अंततः उत्तराखंड में खटीमा विधानसभा से हारे हुए विधायक मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने एक लोकप्रिय सरकार के प्रमुख के रूप में शपथ ले ली है। भाजपा में यह एक नई संस्कृति (हारे हुये को मुख्यमंत्री बनाना) ही कही जा सकती है। वैसे अभी-अभी उत्तर प्रदेश में हारे हुये उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मोर्य को पुनः उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाकर भाजपा ने नई परिपाटी को सिर्फ जन्म ही नहीं दिया, बल्कि अब उसे आगे भी बढ़ा रही है। पुष्कर सिंह धामी को इस बात का श्रेय निश्चित रूप से जाता है व उन्हे इस बात की बधाई भी अवश्य दी जानी चाहिये कि उत्तराखंड के इतिहास में पहली बार कोई सरकार 5 वर्ष के कार्यकाल की समाप्ती के बाद दोबारा सत्ता में आयीहैं। इससे सरकार का निष्पादन (परफॉरमेंस) तो सिद्ध होता ही हैं, जिस पर ही तो जनता की मोहर लगी है। लेकिन इसमें दो बातें आड़े आती है। एक सरकार के कार्य प्रदर्शन पर जब जनता ने सील लगाई, तब उसके मुखिया क्यों हार गये? क्या पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व ने विजय नही दिलाई? यदि यह उनके नेतृत्व की सफलता नही हैं? तो क्या यह सरकार, पार्टी की सफलता हैं? तब धामी को पुनः मुख्यमंत्री क्यो बनाया गया? और यदि यह धामी के नेतृत्व की सफलता है तब उनकी व्यक्तिगत हार इस सफलता पर एक दाग तो नही?
अतः क्या यह मानना होगा कि मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को चुनाव के छः महीने पूर्व बदलने का भाजपा नेतृत्व का निर्णय गलत था? इसके पूर्व त्रिवेन्द्र सिंह रावत को भी मुख्यमंत्री पद से हटाकर तीरथ सिंह रावत को बनाया गया जिन्हे मात्र छः महीने में ही हटा दिया गया। साढ़े चार साल जो व्यक्ति मुख्यमंत्री रहे उनके कार्य प्रणाली के बाबत भाजपा हाईकमान के पास जो कुछ सूचना एकत्रित हुई थी, उसका लम्बोलुवाब यही था कि यदि पुनः सरकार बनाना है तो सरकार का चेहरा बदलना होगा। तदनुसार निर्णय भी लिया गया। अक्सर सफलता में सफलता प्राप्तकर्ता अंधा हो जाता है। परन्तु सफलता के बीच असफलता के चिन्ह ढूढ़ने का प्रयास जो व्यक्ति या संस्था करती है, वह भविष्य में और अधिक सफल होकर उसके असफल होने के अवसर कम हो जाते हैं। इसीलिए आज इस शपथ ग्रहण समारोह के बाद भाजपा हाईकमान को इस बात पर भी चिंतन करने की गहन आवश्यकता की है।
देश का लोकतंत्र संघीय प्रणाली पर आधारित व टिका हुआ है। जहां प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के चुनाव सीधे जनता न कर उनके द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधियों सांसद व विधायकों द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से बहुमत के आधार पर किया जाता है। अर्थात जिस व्यक्ति को सदन में बहुमत प्राप्त होता है, वही सरकार का मुखिया भी होता है। यह अभी तक की स्थापित, सफल लोकतांत्रिक प्रक्रिया चली आ रही है। परंतु उत्तराखंड प्रदेश में अभी हुये विधानसभा चुनाव में एक विचित्र स्थिति पैदा हुईध्बनी। मुख्यमंत्री पद पर आसीन व मुख्यमंत्री चेहरा घोषित व्यक्ति रहे ही अपनी ही विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गये। तथापि उनके नेतृत्व ने प्रदेश में भाजपा को सुविधाजनक बहुमत के साथ विजय अवश्य दिलाई। यद्यपि पिछले चुनाव की तुलना में वोटों के साथ-साथ मतों की संख्या में भी चिंताजनक रूप से गिरावट आयी। 10 सींटे व 2 प्रतिशत वोटो में कमी आयी। जिस पदासीन व घोषित व्यक्ति मुख्यमंत्री को जनता ने अपने ही गृहनगर विधानसभा से चुनने से इंकार कर दिया हो, अर्थात उनके प्रति अविश्वास व्यक्त किया हो, तब 15 दिनों तक हाईकमान ने विचार-विमर्श कर निष्कर्ष रूप में उक्त निर्णय सामने आया।
पुष्कर सिंह धामी ही को प्रदेश का नेतृत्व पुनः सौंपने के निर्णय का लोकतांत्रिक एक पक्ष अर्थात विधायकों के बहुमत को स्वीकार करने तक तो सही माना जायेगा। परन्तु इसका दूसरा पक्ष जिसे नैतिकता कहा जाता है, जिसकी दूर-दूर तक आज दूरदृष्टि से भी राजनीति में दर्शन नहीं होेते है और निश्चित रूप से आज राजनीति में नैतिकता का पूर्णतः अभाव है। एक हारे हुये व्यक्ति को मुख्यमंत्री चुनना कम से कम उस विधानसभा के क्षेत्र के मतों का अपमान तो ही है, उपेक्षा व उपहास भी है। इस देश की राजनीति में यद्यपि यह पहली बार नही हुआ हैं। हाल में ही पिछले साल हुये पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी मुख्यमंत्री ममता की हार के बावजूद वे पुनः मुख्यमंत्री चुनी गई। लोकतंत्र आज कल भीड़ तंत्र बन गया है। इसीलिए इसे अधिकाशतः भीड़तंत्र भी कहते है। लेकिन वह सिर्फ जनतंत्र बना रहे यही लोकतंत्र की सफलता की कसौटी होगी।
महाराष्ट्र के एक मंत्री नवाब मलिक की ई. डी. द्वारा गिरफ्तारी होकर वे अभी तक जेल में ही हैं। तब भी देश का संविधान मंत्री को बर्खास्त करने में सहायक नहीं होता हैं। क्यों नहीं! जेल में रहकर चुनाव लड़ने की संवैधानिक सुविधा जो है। यह शायद नैतिकता के डंडे के संवैधानिक प्रावधान से ही सम्भव हैं। अतः लोकतंत्र में नैतिकता की बात करना अपने को मूर्ख कहलाना ही तो है। और इसीलिए मूर्ख कहलाने से बचने के लिए क्या आज समय की यह आवश्यकता नहीं है कि इस तरह की परिस्थितियों में नैतिकता के न्यूनतम मापदंड को तय कर उन प्रावधानों को लोकतंत्र को चलाने वाला कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में क्यों न शामिल किया जाये? ताकि लोकतंत्र संवैधानिक होकर नैतिकता में भी परिपूर्ण हो। तभी देश तेजी से प्रगति और विकास की ओर अग्रेषित होगा। क्योंकि मेरा शुरू से दृढ़ता पूर्वक निश्चित रूप से यह मानना है की हर बुराई या नकारात्मक कार्य भाव के पीछे नैतिकता के मूल्यो में भारी ह्रास का होना है। इस नैतिकता की कमी ने ही राजनीतिज्ञों को मुंह की बत्तीसी दिखाते हुए उन्हें बेशर्म बना दिया है। अतः उन्हें शर्म दार बनाने के लिए नैतिकता का पाठ पढ़ाने और नैतिकता को राजनीतिक क्षेत्र के लिए न्यूनतम रूप में परिभाषित कर उसकी संवैधानिक बंधन की नितांत आवश्यकता है।
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