राजनीति में थोड़ी बहुत भी दिलचस्पी रखने वाले नागरिकों से लेकर राजनैतिक पंडितों,भविष्यवक्ताओं, विश्लेषक, विचारकों और मीडिया से लेकर राजनेताओं तक में महाराष्ट्र में चल रही राजनीतिक घटनाक्रम जो देश को उद्वेलित किए हुए हैं, को लेकर उच्चतम न्यायालय क्या अंतरिम आदेश पारित करेगा?, निर्देश देगा? इस पर परस्पर न काफी विरोधाभासी विचारों, मतों, आकलनों की चर्चा होती रही, बल्कि शंका व अनिर्णय के बादल भी ‘‘अंतरिम आदेश’’ के बावजूद राजनीतिक क्षेत्र में छाये रहें। ऐसी स्थिति में भ्रम को दूर, विवाद को निर्णित करने के लिए लोग न्यायालय की ओर दृष्टि जमाये रखते है व सहायता हेतु न्यायालय की शरण में जाते है। परंतु ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय भी स्वयं ‘‘भ्रम (कन्फ्यूजन) के बादल’’ के घेरे में आ गया प्रतीत होता है, ऐसी ‘‘कुछ-कुछ ध्वनि’’ कल पारित अंतरिम आदेश से निकलती लगती सी है। क्योंकि जो अनिश्चितता और भ्रम का वातावरण समस्त पक्षों, दर्शकों व पाठकों के बीच बना हुआ है, उस स्थिति में सिर्फ तुरंत सहायता एक पक्ष (विद्रोही गुट) को अवश्य इस बात की मिली है कि शाम को समाप्त होने वाली जीवनदायिनी रेखा की लाल बत्ती की समय सीमा बढ़कर 12 जुलाई तक की हो गई है। लेकिन उच्चतम न्यायालय स्वयं भ्रम के संकट में कैसे आ गया है? आगे इसे देखते हैं।
महाराष्ट्र में जो कुछ राजनीतिक घटनाक्रम घट रहा है, दल बदल हुआ है, वह देश में कोई पहली बार नहीं हुआ है और न ही सुप्रीम कोर्ट में इस तरह का मामला कोई पहली बार आया है। दल बदल होने पर ‘‘संख्या के दावे की सत्यता’’ के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक के प्रसिद्ध एसआर बोम्मई मामले में अंतिम रूप से प्रतिपादित कर दिया है कि सरकार के बहुमत का फैसला विधानसभा के फ्लोर पर ही तय होगा, राज्यपाल निवास या अन्य कोई जगह नहीं। जिस निर्णय का अभी तक पालन किया जा रहा है। लेकिन महाराष्ट्र के राजनैतिक घटनाक्रम के लगभग सात दिन व्यतीत हो जाने के बावजूद गुवाहाटी से मुंबई विद्रोही गुट नहीं पंहुचा है। इस कारण अभी तक उक्त स्थिति (फ्लोर टेस्ट) पर पहुंची ही नहीं है, यह एक राजनैतिक विश्लेषक के लिसे आश्चर्य की स्थिति है। महाराष्ट्र में दो तिहाई बहुमत से ज्यादा अधिक विधायकों के दल बदलने के कारण जाहिर तौर पर सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद भी न तो विद्रोही गुट ने सरकार से इस्तीफे की मांग की है और न ही अविश्वास का प्रस्ताव स्पीकर या राज्यपाल के पास दिया है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा जो परदे के पीछे रहकर परसेप्शन का निर्माण कर रही है और जो इस दलबदल के कारण भविष्य में सत्तारूढ़ होने जा रहा है, ने भी अविश्वास प्रस्ताव का कोई नोटिस ही अभी तक नहीं दिया है।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष दोनों पक्षों द्वारा बहस की जा रही थी, तब माननीय न्यायाधीश ने एक तरफ जहां यह कहा कि विधानसभा उपाध्यक्ष जिनको अविश्वास का नोटिस मिला वे खुद स्वयं के मामले में जज बन गए और नोटिस को खारिज कर दिया। ऐसी स्थिति में डिप्टी स्पीकर ऐसे बागी विधायकों पर अयोग्यता की कार्रवाई कर सकते हैं अथवा नहीं, यह एक बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है। बावजूद उक्त टिप्पणी के उच्चतम न्यायालय ने उपाध्यक्ष को अपने कर्तव्य निर्वाह का पालन करने से कार्य करने के लिए किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई है। यथास्थिति बरकरार रखने की मंशा दिखाने के बावजूद, ‘‘अंतरिम उपाय’’ के रूप में सिर्फ विधायकों की अयोग्यता के नोटिस की अवधि 14 दिन बढ़ाई है। अर्थात बागी विधायक 12 तारीख तक अपना जवाब प्रस्तुत कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय का कन्फ्यूजन (भ्रम) एक और जगह दिखता है, जब न्यायालय यह कहता हैं कि, अनुच्छेद 179 के तहत उपाध्यक्ष को हटाने का जब नोटिस हो तब, क्या डिप्टी स्पीकर के पास संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत ‘‘अयोग्यता की याचिका’’ पर सुनवाई का अधिकार है? यह पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) तथ्यात्मक रूप से कुछ गलत सा लगता है। क्योंकि डिप्टी स्पीकर के अविश्वास की जो सूचना मिली थी, वह उन्होंने अस्वीकार (रिजेक्ट) कर दी थी। इस प्रकार तथ्यात्मक रूप से अविश्वास का कोई नोटिस तत्समय उनके पास लंबित नहीं है। क्योंकि नोटिस को अस्वीकार करने के आदेश पारित होने के बाद नोटिस का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। हां यदि डिप्टी स्पीकर के अविश्वास के नोटिस अस्वीकार करने का आदेश गलत है, तो उसको न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए थी, जैसा कि शिवसेना के वकील अभिषेक सिंघवी का कथन था। और उच्चतम न्यायालय को निरस्त करने के आदेश की वैधानिकता पर टिप्पणी करनी चाहिए थी। परन्तु चूंकि बागी गुट ने उक्त पारित अवैधानिक आदेश को चुनौती ही नहीं दी, बल्कि उपाध्यक्ष के नोटिस व शक्ति (अधिकार) को चुनौती दी है। शायद इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने अविश्वास की सूचना को अस्वीकार करने आदेश की वैधता पर फिलहाल कोई भी विचार ही नहीं किया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपाध्यक्ष को इस अविश्वास का सूचना पत्र मिला अथवा नहीं, और क्या उन्होंने उक्त सूचना पत्र मिलने की स्थिति में उसे अवैधानिक मानकर निरस्त कर दिया इस तथ्य पर उच्चतम न्यायालय स्वयं भ्रम की स्थिति है, शायद इसीलिए न्यायालय में उपाध्यक्ष को शपथ पत्र प्रस्तुत करने के निर्देश दिये है।
2020 के राजस्थान हाईकोर्ट के निर्णय को छोड़कर ‘‘किहोतो’’ मामले से लेकर अभी तक ऐसे मामलों में जहां स्पीकर विधायकों को अयोग्यता के संबंध में कार्रवाई प्रारंभ कर देते हैं, तब न्यायालय स्पीकर के कार्य क्षेत्र में दखल नहीं देती रही है, जैसा कि अनुच्छेद 212 में रोक (बार) भी है। आदेश पारित होने के बाद ही न्यायालय में आदेश को चुनौती दी जाती है। इस बात को न्यायालय के ध्यान में लाने पर माननीय न्यायाधीश का यह कथन रहा कि अध्यक्ष के अधिकार को उक्त मामले में चुनौती नहीं दी गई थी, जो अभी दी गई है।
तथाति उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा है डिप्टी स्पीकर ने रिकॉर्ड पर कहा है कि कभी भी उन्हें पद से हटाने का नोटिस नहीं दिया गया। जबकि उनके वकील राजीव धवन का यह कहना रहा कि उपाध्यक्ष के प्रति अविश्वास का जो नोटिस दिया गया था, वह विधायकों के अधिकृत ईमेल के जरिये नहीं आये थे। अतः वैधानिक न होने के कारण संज्ञान योग्य नहीं हंै। राज्यपाल का अभी-अभी उठाया गया यह कदम भी बहुत ही आश्चर्यजनक है कि सरकार के तथाकथित अल्पमत में आने के बाद आने के बाद 22, 23 एवं 24 जून 3 दिनों में राज्य सरकार ने जो प्रशासकीय आदेश जारी किए हैं, उनकी रिपोर्ट मांगी है। वास्तविकता व परसेप्शन में महाविकास आघाडी की सरकार के अल्पमत में आ जाने के बावजूद किसी भी पक्ष द्वारा सरकार के बहुमत को चुनौती न देने के कारण तकनीकि व संवैधानिक रूप से उद्धव सरकार की अभी भी बहुतमत की सरकार होने के कारण राज्यपाल का उक्त हस्तक्षेप अनधिकृत ज्यादा वैधानिक कम व राजनैतिक कदम है।
इस पूरे प्रकरण में एक बात में बड़ी समानता व सामंजस्य दिखता है कि प्रत्येक पक्ष परदे के पीछे या आवश्यकतानुसार सामने आकर अपना-अपना ‘परसेप्शन’ बनाना चाहते हैं। इससे इस बात को पुनः बड़ा बल मिलता है कि राजनीति में एक एक्शन (कार्यरूप) से कहीं अधिक परसेप्शन का महत्व है। भाजपा निश्चित रूप से सरकार बनाती हुई दिख रही है, परन्तु ऐसा होते हुए वह बिल्कुल भी नहीं दिखना चाहती है। असम के मुख्यमंत्री के प्रथम दिन की जब मैं विधायकों की उपस्थिति की जानकारी ना होने के बयान को इसी संदर्भ में देखिये। ‘न केवल होना चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए’’ न्याय के इस सिद्धांत के इस परसेप्शन के विरुद्ध उपरोक्त परसेप्शन है। इससे यह समझा जा सकता है कम से कम उपरोक्त निर्मित स्थिति न्यायिक नहीं है। इस प्रकार शिवसेना ‘‘कहीं खुशी कई गम’’ के भाव से ‘‘कहीं गरम तो कहीं नरम’’ आवश्यकतानुसार दिखने का परसेप्शन बना रही है, जबकि वास्तव में यदि परिस्थिति उसे अनुमति दे देती तो वह अभी तक कड़क कार्रवाई कर देती। अभी भी सेना प्रमुख की हैसियत से उद्धव उन विद्रोही को वापस आने की बार-बार गुहार कर रहे है, तो पटल (काउंटर) में विद्रोही गुट अभी भी सेना प्रमुख उद्धव को अपना नेता मानने की बात कह रहे है। जबकि विद्रोही गुट भाजपा के साथ ‘सत्ता’ की भागीदारी सुनिश्चित कर चुकी है। परन्तु वह अभी भी उस शिवसेना का भाग दिखना चाहती है, जिसके नेता उद्धव ठाकरे है। उद्धव ठाकरे पर नवाब मलिक के दाउद से संबंध है, जिसे मंत्री बनाकर आरोप लगाकर वे बागी मंत्री अभी भी मंत्रिमंडल में बने रहकर संख्या की शोभा बनाये हुए है। उद्धव भी मंत्रियों से विभाग छीन कर परन्तु मंत्रिमंडल से मुक्त न कर सत्ता का आकर्षण बनाये हुये है। इस तरह के परसेप्शन का ‘‘खेला’’ का महागठजोड़ कभी आपने इसके पूर्व देखा है? जो होता है वह दिखता नहीं और जो दिखता है वह होता नहीं, आज की सफल राजनीति का यही मूल मंत्र है जो पारदर्शी सिंद्धान्त की राजनीति के विपरीत है। परन्तु ‘सिंद्धान्त’ की याद दिलाकर मैं भी ‘‘प्रबुद्ध बहुमत’’ से हटकर ‘‘मूर्ख’’ के साथ नहीं दिखना चाहता हूं।