परंतु वास्तविकता में दोनों देशों के लोकतंत्र में जमीन आसमान का अंतर रहा! जहां भारत में लोकतंत्र उसके स्वाधीन होने के बाद से ही नहीं, बल्कि पूर्व से ही पनपता रहा। वहीं पाकिस्तान में लोकतंत्र अपने शैशव काल में ही कई बार कुचला गया और वास्तविक अर्थों में वहां लोकतंत्र स्थापित ही नहीं हो पाया। लोकतंत्र के नाम पर आभासी सरकार (डीप स्टेट) ही चलती रही। यद्यपि विश्व समुदाय को दिखाने के लिए लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव जरूर पाकिस्तान में होते रहे। लेकिन वे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मिलिट्री के प्रभाव में ही होते रहे रहे हैं, जहां वास्तविक लोकतांत्रिक अधिकारों के वास्तविक उपयोग का अवसर व परिस्थतियां ही इस्लामिक कट्टरवाद के चलते नहीं थी। इसलिए पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र की आवश्यकता विश्व समुदाय काफी समय से महसूस कर रहा था। पाकिस्तान में पूर्व अनुभव के विपरीत शांति पूर्वक लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता का जो परिवर्तन हुआ, उसने लोकतंत्र को जगाए रखने की आशा की किरण को जिलाए रखा है।
पाकिस्तान का पूर्व का अनुभव यही रहा है कि लोकतांत्रिक रुप से चुनी गई सरकारों को मार्शल लॉ लागू कर मिलिट्री शासन लागू किया जाता रहा है। और यह आशंका इस समय भी थी। लेकिन पिछले कुछ समय से यह बात चर्चा में थी कि पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति इतनी जर्जर व नष्ट हो चुकी है कि सेना सीधे शासन की लगाम अपने हाथ में लेकर अपने नागरिकों के बीच बदनाम नहीं होना चाहती है। इसलिए सेना ने बीच का रास्ता निकाला। सत्ता के केंद्र में सामने स्वयं को सीधा न रखकर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता की चाबी अपने पास ही रखकर उंगली (इशारों) पर चलने वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त होने दिया जाए। इसीलिए प्रधानमंत्री इमरान खान से अपना समर्थन खींचकर विपक्ष के नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री बनाया गया। पाकिस्तान के इतिहास का यह कटु सत्य है कि बिना सेना की सहमति के कोई भी व्यक्ति सर्वोच्च पद का ताज न तो पहन सकता है और न ही पदासीन रह सकता है। परन्तु इस शांतिपूर्ण (परदे के पीछे हुये परिवर्तन ने) आशा वादियों के दिल में एक आशा जरूर जगाई है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र दिन-प्रतिदिन मजबूत होते जाएगा और मिलिट्री का रोल कमजोर होता जाएगा। यह हमारे देश के हितों में भी है। क्योंकि वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक होते पाकिस्तान में ही आंतकवाद की उपज की जड़े भी कमजोर होती जायेगी।
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