मेरे पारिवारिक मित्र संपादक विंदेश तिवारी का पेपर ‘‘दैनिक आत्मा का तांडव’’ नाम से बैतूल से काफी समय से प्रकाशित होते आ रहा है। इसमें मेरे लेख भी छपते रहते हैं। एक समय मैंने उनसे पूछा था कि यह नाम क्यों रखा हैं? तब उन्होंने मुझे यह जवाब दिया था कि जो आत्मा (दिल) से आवाज निकलती है, वह अनिर्लिप्त व सही होने के कारण तांडव मचाती है, क्योंकि सत्य हमेशा कड़वा होता है।
आज सुबह उनका फोन आया। उन्होंने मुझे याद दिलाया कि मेरे पेपर का नाम ‘‘आत्मा का तांडव’’ ‘असम’ में चल रही घटनाओं के परिपेक्ष में सही सिद्ध हो रहा है। वहां आई बाढ़ ने तांडव मचा के रखा है। मैंने कहा असम में तो बाढ़ हर साल आती रहती है। ब्रम्हपुत्र नदी में हर साल आयी बाढ़ से हजारों-लाखों लोग बेघर हो जाते है। जान माल का भीषण नुकसान होता है। तब तिवारी जी बोले! इस बार बाढ़ के साथ एक और बाढ़ आई है। मैंने पूछा कौन सी बाढ़ आई है? तब उन्होंने कहां ‘‘एमएललों की बाढ़’’। तब मेरा ध्यान वहां से चल रही महाराष्ट्र की राजनीतिक बाढ़ के तूफान व उबाल पर गया। तिवारी जी आगे बोले! असम के मुख्यमंत्री अंतरात्मा से बोले है और इसलिए वे सही बोले हैं। मैंने कहां अभी किसी पत्रकार ने उनसे पूछा, महाराष्ट्र के विधायकगण यहां असम में आये है और होटल में ठहरे हुये है। तो उनका यह जवाब था, मुझे पता नहीं कि महाराष्ट्र के विधायक असम में रह रहे है अथवा नहीं। हमारे यहां कई होटले बहुत अच्छी हैं। महाराष्ट्र से ही नहीं और भी प्रदेश से विधायक गण आते-जाते रहते है और रह सकते है। मैंने तिवारी जी से कहा कि मुख्यमंत्री गलत बयानी कर रहे हैं। कहां ‘‘आत्मा’’ से बोल रहे है? और यदि वास्तव में उनके उक्त कथन तथ्यात्मक रूप से सही है तो, क्या वे राष्ट्रीय व प्रादेशिक टीवी नहीं देखते हैं? पेपर नहीं पढ़ते हैं? क्या उनकी आईबी, एलआईबी, सीआईडी इतनी कमजोर हो गई है कि असम में चार दिनों से चल रही राजनीतिक जद्दोजहद की घटना, जहां 40 से अधिक विधायकों के वीडियो, फोटो, बयान वायरल होकर प्रदेश, देश व पूरा विश्व जान रहा है, देख रहा है और पढ़ रहा है। परंतु असम के हृदय की आत्मा से बोलने वाले मुख्यमंत्री उक्त जानकारी से अनभिज्ञ हैं, यह समझ से परे है । क्या ऐसा व्यक्ति व्यक्ति राजनीति में रहने योग्य भी हैं? तब तिवारी जी बोले, आप नहीं समझ पायेंगे। उनका मूल चरित्र क्या रहा है? वे मूल ‘जन-संघी’ से होकर भाजपाई नहीं बने है। वे मूलरूप से वरिष्ठ कांग्रेसी नेता रहे है, इसलिए यह कांग्रेस के ‘‘चरित्र की आत्मा की आवाज’’ है। तब अंततः मैंने तिवारी जी के आगे हार मान ली।
बड़ा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि राजनीति में प्रत्यक्ष सामने घट रही घटनाओं, या बनाई जा रही स्थितियों को स्वीकार करने में कोई हिचक क्यों होना चाहिए? कहा जाता है "दीवार पर लिखी इबारत" यदि आप पढ़ेंगे नहीं तो तो मात्र आपके न पढ़ने से वह मिट नहीं जायेगी,अमिट ही रहेगी। 500 से ज्यादा राज्य सरकार की फोर्स व अर्धसैनिक बल होटल की किलेबंदी किए हुए हैं। ‘परींदे’ को भी अपना आई कार्ड दिखाने पर ही अंदर-बाहर जाने-आने दिया जाता है। आखिर क्या होटल मैनेजमेंट के अनुरोध पर यह पुलिस फोर्स ग्राहकों की सुरक्षा के लिये आई है? पुलिस फोर्स के खर्चे का भुगतान "हाकिम की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी से बचने वाला" होटल मैनेजमेंट करेगा? इसके पूर्व होटल में जो गेस्ट लोग ठहरते थे, क्या उनके लिए इसी तरह का पुलिस बंदोबस्त किया जाता था? या अभी जो विशिष्ट गेस्टों की सुरक्षा के लिए यह चाक चौबंद पुलिस व्यवस्था की जा रही है? और यदि यह सब व्यवस्था राज्य सरकार द्वारा उनकी जान-माल की सुरक्षा हेतु की जा रही है, तो क्या ऐसी व्यवस्था राज्य सरकार होटलों मैं आने-जाने वाले समस्त ग्राहकों जिनकी जान पर संकट के बादल आये हो, के उनके अनुरोध पर राज्य सरकार ऐसी ही सुविधा उपलब्ध कराएगी? सवाल तो इन विधायकों के रहने खाने के भीमकाय खर्चों का भी है। तो क्या यह मान लिया जाये कि "जिसके राम धनी उसे कौन कमी"! प्रत्येक राज्य सरकार का यह एक सामान्य व संवैधानिक दायित्व होता है कि प्रदेश की सीमा में प्रवेश करने वाले प्रत्येक नागरिक की जान माल की रक्षा करे और खतरा होने पर उन्हें सुरक्षा प्रदान करे। यह ज्ञात नहीं है, कि जो विधायक गण ठहरे है उन्होंने यह कथन किया है कि अपनी जान को खतरे की आशंका को देखते हुए सुरक्षा की मांग की है। मुख्यमंत्री ने पहले ही दिन विधायकों के आने के पहले ही सुबह-सुबह खुद होटल रैडिसन ब्लू पहुंचकर व्यवस्था की जानकारी ली, जहां महाराष्ट्र के विधायकों को ठहराया गया। (ठहरे नहीं हैं।) आख़िर "डायन को भी दामाद प्यारे होते हैं"। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि प्रदेश में विधायकों के आने से जीएसटी में वृद्धि होगी। क्यों न हो, उक्ति है कि "यत्नम् विना रत्नम् न लभ्यते"!
बाढ़ की विभीषिका से घिरा हुआ असम के मुख्यमंत्री का पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में दिए गए उक्त उत्तर मुख्यमंत्री के लिए शोभा नहीं देते हैं? यदि मुख्यमंत्री उक्त राजनीतिक घटनाक्रम की सत्यता की जानकारी को स्वीकार कर लेते, तो कौन सा पहाड़ टूट जाता? इस स्वीकारिता से न तो उनके कौशल व चाणक्य बुद्धि पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगता और न ही ‘‘ऑपरेशन लोटस’’ पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ता। विपरीत इसके, क्या इससे मुख्यमंत्री की कार्यकुशलता और क्षमता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह नहीं लगता है? क्योंकि यदि एक मुख्यमंत्री को अपने राज्य में चल रहे एक बड़े महत्वपूर्ण राज्य की चुनी हुई सरकार को पलटाने के राजनीतिक घटनाक्रम की जानकारी नहीं है, जिसकी जानकारी उनको छोड़कर प्राय: सबको है, तब वे राज्य में आई नदियों की बाढ़ से ऐसे कमजोर तंत्र के रहते कैसे निपट पाएंगे? क्योंकि उन्हें बाढ़ की वास्तविक व विस्तृत जानकारी ही नहीं होगी? एक गंभीर प्रश्न मुख्यमंत्री के उक्त उत्तर से उत्पन्न होता है। क्या असम की जनता का भाग्य सुरक्षित नेतृत्व के हाथों में है? विपक्ष से लेकर भाजपा हाईकमान तक ने इस बयान पर मुख्यमंत्री को न तो कटघरे में खड़ा किया और न हीं इस्तीफा मांगा है? विपक्ष की यह स्थिति भी जनता के प्रति विपक्ष कितनी जिम्मेदारी निभाता है? उसको भी इंगित करती है।
‘ऑपरेशन लोटस’’ का अधिकार वर्तमान राजनीति में राजनीतिक पार्टी को है। क्योंकि "संघे शक्ति: कलौ युगे" वाली राजनीति के वर्तमान स्वरूप में कोई भी ‘‘दूध का धुला’’ नहीं है। ‘‘नीति’’ जो ‘‘राजनीति’’ हो गई है, सिर्फ मौके को भुनाने की होती है। "जूं के डर से कोई गुदड़ी थोड़े ही फेंकता है"। जिनको भी अवसर मिलता है, वह उसे पूरी तरह से भुनाने का प्रयास करता है। अतः ऐसे ‘‘ऑपरेशन’’ में सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक हथियारों, हथकंडों का ही उपयोग किया जाये, तो वह ज्यादा उचित होता है। परन्तु सरकारी खर्च और सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर उसमें होने वाला खर्चा "डेढ़ पाव आटा और पुल पर रसोई" वाली जनता के पैसे का है, जिसे किसी राजनीतिक पार्टी के हित के लिए खर्च करने का अधिकार किसी भी राजनीतिक पार्टी अथवा सरकार को नहीं है। लेकिन जनता पर भार पड़ने वाले ऐसे मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय को भी संज्ञान लेना चाहिए। जनता को भी ऐसी घटनाओं का संज्ञान लेकर अपने ज्ञान में वृद्धि कर तदनुसार पैसे के ऐसे खर्चे के दुरुपयोग को रोकने के लिए आगे बढ़कर कार्रवाई करे, क्यों कि "बिल्ली न हो तो चूहों की मौज हो जाती है" तभी इस तरह की प्रशासनिक और शासन की सत्ता के दुरुपयोग पर रोक लगाई जा सकती है।
वर्षा (बरसात) वैसे तो जीवन के लिए जीवनदायिनी होती है, परंतु अधिक वर्षा बाढ़ में परिवर्तित होकर विनाशकारी हो जाती है। असम में इस समय दो तरह की वर्षा हो रही है। एक वर्षा ने असम का सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त कर सैकड़ों नागरिकों को *बेदखल* कर दिया है, तो दूसरी वर्षा ने *वर्षा* (महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का सरकारी आवास) से *बेदखल* कर लाखों व्यक्तियों को एक साथ जिनके नेता को वर्षा बेदखल कर दिया है, को रोड़ पर ला दिया है। "कालस्य कुटिला गति:"! अतः दोनों सामान्य वर्षा नहीं है, जो लाभदायक होती, बल्कि बाढ़ में परिवर्तित हो गई है। इसलिए नुकसान तो होना ही है। वैसे मुख्यमंत्री की राजनीतिक बाढ़ पर मुस्कुराते और इशारे करती हुई प्रतिक्रिया नदी की बाढ़ से उत्पन्न भीषण नुकसान के कारण माथे पर आने वाली चिंता की सलवटो पर भारी हो गई है। यह स्वयं में एक चिंता का विषय है।अभी तो आई इस बाढ़ ने *वर्षा* से ही बेदखल किया है। परंतु बाढ़ के विकराल रूप होने पर क्या वह *मातोश्री* को भी ढहा देगी? इसके लिए थोड़ा इंतजार अवश्य करना होगा।
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