझना होगा। जिन प्रदेशों में शराबबंदी लागू नहीं है, क्या नीतीश कुमार वहां जहरीले शराब से हो रही मृत्यु को ‘‘बद अच्छा बदनाम बुरा’’ की तर्ज पर उचित ठहरा सकते हैं? इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में सरकार की दो स्पष्ट असफलताएं सामने दिखाई दे रही है। प्रथम लागू की गई शराबबंदी को पूर्णतः लागू करने में राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के बावजूद प्रशासनिक असफलता। द्वितीय जहरीले शराब के निर्माण को रोकने में सूचना तंत्र और प्रशासनिक तंत्र दोनों की बड़ी विफलता। 

अंततः एक मानव नागरिक की संलिप्तता, संलिगता व दोषी अपराधी, मनोवृत्ति, प्रवृत्ति के कारण ही कोई अपराध व आपराधिक वारदात घटती है। तो क्या सरकार हर अपराध के लिये यह कहकर कि ‘‘फिसल पड़े तो हर हर गंगे’’, अपने संवैधानिक कानून का राज बनाये जाने के दायित्व से मुक्त हो सकती है कि जिस अपराधी व्यक्ति ने कानून तोड़ा है, उसका दुष्परिणाम वैसा आना ही है? अर्थात अपराध किया इसलिए अपराधी भुगते? अरे ‘‘जान है तो जहान है’’ सुशासन बाबू, जो जान से गया वह क्या भुगतेगा? भुगतना तो उसके अभागे परिवार को है। उक्त सिद्धान्त सुशासन बाबू ने वर्तमान जहरीली शराब के पीने से हुई मौत पर एक बार नहीं लगातार तीन बार विभिन्न अवसरों पर कहा है। ऐसी स्थिति में सुशासन बाबू का सुशासन तो दूर शासन का भाव ही खत्म होता दिखता है, विपरीत इसके कहीं न कहीं उनका अहम, घमंड परिलक्षित होता और ‘‘अंधे के आगे रो कर अपने दीदे खोने’’ वाला दिखता है। जब वे विधानसभा में अपने साथी बिहार के उपमुख्यमंत्री के साथ ‘‘मुस्कराते हुए’’, साथ ही ‘‘रौद्र रूप’’ के साथ पत्रकारों की ओर आमुख होते हुए वे कहते है ‘‘जो पियेगा वह मरेगा ही’’, तब मानवीय संवेदनाएं तो दूर-दूर तक तनिक भी दिखाई नहीं देती है। जब ‘‘रोम जल रहा था, नीरो बंसी बजा रहा था’’, वही हाल नीतीश कुमार का है।  

निश्चित रूप से तथ्यात्मक, तकनीकी और कानूनी रूप से नीतीश कुमार के कथन शाब्दिक रूप से सही होने के बावजूद, लोकतंत्र के लोकप्रिय चुने गये जननेता के रूप में उनका यह कथन अत्यंत निंदनीय, अस्वीकार योग्य व भर्त्सना योग्य है। उक्त वर्णित भाव भंगिमा लिए उक्त अविवेकपूर्ण कथन ‘‘अविवेकरू परमापदाम् पद्मरू’’ का लक्षण है, इस कारण उन्हें स्वयं पद पर बैठने का कोेई नैतिक अधिकार नहीं रह जाता है और न ही मृतक 70 लोगों की आत्मा राज्यपाल के शरीर में प्रवेश कर उन्हें कुर्सी पर चैन से बैठने देगी? राज्यपाल को  सरकार को तत्काल भंग कर देना चाहिए।

आखिर लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार का दायित्व होता क्या है? कानून व्यवस्था बनाये रखने से लेकर जनता जनार्दन का समुचित समग्र तथा संपूर्ण विकास के लिए विभिन्न कानूनों को विधानसभा में पारित करवा कर अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देते हुए भरपूर उपयोग कर कानूनों को धरातल के स्तर पर अधिकतम लागू करवाने का दायित्व आखिरकार सरकार अथवा उनके मुखिया मुख्यमंत्री की ही होती है। वह ‘‘तबेले की बला बन्दर के सिर’’ मढ़कर बच नहीं सकता। लागू किये गये कानूनों का जो नागरिक उल्लंघन कर अपराध करते है, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई अवश्य की जानी चाहिए। परंतु नीतीश कुमार का यह तर्क नहीं कुर्तक है कि कानून का उल्लंघन कर एक नागरिक ने अपराध किया है तो, मुआवजा का प्रश्न कहां उत्पन्न होता है? घटना में मरे व्यक्तियों जो प्रायः निर्बल व अत्यंत गरीब वर्ग के है, को मुआवजा दे देने से आपकी शराबबंदी की नीति गलत नहीं हो जाती है, न ही उसके औचित्य पर प्रश्न खड़ा हो जाता है। यह पूर्णतः मानवीय संवेदनशीलता का मामला है। भारतीय संस्कृति में जहां व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो, उसकी मृत्यु हो जाने पर सिर्फ उसके गुणों का बखान होता है? अवगुणों का नहीं? क्यों इस संस्कृति की इस पहचान, छाप को भी नीतीश कुमार भूल गये?

जेपी (जयप्रकाश नारायण) की कार्यस्थली से निकले नेता नीतीश कुमार शायद यह भूल गये है। वास्तव में इस देश में हर्जाना एक राजनैतिक टूल बन गया है, जहां घटना की गंभीरता व उससे उत्पन्न आक्रोंश को कम करने के लिए घटनाओं की प्रकृति को देखते हुए मानव जीवन के मूल्यों को भी विभिन्न कीमतों द्वारा निर्धारित कर तदानुसार लाखों रुपए से करोड़ों रुपयों में किया जाकर मुआवजे की ‘रेवड़ी’ बांट दी जाती है। नीतीश कुमार केजरीवाल की ‘‘सब धान बाइस पसेरी’’ वाली रेवड़ी नीति से असहमत हो, तब भी मुआवजा बांटना रेवड़ी नहीं है, इतना सुशासन बाबू को समझना होगा। 

बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री, सुशील मोदी की उक्त दुखद घटना पर एक सधी हुई प्रतिक्रिया के लिए उनकी प्रशंसा अवश्य की जानी चाहिए। प्रथम उन्होंने स्पष्ट कहा कि मुख्यमंत्री की नियत पर कोई शक नहीं है। बेशक शक की गुंजाइश की कोई संभावना भी नहीं है, क्योंकि बीते छः सालों में ढाई करोड़ लिटर अवैध शराब जब्त की जाकर, साढे छः लाख से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हुई है। दूसरा यदि कोई नीति (शराबबंदी) असफल हो रही है, तो उस पर पुनर्विचार अवश्य किया जाना चाहिए। 

कहते हैं न कि ‘‘संगत का भी असर‘‘ होता है, जिसका आचरण, व्यवहार, कार्य क्षमता व कार्य कुशलता पर बड़ा व गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसा लगता है कि, ऊक्त उक्ति बिहार के मामले में सही सिद्ध होती दिख रही है। जहरीली शराब की हृदय हिला देने वाली जो घटना घटित हुई, कही वह नीतीश कुमार की एक अच्छी संगत एनडीए छोड़ने का दुष्परिणाम तो नहीं है? और उसके आगे मुआवजा न देने के अड़ियल अमानवीय रवैया से तो निश्चित रूप से आरजेडी की ‘‘राम मिलाई जोड़ी’’ की संगत का स्पष्ट असर दिखता है। इसलिए नीतीश कुमार को समस्त दृष्टिकोण से इस घटना से उत्पन्न अनेक प्रश्नचिन्हों पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि उनकी शराबबंदी की नीति 100 प्रतिशत सही है, और ये घटनाएं हर प्रदेश में होती रहती है, इसलिए इस नीति पर पुनर्विचार नहीं किया जायेगा, समायोचित नहीं होगा। ‘‘जो जैसा करेगा, वैसा ही भरेगा’’ इस सिद्धांत को यदि नीतीश कुमार बेचारे, निरीह, मजबूर अपराधी मृतकों पर लागू कर रहे है, तो कभी स्वयं पर लागू कर सोचिये? दूध का दूध व पानी का पानी हो जायेगा। सत्य को असभ्य तरीके से कहना भी सत्य का अपमान होकर, सामान्य लोगों के गले में नहीं उतरेगा। 

शराबबंदी सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत अच्छी व्यवस्था है जो शांति के लिए जरूरी है। इस कारण सड़कों पर छेड़छाड़ की घटना घटनाएं कम ही होती है, महिलाएं ज्यादा सुरक्षित महसूस करती है। शराबबंदी दुनिया के कई देशों में लागू करने की कोशिश की गई। भारत में इन पांच प्रदेशों गुजरात, नागालैंड, मिजोरम, बिहार, उत्तराखंड में शराबबंदी लागू है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2022

क्या कांग्रेस का चिंतन और ‘‘राजनीतिक विवेक’’ ‘शून्य’ हो गया है?

यूपीए सरकार के समय एक अनाम लेखक भारतीय राजनीति में परोसे जा रहे अपशब्द, राजनीतिक गालियों, जहरीले बोल  (जिसे राजनीति का रिवाज बना दिया गया है) पर किताब लिखना चाहते थे। परन्तु उसमें वे असफल हो गये, क्योंकि तत्समय राजनैतिक वातावरण सदाचार युक्त होकर तुलनात्मक रूप से ठीक-ठाक ही था, और विपक्षी दल अटल जी और आडवाणी की भाजपा का चरित्र निश्चित रूप से वर्तनाम विद्यमान समय आज की तुलना में और कांग्रेस की तुलना में बहुत बेहतर था। अतः तत्समय विपक्ष अर्थात् भाजपा द्वारा सत्तापक्ष अर्थात् कांग्रेस के नेताओं को बहुत कम गालियां मिलने के कारण, वह किताब अधूरी ही रह गई। एनडीए सरकार आने के बाद जब गालियों का नया दौर चला (नए दौर की नई गालियां) तब उस अनाम व्यक्ति को पुनः ख्याल आया क्योंकि अब शब्दों से लेकर गालियों, जहरीले बोलों की निडर बाढ़ सी आ गई। सूप और चलनी सब बोलने लगे है।

राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व एवं अनुशासन समितियों द्वारा अधिकांश मामलों में ऐसे बयानों को रोकने के लिए नेताओं के खिलाफ प्रायः कोई बड़ी कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती रही है, बल्कि उसे अनसुना, अनदेखा कर दिया जाता रहा है। इस प्रकार पिछले कुछ समय से इस रिवाज में तेजी से वृद्धि होकर कांग्रेस नेताओं द्वारा दी जा रही धडाधड गालियों से पर्याप्त सामग्री संचित हो जाने से मुझे ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में किताब लिखी जा जाकर उसका प्रकाशन भी हो जाएगा। मेरे एक दोस्त जो यह लेख लिखते समय सामने ही बैठे थे, उन्होंने टोकते हुए तपाक से कहा, भाई साहब इस विषय पर एक नहीं कई किताबें लिखी जा सकती है, क्योंकि इस समय दिल्ली में जैसे कचरे का पहाड़ (जो एक राजनैतिक मुद्दा) बन गया है, वैसे ही गालियों का पहाड़ भी बन गया है। आप उनका अर्थ समझ ही गए होंगे। उन अभद्र गालियों का उदहरण करना यहां शोभायमान नहीं होगा। कांग्रेस की वर्तमान में हालत ऐसी ही है।

हाल ही में मध्य प्रदेश कांग्रेस के  नेता व पूर्व मंत्री दमोह (हटा) के राजा पटेरिया का बयान बड़ा गर्म चर्चा का विषय बना हुआ है, जिस पर मध्य-प्रदेश सरकार के गृहमंत्री मिश्रा ने तुरन्त संज्ञान लेकर एफआईआर दर्ज कराकर पुलिस ने राजा पटेरिया को गिरफ्तार भी कर लिया। इन घटनाओं से एक बड़ा गंभीर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या कांग्रेस का शीर्षस्थ नेतृत्व इतना विवेक शून्य हो गया है? क्या कांग्रेसी नेतृत्व को इतनी सी भी समझ नहीं हैं कि "अपने करनी ही पार उतरनी होती" है और इस तरह के "अधजल गगरी"  रूपी बयानवीरों के बयानों से कांग्रेस को कौन सा फायदा मिल पाएगा ? यदि कांग्रेस के बयान वीरों की यह बात मान भी जाए कि उनके बयानों का अर्थ का अनर्थ निकाला जाकर उन्हें बदनाम किया जा रहा है, तब भी उनके अर्थपूर्ण बयान से कांग्रेस या बयानवीर

 नेताओं को कोई फायदा होता दिखता नहीं है। क्योंकि ऐसे "थोथा चना बाजे घना वाले" बयानों की कोई भी उचित संदर्भ या औचित्य दिखाई देता नहीं है। फिर भी यदि उनके बयान के बताये गये अर्थ को ही सही मान लिया जाए तब भी क्या उससे कांग्रेस को चुनावी फायदा हो सकता है?  ऐसे बेतुके निर्लज्ज बयानों से तो जनता की नजर में  कांग्रेस नेताओं के प्रति सहानुभूति उत्पन्न  नहीं हो सकती है। स्पष्ट है कांग्रेस नेतृत्व का ध्येय वाक्य  "सूरदास खल करी कमरी चढ़े न दूजो  रंग" हो चुका है और कांग्रेस में सही राजनैतिक सोच, चिंतन व मारक नीति और  प्रवती का परिपक्व अनुभवी नेतृत्व ही नहीं रह गया है, तभी तो यह स्थिति हो गई है। गालियों जैसी आक्रामकता यदि कांग्रेस की नीति-रीति में होती तो सच मानिए  आज कांग्रेस की दशा और दिशा ही दूसरी होती।

विवेकहीन राजनैतिक शून्यता व दिमागी खोखलेपन का बड़ा उदाहरण राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा है, जो यात्रा के प्रारंभ होने के तुरंत बाद गुजरात में होने वाले चुनाव से नहीं (लगभग नहीं के बराबर) गुजरती है। परन्तु 2023 के दिसम्बर में मध्य-प्रदेश व राजस्थान से 12 व 18 दिनों के लिए गुजर रही है। यदि हार के  ड़र से राहुल गांधी के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगने की आशंका के कारण भारत जोड़ो यात्रा गुजरात  नहीं ले जायी गई तब भी 56 इंच के सीने वाले साहसी विपक्षी से मुकाबले में असफल ही ठहराया जायेगा। यह कोई धार्मिक यात्रा नहीं है? जैसा कि देश में लालाकृष्ण आडवाणी ने राम जन्मभूमि की धार्मिक यात्रा निकाली थी। तथापि उससे भी उन्हें व भाजपा  को बड़ा राजनीतिक फायदा मिला था। वस्तुतः भारत जोड़ो यात्रा निसंदेह एक राजनैतिक यात्रा ही है, जो कांग्रेस की जनता के बीच गिरते जनाधार को रोककर विस्तार करने की तथा राहुल गांधी के आभा मडंल पर पड़ी निराशा के धूल को हटाकर चमकीला बनाने का एक सार्थक प्रयास है कि "बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते" । परंतु यात्रा के दौरान ही कांग्रेस के नेताओं को जोड़ना तो दूर, चली आ रही टूटन में वृद्धि ही होती गई। कांग्रेस की टूटन रुकी नहीं। जनता की भीड़ आ रही है। परन्तु उसका फायदा तभी मिल पाता जब  कांग्रेस का संगठन मजबूत होता व जनता के मन में जगे उत्साह को कांग्रेस सही दिशा नेेतृत्व दे पाता। लेकिन दूर्भाग्यवश यह कहावत यहां चरिथार्त होती है ‘‘4 दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात’’। यात्रा अपनी क्षणिक चमक देती हुई  चल रही है। परन्तु इसका प्रभाव व लाभ कांग्रेस अपनी दिशाहीन नीति के कारण और कमजोर नेतृत्व के कारण नहीं उठा पा रही, जिसका ही यह परिणाम है कि चुनाव लड़ने के लिए ‘‘सबको परखा, हमको परखों’’ व ‘‘पार्टी विथ डिफ्ररेंश’’ का नारा गढ़ने वाली भाजपा को को अब नये नारे गढ़ने की आवश्यकता ही नहीं होती है। 

वस्तुतः कांग्रेस की कार्यप्रणाली ही भाजपा को चुनाव जिताने के लिए नारा देती है। जब-जब कांग्रेस नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उपमा स्वरूप गाली दी, तब-तब प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ी, यानी "ज्यो ज्यो भीगे कामरी क्यों क्यों भारी होय" । यह एक सच्चाई है। वर्ष 2014 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने चायवाला कहकर भाजपा को चाय वाला का नारा दे दिया जो अंततः सफल हो गया जिस कारण ‘‘चायवाला’’ ही प्रधानमंत्री बन गया। 2018 में राहुल गांधी ने ‘‘चौकीदार चोर है’’ के कथन को भी भाजपा ने मुद्दा बनाकर जनता की सहानुभूति बटोरी। नवीनतम उदाहरण राजा पटेरिया का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर दिया गया बयान है, जिसे दोहराना भी उचित नहीं है। उक्त कथन के लिए अभी तक राजा पटेरिया ने  गलती मानकर माफी नहीं मांगी है। बल्कि  पटेरिया ने हत्या शब्द का अर्थ हार बताकर एक  नई राजनीतिक शब्दावली को रचा है।

राजा पटेरिया का उक्त कथन आगामी मध्य-प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए भस्मासुर साबित न हो जाये? क्योंकि कांग्रेस ने उसके अर्थ या अनर्थ को अभी तक नहीं समझा है अन्यथा उन्हें बिना किसी पूर्व सूचना के पार्टी से अभी तक तुरन्त बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। इसके पूर्व गुजरात चुनाव के दौरान कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के मोदी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग कर कांग्रेस को गुजरात चुनाव में नुकसान पहुंचाया । इसलिए "ज्यादा जोगी मठ उजाड़" की प्रतीक बन चुकी दिशाहीन कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने वाले कांग्रेस नेतृत्व की कमी के कारण मोदी व भाजपा को अगले पांच साल चुनावों में कोई खतरा नहीं है, यह साफ है।

परन्तु इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि भाजपा इस मामले में पूरी तरह दूध की धुली है। भाजपा नेताओं के भी ‘‘बकलोल’’ कम नहीं है। तथापि कमोत्तर जहरीले व थोड़ी बहुत मर्यादा लिए होते हैं। भाजपा का लगातार चिंतन शिविर व कार्यशाला लगाने के कारण यह बेहतर स्थिति हो सकती है। अतः वास्तव में कांग्रेस को दोहरी गति चिंतन शिविर लगाने की नितांत आवश्यकता है। 

बावजूद इससे बडा प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस हिमाचल में अच्छा परिणाम दे पायी। मतलब साफ है। कांग्रेस अपने बलबूते अथवा नेतृत्व के कारण नहीं, बल्कि वहां भाजपा सरकार के बुरी तरह से असफल रहने के कारण जनता की नजर में अलोकप्रिय हो जाने से उसे जीत मिली व चली आ रही परिपाटी का पालन हुआ। इसलिए तीसरा मजबूत वैकल्पिक विकल्प न होने पर "बिल्ली के भाग्य  से छींका टूटने"  के कारण कांग्रेस पुनः सरकार में आयी। यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर जो हिमाचल प्रदेश के ही है, सघन चुनावी दौरा नहीं करते तो शायद 25 सीटें भी नहीं मिल पाती। हिमाचल के चुनाव परिणाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को हिमाचल के संबंध में निर्णय लेने के लिए एक सीख जरूर देती है।

शनिवार, 10 दिसंबर 2022

गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम के प्रभाव! क्या 2023 में होने वाले मध्य-प्रदेश विधानसभा के आम चुनाव में ‘‘प्रयोग’’ दोहराया जायेगा।

गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को जो प्रचंड जीत मिली, वह न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि बहुत कुछ अप्रत्याशित भी है। पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादी सरकार के रिकार्ड 34 वर्ष के लगातार शासन के बाद भाजपा का दूसरा सबसे बड़ा यह रिकार्ड है। भाजपा की जीत की उम्मीद तो हर किसी को थी। परंतु गुजरात राज्य बनने के बाद जीत के समस्त रिकार्ड को ध्वस्त करते हुए ऐसी बंपर और बड़ी ‘‘अंग अंग फूले न समाने’’ वाली जीत की उम्मीद शायद स्वयं भाजपा को भी नहीं थी। यद्यपि वलसाड में प्रधानमंत्री ने कहा था ‘‘नरेन्द्र ने भूपेन्द्र को समस्त रिकार्ड ध्वस्त करते हुए जीत जिताने की उम्मीद अवश्य जताई थी’’। निश्चित रूप से इसका पूरा का पूरा एकमात्र श्रेय वहां के माटी के लाल, लम्बे समय तक मुख्यमंत्री रहे और देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ही जाता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक बड़ी खासियत यह है कि चुनावी राजनीति में वे चुनाव को कभी भी हल्के में नहीं लेते हैं। चुनाव जीतने के लिए वे ‘‘आपद् काले मर्यादा नास्ति’’ किसी भी सीमा तक चले जाते हैं, भले ही वे कदम अन्यों की नजर में उनके कद व पद की गरिमा के अनुरूप होते  हों अथवा नहीं। देश के इतिहास में किसी भी राज्य की विधानसभा का यह पहला चुनाव है, जहां प्रधानमंत्री मंत्री ने 39 रैली व सभाएं की (तीन बड़े रोड़ शो किये) जिसके द्वारा वे लगभग 134 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों तक पहुंचे। विपरीत इसके राहुल गांधी ने मात्र दो 2 रैली की और 3 आदिवासी विधानसभा क्षेत्र तक ही पहुंच पाए। जबकि राजस्थान व मध्य-प्रदेश में जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, के चलते वे मध्य-प्रदेश में 12 दिन दे चुके हैं और राजस्थान में भी लगभग 18 दिन समय दे रहे है। राहुल गांधी की भारत जोड़ों यात्रा जो सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पार्टी को मजबूत करने के उद्देश्य से निकाली गई है। रैली प्रारंभ होने के कुछ समय बाद ही तुरंत हो रहे चुनावी राज्य हिमाचल को इस यात्रा में न जोड़ना, गुजरात को लगभग न जोड़ना व अगले वर्ष होने वाले चुनावी राज्य मध्य-प्रदेश व राजस्थान को भर पर जोड़ना किस राजनैतिक समझ को दर्शाता या सिद्ध करता है? इससे समझा जा सकता है कि गुजरात से ‘‘आंखें चुराती’’ कांग्रेस चुनाव प्रारंभ होने के पूर्व ही मैदान छोड़ ‘‘आंखें फेर’’ चुकी थी। शायद कांग्रेस पार्टी को यह लगता होगा कि राहुल गांधी को पूरी ताकत से चुनावी अभियान में उतरने पर अपेक्षित सफलता न मिलने की आंशका में राहुल गांधी के नेतृत्व पर बड़ा प्रश्नचिन्ह फिर लग जायेगा?
विपरीत इसके भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात विधानसभा चुनाव की 15 महीने पूर्व से ही तैयारी शुरू कर दी थी। तदनुसार योजना अनुसार तब मुख्यमंत्री व पूरा का पूरा मंत्रिमंडल स्पीकर सहित को बदल दिया गया ‘‘सर सलामत पगड़ी तो हजार’’ और नये नवेले विधायक भूपेन्द्र पटेल के नेतृत्व में नई सरकार का गठन कर दिया। इसमें से भी 5 मंत्री के टिकट काटे गये जिसमें से 4 में भाजपा जीती। भाजपा नेतृत्व ने 27 सालों की बढ़ रही सत्ता विरोधी लहर को पढ़ लिया था। इसलिए उसकी काट के लिए कठोर और प्रभावी कदम उठाया गया जिसमें भाजपा को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। विपरीत इसके कांग्रेस नेतृत्व ने पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव की उपलब्धि को बनाए रखने व बढ़ाने के लिए आवश्यक पसीना नहीं बहाया, जबकि उन्हें भाजपा से ज्यादा ताकत के साथ चुनौती मैदान में कूदना था, जैसा कि केजरीवाल की आप पार्टी कूदी। परिणाम स्वरूप कांग्रेस गुजरात के इतिहास में सबसे बुरी स्थिति में पहुंच गई। सच मानिए यदि गुजरात में कांग्रेस ‘आप’ समान मीडिया प्लेटफॉर्म में उतरती व भाजपा समान धरातल पर जनता के बीच जाती तो परिणाम इतने बूरे नहीं होते।
बडा प्रश्न गुजरात के संदर्भ में क्या 19 साल के भाजपा के ‘‘अंगूठी के नगीने‘‘ व 17 वर्ष के एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी लहर) को दूर करने के लिए भी केन्द्रीय नेतृत्व नरेन्द्र मोदी व अमित शाह गुजरात प्रयोग को दोहराएंगे? इस प्रश्न का उत्तर शायद जनवरी 2023 तक निश्चित रूप से मिल जायेगा। यह बात सिर्फ हवा में नहीं है, बल्कि राजनीति और मीडिया के क्षेत्रों में चल रही गर्म चर्चा में शुमार है। इस संभावित परिवर्तन को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने गुजरात चुनाव के बाद एजेंडा आज तक के महामंच में शामिल होकर प्रश्न का जवाब देते हुए यह कथन दिया कि गुजरात का प्रयोग अन्य राज्यों में किया जा सकता है, ऐसा कह कर मानो ‘‘कलम तोड़ कर रख दी’’ है व इस मुद्दे को और हवा दे दी है। इसका साफ संकेत मध्य-प्रदेश की ओर है। इसीलिए वरिष्ठ मंत्रीगण, विधायकगण व मुख्यमंत्री गुजरात के इस परिणाम से आंतरिक रूप से सुखी होने के बजाए "कालस्य कुटिला गति" से उत्पन्न तनाव होने से गुजर रहे होगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ‘‘अशांतस्य कुतः सुखम्’’। परन्तु इस संभावित प्रयोग पर एक प्रश्नवाचक चिंह अवश्य लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के माटी के है, इसलिए वहाँ तो उन्होंने सफलतापूर्वक छक्का लगा दिया। परन्तु क्या मध्य-प्रदेश में भी वे उतने ही प्रभावशाली व उपयोगी सिद्ध होगें, यह देखने की बात होगी? शायद इसलिए यहां सत्ता के साथ संगठन में भी संगठन स्तर में भी आमूलचूल परिवर्तन होने की भी चर्चा है।
तीन प्रदेशों में हुए में चुनावों में तीनों पार्टियों भाजपा, कांग्रेस व आप को एक-एक प्रदेश में सत्ता मिली। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि तीनों जगह के जनादेश (हार-जीत एक साथ) को हृदय से स्वीकार करने में तीनों पार्टियों को हिचक हो रही है, क्योंकि देश की राजनीति की गत इस तरह की हो गई है। देश की राजनीति का यह एक बड़ा दुर्भाग्य है कि हारा हुआ दल जनता के जनादेश को शाब्दिक रूप में तो अवश्य शिरोधार्य करते हैं। परन्तु साथ ही वह ऐसे उनके विपरीत आये निर्णय के लिए विरोधियों द्वारा जनता को भ्रमित करने का आरोप भी जड़ देते है। जबकि स्वस्थ लोकतंत्र में हार के निर्णय को स्वीकार कर, जनता द्वारा तय किये गये विपक्ष के रोल को सफलतापूर्वक निभा कर, जनता के बीच जाकर, उनके सामने रखकर सत्तापक्ष की जन विरोधी नीतियों को अगले चुनाव में आने का प्रयास हारी हुई पार्टी को करना चाहिए। फिलहाल राजनीतिक पार्टियों में ऐसी स्वीकारिता का आत्मबल नहीं है।

बुधवार, 7 दिसंबर 2022

पैंतीस टुकड़ों का एक शव, एक सौ पैंतीस मौत पर भारी।

अभागा दिन हुआ रविवार दिनांक 30 अक्टूबर 2022 को हुई गुजरात के मोरबी जिले की मच्छु नदी पर बना 142 वर्ष पुराना केबल ब्रिज के टूटने पर हुई असामयिक हृदय विदारक दुर्घटना में 135 लोगों को अकाल, अकारण ‘‘मानव निर्मित घोर असावधानी’’ (गैर इरादतन हत्या) के कारण काल के गाल में जाना पड़ा। पांच दिनों तक चले 300 से अधिक लोगों के नदी में डूबने व निकालने के खोज व बचाव अभियान के चलते पांच-छः दिनों तक मीडिया की हेडलाइन बनी रहकर, घटना के लिए सरकार ने हाई पावर कमेटी, जांच आयोग और एसटीएफ का भी गठन कर दिया गया।

इस तरह की घटनाओं से सरकार जिम्मेदार व्यक्तियों के विरूद्ध उत्पन्न आक्रोश से निपटने के लिए आज की राजनीति का एक रटा-रटाया कथन ‘‘कानून अपना कार्य करेगा’’, दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा और उन्हें सख्त से सख्त सजा दी जाएगी, बयान उक्त घटना के लिए जिम्मेदार प्रशासन व शासन की ओर से आया। नौ आरोपियों जिसमें ओरेवा के दो मैनेजर, दो टिकट क्लर्क के साथ दो ठेकेदार और तीन सुरक्षा गार्ड शामिल थे, को गिरफ्तार किया गया। मोरबी नगरपालिका के मुख्य अधिकारी को निलंबित कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संवेदनाएं भी व्यक्त की गई। परन्तु इस बात का कोई जवाब उच्चतम न्यायालय सहित आज तक नहीं मिला कि यदि शासन व प्रशासन की लापरवाही उक्त घटना में होगी, जो प्रथम दृष्टया दिखती भी है व एफएसएल रिपोर्ट में भी उभरी है, तो उसकी जांच कौन सी स्वतंत्र एजेंसी (अॅथॉरिटी) करेगी जो राज्य के शासन व प्रशासन के प्रभाव से एकदम मुक्त होगी? क्योंकि यहां तो ‘‘कुए में ही भांग पड़ी हुई है’’। मीडिया सहित उपरोक्त समस्त संस्थाओं ने शायद इसे ‘‘एक्ट ऑफ गॉड’’ मान लिया है, जैसा कि यह कथन ओरेवा कंपनी के मैनेजर ने दिया था, जो कि ‘‘पीडि़तों के घावों पर नमक छिड़कने के समान‘‘ है।

इसके लगभग एक पखवाड़े बाद (14 नवम्बर) को दिल्ली में एक बहुत ही वीभत्स व घिनौनी हत्या एक जाति की पीड़िता होकर दूसरे वर्ग विशेष द्वारा उसकी निर्मम हत्या कर शवों को पैंतीस टुकड़ों में टुकड़े-टुकड़े (टुकड़े-टुकड़े गैंग? एक प्रसिद्ध उक्ति हो गई है) कर दिया गया। छः महीने पूर्व 18 मई 22 को हुई घटना का पता लगने पर तब से लेकर आज तक श्रद्धा हत्याकांड ही मीडिया के हृदय पटल पर लगातार इतनी गहराई से छाया हुआ है कि अन्य पटल पर धूमिल हो गये है। इस कारण से आम मानस के माथे में सलवटे व दिलों व दिमाग में भी दहशत भरी भावना छा गई है। ऐसा लगता है कि शव के 35 टुकड़े के लिए मीडिया ने प्रत्येक दिन एक टुकड़े के लिए प्रसारण तय कर लिया है। मानों प्रत्येक दिन एक टुकड़े की स्टोरी दी जाकर उक्त घटना की याद को तरोताजा रखा जावें।
प्रश्न बड़ा साधारण परन्तु महत्वपूर्ण है कि एक सौ पैंतीस लोग आम नागरिक थे, साधारण या मध्यम वर्ग के लोग थे, यद्यपि इसमें बीजेपी सांसद मोहन भाई केदारिया के परिवार के 12 सदस्य भी शामिल थे। इसमें 5 बच्चे भी है। विभिन्न धर्मों को मानने वाले थे। हिन्दू-मुस्लिम का एंगल नहीं था। इस कारण से एक पखवाड़े बाद हुई दूसरी घटना जिसमें एक आधुनिक लड़की जो बिना शादी के अभिभावक की जानकारी में दो साल से ज्यादा समय से भी लड़ाई-झगड़े के साथ लिव-इन-रिलेशन में रह रही थी, की हत्या बर्बरतापूर्ण की जिस हत्या को मीडिया ने 135 मौतों से भी बड़ी घटना इसे बनाया। प्रेमिका द्वारा शादी के लिए जोर डालने पर प्रेमी ने ही निर्मम हत्या कर दी। शुद्ध रूप से यह एक प्यार और प्यार में धोखे का संबंध था, जहां लव जिहाद वाली कोई बात नहीं थी। बावजूद इसके, ‘‘बाल की खाल निकालते हुए‘‘ घटना को लव जिहाद बनाने की कोशिश होकर राजनीतिक रंग डालने का प्रयास किया गया। जेल ले जाते समय आफताब को हिन्दू संगठन के लोगों ने लव-जिहाद के आधार पर हमला किया। निश्चित रूप से उक्त अपराध हर हालत में अक्षम्य है और कड़ी से कड़ी सजा फास्ट टेªक कोर्ट के द्वारा अति शीघ्र दी जाकर ऐसे अपराधियों को सबक सिखाने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य में इस तरह के दुर्दान्त कृत्य करने की हिम्मत कोई और न जुटा सके। परन्तु दोनों घटनाओं को लेकर मीडिया द्वारा बनाया गया परसेप्शन व नरेटिव कितना गैरजिम्मेदार अविवेकपूर्ण व औचित्यपूर्ण है इस पर शक की कोई गुंजाइश है क्या?
लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि मीडिया लगातार इसका प्रसारण करके ब्रेकिंग न्यूज बनाकर क्या सिद्ध करना चाहती है? अपने कौन से और किस दायित्व को निभाना चाहती है? इसके साथ ही एक सौ पैंतीस लोगों की हुई मृत्यु पर जोर-शोर से आवाज लगातार क्यों नहीं उठाई गई कि जिस व्यक्ति का नगरपालिका के साथ केबल ब्रिज सुधारने का अनुबंध था उसके मालिक ने बाकायदा पत्रकार वार्ता कर स्थानीय शासन-प्रशासन को जानकारी दिये बिना व बिना अनुमति के पुल को आवागमन के लिए खोल दिया उनके विरूद्ध आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई और ‘‘एक चुप सौ को हराये‘‘ की तजऱ् पर न ही कोई पूछताछ की गई, न एफआईआर दर्ज हुई। गिरफ्तारी का तो प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है? जब यह स्थिति स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है कि प्रथम दृष्टया मुख्य रूप से ठेकेदार ही जिम्मेदार है। उत्तर प्रदेश में हुई एक रेप की घटना का खयाल आता है जहां बलात्कार की घटना पर एक मीडिया चैनल ने मुहिम चला दी थी की जब तक एसपी को बदला नहीं जाएगा तब तक यह कार्यक्रम चलेगा। लेकिन यहां पर किसी भी मीडिया द्वारा ठेकेदार के खिलाफ कोई मुहिम इस तरह की नहीं चलाई गई। क्या इसलिए कि वह बड़ा अमीर व राजनैतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति है जिसकी ‘‘ठकुरसुहाती करना‘‘ मीडिया की मजबूरी हो और जो व्यक्ति स्वर्गवासी हो गये वे इतने प्रभावशाली नहीं थे कि गुजरात की चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सके, शायद इसीलिए न्यायालय से लेकर शासन व प्रशासन तक का उन पर उचित ध्यान नहीं गया?
शायद मीडिया भी इस बात को स्वीकार करता है कि पूरे देश को हिला देने वाली श्रद्धा हत्या प्रकरण की तुलना में मोरबी की 135 व्यक्ति की मृत्यु देश के दिलों दिमाग को तुलनात्मक रूप से झकझोर नहीं कर पाई। क्या इसलिए कि इस देश की इस तरह की असामयिक सामूहिक मौतों के अनेकानेक उदाहरण को सहने की क्षमता समस्त तंत्र सहित देश की जनता ने बना ली है।
मीडिया को यह समझना होगा की टीआरपी बढ़ा कर ‘‘चांदी काटने‘‘ का यह तरीका न तो सही और न ही प्रभावी है। परन्तु इसके लिए जनता को भी आगे आकर मीडिया की ‘‘आंखों के जाले साफ कर‘‘ इस गलतफहमी को दूर करना होगा कि इस तरह की घटनाओं की लगातार ब्राडिंग कर प्रसारण से मीडिया की टीआरपी बढ़ती है। अंततः मीडिया जो भी प्रसारण करता है, उसके पीछे दो ही उद्देश्य प्रमुख होते है। पहले अपने आकाओं (मालिकों) को जो कहीं न कहीं राजनीतिक दलों से जुड़े हुए है, और राजनीतिकों की ‘‘नाक के बाल‘‘ हैं, उनके हितों को साधना। दूसरा उन हितों को सफलतापूर्वक बढ़ाये व बनाये रखने के लिए अपनी टीआरपी को बनाए रखना। इसी को कहते हैं ‘‘कोयले की दलाली में हाथ काले करना‘‘। एनडीटीवी से इस्तीफा दिये, बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि इस तरह की परिस्थिति निर्मित कर दी गई है कि निकालने के पहले ही इस्तीफा देना रवीश कुमार की मजबूरी हो गई। टीवी चैनल से निकाले जाने के बाद आये उनका यह कथन कि बावजूद ही महत्वपूर्ण है कि टीवी देखना बंद कर देना चाहिये। तथापि यदि टीवी चैनल में रहते हुए रवीश कुमार यह बात बोलते तो इसका प्रभाव 100 गुना होता।  मेरा यह निश्चित मत है कि इस देश की अनगिनत समस्याओं का एक प्रमुख कारण हमारा इलेक्ट्रानिक मीडिया ही है और यदि उस पर प्रभावी अंकुश सरकार नहीं लगाती है, तो निश्चित मानिए देश का समग्र विकास, एकता, अखंडता, सम्मान बच नहीं पायेगा। और तब जो लोग जिम्मेदार है वे कार्रवाई न करके भी अप्रासंगिक हो जायेगें।

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

उच्चतम न्यायालय का निर्णय ‘‘न्यायिक’’ परन्तु आंशिक!

19 वर्षीय ‘‘अनामिका’’ का अपहरण कर गैंगरेप के बाद की गई हत्या के पौने 11 साल बाद छावला हत्याकांड के तीनों आरोपियों रवि कुमार, राहुल और विनोद को जिन्हे उच्च न्यायालय ने ‘‘शिकार’’ की तलाश में ‘‘शिकारी’’ का तमगा तक दे दिया था, अधीनस्थ निचली दोनों न्यायालय; सत्र न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा वर्ष फरवरी 2014 में फांसी की सजा दिए जाने व पुष्टि के आदेश के बावजूद संवैधानिक क्षेत्राधिकार का न्यायिक उपयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उन्हें पर्याप्त सबूत के अभाव में संदेह का लाभ देते हुए यह कहते हुए बरी कर दिया की निर्णय नैतिक दोषारोपण व भावनाओं के आधार पर नहीं व ‘अन्यत्र से’ प्रभावित हुये बिना होना चाहिए। उक्त प्रकरण मुख्य रूप से परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर ही आधारित था, जहां श्रृंखला को पूरा होना चाहिए। माननीय न्यायाधिपतियों ने अपने बरी आदेश में यह कहा कि जघन्य अपराध में शामिल होने के बावजूद, पुलिसिया जांच व मुकदमे के दौरान बरती गई लापरवाहियों के कारण आरोपियों को निष्पक्ष ट्रायल न मिलने से छोड़़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने बरी करते समय कहीं भी यह स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया कि अभियुक्त गण उक्त दहलाने वाली घटना में शामिल (संलग्न) नहीं थे, तथापि उच्चतम न्यायालय ने जांच की संपूर्ण प्रक्रिया में गंभीर त्रुटियों को पाते हुए दोषियों को (बाइज्जत नहीं?) छोड़ने के आदेश दिये।
न्याय का पुराना चला आ रहा यह सर्वमान्य सिद्धांत अभी भी है, कि 99 दोषी भले ही छूट जाये, परन्तु एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। इसलिए यह भी कहा जाता है कानून अंधा होता है। इस सिद्धांत में ही पीडि़त परिवार की व्यथा, आक्रोश, गुस्सा, लाचारी शामिल है जहां, 99 दोषी छूट जाये जिसमें ये तीनों दोषी भी शामिल हैं। यह न्यायपालिका की ‘‘दूरस्थाः पर्वताः रम्याः’’ वाली छवि को प्रस्तुत करता है। तथापि यह निर्णय ‘‘कानून जनता के लिये हैं, या जनता कानून के लिये है’’, स्थिति पर चिंतन करने के लिए विवश भी करता है।
उक्त वीभत्स घटना का तीन राज्यों से संबंध है। ‘‘अनामिका’’ मूल रूप से उत्तराखंड के पौडी गांव की रहने वाली थी, जो तत्समय दिल्ली के छावला कुतुब विहार में रह रही थी, जिनके शव की बरामदगी हरियाणा के रेवाड़ी के एक खेत से हुई।
उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने जांच प्रक्रिया में कई गंभीर प्रश्न उठाये है। अनेक कमियों को इंगित किया है, जो प्रमुख रूप से निम्न हैं 1. लड़की का शव 3 दिन दिन तक खेत में पड़ा रहा और उस पर किसी की नजर न जाना (संदेहपूर्ण स्थिति) 2. खुले 3 दिन व रात तक पड़ी लड़की के शव से आरोपी रवि के बालों के गुच्छे की बरामदगी विश्वसनीय नहीं लगती। 3. शव की बरामदगी को लेकर हरियाणा व दिल्ली पुलिस के बयानों में अंतर। 4. आरोपियों का सैंपल भी 14-16 तारीख को लेने के बाद बिना सुरक्षा के 11 दिन रखे जाने के बाद 27 तारीख को भेजा गया। (सैंपल में हेर फेर की आशंका) 5. पीड़िता का डीएनए प्रोफाइल 48 घंटे के बाद जांच के लिये लेबोरेटरी भेजा गया। 6. जब्त गाड़ी पुलिस थाने में खड़ी रही, छेड़छाड़ हो सकती थी। 7. आरोपियों की पहचान परेड न करा कर शिनाख्त नहीं की गई। 8. कुछ गवाहों का प्रति परीक्षण (क्रॉस एग्जामिनेशन) न होना। 9. काल रिकार्डस्।  
बड़ा प्रश्न यहां यह उठता है, कि क्या यह ‘‘मोहरों की उपेक्षा और कोयलों पर मुहर’’ का उदाहरण तो नहीं है? क्या ये समस्त त्रुटियां इतनी घातक (फैटल) हैं, जिनके आधार पर उच्चतम न्यायालय ने मजबूरी में अभियुक्तों को छोड़ने का आधार बनाया। जबकि प्राचीन न्याय शास्त्र के अनुसार ‘‘ज्ञात से अज्ञात की ओर जाने का ही नाम न्याय है’’, जिसे ‘‘अरुंधती दर्शनम् न्याय’’ कहा जाता है। इसी आधार पर इन्ही त्रुटियों को दो निचली अदालतों ने घातक न मानकर बेहिचक सजा देने का आदेश देकर उसकी पुष्टि की थी। शायद क्या उच्चतम न्यायालय ने ‘‘काकदंत गवेषणा: न्याय’’ का उदाहरण तो प्रस्तुत नहीं किया? यदि वास्तव में उक्त खामियां सजा के निराकरण, निर्धारण के लिये महत्वपूर्ण है, तो उच्चतम न्यायालय का दूसरा महत्वपूर्ण दायित्व व संवैधानिक न्यायिक कर्तव्य क्या यह नहीं था कि इन कमियों के लिए नियम, कानून, संविधान के अनुसार अपना कर्तव्य, दायित्व व जिम्मेदारी न निभाने के लिए उन गैर-जिम्मेदाराना जांच अनुसंधान अधिकारियों को खोजकर (पॉइंट आउट कर) उनके खिलाफ एक कड़ी टिप्पणी (स्ट्रक्चर) कर विभागीय जांच के साथ-साथ आपराधिक प्रकरण दर्ज करने के आदेश दे देते? साथ ही कानून के अनुसार बुद्धि-विवेक का उपयोग करने में असफल रहने के कारण (इस कारण तीन निर्दोषों को 11 वर्ष कारावास में अकारण रहना पड़ा), अधीनस्थ न्यायाधीशों के विरूद्ध भी आवश्यक कार्रवाई करते? इस आदेश की यह एक बहुत बड़ी कमी परिलक्षित होती दिखती है।
जब उच्चतम न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों की कमियों को दर्शित कर रहा है, तब तो उसके उपचार के लिए संवैधानिक व्यवस्था उच्चतम न्यायालय है। परन्तु उच्चतम न्यायालय की कमियों को दूर करने के लिए कौन सा संवैधानिक उपचार है? या हम यह मान ले कि उच्चतम न्यायालय ‘‘उच्चतम’’ (‘न्यायिक क्षेत्र का राजा’) होने के कारण उसे मानवीय त्रुटि हो ही नहीं सकती हैं? जिस प्रकार राजा कोई गलती नहीं करता है जैसा पुराने समय में माना जाता था। ऐसा बिल्कुल भी नहीं हैं! उच्चतम न्यायालय के आदेश में हुई त्रुटि को सुधारने के लिए संविधान में जहां सिर्फ रिव्यू पिटीशन और तत्पश्चात रूपा अशोक हुरा बनाम अशोक हुरा प्रकरण में निर्धारित की गई अवधारणा अनुसार अंतिम रूप से क्यूरेटिव पिटीशन दायर की जा सकती है। तथापि पुनर्विचार याचिका का दायरा बहुत ही सीमित होता है। वे ही त्रुटियां जो अभिलेख के फेस पर (पहली नजर में) स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होती है, उन्ही के लिए पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती है।
यदि उच्चतम न्यायालय अभियोजन की हुई उक्त त्रुटियों के कारण निर्दोष व्यक्तियों को फांसी पर चढ़ाने वाले आदेश और फांसी की सजायाफ्ता पाये अभियुक्तों की रिहाई के आदेश में बदलने के लिए लापरवाही व चूक के लिए उन दोषी अधिकारियों के विरूद्ध उक्त आदेश में कोई कड़ी कार्रवाई करने का आदेश/निर्देश/संकेत दे देती, और वास्तविक अभियुक्तों को पकड़ने के लिए एक एसआईटी का गठन कर जांच करने का आदेश दे देती तो, निश्चित रूप से संतृप्त परिवार को कुछ सांत्वना अवश्य मिल जाती। यद्यपि ‘‘ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती’’,। उच्चतम न्यायालय का यह दायित्व जरूर बनता है, जब एक लड़की की निर्मम तरीके से हुई हत्या व हैवानियत, बर्बरता पूर्ण, अमानवीय तरीके से हुए सामूहिक बलात्कार का कोई आरोपी दोषी नहीं है, तो कोई न कोई व्यक्ति तो दोषी अवश्य है, जिसने उक्त अमानवीय कृत्य को अंजाम दिया था, लेकिन पीडि़त पक्ष को तो ‘‘न तो ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम’’। प्रसिद्ध रूसी उपन्यास ‘‘अपराध एवं सजा’’ में लेखक दोस्तोवस्की का यह कथन महत्वपूर्ण है ‘‘यदि आप पकड़े नहीं जाते हैं तो अपराध पुरस्कृत है’’।
उच्चतम न्यायालय के उक्त निर्णय से देश आमतौर पर स्तब्ध है व कुछ जनाक्रोश भी है। न्यायालय द्वारा अभियोजन की बतलाई गई कुछ त्रुटियों के संबंध में कुछ प्रमुख कमियां/खामियां भी मुख पर (ऑन द फेस) अवश्य दिखती है, जो कि न्याय के ‘‘दूध का दूध और पानी का पानी’’ के सिद्धान्त पर प्रश्नचिन्ह लगाती है? प्रथम कुछ गवाहों के प्रति-परीक्षण न होने को लेकर! निश्चित रूप से अभियोजन ने गवाहों को प्रस्तुत किया, तभी तो प्रति-परीक्षण की बात उत्पन्न हुई? और यदि प्रति-परीक्षण नहीं हुआ तो यह तो बचाव पक्ष की गलती है। इस महत्वपूर्ण त्रुटि (उच्चतम न्यायालय की नजर में) के लिए अधीनस्थ न्यायालयों के माननीय न्यायाधीशों की गलतियों की भर्त्सना कर चेतावनी देकर लताड़ा, क्यों नहीं गया5? बचाव पक्ष का यह दावा देखने को नहीं मिला कि सत्र न्यायाधीश ने प्रति परीक्षण का अवसर ही नहीं दिया। पहचान परेड के संबंध में भी परीक्षण न्यायालय (ट्रायल कोर्ट) में यह तथ्य आया है कि रात्रि होने के कारण उन्हें पहचानना संभव नहीं था। व्हीकल जब्ती के बाद थाने में ही तो रहती है, (क्या यहां भी सुरक्षित नहीं है?) इस पर प्रश्न चिन्ह लगाना कितना उचित है? दूसरा डीएनए टेस्ट के संबंध में अभी हाल में ही अमेरिका में 1987 के एक प्रकरण काफी समय बाद डीएनए टेस्ट अभियुक्त का होकर उस आधार पर उसे निर्दोष छोड़ा गया।
उच्चतम न्यायालय का यह कथन कि निर्णय भावनाओं के आधार पर नहीं होते है, का क्या आधार है? क्या दोनों अधीनस्थ न्यायालयों ने भावनाओं से अभिभूत होकर निर्णय दिया? सत्र न्यायालय के समक्ष चल रही सुनवाई (ट्रायल) के समय तो भावनाओं के प्रवाह की एक संभावना हो सकती है। क्योंकि घटना ताजा-तरोज थी। परन्तु उच्च न्यायालय के सामने भी वही भावनाओं का वेग हो गया? इस पर उच्चतम न्यायालय ने शायद बारीकी से विचार नहीं किया। अतः महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या उक्त त्रुटि तकनीकी है अथवा अपूरणीय (सुधारे जाने योग्य नहीं) है। इन सब प्रश्नों के निराकरण हेतु, उच्चतम न्यायालय का प्रकरण को अनुच्छेद 142 के अंतर्गत लेकर पूर्ण रूप से समस्त बिंदुओं पर विचार कर निर्णय लेकर मीडिया व पीड़ित परिवार द्वारा निर्णय के प्रति बनाई गई मलिन छवि को दूर करना चाहिए।
एकदम से यह नहीं कहा जा सकता है कि उच्चतम न्यायालय ने न्याय नहीं दिया है, सिर्फ इसलिए कि ऐसे किये गये जघन्य अपराध की फांसी की सजा प्राप्त अपराधियों को आम संवेदनाओं के विरुद्ध जाकर बरी कर दिया गया है। वीभत्स घटना व अधीनस्थ न्यायालय द्वारा दिये अधिकतम सजा प्राप्त अपराधियों सिर्फ इन दो परिस्थितियों के चश्मे से ही उच्चतम न्यायालय के निर्णय को देखना न तो तार्किक, न्यायिक होगा और न ही उच्चतम न्यायालय के साथ समानता का न्याय? तथापि प्रकरण की सम्पूर्णता के साथ विद्यमान कानूनी प्रावधानों को दृष्टिगत रखते हुए समस्त पक्ष पीडि़ता, न्यायालय व नागरिकों द्वारा देखने पर ही सही न्याय हो पायेगा। इस प्रकार ‘परी’ (एंटी रेप एक्टिविस्ट) की फाउंडर योगिता भयाना के यह कथन कि इस निर्णय के बाद न्याय प्रणाली से विश्वास उठ गया है, पर उच्चतम न्यायालय के पुनर्विचार करने से सांत्वना मिलेगी।
ऐसे प्रकरण बर्बरतापूर्वक किये जघन्य अपराधों के मामलों में एमिकस क्यूरी की दोषियों को सुधारने की संभावनाओं को दृष्टिगत करते हुए उनके प्रति सहानुभूति पूर्ण रवैया अपनाने का अनुरोध करना कितना न्यायिक है और यह कड़ी सजा के सिद्धांत के कितने विपरीत है? इसकी समीक्षा की भी क्या आवश्यकता नहीं है?
उच्चतम न्यायालय ने पीड़ित परिवार को दिये गये मुआवजे को धारा 357 द.प्र.स. के अधीन कानूनी मानकर सही ठहराया गया है। मतलब इसका यह है कि उच्चतम न्यायालय ने अभियोजन का आधा पक्ष अर्थात पीडि़ता की गैंगरेप कर हत्या की गई को सिद्ध माना है। परन्तु किसने की? अब यह प्रश्न उक्त निर्णय के बाद अनुत्तरित हो गया है? इस स्थिति के लिए न्याय व्यवस्था, जांच अनुसंधान पद्धति, अभियोजन कौन कितना-कितना जिम्मेदार है, इसका हल एक जिम्मेदार सरकार व न्यायपालिका ही निकाल सकती है।
वर्ष दिसम्बर 2012 में ही हुई ‘‘निर्भया’’ केस की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर गूंज गूंजी थी, जिस कारण आपराधिक कानून तक में संशोधन करने पड़े थे। बलात्कार की धारा 376 एवं भारतीय दंड संहिता की धारा 181,182 में भी परिवर्तन किए गए। नया पॉक्सो एक्ट कानून अस्तित्व में आया। जुवेनाइल जस्टिस बिल में भी संशोधन किए गया। इसके पूर्व हुये वर्ष 2012 के इस छावला अनामिका प्रकरण की तुलना की जाए तो ‘‘उत्तराखंड की अनामिका’’ ‘‘उत्तर प्रदेश की निर्भया’’ से पिछड़ गई। 11 वर्ष के ‘तथाकथित अन्याय’ की तुलना में 7 वर्ष में ही न्याय मिल गया।

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2022

देश की राजनीति का ‘‘नैरेटिव’’ नरेन्द्र नहीं! ‘अरविंद’ तय कर रहे हैं।

वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के और प्रधानमंत्री बनने के बाद व केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति में आने के पूर्व तक नरेंद्र मोदी प्रमुख एक मात्र नेता मीडिया की सुर्खियों में बने रहे। कहा जाता है, वर्ष 2014 का चुनाव मीडिया मैनेजमेंट जिसके पीछे प्रशांत किशोर का बड़ा हाथ था, के कारण ही जीतने में नरेन्द्र मोदी सफल रहे थे। तब से देश की राजनीति (सियासत) का नैरेटिव मोदी ही तय (फिक्स) करते चले आ रहे हैं। जो वे कहते रहे, मीडिया उसे ब्रेकिंग न्यूज बना कर चलाता रहा और पूरी राजनीतिक चर्चा व सियासत मीडिया से लेकर राजनीतिक क्षेत्रों लेखकों व राईटअप में उसी के इर्द-गिर्द होती रही। इस प्रकार नरेन्द्र मोदी ने राजनीति में अपनी अलग शैली स्थापित की, जो 75 वर्षो से चली आ रही स्थापित राजनीतिक शैली से हटकर थी। मोदी उसमें पूर्णतः सफल भी रहे। यद्यपि वह शैली कितनी सही थी, गलत थी उसके गुणदोष पर विचार मंथन जरूर किया जा सकता है। लेकिन वह शैली उनकी राजनीतिक यात्रा में कहीं आड़े नहीं आयी, बल्कि उनके विजय रथ को आगे बढ़ाने में परोक्ष-अपरोक्ष सहयोग ही देती रही। 
अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहले पांच साल वे साहसपूर्वक सीधे बेबाक तरीके से नरेन्द्र मोदी को कटघरे में खड़ा करते रहे, चाहे फिर बात नालियों को साफ करने की ही क्यों न रही हो। लेकिन उसके दुष्परिणाम स्वरूप आप पार्टी दिल्ली की लोकसभा की सातों सीटें हार गई एवं नगर निगम में भी सफलता नहीं मिली। राजनैतिक विश्लेषक संजय कुमार के अनुसार जब कोई प्रिय नेता लोकप्रिय हो, तब उस पर हमला करने का असर उल्टा ही होगा। जैसा कि ‘‘चांद पर थूका हुआ वापस थूकने वाले मुंह पर ही पड़ता है।’’ शायद इसी नीति को अपना कर वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव के परिणाम के बाद व पंजाब में खराब प्रदर्शन के बाद केजरीवाल ने ‘‘गज में कब्ज़ा करने की बजाय इंच में कब्ज़ा करने की नीति’’ के तहत अपने भाषणों में, चर्चा में, कथनों में, ट्वीट्स में लगभग पूरी तरह से नजर अंदाज कर दिया, जिसका उन्हें भी फायदा मिला। फलतः दिल्ली सरकार उपराज्यपाल के साथ बेहतर सामंजस्य के साथ कार्य कर पायी। जब आप पार्टी पंजाब चुनाव में उतरी तब केजरीवाल मोदी पर पुनः आक्रामक हो गये और पंजाब की सफलता के बाद तो राष्ट्रीय क्षितिज पर आने के लिये वे बेहद ही आक्रामक तरीके से नरेन्द्र मोदी पर हमला कर रहे हैं। मीडिया मैंनेजमेंट में उनकी कार्यशैली का कोई जोड़ नहीं हैं।  
जब आप पार्टी मात्र एक छोटे से आधे-अधूरे राज्य दिल्ली पर सत्ता पा काबिज थी, तब भी केजरीवाल ने ‘‘करनी न करतूत, लड़ने को मज़बूत’’ की तर्ज पर उसी मीडिया का प्रबंधन (मैनेजमेंट) अच्छी तरह से किया। नरेन्द्र मोदी के बाद दूसरी आवाज राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की तुलना में एक प्रदेश के मुख्यमंत्री की पूरे देश में बार-बार सुनने को मिलती थी, जिस मीडिया की केजरीवाल ने मोदी की विजय यात्रा में दुरुपयोग के लिए कड़ी आलोचना की थी, उस मीडिया का महत्व समझ कर उसे अच्छी तरह से मैनेज करने में वे सफल रहे है। अब तो उनके पास पंजाब राज्य की सत्ता भी आ गई हैं। अतः अब वे और बेहतर तरीके से मीडिया को मैनेज करने में संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं। इस कारण से आज स्थिति यह हो गई है, देश की राजनीति का नैरेटिव प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि दिल्ली के मुख्यमंत्री आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक केजरीवाल कर रहे है जिनका ध्येय वाक्य है कि ‘‘माल कैसा भी हो, हांक हमेशा ऊंची लगानी चाहिये’’। आगे उदाहरणों से आप इस बात को अच्छी तरह से समझ जाएंगे। 
ताजा उदाहरण आपके सामने है, दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के जेल जाने की आशंका मात्र से उनकी तुलना शहीदे-आज़म भगत सिंह से करने पर उन्हें परह़ेज, गुरेज और शर्म तक नहीं आयी। वैसे भी वर्तमान निम्न स्तर की नैतिकताहीन राजनीति में बेशर्म शरारतपूर्ण व अंहकार से भरे बयान पर शर्म का प्रश्न आप क्यों उठाना चाहते है? उससे भी बडी बेशर्म मीडिया निकली जिसने ‘‘गधा मरे कुम्हार का और धोबन सती होय’’ के समान उनके कथनों को हाथों-हाथ झेलकर बार-बार सुना कर हमारे कानों को पका दिया। किसी भी मीडिया की केजरीवाल से यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि अरविंद केजरीवाल जी आपके द्वारा मनीष सिसोदिया की शहीद भगत सिंह से किसी भी रूप में तुलना वैसे भी किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराई जा सकती है और न ही की जा सकती है। आप अपनी तुलना के शब्द बाण वापस लीजिए व उक्त महती त्रुटि के लिए क्षमा मांगिये अन्यथा हम आपके उन कथनों बयानों को प्रसारित नहीं करेंगे। रवीश कुमार बार-बार गोदी मीडिया जरूर कहते है परंतु मुझे लगता है कि वे ‘‘एक तवे की रोटी क्या पतली क्या मोटी’’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए केजरीवाल के जाल में फंसे मीडिया का उल्लेख नहीं करके पक्षपात करते हैं। जबकि मीडिया के बाबत एक प्रसिद्ध उक्ति है की वह नेताओं को फंसा कर रखते हैं। लेकिन यहां केजरीवाल के मामले में स्थिति तो उल्ट है। 
सीबीआई के समक्ष 9-10 घंटे लम्बे चले बयान के बाद मनीष सिसोदिया ने सीबीआई पर बड़ा आरोप लगा कर कहा कि, उन्हें मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव (ऑफर) दिया गया था। परन्तु नाम बताने से परहेज किया गया। फिर भी मीडिया उनकी इस बिना सिर पैर के तथ्य हीन बयान को बार-बार ब्रेकिंग न्यूज के रूप में चलाता रहा। यानी केजरीवाल के लिए तो मीडिया का रोल ऐसा है कि ‘‘लड़े सिपाही और नाम सरदार का’’। इसके पूर्व भी ऑपरेशन लोटस द्वारा विधायकों की खरीद-फरोद कर सरकार गिराने के मनीष सिसोदिया के आरोप के संबंध में भी आज तक उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया गया, जिसने पैसे ऑफर किये गए और न ही उस तथाकथित विधायक/व्यक्ति का कथन,शपथ पत्र या पहचान तक बताई गई, जिसे ऑफर किया गया हो। यह झूठी, मनगढ़ंत न्यूज भी कई दिनों तक चलती रही। हद तो तब हो गई जब सीबीआई द्वारा पूछताछ के बाद मनीष सिसोदिया के सिर पर लटक रही गिरफ्तारी की तलवार जो अंततः गिरी ही नहीं, इस तथ्य के बावजूद केजरीवाल ने गुजरात के महेसाणा जिले के ऊंझा में जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि मनीष सिसोदिया का गुजरात चुनाव में प्रचार करने से रोकने के लिए गिरफ्तार कर लिया है। उन्होंने जनता से ‘‘जेल के ताले टूटेंगे मनीष सिसोदिया छूटेंगे’’ के नारे भी लगवाए । इस सफेद नहीं काले झूठे बयान को मीडिया ने जिस तरह सुर्खिया देकर चलाया और हमेशा प्रश्न करने वाले केजरीवाल से इस झूठ के संबंध में एक भी प्रति-प्रश्न न करना देश की राजनीति के नैरेटिव को केजरीवाल द्वारा निश्चित करने के तथ्य को ही सिद्ध करता है।
जिस तरह ‘‘सोती हुई लोमड़ी सपने में मुर्ग़ियां ही गिनती रहती है’’, राजनेता तथा आम नागरिकों के लिए नए-नए अन्य अकल्पनीय नैरेटिव देने वाले केजरीवाल के ताजा नैरेटिव को भी देखिए। इंडोनेशिया जहां पर मात्र सिर्फ 2% ही हिंदू हैं, की करेंसी में गणेश जी की फोटो का हवाला देते हुए देश की करेंसी में भगवान श्री गणेश और लक्ष्मी माता की तस्वीर लगाने की मांग जोर-शोर से कर डाली। क्या केजरीवाल उसी इंडोनेशिया में अल्पसंख्यक हिंदू के भगवान की फोटो लगाए जाने के पीछे के भावार्थ को समझ कर भारत देश में भी अल्पसंख्यकों (2 नहीं 20 प्रतिशत से ज्यादा) के ईस्टों (भगवानों) की फोटो लगाने की वकालत करेंगे? सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं, इसे शायद केजरीवाल हमेशा भूल जाते हैं । केजरीवाल का उक्त कथन भी उनके अनेकों अनेकोंनेक झूठे कथनों के समान गलत है। सिर्फ वर्ष 1998 में एक बार भगवान गणेश की फोटो वहां की करंसी में छपी थी। उसके बाद से वर्तमान तक कभी भी गणेश जी की फोटो नहीं छपी है। तथापि केजरीवाल द्वारा उक्त मांग के पीछे बताये गए कारणों के प्रतिफल/परिणाम का तो भविष्य में ही पता लगेगा। परन्तु क्या केजरीवाल ने इस बात की पूर्ण संतुष्टि व सुरक्षा की ग्यारंटी कर ली है कि इन तस्वीरों वाली करंसी का दुरुपयोग भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, जनप्रतिनिधियों के खरीद-फरोक, नशा, वैश्यागमन आदि समस्त बुराइयों में नहीं होगा? अन्यथा इन बुराइयों के लिए उपयोग की जाने वाली करंसी अवैध मानी जाएगी? (केजरीवाल तो नए-नए अप्रचलित सुझावों को देने में माहिर हैं जो?) क्योंकि ये हमारी संस्कृति व आस्था के प्रतीक है। यदि किसी प्रतीक की फोटो व नाम के उपयोग से ही सब कुछ हरा-भरा हो जाता तो केजरीवाल जी, क्या यह बतलाने का भी कष्ट करेंगे की अहिंसा के पुजारी, प्रतीक व पर्यायवाची राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गांधी शताब्दी वर्ष 1969 से देश की करंसी पर फोटो होने के बावजूद क्या देश अहिंसक हो गया ? सत्ता एवं शेष विपक्ष की इस नए नैरेटिव पर सियासत कई नए नए सुझावों के साथ आ गई। हद तो तब हो गई जब हिंदुत्व का नारा उठाने वाली, पहचान वाली पार्टी भाजपा को यह तक कहना पड़ गया की केजरीवाल गुजरात और हिमाचल में हो रहे विधानसभा चुनावों को दृष्टि में रखते हुए हिंदुत्व का कार्ड न खेलें। इसे ही तो नैरेटिव कहते हैं, जिसके मास्टर निसंदेह रूप से आज अरविंद केजरीवाल ही हैं। सही या गलत या अलहदा विषय है।
कुछ राजनैतिक पंडितों का यह कहना है कि केजरीवाल की कार्यशैली (कार्य क्षमता नहीं?) ‘‘मोदी की नकल’’ है। फिर चाहे वह विक्टिम कार्ड की बात हो या गुजरात मॉडल के समान दिल्ली माॅडल की बात हो, राष्ट्रवाद की या पार्टी में सर्वोच्च स्थिति व लोकप्रियता की बात हो। परन्तु वर्ष 2014 से 2022 तक पहुंचते-पहुंचते केजरीवाल नकलची न रहकर नई नई ईजाद कर (अन्वेषणकर्ता होकर)भाजपा को *नकलची* होने के लिए मजबूर कर रहे हैं। करंसी नोट पर भगवान की फोटो की मांग के प्रत्युत्तर में भाजपा व अन्य दलों के नेताओं द्वारा अन्य हस्तियों/विभूतियों की फोटो लगाने की मांग इसी का परिणाम है।

बुधवार, 19 अक्टूबर 2022

‘‘राष्ट्रमाता’’ हीरा बेन को ‘‘राजनीति’’ में घसीटना अनुचित होकर ‘‘निम्नतर स्तर’’ की राजनीति नहीं?

देश के प्रधानमंत्री व गुजरात के ही नहीं, बल्कि देश के प्रधानसेवक नरेन्द्र मोदी की मां का जीवन उनके बेटे के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद बेहद सादगीपूर्ण होकर प्रेरक व प्रेरणा देने वाली है। न तो वे राजनैतिक परिवार से है और न ही उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि वैसी रही है। नरेन्द्र मोदी के ‘‘स्वयंसेवक’’ होकर राजनीति में आने के बाद भी राजनीति में उनकी न तो कभी दिलचस्पी रही और न ही उन्होंने कभी भी राजनीति में किसी भी तरह का कोई हस्तक्षेप किया है। ऐसा कोई आरोप विरोधियों द्वारा लगाया भी नहीं गया है। तब फिर अचानक एक हफ्ते पूर्व एक पुराना वीडियो वायरल कर और फिर प्रेस वार्ता कर प्रधानमंत्री की माता हीराबेन के नाम पर राजनीति प्रारंभ क्यों हुई? क्या आगामी होने वाले गुजरात के चुनाव (जिसकी अभी तक अधिकारिक घोषणा भी नहीं हुई है) के कारण उन्हें राजनीतिक रूप से तो घसीटा नहीं जा रहा है?

यह राजनीति का ही नहीं बल्कि देश का बड़ा दुर्भाग्य है कि एक अविवादित, निर्मल व्यक्तित्व के साथ तथाकथित क्षणिक, तनिक राजनीतिक लाभ की दृष्टि से ‘‘अपना उल्लू सीधा करने के लिये’’ राजनीतिक विवाद में घसीटने का असफल प्रयास देश के प्रधानमंत्री की लगभग 100 वर्षीय वृद्ध माताजी के साथ किया जाए। इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि इसके लिए आखिर जिम्मेदार कौन है? पक्ष-विपक्ष अथवा दोनों? सामान्य रूप से घृणित कथन कर विवादित बयान देने वाले आप पार्टी के नेता को ही इस निम्न स्तर की राजनीति को चमकाने के लिए जिम्मेदार ठहराया व माना जा रहा है। परंतु यह एक बड़ा गहरा विश्लेषण का विषय है, जिस पर गंभीर चिंता किये जाने की गहन आवश्यकता है, तभी आप पूरी परिस्थितियों का सही आकलन कर पाएंगे।

गुजरात आप पाटी के प्रदेश अध्यक्ष 33 वर्षीय गोपाल इटालिया पूर्व में भी कई बार विवादित होकर सुर्खियों में रह चुका है। कांस्टेबल व राजस्व क्लर्क की अल्प अवधि की नौकरी से बर्खास्त होकर वह आर्म्स एक्ट व अन्य आंदोलन के अंतर्गत जेल भी जा चुका है। जून 2020 में आप पार्टी से जुड़कर इटालिया ने राजनैतिक पारी प्रारंभ की व शीघ्र ही दिसम्बर 2021 में प्रदेश संयोजक बन गये। इटालिया के तीन पुराने (वर्ष 2018-2019 के) वीडियो को पिछले एक सप्ताह में भाजपा ने जारी किया है। वर्ष 2019 के इटालिया के नरेन्द्र मोदी के मां के संबंध में तथाकथित बयान को भाजपा के मीडिया सेल के द्वारा वायरल करने के बाद भाजपा की केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने अपनी ‘‘अधजल गगरी को छलकाते हुए’’ प्रेस वार्ता कर गुजरात में राजनीति चमकाने के लिए केजरीवाल पर प्रधान सेवक की मां, राष्ट्रमाता का अपमान कर भद्दी-गंदी राजनीति करने का बड़ा आरोप लगाया है। प्रश्न यह है कि माता हीरा बेन के साथ हुई व हो रही तथाकथित राजनीति क्या सिर्फ आप ने ही की है? क्या भाजपा इसके लिए कतई जिम्मेदार नहीं है? निश्चित रूप से जो वीडियो वायरल किया गया है, जिसमें आप के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष गोपाल इटालिया ने जिस तरह की अभद्र टिप्पणियां व अपशब्द नरेन्द्र मोदी व उनकी माता के विरूद्ध की है, वे कदापि दोहराई नहीं जा सकती हैं। वे निंदनीय व अक्षम्य होकर राजनीति से परे उसकी घोर भर्त्सना हर हाल में की ही जानी चाहिए।
परन्तु वास्तव में आप एक ऐसी ‘‘बेशरम’’ पार्टी बन गई है, जहां केजरीवाल से लेकर विभिन्न नेताओं से प्रदेश अध्यक्ष गोपाल इटालिया की टिप्पणियों के संबंध में मीडिया द्वारा प्रश्न पूछने पर उसका कोई जवाब न देकर न तो उसकी निंदा की गई और न ही बयान की आलोचना की गई। हजारों जवाबों से अच्छी है ‘‘आप’’ की खामोशी न जाने कितने सवालों की आबरू रखती है। विपरीत इसके पटेलों (पाटीदारों) की राजनीति कर उसे पटेल जाति व सम्मान से जोड़ने की राजनीति चमकाने का नया नैरेटिव बनाने का असफल प्रयास अवश्य किया गया। वस्तुतः आप पार्टी का नाम आप ही गलत है। तू-तड़ाक, तू-तू मैं-मैं से बातचीत करने वाली पार्टी ‘‘आप’’ कैसे हो सकती है? जिस पार्टी के ‘‘ताज में ऐसे नगीने जड़े’’ हुए हैं, उसे तो ‘‘तू तड़ाके पार्टी ही कहना ही सही वास्तविकता है। झूठ का पुलिंदा (ताजा उदाहरण मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार कर जेल में बंद कर एक महीने बाद सलाखों से बाहर लेने की बात बाहर लाने की बात केजरीवाल ने गुजरात (मेहसाणा की रैली) में कही है) लिये हुए ऊल-जलूल बयान (मनीष सिसोदिया की भगत सिंह से तुलना करना) वीरों की पार्टी आम आदमी का न होकर व्यक्ति विशेष की रह गई है। बौद्ध धर्म दीक्षा समारोह में डॉ. अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाएँ जिसमें हिन्दू देवी-देवताओं का बहिष्कार करने की बात कही गई है, को दोहराए जाने को लेकर उक्त विवाद की आंच गुजरात चुनाव पर पड़ने की आशंका के चलते स्वः स्फूर्ति से दिल्ली सरकार के मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम को इस्तीफा देना पड़ा था। परन्तु यहां तो उलट गोपाल इटालिया का पार्टी बचाव कर रही है। केजरीवाल के इस दुःसाहस का दुष्परिणाम निश्चित रूप से आयेगा क्या?
परन्तु बावजूद इसके भाजपा व स्मृति ईरानी को इस बात का तो जवाब देना ही होगा कि वर्ष 2019 में दिये गोपाल इटालिया के उक्त बयान जिन्हें स्वयं भाजपा ने जारी किया है, तभी वर्ष 2019 में ही उनका संज्ञान लेकर तत्समय तुरंत क्यों नहीं कहा गया कि यह ‘‘राष्ट्रमाता’’ का अपमान है? तब भी नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री ही थे, भले ही गोपाल इटालिया प्रदेश अध्यक्ष नहीं थे। स्मृति ईरानी को इस बात को समझने में ही 3 साल लग गये? जो कथन निसंदेह असहनीय, घोर निंदनीय व अपमानजनक है। अतः ऐसी स्थिति में एक संकेत/निष्कर्ष यह भी निकलता है कि यह क्यों न माना जाए कि स्मृति ईरानी को प्रेसवार्ता कर जनता को उक्त बात बतानी पड़ी, भला ‘‘खलक का हलक कौन बंद कर सकता है’’? क्या यह राजनीति नहीं कहलायेगी? उक्त पुराने वीडियो को वायरल कर प्रेसवार्ता कर ‘हीरा बेन’ को राजनीतिक मुद्दा कौन बना रहा है? जिस बात की जानकारी अभी तक देश के नागरिकों को लगभग नहीं के बराबर (नगण्य) थी। उस वीडियो को वायरल कर उक्त अवांछनीय कथनों से संपूर्ण देश को अवगत किसने कराया? और उसके पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है? जरा सा दिमाग पर जोर लगाएंगे तो सब कुछ समझ में आ जाएगा।
स्मृति ईरानी का प्रेस वार्ता में साफ शब्दों में यह कथन की आप पार्टी ने प्रधान सेवक की मां का अपमान ही नहीं किया, बल्कि ‘‘गुजरात में’’ एक 100 वर्षीय मां का अपमान किया है। उक्त कथन ‘‘खंूटे के बल पर बछड़ा कूदने के समान’’ है जो राजनीतिक दृष्टिकोण को पूरी तरह से स्पष्ट कर देता है। क्योंकि स्मृति ईरानी ने गुजरात के अपमान का जिक्र किया, देश के अपमान का नहीं। जबकि प्रधानमंत्री की मां होने के कारण राष्ट्रमाता होने से यह देश के अपमान की बात है। चूंकि चुनाव गुजरात के हो रहे हैं, देश के नहीं, इस एक तथ्य में ही संपूर्ण जवाब छुपा हुआ है।
स्मृति ईरानी का आगे यह कथन की यह सब राजनीतिक लाभ के लिए किया जा रहा है, स्वयमेव ही साफ संदेश देता है। राजनीतिक लाभ किसे व कैसे होगा? उस पार्टी को जिसने राष्ट्रमाता के प्रति अनर्गल आधारहीन अक्षम्य शब्दों का प्रयोग किया हो, जिससे देश में नाराजगी है? अथवा उस पार्टी को जो इस पुराने कथन को वर्तमान में होने वाले चुनाव के संदर्भ में उठा रही है? जैसे ‘‘एक तवे की रोटी, क्या पतली क्या मोटी’’ वैसे अरविंद केजरीवाल का यह ट्वीट भी चातुर्य राजनीति से परिपूर्ण है, जिसमें वे गोपाल इटालिया की गिरफ्तारी पर गुजरात के पटेल (पाटीदार) समाज में आक्रोश की बात कहते हैं, जिस पाटीदार आंदोलन में गोपाल इटालिया हार्दिक पटेल के साथ नेता रहे हैं। परंतु वे वह भूल जाते हैं कि विपरीत इसके इटालिया के कथन से पूरे देश में आक्रोश है।
..गुजरात में चुनाव आ गये है, जहां आप पार्टी पहली बार चुनावी मैदान में उतर कर उछल-कूद रही है। निश्चित रूप से इस बात का श्रेय अरविंद केजरीवाल को अवश्य जाता है कि देश की राजनीति की दशा व दिशा और नेरेटिव वे ही तय करते है, यह लगभग मीडिया द्वारा दी गई प्रत्येक घटना के कवरेज से सिद्ध होता है। क्या केजरीवाल के बनाए नेरेटिव को प्रभावहीन करने के लिए भाजपा ने राजनीतिक रूप से ‘‘ईट का जवाब पत्थर से’’ देने के लिए उक्त कदम उठाया? क्योंकि आश्चर्य की बात तो यह है कि देश व विश्व की सबसे बडी पाटी व सदस्य संख्या होने के बावजूद किसी भी कार्यकर्ता ने अभी तक देश में कही भी आप पार्टी या उसके प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ न तो थाने में रिपोर्ट लिखाई और न ही न्यायालय में निजी इस्तगासा पेश किया। मतलब कुल मिलाकर यह कि ‘‘करनी ना करतूत लड़ने को मजबूत’’।..
 स्मृति ईरानी का यह कथन तो बहुत ही हास्यास्पद व बिना किसी सबूत के है कि केजरीवाल के आदेश पर आप नेता ने तुक्ष राजनीति के चलते गुजरात और वहां के लोगों की भावनाएं आहत की हैं। ‘‘हुनर मदारी का और खेल जमूरे का’’। जबकि ‘‘आप’’ का यह दावा है कि यह पुराना वीडियो उस वक्त का है, जब गोपाल इटालिया आप पार्टी में थे ही नहीं। विपरीत इसके यदि काउंटर (पटल, प्रतिलेख) में स्मृति ईरानी पर क्या ऐसा ही आरोप नहीं लगाया जा सकता है कि उन्होंने पत्रकार वार्ता कर जो आरोप अरविंद केजरीवाल पर लगाए हैं, वह नरेन्द्र मोदी के इशारे पर है?
यद्यपि मैं यह समझता हूं कि प्रधानमंत्री बहुत ही बड़े दिलवाले व्यक्ति है और इस तरह की ओछी राजनीति में कभी न पड़ने वाले राजनेता है, जिनकी व्यक्तिगत जानकारी के बिना ही स्मृति ईरानी का उक्त कथन प्रेस वार्ता के माध्यम से सामने आया है। स्मृति ईरानी जी को आगे आकर इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि जब स्थापित नेताओं का परस्पर पार्टियों में आवागमन होता है, खासकर पिछले कुछ समय से भाजपा में कांग्रेस के कई दिग्गज विवादित, आरोपित, दोषी नेतागण भाजपा में शामिल हुए, तब उनके विवादित इतिहास को वहीं छोड़ दिया जाकर गले लगाया जाता है। तब ऐसी स्थिति में गोपाल इटालिया के आप पार्टी में आने के पूर्व के बयान की अहमियत क्या? और इसके लिए आप पार्टी कैसे जिम्मेदार ठहराई जा सकती है?
प्रेस वार्ता में स्मृति ईरानी की यह चुनौती तो और भी हैरत कर देने वाली है कि केजरीवाल गुजरात आकर नरेन्द्र मोदी की मां को गाली बके? निश्चित रूप से यह चुनौती चतुराई पूर्वक राजनीति से परिपूर्ण है। अन्यथा स्मृति ईरानी केजरीवाल को यह चुनौती देश के किसी भी स्थान के लिए देनी चाहिए थी। क्योंकि प्रधानमंत्री की मां होने के कारण वे राष्ट्रमाता (राष्ट्र की) है, सिर्फ गुजरात की नहीं। वस्तुतः तो स्मृति ईरानी का राष्ट्रमाता जी को इस तरह से चुनौती के लिए प्रस्तुत करना ही नितांत गलत है।
अभी तो गुजरात विधानसभा चुनाव की घोषणा भी नहीं हुई है। परंतु चूंकि यह चुनाव प्रधानमंत्री के गृह राज्य का होने के कारण राजनैतिक आकलन करने वाले पंडितों की नजर में वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव की दिशा व दशा तय करने वाला होगा, इसलिए हर पार्टी इस विधान सभा के चुनाव को जीतने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। परंतु यह समझ और कल्पना से बिल्कुल परे है कि राजनीति का स्तर कितना गिरकर स्तरहीन होकर समुद्र की कितनी गहराई की तल तक जाएगा? इसे रोकने की फिलहाल तनिक आशा भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है। देश की गौरवशाली रही राजनीति का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

"आत्मनिर्भर भारत अभियान में’’ "रेवडियों" का स्थान कहां है ?

पिछले कुछ समय से हमारे भारत देश में रेवडियाँ , मुफ्त सौगातें बांटने पर "माले मुफ़्त दिले बेरहम" की आदी होती जा रही जनता से लेकर राजनैतिक पार्टियों, नेताओं और उच्चतम न्यायालय तक में बहस चल रही है। प्रत्येक पक्ष अपनी ’रेवड़ी’ को मूलभूत सुविधाएं के नाम से जरूरतमंद को जरूरी मुफ्त सहायता और दूसरों द्वारा दी जा रही उन्हीं आवश्यक सुविधाओं को मुफ्त ’रेवड़ी’ बताकर परस्पर आरोप-प्रत्यारोप चल रहा है। पंजाब में आप पार्टी की अभूतपूर्व विजय जिसमें इस बात से अंजान कि 'भेड़ जहां जायेगी वहीं मुंडेगी"  में इन रेवडियो का बड़ा योगदान माना जाता है, के कारण  गुजरात में होने वाले आगामी विधान सभा चुनाव को देखते हुए प्रधानमंत्री तक को इसमें हस्तक्षेप कर रेवड़ी और मुफ्त आवश्यक सुविधा में अंतर को स्पष्ट करना पड़ा। इसी कड़ी में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस संबंध में समस्त राजनीतिक पार्टियों को पत्र लिखकर निर्देश जारी किए हैं जिसका विपक्ष ने विरोध शुरू कर दिया है। चुनाव आयोग के इस ताजा पत्र ने उक्त विवाद को ताजा कर दिया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देश का ‘मान’, ‘स्वाभिमान’ व ‘विकास’ को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए घोषित कई योजनाओं में से एक ’ आत्मनिर्भर भारत’ प्रमुख योजना है। आत्मनिर्भर भारत अभियान के अंतर्गत ’ पांच स्तम्भ’ हैं -अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढ़ाँचा, प्रौद्योगिकी, जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी), माँग। प्रधानमंत्री मोदी ने इस अभियान को प्रारंभ करने के बाद इसे रक्षा निर्माण व डिजिटल इंडिया तथा गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने से जोड़ा है। आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत ही ’वोकल फार लोकल’ व ’मेक इन इंडिया’ का नारा दिया गया। प्रधानमंत्री की ’स्वनिधी योजना’ भी इस अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। किसानों की ’दोगुनी आय’ करने के लिए की गई ग्यारह घोषणाएं व गरीब श्रमिकों के लिए लागू की जा रही विभिन्न योजना जैसे किफायती किरायों के आवास परिसर बनाने की पहल,  श्रम संहिता में बदलाव, एक देश एक राशन कार्ड, विशेष क्रेडिट सुविधा आदि लागू की गई हैं।

'‘आत्मनिर्भर भारत’’ का शाब्दिक अर्थ देश की 130 करोड़ जनता के प्रत्येक वयस्क नागरिक का आत्मनिर्भर होना है, ताकि देश भी आत्मनिर्भर हो सके। आत्मनिर्भर का वास्तविक मलतब यही है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन यापन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाए के लिए उसके पास आय के उपार्जन के इतने साधन हों कि मुफ्त सहायता/रेवडी लिए बिना अपनी न्यूनतम ’जरूरत की पूर्ति’ करते हुए वह समाज में सम्मान पूर्वक जी सके। इसके लिए किसी भी तरह की सरकारी, अर्द्धशासकीय, निजी या एनजीओं की सहायता की आवयकता न पड़े, एक वास्तविक आत्मनिर्भर भारत व नागरिक की यह एक आदर्श स्थिती है। परन्तु बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसे आत्मनिर्भर भारत बनाने के प्रयास के लिए क्या वैसी योजनाएं बन रही है या कार्य चल रहे हैं? इसके लिए सर्वप्रथम पहले तो सरकार को यह तय करना होगा कि जितनी भी सुविधाएं शासकीय योजनाएं या अर्द्धशासकीय स्तर पर जनता को जीने के लिए संवैधानिक अधिकार के रूप में उपलब्ध व प्राप्त है, को शैनः शैनः खत्म करने की एक बड़ी योजना बनानी होगी। आत्मनिर्भर भारत तभी आत्मनिर्भर कहलाएगा। परन्तु ऐसा लगता है कि ऐसी कोई भी दूरगामी योजना न तो शासन के पास है और न ही इस तरह का कोई ऐसा खाका जनता के सामने पेश किया गया है। इसलिए फिलहाल यह तो मानना ही होगा कि "तेल देख तेल की धार देखते हुए" आत्मनिर्भरता’ का नारा देकर एक ’दिवास्वप्न’ दिखाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार देश के प्रत्येक नागरिक को विदेशों से काला धन वापिस लाकर प्रत्येक नागरिक के खाते में 15-15 लाख जमा होने का वादा किया गया था, जिसे बाद में जुमलेबाजी तक करार कर दिया गया था। 

इस आत्मनिर्भर अभियान के संबंध में दो बिंदुओं पर अवश्य आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। सर्वप्रथम भारत विश्व के मात्र उन तीन देशों में शामिल है, जहां ’मुर्दों’ को भी बेचने पर कोई कानूनी शिकंजा या प्रतिबंध नहीं है, बल्कि शवों व अंगों की कालाबाजारी का एक बाजार है। दूसरा भारत उन 6 देशों में एक है जहां भुखमरी से मरने पर कोई कानूनन् अपराध गठित नहीं होता है। अर्थात इसे अपराध मानने का कोई कानून नहीं है। मतलब साफ है। इस देश में गरीबी इस हद तक निचले स्तर तक उतर गई है, जहां जरूरतमंद व्यक्ति मुर्दा के लिए लिए कफन न होने पर व अन्य आवश्यकताओं के लिए मुर्दे को बेचने की अनुमति है। भुखमरी का हाल बेहाल यह है कि भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 2014 में 99 वें स्थान से आज 119 देशों की सूची में 103 वे स्थान पर है। जहां हमारी स्थिति नेपाल व बंग्लादेश देशों से भी खराब है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बावजूद भुखमरी से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो उस जिले का कलेक्टर, विधायक, सांसद और अंततः प्रांतीय-केन्द्रीय शासन की जिम्मेदारी यदि संवैधानिक रूप से तय न की जाए तो, आत्मनिर्भर भारत का नारा कितना खोखला होगा? इसकी कल्पना की जा सकती है। उक्त जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों को मृत्यु के पूर्व भुखमरी की  परिस्थितियों की जानकारी होने की स्थिति में धारा 304-ए के अंतर्गत दोषी अपराधी होने के लिए भारतीय दंड संहिता में आवश्यक संशोधन किया जाना चाहिए। इस देश की जनता आखिर कब जागरूक होगी? उसके सामने "आंखों में धूल झोंकने वाले" लोक लुभावने आकर्षक वादे पेश करने वाले राजनीतिक दलों, जन नेताओं की पहचान कर जनता विपरीत दिशा में उसका उतना ही कड़क जवाब चुनाव में उनकी जमानते जप्त करा कर क्यों नहीं देती? ताकि भविष्य में इस तरह की लोक-लुभावनी लगने वाली न लागू होने वाली आकर्षक योजनाएं के द्वारा जनता को बरगलाया न जा सके। आखिर 75 साल बाद उच्चतम न्यायालय और केंद्रीय चुनाव आयोग इस संबंध में अपने कर्तव्य के प्रति क्यों देरी से जागे? क्या जागने में हुई उक्त देरी के लिए उन्हे अपराध बोध के भाव से ’उन्मुक्त’ किया जा सकता है? अंततः न्यायपालिका और चुनाव आयोग ’मुफ्त सौगातों’ पर प्रभावशाली तरीके से रोक लगाकर देश के मेहनतकश नागरिकों के सम्मान को बढ़ाकर "उद्यमेन हि सिद्धयंति कार्याणि न मनौरथै:" की भावना से समस्त नागरिकों को मेहनत करने के लिए प्रेरित कर सकते है, इह बात की पुष्टि तो समय ही बतलायेगा।   

’मुफ्त सुविधाओं’ को लेकर आपको तीन प्रमुख दृष्टिकोण से देख कर आकलन करना होगा। ’प्रथम’ संवैधानिक अनिवार्यता क्या हैं? जैसे मुफ्त शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा, हर हाथ को काम आदि-आदि। ’दूसरा’ जो यद्यपि संवैधानिक अनिवार्यता नहीं है, तथापि देश के अमीर गरीब के बीच बढ़ती दूरी को देखते हुए निर्धन व अति निर्धनों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्हे आवश्यक सुविधाएं मुफ्त देना, इस दृष्टिकोण से भी विचार करना होगा। ’तृतीय’ सिर्फ चुनावी लाभ की दृष्टि से जनता को "हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और" की लीक पर चलते हुए क्षणिक, अस्थाई लालच दिखाकर, गुमराह कर सत्ता में आने के लिए जनता से वोट लेना। इन समस्त परिस्थितियों के बीच इस तरह से संतुलन व सामंजस्य बनाया जावे कि धीरे-धीरे देश के प्रत्येक नागरिक को आत्मनिर्भर रूप से खड़ा किया जा सके। वर्तमान समस्या का हल यही है कि यदि राजनीतिक दृष्टिकोण, तुष्टीकरण की नीति को छोड़ कर शुद्ध जनहित की दृष्टि से व्यक्ति व अंततः देश के विकास को ध्यान में रखकर इस पर चिंतन किया जाये तो?

आत्मनिर्भर भारत की योजना के सिद्धांन्त को वृद्धाश्रम के सिद्धांन्त से सरल रूप से समझा जा सकता है। जिस प्रकार वृद्धाश्रम की प्रारंभिक अवस्था में समाज के लोग आगे आकर आश्रित व्यक्तियों को वृद्धाश्रम में शरण देकर उनके जीवन यापन की पूर्ति में सहयोग करते हैं। लेकिन इसे पूर्ण सफल तभी कहा जा सकता है, जब इसकी आवश्यकता को ही समाप्त कर दिया जाए, ताकि "न रहे बांस न बजे बांसुरी" की उक्ति चरितार्थ हो सके। मतलब वृद्धाश्रम में जाने के मूल कारण को समाप्त करने के लिए परिवार के सदस्यों को उनकी जिम्मेदारियों का आभास कराया जाकर, जनता को जागृत करने पर अंततः जिम्मेदारी निभाने पर इसकी आवश्यकता ही नहीं होगी। संयुक्त हिंदू परिवार की सरचना का आधार ही यही था। परंतु अब संयुक्त हिंदू परिवार  के टूटने से वृद्धाआश्रमों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। ठीक इसी प्रकार आरंभिक अवस्था में एक नागरिक की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति के लिए आवश्यक सहायता देते हुए उसे शैनः शैनः उक्त मुफ्त सौगातों को पूर्णता बंद कर दिया जाए, तभी सही अर्थों में आत्मनिर्भर भारत बन पाएगा।

केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनावी वादों को लेकर पूरी जानकारी नहीं देने पर और उससे देश पर पड़ने वाले असर को नजर अंदाज न करने का तर्क देकर, चिट्टी लिख कर राजनीतिक दलों को यह अहम निर्देश दिया है कि राजनीतिक दल वोटरों को अपने वादों के आर्थिक रूप से व्यावहारिक होने की प्रमाणिक जानकारी देंगे, ताकि मतदाता उसका आंकलन कर सकेगें कि ये वादे "थोथा चना बाजे घना" तो नहीं हैं। खोकले चुनावी वादों के दूरगामी प्रभाव होते है। उच्चतम न्यायालय में उन्हीं मुफ्त वादों व मुफ्त की सौंगातों या चुनावी रेवड़ीयों के कारण सरकारी कोष पर पड़ने वाले बोझ का मामला विचाराधीन है। उच्चतम न्यायालय ने पुनर्विचार हेतु तीन जजों की बेंच को मामला सौंपा है। यद्यपि केंद्रीय चुनाव आयोग ने अप्रैल में हुई सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय को बतलाया था कि चुनाव से पहले या बाद में मुफ्त रेवडी देना राजनीतिक दलों का ’नीतिगत’ फैसला है। वह राज्य की नीतियों और पार्टियों की ओर से लिए गए फैसलों को नियंत्रित नहीं कर सकता है। परन्तु अब अपनी नजरअंदाज  करने की भूल को सुधारते हुए उक्त पत्र लिखकर चुनाव आयोग ने  इस संबंध में शायद अपना दृष्टिकोण बदला है।

गुरुवार, 15 सितंबर 2022

‘नाम परिवर्तन’’ के साथ कुछ शब्दों पर भी ‘‘प्रतिबंध’’ समय की मांग है।


शहरों, भवनों, स्मारकों, रेलवे स्टेशनों आदि नामों के बदलने का एक सिलसिला देश में काफी समय से चल रहा है। उसी कड़ी में हाल में ही राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ करने की घोषणा प्रधानमंत्री जी ने की है। इसके लिए निश्चित रूप से वे बधाई एवं धन्यवाद के पात्र है। शायद यह परिवर्तन के युग की समय की आवश्यकता भी है। इस बदलाव को विशिष्ट पहचान (संस्कृति, भाषा, स्थान योगदान, बलिदान इत्यादि) को स्पष्ट रूप से चिन्हित, प्रदर्शित और महसूस करने का प्रयास कहा जा सकता है। इस ‘चलती हवा’ के साथ हम क्यों नहीं कुछ शब्दों जो हमारी संस्कृति पर चोट पहुंचाते हैं, प्रतिबंध लगाने का कार्य नहीं कर सकते हैं?

‘‘हरामजादा’’ ‘‘हराम’’ ऐसे शब्द हैं, जिन पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। क्योंकि इन शब्दों में हमारी सर्वोच्च आस्था का नाम जुड़ा हुआ है।। इसका  पूरा अर्थ बहुत ही बुरा नकारात्मक ध्वनित, प्रदर्शित होता है। ऐसा नहीं है कि शब्दों पर प्रतिबंध लगाने का यह कार्य पहली बार होगा। पूर्व में भी हम जरूरत के अनुरूप शब्दों पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। याद कीजिए अनुसूचित जनजाति शब्द जिस शब्द (...) के लिए इसका प्रयोग किया गया है, उसे प्रतिबंधित किया जा चुका है। निर्भया, दिव्यांग शब्द की उत्पत्ति भी इसी कारण से हुई है। उक्त शब्दों को स्पीकर ने भी असंसदीय घोषित किया है। जब माननीयों के लिए उक्त शब्दों के उपयोग पर विधानसभा में प्रतिबंध है, तब उक्त प्रतिबंध को विधानसभा के बाहर बढ़ाकर आम प्रचलन में और आम जनता के लिए भी  क्यों नहीं लागू  कर दिया जाना चाहिए?

मेरे राम के देश में जहां हम रामराज्य से गुजर चुके हैं, आज वहां भव्य राम मंदिर निर्माण हो रहा है, उसी देश के राम भक्तों से यही अपील करता हूं कि वे उक्त अपशब्दों पर प्रतिबंध लगाने के लिए मुहिम चलाएं। परिस्थितियां इसके बिल्कुल अनुकूल है। आवश्यकता सिर्फ आपके जागृत होने मात्र की है।

यहां उल्लेखनीय है कि सांसद साध्वी निरंजन ज्योति के द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान उक्त हरामजादों शब्द के उपयोग करने पर न केवल प्रधानमंत्री मोदी ने उनको फटकार लगाई, बल्कि उनको माफी भी मांगनी पडी।

रविवार, 11 सितंबर 2022

सिर्फ नामकरण नहीं! ‘‘भाव’’ को धरातल पर कार्य रूप में वस्तुतः उतारने से ही विकसित भारत।

आखिर नाम में क्या रखा? शेक्सपियर!

-:द्वितीय भाग:-

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नाम परिवर्तन के साथ ठोस कार्यों से एक मजबूत, बोल्ड, निर्णायक सिद्ध होते जा रहे हैं, वहीं पूर्व यूपीए शासन ने सिर्फ योजनाओं के नामों में परिवर्तन के साथ कुछ गुलामी प्रतीकों के नामों में परिवर्तन किया है। तुलनात्मक रूप से काम करने में यूपीए का शासन बहुत पिछड़ा रहा है। मजबूत ऐसी स्थिति में कम से कम नरेंद्र मोदी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि नाम बदलने को लेकर जो तर्क देकर अर्थ और परिणाम की जो कल्पना की जा रही हैं, क्या वह भी उतनी ही मजबूत (स्ट्रांग) व वास्तविक होगी? क्योंकि इसी अवास्तविक धारणा को लेकर ही कर्तव्य पथ के मुद्दे पर विवाद का जन्म हुआ है। मैं यह मानता हूं कि वर्तमान व निकट भविष्य में नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प दूर-दूर तक दिखता नहीं है। ‘‘विकल्प हीनता’’ के मामले में देश इंदिरा गांधी के बाद से भी बुरी स्थिति से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में जनता का भी दायित्व हो जाता है कि वह नरेंद्र मोदी का नेतृत्व निष्कलंक और मजबूत तथा कम से कम त्रुटि वाला रहे इस ओर सहयोग करे। कोई भी अच्छे से अच्छा व्यक्ति पूर्ण नहीं होता है, उसमें कुछ न कुछ कमियां-गलतियां अवश्य होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ऐसी कोई गलती न हो, इसी जो उनको कमजोर करे, दृष्टिकोण को लेकर मेरी यह टिप्पणी है।
प्रधानमंत्री ने जिस विस्तार से ‘‘राजपथ को गुलामी का प्रतीक’’ बता कर नए भारत की कल्पना की, क्या यह मजाक नहीं होगा कि जब हम आजादी के 75 वर्ष पर अमृत महोत्सव मना कर खुशीयाली व्यक्त कर रहे हैं, वहीं आज यह कहां जा रहा है कि गुलामी के प्रतीक राजपथ से हम मुक्त हुए। इसी गुलामी के प्रतीक कर्तव्य पथ पर हमने स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की परेड धूमधाम से मनाई? गुलामी का प्रतीक राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ बदल देने से ही राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक का क्षेत्र में चलने रहने वाले लोग क्या कर्तव्य युक्त हो जाएंगे? इसलिए नाम परिवर्तन को इतना ज्यादा महिमामंडित करना गलत है। वैसे विपक्ष खासकर (शर्मदार?) कांग्रेस को इस मुद्दे पर मोदी की आलोचना करने का कोई नैतिक या तथ्यात्मक आधार नहीं है। वैसे कही-अनकही अर्थात राजनीति की आजकल यह प्रवृत्ति हो गई है कि जो कहा उसे शाब्दिक रूप से छोड़कर अनकहा भाव, अर्थ सहूलियत अनुसार निकाला जाए।
स्वतंत्र भारत का नागरिक खासकर स्वतंत्रता के बाद पैदा हुआ नागरिक जो अभी तक यह सोच रहा था कि वह ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से मुक्त हुआ स्वतंत्र देश का एक नागरिक है। परंतु उसे गाहे-बगाहे कभी भी यह याद दिला दिया जाता है कि जिस देश में वह रह रहा है, वहां अभी भी गुलामी के कई प्रतीक मौजूद हैं, ‘‘हींग लगे न फिटकरी’’ के समान आसान है? ये होंगे भी या नहीं, मालूम नहीं? गुलामी का यह एहसास बार-बार करने की बजाय एक ही बार में समस्त गुलामी के प्रतीकों को हटाने का निर्णय क्यों नहीं ले लिया जाता है?
वैसे हमारी संस्कृति में ‘‘नाम व नामकरण’’ का बड़ा महत्व है। आज भी हिंदू समाज नवजात शिशुओं का नाम के समय की ग्रह स्थिति को देखकर पंडितों से और ज्योतिषियों से राय लेकर रखता है। प्रधानमंत्री की कर्तव्य पथ नाम रखने के पीछे रही भावना का पालन कर यदि कर्तव्य निभाना है, तब इस देश में बहुत से नागरिकों को भी अपना नाम बदलना होगा। उदाहरणार्थ मध्य प्रदेश के विधायक जालम सिंह, पूर्व निगम अध्यक्ष शैतान सिंह (जिन्हें में व्यक्तिगत रूप से जानता हूं) आदि अनेक नाम ऐसे हैं, जो नाम के विपरीत कार्य करने के कारण जनता का विश्वास जीतकर संवैधानिक पदों पर बने हुए रहे हैं। कई विजय कुमार ‘‘विजय’’ की चैखट पर नहीं पहुंच पाए तो कुछ सुखनंदन दुखों के ‘‘अवसाद में ही गुम’’ हो गए। कई दरिद्र नारायण अरबपति हैं। अमीर चंद गरीब नहीं हो सकता? अच्छा राम में कोई बुराई नहीं हो सकती? तो गोरे व्यक्ति का नाम कालू राम कैसे रखा जा सकता है? सज्जन कुमार दुर्जन (84 के दंगों का आरोपी) कैसे हो सकते हैं? विश्वास कुमार पर अविश्वास कैसे किया जा सकता है? ऐसी अंतहीन सूची है। ‘‘होइ है सोई जो राम रचि राखा’’।
अतः यदि वास्तव में बदलने की कोई की जरूरत हो तो आदरणीय लोगों की वो मानसिकता जो गुलामी से लबरेज है, जो स्वार्थ (सिर्फ स्वहित), जातिवादी व्यवस्था, परनिन्दा, अहंकार को ही सर्वश्रेष्ठ समझती है। सिर्फ नारों, बातों या नाम बदलने से रोटी-कपडा-मकान-श्रेष्ठ शिक्षा-उचित व सुलभ स्वास्थ्य सेवा नहीं मिल सकती है। ’कर्तव्य पथ पर घूमने से, या नाम पट्टिका पढने-पढाने से नहीं, कर्तव्य के कडे परिश्रमी, सत्यनिष्ठा व्यवहार को आत्मसात कर पूर्णतः ईमानदारी पूर्वक अनुसरण से ही विकसित भारत की कल्पना साकार हो सकती है।
प्रधानमंत्री के गुलामी के प्रतीक को इतिहास बनाने के कुछ घंटों बाद ही ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का निधन हो गया। प्रधानमंत्री मोदी ने दुख व्यक्त कर शोक संदेश भेजकर श्रद्धांजलि अर्पित की। तथापि देश का मीडिया ‘‘आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’’ प्रधानमंत्री के कर्तव्य भाव के संदेश को इतनी जल्दी भूल कर देश की जनता को हमारी गुलामी की सबसे बड़ी प्रतीक को विस्मृत करने की बजाए याद ताजा कर महिमामंडित कर प्रशस्त करने में अपना विस्तृत योगदान दिया। बजाय इसके कि वे प्रधानमंत्री के समान एक लाइन में समाचार देकर श्रद्धांजलि देकर अपने कर्तव्य बोध का एहसास करा सकते थे? तथापि मीडिया महिमामंडित करने के उक्त कार्य को इस आधार पर सही ठहरा सकता है कि एलिजाबेथ द्वितीय के निधन पर उनके सम्मान में एक दिन का राष्ट्रीय शोक रखने का निर्णय भारत शासन ने लिया है। इसीलिए यह भी कहा गया है कि (शेक्सपियर का कथन) ‘‘नाम में क्या रखा है’’।
मध्यप्रदेश शासन ने आम लोगों की खुशहाली के लिए वर्ष 2016 में देश में पहला हैप्पीनेस विभाग (राज्य आनंद संस्थान) ही बना दिया था। आज इस विभाग का रिपोर्ट कार्ड क्या है? क्या प्रदेश की जनता ‘खुश’ होकर ‘सुखी’ हो गई? बल्कि यह आनंद विभाग ही स्वयं अपने अस्तित्व को ज्यादा आनंद नहीं ले पाया। वर्ष 2018 में इसे धर्मस्व विभाग के साथ मिलाकर ‘‘आध्यात्म विभाग’’ बना दिया गया। वर्ष 2020 में देश में मध्यप्रदेश को हैप्पीनेस इंडेक्स में 25वीं रैंकिंग मिली है। नाम व काम करने के अंतर की यह वास्तविकता है। 

शनिवार, 10 सितंबर 2022

‘‘देश की समस्त समस्याओं का सरल व सुगम हल’’ ’नामकरण!

-ःप्रथम भागः-

देश में ही नहीं वरन विश्व में भारत के अभी तक के सर्वाधिक लोकप्रिय और किसी क्रिया-प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना अनोखी शैली व कार्यपद्धति से कुछ असंभव (जैसे राम मंदिर का निर्माण, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 की समाप्ति) से लगते ठोस कार्य करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ कर न केवल स्वयं को ‘‘कर्तव्य बोध’’ का एहसास दिलाया, बल्कि सबको भी अपना कर्तव्य निभाने के लिए एक संदेश भी दिया। यह बात उनके भाषण से स्पष्ट रूप से झलकती भी है। इस एक संदेश ने ही मुझे तुरंत प्रेरित-उत्प्रेरित किया और मैं यह लेख लिखकर अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं? तय आपको करना है कि मैं अपने कर्तव्य का पालन करने में सफल हूं अथवा असफल?

प्रधानमंत्री ने ‘कर्तव्य पथ’ के नामकरण व ‘सेंट्रल विस्टा एवेन्यू’ के उदघाटन कार्यक्रम में एक नहीं तीन महत्वपूर्ण संदेश दिए हैं। प्रथम! ब्रिटिश इंडिया के जमाने की गुलामी की प्रतीक राजपथ वर्ष 1955 के पूर्व किंग्सवे नाम से जानी जाती थी। इसका निर्माण वर्ष 1911 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली करने के निर्णय के साथ प्रारंभ हुआ था, जो वर्ष 1920 में बनकर पूर्ण हुआ। राजा जॉर्ज पंचम के सम्मान में इसका नाम किंग्सवे रखा गया था। आरंभिक रूप से यह सिर्फ राजाओं का ही रास्ता था। राजपथ रायसीना हिल स्थित ‘‘राष्ट्रपति भवन’’ को ‘‘इंडिया गेट’’ से जोड़ता है। यहां प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर भव्य प्रेरणात्मक राष्ट्रीय परेड का कार्यक्रम संपन्न होता है। इसमें भारतीय संस्कृति व ताकत का बखान व प्रदर्शन होता है। ‘‘राजपथ’’ को (गुलामी का प्रतीकात्मक नाम मानकर?) बदल कर राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत भारतीय नाम कर्तव्य पथ कर दिया है, जिस पर किसी भी नागरिक को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। 

दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण कार्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, आजाद हिंद फौज के संस्थापक व स्वतंत्रता के पूर्व अखंड भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, नेताजी के नाम से मशहूर (आज के नेता जी नहीं) सुभाष चंद्र बोस की विशालकाय 28 फुट ऊंची मूर्ति की स्थापना उसी जगह पर की गई, जहां पर पूर्व में इंग्लैंड के ‘‘जॉर्ज पंचम’’ की मूर्ति थी, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के 21 वर्ष बाद हटा कर दूसरी जगह ‘कोरोनेशन पार्क’ में विस्थापित कर दी गई थी। यहां यह याद रखने की बात है कि वहां पहले महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का बात कही जा रही थी, लेकिन अंतिम निर्णय न हो पाने के कारण लग नहीं पाई। इन दोनों कृत्यों को देश में न केवल गुलामी के चिन्ह मिटाने के रूप में देखा गया बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व को  जो सम्मान इस देश में मिलना चाहिए था, जिसके वे हकदार हैं, उसकी पूर्ति कुछ हद तक अवश्य इस प्रतिमा लगने से हुई है। ये दोनों भाव लिए कृत्य के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री जी साधुवाद व बधाई के पात्र हैं। इसके लिए देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा।

तीसरा किंतु विवाद का महत्वपूर्ण कारण बना उद्घाटन के इस अवसर पर दिया गया कर्तव्य बोध का संदेश। प्रधानमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में नाम परिवर्तन के जो कारण बतलाए और जो अर्थ मीडिया व राजनेता निकाल रहे हैं, वही विवाद का एक बड़ा कारण बनते जा रहा है। इसी तीसरे विवादित होते कारण ने मुझे अपने कर्तव्य का अहसास कराया जो आपके सामने लेख के रूप में प्रस्तुत है।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में जो प्रमुख बातें कहीं उसका लब्बु लबाब यही है कि कर्तव्य बोध के रूप में नए इतिहास का सृजन होगा। आज नई प्रेरणा व ऊर्जा मिली है। प्रधानमंत्री आगे कहते हैं राजपथ की आर्किटेक्चर और आत्मा भी बदली है। ‘‘गुलामी का प्रतीक राजपथ’’ अब इतिहास की बात हो गया है, हमेशा के लिए मिट गया है। गुलामी की एक और पहचान से मुक्ति के लिए मैं देशवासियों को बधाई देता हूं। परन्तु बड़ा एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है, कि वर्ष 1920 में जब इसका नाम किंग्सवे था, और स्वाधीनता प्राप्ति के बाद वर्ष 1955 में नाम बदलकर राजपथ कर दिया गया, तब यह कैसे गुलामी का प्रतीक रह गया है? क्योंकि गुलाम भारत की गुलामी का प्रतीक किंग्सवे का नाम आजाद भारत में पूर्व में ही बदला जा कर राजपथ किया जा चुका था। क्या किंग्सवे का हिंदी अर्थ राज पथ होने से राजा (शासकों) का पथ माना जाकर गुलामी का प्रतीक माना जा रहा था? ऐसा कुछ क्षेत्रों में कहा जा रहा है तो यह बिल्कुल गलत है। क्या हम ‘‘अनर्थ’’ की जगह ‘‘अर्थ’’ नहीं निकाल सकते है? ‘किंग्स’ का अर्थ ‘‘राज’’ नहीं ‘‘राजा’’ होता है। राज का अर्थ शासन लोकतंत्र से है। और यदि ऐसा नहीं है और राज शब्द से इतनी घृणा है, तो राजनीति के राज को लेकर क्या कहेंगे, करेंगे? क्या राज छोड़ देंगे? क्या राज-नीति (इसमें राज महत्वपूर्ण परंतु नीति गौण) की सीढ़ी चढ़कर बने मंत्री, मुख्यमंत्री केन्द्रीय मंत्री और प्रधानमंत्री पद को छोड़ देंगे? क्योंकि गुलामी का प्रतीक राज शब्द जुड़ा हुआ है? सकारात्मक सोच लेकर हम यह क्यों नहीं मान सकते हैं कि राजपथ में ‘‘रामराज’’ के राज का पुट शामिल है? क्या यह बात स्वीकारी नहीं जा सकती हैं कि अंग्रेजों की हर बात गलत नहीं थी, इसलिए हर कार्य/बात को गुलामी का प्रतीक मानना ठीक नहीं होगा? 

यदि सिर्फ नाम बदल कर कर्तव्य पथ कर देने से ही कर्तव्य बोध का भाव उत्पन्न हो जाएगा, ऐसी सोच व मान्यता है तो फिर यह बतलाना होगा कि उसी के पास ‘‘लुटियन जोन’’ में कनॉट प्लेस से रेडियल रोड वन से प्रारंभ होकर पीछे राजपथ से जाने वाला रास्ता का नाम क्वींस (रानी का रास्ता) को बदल कर जनपथ (पीपुल्स पाथ) किया गया था, तो क्या वह वास्तव में जनता (आम) का पथ हो गया? विपरीत इसके जनपथ तो आज अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निवास और महंगा वीआईपी मार्केट हो गया है, जो देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए प्रसिद्ध है। नाम बदलने से ही यदि सब कुछ अच्छा हो जाता? समस्त समस्याएं सुलझ जाती? देश गरीबी से खुशहाल हो जाता? तो फिर ‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या’’। ‘‘भ्रष्टाचार’’ का नाम बदलकर शिष्टाचार ईमानदारी कर दीजिए, अपराध का नाम बदलकर पुरस्कार कर दीजिए? आपको करना क्या है, सिर्फ नाम ही तो बदलना है? नाम के अनुसार भावनाएं व्यक्ति स्वयं में आत्मसात कर लेगा और यह देश के विकास, सुरक्षा, अखंडता, एकता बनाए रखने के लिए सबसे सुगम और सरल रास्ता सिद्ध हो जाएगा? तब ऐसी स्थिति में मंत्रिमंडल में पृथक से एक ‘‘नामकरण’’ विभाग का सृजन करना होगा?

विस्टा प्रोजेक्ट में जिसमें राजपथ भी शामिल है, नए संसद भवन, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति निवास व प्रधानमंत्री निवास का निर्माण भी पुराने भवन को तोड़कर किया जा रहा है। इसके पीछे का भी उद्देश्य अंग्रेजी व गुलामी की प्रतीकात्मक मानसिकता समाप्त करना बतलाया जा रहा है। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले वर्ष 1947 के पूर्व के ब्रिटिश इंडिया के समस्त निर्माण व नाम अंग्रेजों व गुलामी के प्रतीक हैं, तो क्या हम उन सब को तोड़ने और नाम बदलने जा रहे हैं? बिल्कुल नहीं। ‘‘काग़ज की नाव पार नहीं लगती’’। देश में विद्यमान अधिकतर ‘‘राजभवन’’ अंग्रेजियत की निशानी है। आज भी गुलामी का सबसे बड़ा प्रतीक राष्ट्रमंडल ब्रिटिश ओपनिवेशिक संगठन है, जिसे स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1947 में औपचारिक रूप से गठित किया। इसमें ब्रिटिश साम्राज्य के लगभग समस्त पूर्व क्षेत्र भारत सहित शामिल है। इससे उपनिवेशवाद से हमें कब मुक्ति मिलेगी? सबसे महत्वपूर्ण कांग्रेस शासन द्वारा कोरोनेशन पार्क में जॉर्ज पंचम की विस्थापित की गई जो मूर्ति को विसर्जित होगी या नहीं? अंग्रेजों के जमाने की वर्ष 1860 की भारतीय दंड संहिता जो हमारी अपराधिक न्यायशास्त्र की रीढ़ की हड्डी है, अभी भी चली आ रही है। ऐसे अनेक पुराने ब्रिटिश कानून (लगभग 1500 से अधिक) आज भी प्रचलित है। ‘‘हाथी की सिर्फ पूछ ही निकल पायेगी’’ हाथी नहीं। यदि नाम परिवर्तन करना ही है तो इंडिया, भारत की जगह हिंदुस्थान नामकरण कब होगा? जो हमारी अस्मिता व संस्कृति की प्रतीक नहीं मूल पहचान है। 

बुधवार, 7 सितंबर 2022

विरोधाभाषी अजब-गजब व्यक्तित्व! केजरीवाल’’

-:द्वितीय भाग:-  द ग्रेट पॉलीटिकल शो (ड्रामा) ऑफ केजरीवाल’’!   

केजरीवाल के जवाब देने की शैली की दो पहचान है। प्रथम जवाब में वे प्रश्न ही पूछने लग जाते है, तो दूसरा, विषय (प्रश्न) को इस खूबसूरती व चालाकी से वे विषयांतर कर देते हैं कि ’’सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’’। शायद इसी कारण उन्हें अपना स्टेण्ड पल-पल बदलने में असहजता व असुविधा महसूस नहीं होती है। उनके पुराने बयानों का वीडियो चला कर देख लें। प्रत्येक मुकदमे बाज, राजनेता अपराध में संलिप्त होने के कारण दाग-दार हैं। और इसलिए चुना हुआ दागी, सांसद, विधायक या जनप्रतिनिधियों को अपने पद बने रहने का कोई हक नहीं है जब तक कि वह अपने पद से इस्तीफा देकर मुकदमा लड़ कर, अंतिम रूप से निर्दोष सिद्ध होकर, फिर से चुनाव लड़कर, जनता का विश्वास प्राप्त कर, फिर से संसद या विधानसभा में आये। कड़क ईमानदार केजरीवाल इस सिद्धान्त को ‘आप’ के लगभग 35 से अधिक दाग-दार विधायक पर क्यों नहीं लागू करते है? जवाब नहीं? भला ’सांच को आंच क्या’?

अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में विश्वास मत पर बोलते हुए एक और नया शिगूफा छोड़ दिया। कट्टर बेईमान पार्टी (भाजपा) में कम पढ़े लिखे लोग हैं। आधे से ज्यादा अनपढ़ हैं। तो दूसरी तरफ ईमानदार पार्टी में आईआईटी के लोग हैं, विजन है। इसका अर्थ तो यही निकलता है कि देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या जो आज भी अनपढ़ है, केजरीवाल की उक्त परिभाषा अनुसार भ्रष्ट है। केरल भारत का सबसे शिक्षित राज्य जहां 94 प्रतिशत साक्षरता है। इस हिसाब से तो केरल की तुलना में दिल्ली के लोग ज्यादा भ्रष्ट हैं (जहां साक्षरता का प्रतिशत 86.21 है)? केजरीवाल द्वारा तय किए गए नैरेटिव के अनुसार। केजरीवाल की झूठ की पराकाष्ठा का एक और उदाहरण आईने समान आपके सामने है। 6300 करोड़ रुपए से 277 विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप भाजपा पर मढ़ना। न सूत न कपास,! न कोई तथ्य! न कोई गवाह! न कोई दस्तावेज! न 6300 करोड़ रुपयों की आवा-गमन (लेन देन) का साक्ष्य? साक्ष्य में सिर्फ केजरीवाल की दहाड़ती सच्चाई का कथन मात्र? आप इसे सच क्यों नहीं मान लेते हैं? पेट्रोलियम उत्पाद के दाम बढ़ने का कारण भी इस 6300 करोड़ को बता दिया। झूठ का एक और पुलिंदा! ’’ऑपरेशन लोटस’’ के तहत दिल्ली सरकार को गिराने के गंभीर आरोप को हल्के-फुल्के ढंग से जड़ दिया। न कोई ऑडियो-वीडियो क्लिपिंग! न रुपए लेने देने वालों का नाम! न अन्य कोई साक्ष्य न कोई एफआईआर। सिर्फ मनीष सिसोदिया का बयान जो ब्रह्म वाक्य होने के कारण साक्ष्य मान लिया जाए?

दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना जब वे राष्ट्रीय खादी और ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष थे, पर नोटबन्दी के समय 1400 करोड़ रूपये के तथाकथित घपले के आरोपी को जड़ देना झूठ की इंतिहा (पराकाष्ठा) ही हैं। एक शाखा के कैशियर द्वारा 16 लाख (22 लाख नहीं) के नोट अध्यक्ष के कहने पर बदलने की बात कही थी, को राजनीतिक गुणा भाग कर राजनीतिक गुणा भाग कर रुपए 1400 करोड़ के घोटाले में परिवर्तित करना ’’केजरीवाल गणित’’ से ही संभव हैं। शायद यह केजरीवाल की ’’आक्रमण करना ही अच्छे बचाव’’ (अटैक इज द बेस्ट डिफेंस) की नीति का ही परिणाम है। क्योंकि इन्हीं उपराज्यपाल ने शराब नीति को लेकर मनीष सिसोदिया के विरुद्ध सीबीआई जांच की सिफारिश की थी। उल्लेखनीय बात यहां पर  यह भी है कि उक्त नोट बदलने की जांच सीबीआई द्वारा पूर्व में ही की जा चुकी है, जिसकी मांग केजरीवाल अभी कर रहे है व नौटंकी कर रहे हैं (फिर झूठा कथन)। उक्त जांच में सक्सेना को निर्दोष पाया जाकर अन्य अभियुक्तों के विरूद्ध न्यायालय में प्रकरण पेश किया गया। वास्तव में यह आरोप भी इतना हास्यास्पद है कि हिन्दी मीडिया चैनल ’’टाईम नाउ नवभारत’’ के कार्यक्रम ’पाठशाला’ में एंकर ने केजरीवाल का दिल्ली के उपराज्यपाल पर 1400/- करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप को ’तर्क’ के लिये सही मानकर केजरीवाल द्वारा 1400 करोड़ की भ्रष्टाचार की गई गणना के गणित को ही आधार बनाकर गुजरात में आगामी होने वाला विधानसभा के चुनाव में आप की संभावनाएं पर उक्त गणित को लागू करते हुये गणनानुसार ’परिणाम स्वरूप’ आप 90 प्रतिशत से अधिक वोट पाने के अनुमान के कारण गुजरात में आप की सरकार ही बना दी। यह बहुत ही भद्दा और क्रूर मजाक केजरीवाल के जरा ज्यादा ही होशियारी भरे? आरोपों के कारण ही एंकर ने किया। इसी तरह आरोपों के सर्जन (क्रिएटिविटी) के चलते भविष्य में शायद अन्य टीवी प्रोग्राम ‘‘अजब-गजब’’ या ‘‘अद्भुत-अकल्पनीय-अविश्वसनीय’’ (आज तक) में केजरीवाल एपिसोड शामिल हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए?

वैसे उक्त अद्भुत अकल्पनीय अविश्वसनीय में शामिल शब्द अविश्वसनीय से एक बात जेहन में जरूर आयी कि इस अविश्वसनीय शब्द को जिस तरह से केजरीवाल ने ‘‘जिया’’ है, वैसे अन्य कोई उदाहरण आपको शायद ही मिले। कम समय की लगभग 10 साल की राजनैतिक यात्रा में ही केजरीवाल ने दिल्ली में दो बार व पंजाब में लगभग 90 प्रतिशत विधानसभा की सीटें जीतकर निसंदेह एक अकल्पनीय अविश्वसनीय कार्य जरूर किया है। परन्तु विपरीत इसके कसम खाते हुए राजनीति में नहीं आऊंगा, दागी सांसद इस्तीफा दे, ‘‘स्वराज’’ पत्रिका में लिखे अपने आदर्शों से पीछे हटना, सुरक्षा व वीआईपी कल्चर से दूर आदि आदि से उनकी विश्वसनीयता खत्म होकर अविश्वसनीय हो गई है।

गनीमत है, केजरीवाल इतनी ईमानदारी जरूर बरत रहे हैं कि अपनी पार्टी की हो रही दागदार छवि को स्वच्छ करने, धोने के लिए न्यायालय में जाकर साफ करने का प्रयास जरूर कर रहे हैं। अन्यथा उन्हे अपनी स्वप्रमाणित ईमानदारी के साथ यह कहने से कौन रोक सकता था कि न्यायालय भी ’’दाग से धुली नहीं है?’’ और जब मैंने कह दिया हमारा कोई विधायक, मंत्री अपराधी नहीं है, ईमानदार हैं, इतने छापे पड़ गये परन्तु कुछ नहीं मिला, ’लाकर’ में भी नहीं मिला। तब आप ’’अमिताभ बच्चन शो’’ समान मेरे जवाब को लॉक कर मेरे द्वारा दिये गये ईमानदारी के प्रमाण पत्र को मानिये? केजरीवाल जी ’प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती', ’चूहे का जाया बिल ही खोदता है’। तथ्य यह है कि सीबीआई व ईडी का कोई आधिकारिक बयान प्रकरण की प्रगति के संबंध में अभी तक सामने नहीं आया है, जहां उन्होंने आरोपी को क्लीन चिट दे दी हों? केजरीवाल जारी किये जा रहे प्रमाण पत्र के लिए किसी भी तंत्र को बदलने की या ‘वाशिंग मशीन’ की आवश्यकता नहीं है क्या? 

वाह रे केजरीवाल जी! ’शौकीन बुढ़िया चटाई का लंहगा’! गजब का जरूरत से ज्यादा, 56 इंच से भी ज्यादा का गरूढ़ भरा (कुमार) विश्वास को छोड़कर आत्मविश्वास। निश्चित रूप से कमजोर (नर्वस) दिल वालों को केजरीवाल को अपना गुरु मानकर उनका स्कूल ज्वाइन कर अपने कमजोर आत्मविश्वास को मजबूत कर लेना चाहिए? कम से कम मैं जरूर यह कह सकता हूं कि केजरीवाल को सुन-सुन कर मेरा भी आत्मविश्वास इतना ज्यादा बढ़ गया है कि मुझे यह लेख लिखने के लिए हिम्मत के साथ प्रेरित किया। हां मैं उन पर मनन करते हुए, सुनते हुए, पढ़ते समय अपनी ’’आंख कान और दिमाग’’ एक साथ खुला जरूर रखता हूं।

केजरीवाल का व्यक्तित्व एक ऐसी विशेषता लिये हुए है, जो दो एकदम परस्पर विपरीत ध्रुवों पर स्थित विचारों को ’’एक ही समय एक साथ जीने’’ का माद्दा रखते हैं। ’’आधा गिलास खाली है या भरा,’’ यह दोनों विकल्पों का एक साथ एक ही समय उपयोग की क्षमता ’एक म्यान में दो तलवारें रखने की कला’ के समान केजरीवाल के ही पास है, देश के अन्य किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं। इसलिए दोहरा मापदंड अपनाने के लिए उन्हें कई उपाधियों से एक साथ सुशोभित किया जा सकता है। जैसे दोहरा चरित्र, ‘‘मुंह में राम-बगल में छुरी’’, कथनी-करनी में अंतर, सिद्धांतों की नहीं सुविधा की राजनीति, सुविधा अनुसार परिभाषाओं का गठन करना, कट्टर देश भक्ति के दावे के साथ बेबाक बेशर्मी से सफेद झूठ बोलना, गिरगिट समान रंग बदलना, साहस नहीं दुस्साहस के साथ गलत बात को सही प्रमाणित करने का अथक प्रयास करना, नौटंकी कार, मुखौटा, बाजीगर, पलटूराम (नीतीश कुमार समान नहीं) आदि आदि! अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘‘कालिया’’ का यह प्रसिद्ध डायलाग वर्तमान में केजरीवाल पर लागू होता हैं ’’हम जहां खडे हो जाते है, लाइन वही से शुरू होती हैं।’’ मैं ही कानून, न्यायाधीश, गवाह, आरोपी, शिकायतकर्ता होकर मेरा कथन ही अंतिम सत्य हैं। 

2014 में एक ओर जहां नवभारत टाइम्स ने लिखा केजरी सरकार एक्शन ड्रामा, इमोशन, संस्पेस का कंप्लीट पैकेज। वहीं प्रतिष्ठित ’’टाईम मैगनीज" ने वर्ष 2014 में केजरीवाल को विश्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में शामिल किया। विपक्षियों पर हवाई आरोप लगाकर सीबीआई जांच की मांग करने वाले केजरीवाल की सरकार पर शराब नीति व स्कूल निर्माण तथा बस खरीदी में हुए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से इंकार।  केजरीवाल भले ही सिसोदियां को ‘‘भारत रत्न’’ न दिला पाए, (भई वाह! छछूंदर के सिर पर चमेली का तेल!!) लेकिन केजरीवाल को उक्त ’आभूषणों’ के लिए (डॉ.) पीएचडी की डिग्री जरूर मिलनी चाहिए। अन्यथा अनाधिकृत दूसरो को चारित्रिक प्रमाण पत्र देने वाले, स्वयं को ही प्रमाण देने से बच क्यों रहे हैं? 

कि हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, जहां लोकतंत्र के स्वस्थ व मजबूत होने के लिये पक्ष-विपक्ष का मजबूत होना आवश्यक हैं, ताकि परस्पर एक दुसरे पर अंकुश लगाकर कोई भी पक्ष निरंकुश न हो पायें। परन्तु विद्यमान राजनैतिक स्थिति का सबसे दुखद पहलू यह है कि देश की राजनीति में कांग्रेस की प्रासंगिकता कुछ-एक अपवादों को छोड़कर (अमित शाह के शब्दों में शब्दों में कांग्रेस गायब होती जा रही है) तेजी से समाप्ति की ओर जाने के कारण लोकतंत्र एकतंत्रीय दिशा की ओर बढ़ने से उत्पन्न शून्य के चलते उक्त शून्य को भरने हेतु वैकल्पिक राजनीति का झंडा लिए हुए झंडाबरदार केजरीवाल ने स्वयं पलटूराम बनकर, और राजनीति को ’चलती का नाम गाड़ी’ बना कर वैकल्पिक राजनीति की ’’ भ्रूण-हत्या’’ कर दी। अन्ना के सानिध्य से आशा का केन्द्र बने ’’ईमानदार केजरीवाल’’ ने मात्र 8 वर्ष में ही दोहरे मापदंड अपना कर विश्वसनीयता खोकर देश व जनता को निराशा के अंधकार में धकेल दिया। अविश्वास या विश्वास पैदा न करने से ज्यादा खतरनाक विश्वासघात होता है, जिसके लिए केजरीवाल इतिहास में  पूर्णतः दोषी ठहराये जायेंगे।न्द्र बने ’’ईमानदार केजरीवाल’’ ने मात्र 8-9 वर्षों में ही देश व जनता को निराशा के अंधकार में धकेल दिया। अविश्वास होना या विश्वास पैदा न करने से ज्यादा खतरनाक विश्वासघात होता है, जिसके लिए केजरीवाल इतिहास में  पूर्णतः दोषी ठहराये जायेंगे।

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