अक्सर हमारे देश के राजनीतिज्ञों एवं राजनैतिक पार्टियों पर परस्पर या अन्य पक्षों द्वारा यह आरोप जड़ दिया जाता है कि देश के मान, सम्मान, विकास, अखंडता व सुरक्षता के मामले में वे कभी भी एक होते हुये दिखते नहीं है। यद्यपि हमारी देश की संस्कृति का मूलभूत सूत्र व सिंद्वान्त ही ‘‘अनेकता में एकता लिये हुये कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हमारा देश एक है’’ रहा है। लेकिन इस सिंद्धान्त को मानते हुये ओैर उक्त आरोप जो एक परसेप्शन है, को नकारते हुये इस देश के राजनीतिज्ञों में कुछ मुद्दों को लेकर जो अभूतपूर्व एकता दिखाई देती हैं, वह देश के हित में है? या विपरीत? इस पर भी कुछ आलोचक अपनी कलम तेढ़ी व भृक्टी (भंगिभाए) तिरछी करते हो तो करते रहे, ‘‘अंधा क्या जाना बसंत की बहार‘‘। खैर इसका जवाब फिर कभी खोजेगे, अभी तो बात सर्वानुमति की एकता को लेकर कर ले।
आपको याद होगा, हाल ही में (23 दिसम्बर 2021 को) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कोरोना के बढ़ते हुये संक्रमित मरीजों व चुनावी रैलियों में आ रही? अथवा लाई जा रही भीड़ को देखते हुये चिंता व्यक्त करते हुये कोरोना की संभावित तीसरी लहर से जनता को बचाने के लिये प्रधानमंत्री एवं चुनाव आयोग को रैलियों को रोकने व चुनाव टालने का सुझाव दिया था। न्यायालय ने कहा कि राजनैतिक दलों की रैलियों व सभाओं में लाखों लोगों को बुलाने के कारण कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन करना संभव नहीं है। न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव का यह कथन महत्वपूर्ण है कि ‘‘जान है तो जहान है’’। (यद्यपि ये वाक्यांश पूर्व में कोविड-19 के पहले-दूसरे दौर में शासनारूढ राजनीतिज्ञों ने भी लॉकडाउन व प्रतिबंध लगाने के समर्थन में कहे थे ) तथापि अभी तक चुनावों की घोषणा नहीं हई है। संविधान के अनुसार उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में आगामी मार्च से मई महीने के बीच विधानसभा के चुनाव होने है, जो एक संवैधानिक अनुपालन है। यद्यपि अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन के अधिकार का सहारा लेते हुये उच्च न्यायालय के उक्त निर्देश पर प्रश्नवाचक चिन्ह अवश्य उठाये जा सकते है कि क्या यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आता भी है अथवा नहीं! चूंकि यह एक अलहदा विषय है, जिस पर फिर कभी अलग से चर्चा की जायेगी।
उच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्देश पर राजनैतिक दलों की जो प्रतिक्रियाएं आयी है, उससे प्राप्त निष्कर्ष उन लोगों के मुह पर कड़ा तमाचा है जो यह कहते थकते नहीं हैं कि इस देश में राजनैतिक पाटियां राष्ट्रहित के मुद्दों पर कभी भी एक नहीं हो पाती है। आश्चर्यजनक रूप से नहीं, बल्कि देश के वर्तमान राजनैतिक चाल-चरित्र के चलते समस्त राजनैतिक दलों ने सर्वसम्मति से चुनाव आयोग से कोविड प्रोटोकाल का पालन करते हुये’ नियत समय पर’ चुनाव कराने की बात कही है। ‘‘आखिर बाज के बच्चे मुंडेरो पर नहीं उड़ा करते‘‘। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत ऐसे ही नहीं कहलाता है? लोकतंत्र की नींव, रीढ़ की हड्डी और मुख्य आधार संविधान में निर्धारित समय पर चुनाव कराकर जनता का जनता के लिये अंततः चुने हुए जन प्रतिनिधित्वों को शासन सौंप देना ही असली जनतंत्र-लोकतंत्र है। यह बात और है कि ‘‘जनता तो भेड़ है, जहां जाएगी वही मूंडी जाएगी‘‘।
एक तरफ देश के अभी तक के सर्वाधिक लोकप्रिय अनोखे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीे ‘‘मन की बात’’ करते समय न केवल अपने मन की बल्कि नागरिकों के (जिन्होंने उन्हे इस शीर्ष तक पहुंचाया) के मन की भी बात कहते करते हैं। ‘‘अनोखे‘‘ इसलिये कि वे पहले प्रधानमंत्री जिन्हाने अभी तक 84 बार देश के नागरिकों से ‘‘मन की बात‘‘ की है जो कि ‘‘नानी के आगे ननिहाल की बातें‘‘ करने जैसा है। जबकि मोदी के पूर्व अभी तक के समस्त पूर्व प्रधानमंत्री गण सामान्यतः सिर्फ स्वाधीनता दिवस पर ही राष्ट्र को सम्बोधित करते रहे थे। मन मोहने वाले मनमोहन सिंह भी नहीं करते थे। प्रधानमंत्री ने सबकी मन की बात जिसमें उनका मन भी शामिल है ।,कहा कि कोविड-19 अभी गया नहीं है। लोगों को पूर्ण सुरक्षा व सावधानी बरतनी है। 84 वीं मन की बात करते हुये देशवासियों को नये साल की बधाई देते हुये प्रधानमंत्री ने नागरिकों से अपील की स्वयं की सजगता व स्व-अनुशासन ही कोरोना के नये वेरिएंट ओमीक्रान के खिलाफ हमारी शक्ति है। वहीं टीवी स्क्रीन पर लाखोें की भीड़ को कोविड प्रोटोकॉल का पूरा उल्लघंन पाते हुये, देखते हुये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे की तर्ज‘‘ पर अपने विचारों का उदधोषण करते हुये, लगातार दिख रहे है। विपक्ष भी इस क्रम से दूर बिल्कुल नहीं है। वह भी दोनों पक्षों में बराबरी की भागीदारी से सर्वानुमति के साथ है।
इस देश में सर्वानुमति या आम सहमति का यह अकेला उदाहरण नहीं है। सर्वानुमति (सर्वसम्मति) के अनेकानेक क्षेत्र है, जिनको याद कर ले तो आप अवश्य ही यह महसूस करेगें कि यह देश कम से कम आधी सर्वानुमति से तो अवश्य चल ही रहा है। बात जब सांसदों, विधायको की तनख्वाह बढ़ाने की होती है अथवा पेंशन देने व फिर बढ़ाने की होती है, तब सर्वानुमति अपने आप आ जाती है। मतभेद व मनभेद निरंक व निरर्थक हो जाते है। सब ‘‘मन मन भावे मूंड हिलावे‘‘ की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक शासक यदि आर्थिक रूप से कमजोर होगा तो वह सही ईमानदार शासन कैसे चला पायेगा? कमजोर आर्थिक स्थिति उन्हे कहीं न कहीं ईमानदारी से डोलने पर मजबूर कर सकती है। अतः देश हित में अपने आर्थिक स्थति को मजबूत कर ईमानदार बने रहने की परिस्थितियां बनाये रखने की सर्वानुमति पर किसी को कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए? यह समझ से परे है।
जब भी राजनैतिक पार्टियां परस्पर एक दूसरे के खिलाफ कीचड़ उछालने व आलोचना करती है, तब भी उनमें गजब की सर्वानुमति होती है। ‘‘आखिर हमाम में सभी नंगे होते हैं’’। प्रत्येक राजनैतिक पाटी अपने ही शासन को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर ले जाने का दावा करती है। साथ ही दूसरे (अपने विपक्षियों) को नकारा, निकम्मा व शून्य तक कह देती हैं। चूंकि इन कमियों या उपलब्धियों को यदि नागरिक नहीं उभार पा रहे है, तो देश के राजनैतिक दलों को तो यह ‘‘कार्य’’ करना ही होगा? और इसीलिए उनके बीच यह सर्वानुमति है।
एक और महत्वपूर्ण सर्वानुमति पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। समस्त राजनैतिक दलों में इस बात की अविवादित सर्वानुमति है कि महिला आरक्षण बिल संसद से पारित होना बेहद जरूरी है ताकि महिलाओं को विधायिका में एक तिहायी आरक्षण मिल सके। परन्तु यह सर्वानुमति होने के बावजूद आरक्षण बिल संसद में आज तक पारित नहीं हो पाया है। तथापि उसी संसद में बिना सर्वानुमति वाले अनेको बिल यहां तक कि कई विवादित बिल भी सर्वानुमति, सहमति या बहुमत से पारित हो चुके है या रदद भी कर दिये गए है। ऐसा लगता है कि सभी पार्टी के पुरूष सांसद अन्दरखाने में शायद इस बात पर सहमत है कि बिल पारित न होवे। परदे के पीछे संसद के सेंट्रल हाल में गप-शप में मशगूल पुरूष सांसदांे द्वारा महिलाओं को आरक्षण न मिलने के शायद तौर-तरीके दूढे जाते है। यह भी तो सर्वानुमति ही है। वैसे सदन की समस्त महिला सदस्या आरक्षण को लेकर एकमत तो है, लेकिन यह एकमतता पार्टी की लक्ष्मण रेखा को पार नहीं कर पाती है, क्योंकि लक्ष्मण रेखा उलांघने के (दु)साहस के दुष्परिणाम को उन्होंने अवश्य पढ़ा है। यह भी एक तरह की सर्वानुमति ही है।
इसके अतिरिक्त अन्य अनेक मुद्दे है जिन पर प्रायः सभी राजनैतिक दलों की परस्पर अलिखित अथवा मौन सहमति या सर्वानुमति होती है। जैसे राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ता को संवैधानिक पद, राज्यपाल के रूप मे नियुक्तियाँ, संवैधानिक संस्थाओं का राजनैतिक हित के लिये दुरूपयोग, पार्टी में आंतरिक वास्तविक लोकतंत्र, हाईकमान का वजूद, राजनीति में नैतिकता की दवाई ,राजनीति से अपराधीकरण की मुक्ति , अर्थात आरोपियों अभियोगीयों व अपराधियों को लोकसभा, विधानसभा में टिकिट देने का मामला (कानून अपना काम रहा है, करेगा) या दल बदलुओं को नवाजने का मामला हो आदि आदि।
किसी भी तरह के गंभीर अपराध, राजनैतिक आंदोलन व सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने की बात होने पर उस राज्य के विपक्षी दल घटना की मुखर आलोचना करने में तुरंत-फुरंत सामने आ जाते हैं। परन्तु दूसरे राज्यों में जहां उसी विपक्षी दल की सरकारें होती है, वहां पर हुई इस तरह की घटनाएं पर वे मरहम-पट्टी का आवरण लगाकर चुप्पी साध लेते है। घटना तेरी-मेरी कहकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं? मतलब इसे स्पष्ट शब्दों में कहां जाये तो यह अपराध भाजपा का है और यह कांग्रेस का है या अन्य दलों का है, इस पर अपने अंदर झाके बिना, आत्मविलोकन किये बिना घटना वर्णित कर बेशर्मी से महिमा मंडित कर दिया जाता है। बयानवीरों के बयानों के तीक्ष्ण बाणों से इस पर भी सर्वानुमति बन गई है। राजनीतिज्ञों की कथनी-करनी के अंतर की सर्वानुमति का उल्लेख करने की आवश्यकता है क्या? परिवारवाद को सिंद्धान्त गलत कहते हुये इसे अपनाने की भी सर्वानुमति है।
वैसे उक्त वर्णित पूरी सर्वानुमति को एक लाइन में रेखांकित किया जा सकता है कि वर्तमान में सत्ता का चरित्र इतना बलवान, मजबूत व हावी हो गया है कि उस पर आरूढ़ होने वाला राजनेता सत्ता को न हकाल (चला) कर, सत्ता उन राजनेताओं पर हावी होकर चढ़कर उन्हे चला रही है, जिस कारण से ही आज की सत्ता की राजनीति में उक्त सर्वानुमति परिलक्षित हो रही है। अर्थात यह सत्ता के कारण उत्पन्न सर्वानुमति है।
अब तो आप समझ ही गये होगें कि इस देश में शासन सर्वानुमति से देशहित में राजनीतिज्ञों द्वारा चलाया जा रहा है? कहां है विरोध?
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