उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे है। इन पांच प्रदेशों में चार में भाजपा की सरकारें हैं। भाजपा का नारा है, ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ के रहते विकास भी डबल हो जायेगा। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही राज्यो में हुए चुनावों में भाजपा ने उक्त नारे को एक प्रमुख मुद्दा बनाया है। अटल बिहारी बाजपेयी के जमाने में इस नारे की उत्पत्ति नहीं हुई थी, और न ही कांग्रेस के लम्बे शासन काल में जहां केन्द्र व राज्य सरकारें एक ही पार्टी की थी, तब भी उक्त नारे की आवश्यकता नहीं पड़ी। त्वरित व दोहरी गति से विकास के लिए इस सिद्धांत की आवश्यकता से कुछ मूलभूत प्रश्न उत्पन्न होते हैं। दुर्भाग्य से जागरूक मीडिया से लेकर देश के प्रबुद्ध वर्ग व विधि व संविधान विशेषज्ञों तक का ध्यान इस ओर नहीं गया। आइये उन मूलभूत प्रश्नों की आगे चर्चा करते हैं।
आप जानते ही है, भारत अनेकता में एकता लिये हुये देश है जो 28 राज्यों औैर 9 केन्द्र शासित प्रदेशों का ‘संघ’ ‘‘संघे शक्तिः कलौ युगे‘‘ की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ, एक राष्ट्र के रूप में मजबूती से खड़ा है। इसे एक सूत्र में बांधने और एक सूत में पिरोने वाला ‘‘संघवाद’’ ही है। इसीलिए विश्व में भारत के इस मजबूत संघवाद की प्रशंसा की जाती रही है। संघवाद सरकार का वह रूप है जहां शक्ति का विभाजन आंशिक रूप से केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के बीच होता है। संविधान निर्माताओं ने संघीय संविधान बनाते समय इस बात का ध्यान रखा कि केन्द्र व राज्यों के पास कौन-कौन से अधिकार होने चाहिये। इसके लिए विषयों की तीन सूची केन्द्र (100 विषय तथा अपशिष्ट विषय) राज्य (61 विषय) व समवर्ती (52 विषय) बनाई गयी। अर्थात संघवाद संवैधानिक तौर से (पावर) शक्ति (सत्ता) को साझा करता है। तथापि भारतीय संविधान कुछ प्रावधानों के कारण संघवाद के साथ एकात्मकवाद लिये हुये भी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के पहले तक किसी भी पार्टी ने किसी भी राज्य के चुनाव में इस आधार पर वोट नहीं मांगा कि चूकि वह केन्द्र में सत्ता में है, इसलिए यदि उस राज्य का विकास अधिक और तेजी से करना है तो, डबल इंजन की सरकार अर्थात उस राज्य में केन्द्र में शासन करने वाली पार्टी को ही विजय बनाये। यह सिंद्धान्त न केवल सिंद्धान्तः खतरनाक है, बल्कि संघवाद की आत्मा के मूलतः विरूद्ध है। राज्यों में जहां भी विपक्षी दलों की सरकारें है, वहां पर संवैधानिक रूप से केन्द्रीय सरकार का वाजिब हिस्सा उस राज्य को मिलना चाहिये। यह केन्द्रीय सरकार का दायित्व है, न कि ‘‘अंधा बांटे रेवड़ी‘‘ की तर्ज पर ‘‘अपनों अपनों को ही विकास का लड्डू बांटने का‘‘। उत्पादन और संसाधनों का कच्चा माल तो वस्तुतः राज्यों का ही राज्यों में ही है (मुख्यतः कोयला, पेट्रोलियम उत्पाद, नेचरल गैस को छोड़कर)। तब फिर केंद्र का उस पर बंदरबांट का अधिकार कैसे? इसीलिए डबल इंजन की सरकार का प्रश्न स्वस्थ संवैधानिक लोकतंत्र में कहां, कैसे व क्यों उत्पन्न होता है? 21वीं सदी के युग में हम जहां पर संवैधानिक तंत्र को और मजबूत करना चाहते है, वहां डबल इंजन का नारा देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अनजाने में राज्यों को ‘‘परजीवी’’ (केन्द्र पर) बनाने की ओर तो नहीं ले जा रहे है? असमंसज व आश्चर्य तो इस बात का है कि उक्त नारा राज्य को स्वयंपूर्ण सेल्फ सफिशियेट (स्वतः यथेष्ट) के लिए ही दिया जा रहा है।
मुझे याद आता है कि दिल्ली-चेन्नई ग्रैंड ट्रंक रेल मार्ग पर कुछ समय पूर्व तक ट्रेनें मेरे जिले बैतूल से गुजरती थी, तब धाराखोह स्टेशन तक सिंगल इंजन से ट्रेन आती थी। बरेठा घाट की चढ़ाई के कारण यहां पर ‘‘डबल इंजन’’ लगाकर जिसे बंकर कहा जाता है, ट्रेन बैतूल के पूर्व मरामझिरी स्टेशन तक लाई जाती थी। रेलवे ने समय के साथ इतनी तरक्की की कि सिंगल इंजन की जगह ज्यादा हाई-हॉर्सपावर का सिंगल इंजन लगाकर लगभग 4 वर्ष पूर्व से धाराखोह स्टेशन पर बंकर लगाने की जरूरत समाप्त कर बिना रूके ट्रेन सीधे गुजरने लगी। मतलब विकास के युग में हम डबल इंजन से सिंगल इंजन पर आ गये। लेकिन डबल इंजन का नारा ‘‘उलटे बांस बरेली को‘‘ ले जाने के समान हैं।
राजनीति में सिंगल इंजन (राज्य) से डबल इंजन (केन्द्र व राज्य) में बदलने का प्रयास सबका साथ, सबका विकास, सबका सहयोग का कथन व नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ये उल्टी गंगा क्यों बहा रहे है? इससे कहीं न कहीं आप इंदिरा गांधी की तुलना में कमजोर होते तो नहीं दिख रहे है? वर्ष 1967 में कई प्रदेशों में विपक्षी दलों की सरकारें बनी तब उसके बाद हुए राज्य के चुनावों में इंदिरा गांधी ने कभी भी डबल इंजन सरकार का नारा नहीं फेंका। अर्थात राज्य की स्वतंत्रता, सार्वभैंमिकता, स्वायत्तता और स्वयं के पैरों पर खड़े होकर मजबूत बनाएं रखने की भावना की नितांत आवश्यकता है। डबल इंजन का नारा निश्चित रूप से राज्य सरकार की आत्मनिर्भरता को कमजोर करता है, जो कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वर्ण कल्पना आत्मनिर्भर भारत बनाने और राजनीति के ध्येय वाक्य ‘‘आचार परमो धर्मः अनुलंघनीयः सदाचारः‘‘ के ठीक विपरीत है। क्या केन्द्रीय सरकार का यह संवैधानिक बाध्यता व कत्र्तव्य नहीं है कि किसी भी राज्य की उसकी जरूरत को पूर्ण करने के लिए उपलब्ध साधनों में से यथासंभव सहयोग की भावना से अपना दायित्व पूरा करे। राज्य में शासन करने वाले दल के झड़े पर या राष्ट्रीय झंडे़ या केंद्र के डंडे पर उक्त केन्द्र की सहायता निर्भर नहीं रहेगी?
चुनाव आयोग को भी इस संबंध में संविधान के अनुसार गहनता से विचार करने की महती आवश्यकता है। क्या इस विषय को आचार संहिता की परिधि में लाया जा सकता है? माननीय उच्चतम न्यायालय को भी स्वतः संज्ञान लेकर उक्त नारे के प्रकट उद्देश्य की संवैधानिकता पर अवश्य विचार करना चाहिये। अंत में सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि ‘‘संघ‘‘ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रहते संघवाद को तोड़ने वाले डबल इंजन के इस नारे की बात कैसे विकसित हो रही है? यह सोचनीय विचारणीय है। कहीं ऐसा न हो कि नगर निगम, नगर पालिका व पंचायतों के चुनाव में विकास की गुहार लगाते हुए ट्रिपल इंजन की सरकार का नारा भी लग जाए?
अंत में वर्ष 2014 के बाद ‘‘डबल इंजन की सरकार’’ का नारा देने के साथ लगभग 40 विधानसभाओं के चुनाव हुये है, जहां भाजपा को आधे से कुछ ही अधिक ही सफलता प्राप्त हुई है। इससे इस सिंद्धान्त की सफलता का आप मूल्यांकन कर सकते है।
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