शनिवार, 30 अप्रैल 2022

शुक्रिया!‘शुक्र’-‘शनिवार’! योगी!

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी अपने नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समान दृढ़, कठोर वह सर्वसमाज हितों के लिये निर्णांयक निर्णय लेने के लिए न केवल जाने जाते है, बल्कि उन्होंने निर्णयों को दृढ़ता से लागू कर सिद्ध भी किया है। ‘‘शुक्रवार’’ मुसलमानों के लिये जुम्मे की नमाज होने के कारण महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। इस दिन वे एकत्रित होकर सामूहिक रूप से अल्लाह की इबादत करते है। इस दिन नमाज पढ़ने पर नमाजी की पूरे हफ्ते की गलतियां अल्लाह माफ कर देता है। इसी दिन इस्लाम के सबसे पहले नबी हज़रत  ‘‘आदम’’ अलैहिस्सलाम को पैदा किया था और यही उनके पर्दा फ़रमाने का भी दिन है। ऐसी इस्लामिक मान्यता है। अल्लाह ने भी शुक्रवार को सर्वश्रेष्ठ दिन चुना। परन्तु गुजरा हुआ कल का शुक्रवार विशिष्ट होकर रमजान की आखरी अलविदा नमाज (ईद) का दिन था। सामान्यतः इस दिन मुस्लिम समाज भारी संख्या में न केवल मजिस्दों में बल्कि अन्य सार्वजनिक स्थानों पर ‘अकीदत’ के साथ नमाज पढ़ते आये है। और उत्तर प्रदेश को छोड़कर कल भी देश के अन्य भागों में हमने सार्वजनिक स्थलों पर भी नमाज अदा करते हुए देखा है। 

पिछले दो वर्षो से ‘‘अलविदा नमाज’’ सामूहिक रूप से मस्जिदों में नहीं पढ़ी जा सकी थी। परन्तु इस बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर प्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों ने पहल कर मुस्लिम समाज के 37344 धर्मगुरूओं, उत्तरदायी व्यक्तियों से पूरे प्रदेश में चर्चा कर न केवल समस्त धार्मिक स्थलों मंदिर सहित गैरकानूनी लाउडस्पीकर (200 से अधिक) हटाये गये व 29674 लाउडस्पीकर की आवाज कम की गई। बल्कि नमाज भी सिर्फ मजिस्दों (75000 ईदगाह व 20 हजार मस्जिदों) में ही पढ़ी गई, और सार्वजनिक स्थलों पर नहीं पढ़ी गई। मुख्यमंत्री ने लाउडस्पीकर की आवाज कम करने का कार्य सर्वप्रथम अपने मठ गोरखनाथ पीठ से शुरूवात कर एक मिशाल कायम की। इस प्रकार शांतिपूर्वक शुक्रवार गुजर गया। एक यहां इस तथ्य से आपको अवगत अवश्य कराना चाहता हूं कि तुक्री, मोरोक्को जैसे कई मुस्लिम देशों में लाउडस्पीकर का उपयोग आज भी नहीं होता है। कुछ देशों में यह सिर्फ ‘‘अजान’’ तक ही सीमित है।

‘‘शनिवार’’ हिन्दुओं के हनुमान भक्तों के लिए महत्वपूर्ण दिवस है। इस दिन हनुमान चालीसा का पाठ करने से ‘शनि’ के प्रभाव से मुक्ति मिलती है। ‘‘हनुमान चालीसा’’ पढ़ने व रामनवमी के अवसर पर जुलूस निकालने पर देश के कई भागों में सांप्रदायिक तनाव पिछले दिनों देखने को मिला था। हनुमान चालीसा पढ़ने पर भी अनावश्यक विवाद खड़ा किया गया। योगी आदित्यनाथ ने यहां पर भी शांतिपूर्ण ढंग से मामले को शांत कराया गया और सार्वजनिक स्थलों पर ‘‘हनुमान चालीसा’’ पढ़ने की अनुमति नहीं दी, जिसे समस्त धर्मप्रेमी जनता व संगठनों ने माना।

उक्त स्थिति से यह स्पष्ट है कि यदि दृढ़ निश्चय हो, नियत साफ हो, तो विपरीत परिस्थतियों व परसेप्पशन में भी सही कार्य करके गलत परसेप्पशनों के प्रभाव को समाप्त (प्रभावहीन) किया जा सकता है, जो योगी आदित्यनाथ ने किया। शुक्रवार-शनिवार के ‘वार’ (युद्ध भाव) को निष्प्रभावी कर धर्मप्रेमियों के लिए ‘‘वर’’ में परिवर्तित कर दिया। यही तो योगी आदित्यनाथ शैली है। जिसकी पूरे देश में भूरी-भूरी प्रशंसा की जा रही है। कई राज्य इस नई ईजाद को अपनाने के लिये आतूर है। परन्तु महाराष्ट्र? राज ठाकरे ने जो आव्हान किया है, अभी यह देखना बाकी हैं कि कल क्या होगा?

शनिवार, 16 अप्रैल 2022

‘‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’’! नरेन्द्र मोदी का ‘‘ऐतिहासिक कदम’’! ‘‘ऐतिहासिक भाषण’’।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने पर चल रहे आजादी के अमृत महोत्सव की कड़ी में अंबेडकर जयंती के अवसर पर ’प्रधानमंत्री संग्रहालय‘ का उद्घाटन कर देश को एक नई भेंट भव्य ‘‘प्रधानमंत्री संग्रहालय’’ और प्रस्तुती दी। इसमें स्वतंत्र भारत के अभी तक के समस्त प्रधानमंत्रियों के बारे में सकारात्मक जानकारी दी गई है। वैसे तो नरेन्द्र मोदी कुछ न कुछ नया सकारात्मक और साहसिक निर्णय लेने के लिए न केवल जाने जाते है, बल्कि कार्य रूप में परिणित कर अपने को उक्त दिशा में सही भी सिद्ध करते आ रहे है। परन्तु नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री संग्रहालय निर्माण का निर्णय वास्तव में एक बिल्कुल नई सोच व एक नया माड़ल की कल्पना है, जिसे सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी की ही ठोस कल्पना कही जा सकती है। वैसे तो नरेन्द्र मोदी ’सबका साथ के सिंद्धान्त पर विश्वास व कार्य करते है। परन्तु यहां पर उनकी सोच स्वयं की एकात्मक सोच है। और इस नई ‘‘प्रसादचिन्हानि पुरफलानि’’ रूपी सकारात्मक अकल्पनीय कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री बधाई के पात्र है। 

वैसे तो नरेन्द्र मोदी के भाषण प्रायः अपने विरोधियों पर तीक्ष्ण तंज के साथ तीव्र आक्रमण लिये और अपनी सरकार का अगले 10-20 सालों का एजेंडा लिये होते है। परन्तु इस लोकार्पण के अवसर पर उनका जो भाषण रहा वह निश्चित रूप से राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत और अवसर व परिस्थितियों की नजाकत को देखते हुये प्रधानमंत्री संग्रहालय के उद्घाटन भावना के अनुरूप ही रहा है। जो यह साबित करता है कि ‘‘ज्यों ज्यों भीगे कामरी, त्यों त्यों भारी होय‘‘ एवं उनके विरोधियों को निश्चित रूप से कुछ न कुछ आश्चर्यचकित भी कर सकता है। लोकार्पण के भाषण में प्रधानमंत्री ने देश के विकास में व देश की वर्तमान स्थिति के लिये समस्त पूर्व प्रधानमंत्रियों के योगदान को खुले दिल से न केवल स्वीकारा बल्कि उन्हे प्रेरणादायक भी बतलाया। पूर्व प्रधानमंत्रियों को सम्मान देते हुये प्रधानमंत्री का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि यह संग्रहालय प्रत्येक सरकार की साझा विरासत का जीवत प्रतिबिंम्ब है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय‘ स्वरूप व उदार दिल शायद पहली बार देखने को मिला। अभी तक तो प्रधानमंत्री और भाजपा द्वारा 65-70 साल के कांग्रेस व विपक्ष शासन को देश की बदहाली के लिए पानी पी-पी कर कोसती ही रहे है। चुनाव हो या अन्य कोई अवसर कांग्रेस के लिये ‘‘उल्टी माला फेरने‘‘ और उसकी आलोचना के कोई अवसर को भाजपा ने छोड़ा नहीं है। परन्तु आज निश्चित रूप से प्रधानमंत्री ने परिपक्वता दिखाते हुये पूर्व प्रधानमंत्रियों की देश के विकास में योगदान को खुले दिल से स्वीकारा है। यही सही राष्ट्रीय भावना है। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि हर सरकार व पार्टी का अपना स्वयं का भी एजेंडा होता है। देश के विकास का भी ऐजंडा होता है। प्रत्येक सरकारें देश हित में कुछ न कुछ कार्य अवश्य करती भी हैं। परन्तु संपूर्ण वादें व दावे न तो पूर्ण हो पाते और है और न ही संभव है। लेकिन जब भी सरकारों की तुलना की जाती है तो, आम जनता के हितों के लिए में जो ज्यादा कार्य करता है वही सफल राजनैतिक पार्टी कहलाती है। आज की असहमती व अविश्वास भरे वातावरण में प्रधानमंत्री की इतिहास के प्रति यह स्वीकृति निश्चित रूप से देश को आगे ले जाने वाली सिद्ध होगी, जैसा कि उन्होंने स्वयं इसे भविष्य की आशा व्यक्त की है। 

प्रधानमंत्री का यह माड़़ल क्या राज्य सरकारें भी अपनायेगी, यह भी एक दिलचस्प विषय होगा? क्या प्रदेशों में मुख्यमंत्री भी अपने प्रदेश में मुख्यमंत्री संग्रहालय बनायेगें? जिसमें समस्त मुख्यमंत्रियों के प्रदेश के लिए उनके योगदान का उल्लेख होगा? ताकि प्रदेश के नागरिकों के ज्ञान में वृद्धि हो और उन्हें प्रेरणा भी मिल सके। इसके लिए भी इंतजार करना होगा। वैसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सबसे पहले सबसे आगे कोई भी नए कार्य करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। यहां भी शायद वे देश में सबसे तेज सबसे पहले बाजी मार ले जाए? लेकिन यह योजना राज्यों में तभी सफल हो पायेगीं जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने ‘‘मन चंगा तो कठौती में गंगा‘‘ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए अपना दिल बढा कर विरोधियों के योगदान को ह्रदय की गहराइयों से अंतर्मन से स्वीकारा है। और उनकी कमियों को किसी भी रूप में इस अवसर पर ‘‘संग्रहालय’’ में नहीं उभारा है। एकाधिक अवसर को छोड़कर (शायद आपातकाल) लोकतंत्र की जननी भारत मेें लोकतंत्र के लोकतांत्रिक तरीके से मजबूत करने की गौरवपूर्ण परम्परा रही है। मोदी का यह कथन महत्वपूर्ण होकर विरोधियों की ऐतिहासिक भूल की शांति पूर्वक व्यक्त करने की यह अदभूत शैली है। इसे अपनाया जाना चाहिये तभी तो राज्य का मुख्यमंत्री संग्रहालय भी केन्द्र समान सफल हो पायेगा? महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ये भावनाएं राज्य सरकारें कितना अपना पायेगी? तभी तों ‘‘संग्रहालय‘‘ बनाने का उद्देश्य सफल हो पायेगा?

अंत में एक बात और! हर कार्य की आलोचना होती है चाहे वह अच्छा हो या बुरा। हमारा देश तो आलोचकों का देश कहा जाता है। लेकिन यह सत्य है कि आलोचकों का कोई स्मारक नहीं बनता है। त्रिमूर्ति भवन में स्मारक बनाए जाने पर कुछ आलोचकों ने भी उसमें नुक्ताचीनी निकाल दी है। कहा गया कि नेहरू की स्मृति को विलोपित करने के लिए उक्त संग्रहालय वहां बना बनाया गया और जेल की सलाखों का प्रतिबिंब रखकर आपातकाल की याद को ताजा रखा गया। आपातकाल इस देश की ऐतिहासिक भूल है, जिसे स्वयं कांग्रेस ने भी अंततः स्वीकार किया है। इसके लिए माफी भी मांगी गई है। परंतु प्रधानमंत्री ने अपने उद्घाटन भाषण में बात को बहुत ही सुंदर शब्दों में एक-दो अवसरों को छोड़कर शब्दों द्वारा रेखांकित किया जैसा कि मैंने ऊपर लिखा भी है। चंूकि उक्त गैलरी मैंने देखी नहीं है। परन्तु जैसा कि प्रधानमंत्री ने बताया है कि वहां पर उसमें प्रधानमंत्रियों के योगदान को रेखांकित किया गया है। तब आलोचक लोग अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों के योगदान को जिसे अभी तक प्रधानमंत्री अपने सार्वजनिक भाषणों में स्वीकार नहीं करते रहे, को क्यों नहीं वायरल करते हैं? प्रश्न यही है कि प्रशंसा और आलोचना के लिए भी तो अकल चाहिए? जिसका अथाह भंडार तो मोदी के पास है।


बुधवार, 13 अप्रैल 2022

शहबाज शरीफ की ताजपोशी! पाकिस्तान में ‘‘आभासी लोकतंत्र’’ दिखता हुआ?

15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश इंडिया की गुलामी से जब भारत मुक्त हुआ, तब भारत को उसकी स्वाधीनता की कीमत विभाजन के रूप में स्वीकार करनी पड़ी और भारत और पाकिस्तान 2 राष्ट्रों का उदय एक पराधीन देश के स्वाधीन होने पर हुआ। भारत ने धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत अपनाया, तो पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बना। क्योंकि पाकिस्तान के जन्म का आधार ही मुस्लिम जनसंख्या की बाहुल्यता थी। यद्यपि भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या हिंदू थी, तथापि भारत ने हिंदू धर्म को राष्ट्रीय धर्म के रूप में नहीं स्वीकारा, जैसा कि पाकिस्तान ने इस्लाम धर्म को राष्ट्रीय धर्म के रूप में स्वीकारा। लेकिन एक बात में भारत पाकिस्तान में सिद्धांतः समान रही कि दोनों देशों ने ब्रिटिश लोकतांत्रिक अप्रत्यक्ष संसदीय प्रणाली को अपनाया तथापि पाकिस्तान के द्वारा अपनायी गई संसदीय प्रणाली आम संसदीय प्रणाली नहीं। 

परंतु वास्तविकता में दोनों देशों के लोकतंत्र में जमीन आसमान का अंतर रहा! जहां भारत में लोकतंत्र उसके स्वाधीन होने के बाद से ही नहीं, बल्कि पूर्व से ही पनपता रहा। वहीं पाकिस्तान में लोकतंत्र अपने शैशव काल में ही कई बार कुचला गया और वास्तविक अर्थों में वहां लोकतंत्र स्थापित ही नहीं हो पाया। लोकतंत्र के नाम पर आभासी सरकार (डीप स्टेट) ही चलती रही। यद्यपि विश्व समुदाय को दिखाने के लिए लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव जरूर पाकिस्तान में होते रहे। लेकिन वे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मिलिट्री के प्रभाव में ही होते रहे रहे हैं, जहां वास्तविक लोकतांत्रिक अधिकारों के वास्तविक उपयोग का अवसर व परिस्थतियां ही इस्लामिक कट्टरवाद के चलते नहीं थी। इसलिए पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र की आवश्यकता विश्व समुदाय काफी समय से महसूस कर रहा था। पाकिस्तान में पूर्व अनुभव के विपरीत शांति पूर्वक लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता का जो परिवर्तन हुआ, उसने लोकतंत्र को जगाए रखने की आशा की किरण को जिलाए रखा है।

पाकिस्तान का पूर्व का अनुभव यही रहा है कि लोकतांत्रिक रुप से चुनी गई सरकारों को मार्शल लॉ लागू कर मिलिट्री शासन लागू किया जाता रहा है। और यह आशंका इस समय भी थी। लेकिन पिछले कुछ समय से यह बात चर्चा में थी कि पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति इतनी जर्जर व नष्ट हो चुकी है कि सेना सीधे शासन की लगाम अपने हाथ में लेकर अपने नागरिकों के बीच बदनाम नहीं होना चाहती है। इसलिए सेना ने बीच का रास्ता निकाला। सत्ता के केंद्र में सामने स्वयं को सीधा न रखकर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की चाबी अपने पास ही रखकर उंगली (इशारों) पर चलने वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त होने दिया जाए। इसीलिए प्रधानमंत्री इमरान खान से अपना समर्थन खींचकर विपक्ष के नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री बनाया गया। पाकिस्तान के इतिहास का यह कटु सत्य है कि बिना सेना की सहमति के कोई भी व्यक्ति सर्वोच्च पद का ताज न तो पहन सकता है और न ही पदासीन रह सकता है। परन्तु इस शांतिपूर्ण (परदे के पीछे हुये परिवर्तन ने) आशा वादियों के दिल में एक आशा जरूर जगाई है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र दिन-प्रतिदिन मजबूत होते जाएगा और मिलिट्री का रोल कमजोर होता जाएगा। यह हमारे देश के हितों में भी है। क्योंकि वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक होते पाकिस्तान में ही आंतकवाद की उपज की जड़े भी कमजोर होती जायेगी।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

भारतीय लोकतंत्र में ‘‘न्यूनतम नैतिकता’’ का ‘‘संवैधानिक प्रावधान’’ आखिर कब आयेगा?

अंततः उत्तराखंड में खटीमा विधानसभा से हारे हुए विधायक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक लोकप्रिय सरकार के प्रमुख के रूप में शपथ ले ली है। भाजपा में यह एक नई संस्कृति (हारे हुये को मुख्यमंत्री बनाना) ही कही जा सकती है। वैसे अभी-अभी उत्तर प्रदेश में हारे हुये उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मोर्य को पुनः उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाकर भाजपा ने नई परिपाटी को सिर्फ जन्म ही नहीं दिया, बल्कि अब उसे आगे भी बढ़ा रही है। पुष्कर सिंह धामी को इस बात का श्रेय निश्चित रूप से जाता है व उन्हे इस बात की बधाई भी अवश्य दी जानी चाहिये कि उत्तराखंड के इतिहास में पहली बार कोई सरकार 5 वर्ष के कार्यकाल की समाप्ती के बाद दोबारा सत्ता में आयीहैं। इससे सरकार का निष्पादन (परफॉरमेंस) तो सिद्ध होता ही हैं, जिस पर ही तो जनता की मोहर लगी है। लेकिन इसमें दो बातें आड़े आती है। एक सरकार के कार्य प्रदर्शन पर जब जनता ने सील लगाई, तब उसके मुखिया क्यों हार गये? क्या पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व ने विजय नही दिलाई? यदि यह उनके नेतृत्व की सफलता नही हैं? तो क्या यह सरकार, पार्टी की सफलता हैं? तब धामी को पुनः मुख्यमंत्री क्यो बनाया गया? और यदि यह धामी के नेतृत्व की सफलता है तब उनकी व्यक्तिगत हार इस सफलता पर एक दाग तो नही? 

अतः क्या यह मानना होगा कि मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को चुनाव के छः महीने पूर्व बदलने का भाजपा नेतृत्व का निर्णय गलत था? इसके पूर्व त्रिवेन्द्र सिंह रावत को भी मुख्यमंत्री पद से हटाकर तीरथ सिंह रावत को बनाया गया जिन्हे मात्र छः महीने में ही हटा दिया गया। साढ़े चार साल जो व्यक्ति मुख्यमंत्री रहे उनके कार्य प्रणाली के बाबत भाजपा हाईकमान के पास जो कुछ सूचना एकत्रित हुई थी, उसका लम्बोलुवाब यही था कि यदि पुनः सरकार बनाना है तो सरकार का चेहरा बदलना होगा। तदनुसार निर्णय भी लिया गया। अक्सर सफलता में सफलता प्राप्तकर्ता अंधा हो जाता है। परन्तु सफलता के बीच असफलता के चिन्ह ढूढ़ने का प्रयास जो व्यक्ति या संस्था करती है, वह भविष्य में और अधिक सफल होकर उसके असफल होने के अवसर कम हो जाते हैं। इसीलिए आज इस शपथ ग्रहण समारोह के बाद भाजपा हाईकमान को इस बात पर भी चिंतन करने की गहन आवश्यकता की है। 

देश का लोकतंत्र संघीय प्रणाली पर आधारित व टिका हुआ है। जहां प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के चुनाव सीधे जनता न कर उनके द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधियों सांसद व विधायकों द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से बहुमत के आधार पर किया जाता है। अर्थात जिस व्यक्ति को सदन में बहुमत प्राप्त होता है, वही सरकार का मुखिया भी होता है। यह अभी तक की स्थापित, सफल लोकतांत्रिक प्रक्रिया चली आ रही है। परंतु उत्तराखंड प्रदेश में अभी हुये विधानसभा चुनाव में एक विचित्र स्थिति पैदा हुईध्बनी। मुख्यमंत्री पद पर आसीन व मुख्यमंत्री चेहरा घोषित व्यक्ति रहे ही अपनी ही विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गये। तथापि उनके नेतृत्व ने प्रदेश में भाजपा को सुविधाजनक बहुमत के साथ विजय अवश्य दिलाई। यद्यपि पिछले चुनाव की तुलना में वोटों के साथ-साथ मतों की संख्या में भी चिंताजनक रूप से गिरावट आयी। 10 सींटे व 2 प्रतिशत वोटो में कमी आयी। जिस  पदासीन व घोषित व्यक्ति मुख्यमंत्री को जनता ने अपने ही गृहनगर विधानसभा से चुनने से इंकार कर दिया हो, अर्थात उनके प्रति अविश्वास व्यक्त किया हो, तब 15 दिनों तक हाईकमान ने विचार-विमर्श कर निष्कर्ष रूप में उक्त निर्णय सामने आया। 

पुष्कर सिंह धामी ही को प्रदेश का नेतृत्व पुनः सौंपने के निर्णय का लोकतांत्रिक एक पक्ष अर्थात विधायकों के बहुमत को स्वीकार करने तक तो सही माना जायेगा। परन्तु इसका दूसरा पक्ष जिसे नैतिकता कहा जाता है, जिसकी दूर-दूर तक आज दूरदृष्टि से भी राजनीति में दर्शन नहीं होेते है और निश्चित रूप से आज राजनीति में नैतिकता का पूर्णतः अभाव है। एक हारे हुये व्यक्ति को मुख्यमंत्री चुनना कम से कम उस विधानसभा के क्षेत्र के मतों का अपमान तो ही है, उपेक्षा व उपहास भी है। इस देश की राजनीति में यद्यपि यह पहली बार नही हुआ हैं। हाल में ही पिछले साल हुये पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी मुख्यमंत्री ममता की हार के बावजूद वे पुनः मुख्यमंत्री चुनी गई। लोकतंत्र आज कल भीड़ तंत्र बन गया है। इसीलिए इसे अधिकाशतः भीड़तंत्र भी कहते है। लेकिन वह सिर्फ जनतंत्र बना रहे यही लोकतंत्र की सफलता की कसौटी होगी। 

महाराष्ट्र के एक मंत्री नवाब मलिक की ई. डी. द्वारा गिरफ्तारी होकर वे अभी तक जेल में ही हैं। तब भी देश का संविधान मंत्री को बर्खास्त करने में सहायक नहीं होता हैं। क्यों नहीं! जेल में रहकर चुनाव लड़ने की संवैधानिक सुविधा जो है। यह शायद नैतिकता के डंडे के संवैधानिक प्रावधान से ही सम्भव हैं। अतः लोकतंत्र में नैतिकता की बात करना अपने को मूर्ख कहलाना ही तो है। और इसीलिए मूर्ख कहलाने से बचने के लिए क्या आज समय की यह आवश्यकता नहीं है कि इस तरह की परिस्थितियों में नैतिकता के न्यूनतम मापदंड को तय कर उन प्रावधानों को लोकतंत्र को चलाने वाला कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में क्यों न शामिल किया जाये? ताकि लोकतंत्र संवैधानिक होकर नैतिकता में भी परिपूर्ण हो। तभी देश तेजी से प्रगति और विकास की ओर अग्रेषित होगा। क्योंकि मेरा शुरू से दृढ़ता पूर्वक निश्चित रूप से यह मानना है की हर बुराई या नकारात्मक कार्य भाव के पीछे नैतिकता के मूल्यो में भारी ह्रास का होना है। इस नैतिकता की कमी ने ही  राजनीतिज्ञों को मुंह की बत्तीसी दिखाते हुए उन्हें बेशर्म बना दिया है। अतः उन्हें शर्म दार बनाने के लिए नैतिकता का पाठ पढ़ाने और नैतिकता को राजनीतिक क्षेत्र के लिए न्यूनतम रूप में परिभाषित कर उसकी संवैधानिक बंधन की नितांत आवश्यकता है।

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