भारतीय जनता पार्टी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के न्यूज चैनल टाईम्स नाउ-नवभारत में टीवी डिबेट के दौरान दिये गये ‘‘पैगंबर मोहम्मद’’ के प्रति तथाकथित विवादित कथनों को लेकर देश में ही नहीं ‘‘खरबूजे़ को देख कर रंग बदलने वाले खरबूजों’’ की तरह कुुछ अरब (खाड़ी देश) मुस्लिम देशों में हलचल पैदा होकर हंगामा मच गया है। ‘‘इस्लामी सहयोग संगठन’’(ओआईसी) जो मूलतः 57 मुस्लिमों देशों का संगठन है, जिन्होंने बाकायदा लिखित बयान जारी कर निंदा कर भारत सरकार से तुरन्त कार्यवाही करने की मांग की है। कतर, कुवैत, ईरान की सरकारों ने बाकायदा भारतीय राजदूतों को तलब कर अपना कड़ा विरोध जताया गया। ईरान तो अपने ही देश की लोकोक्ति ‘‘हर सुख़न मौका व हर नुक़्ता मुक़ाने दारद’’भूल गया।
अभी तक 15 देश विरोध जता चुके हैं। आश्चर्यजनक व देश को शर्मसार करने और ‘‘सूप बोले तो चलनी भी बोले’’ वाली घटना तो ‘कतर’ देश की है, जहां हमारे देश के उपराष्ट्रपति के दौरे के दौरान ही राजदूत को तलब करने की हिमाकत की गई। इसे सहन न किया जाकर, माकूल जवाब दिया जाना चाहिए। विश्व पटल पर मजबूत होते भारत के लिए यह स्थिति न केवल कुछ शर्मसार करने वाली है, बल्कि हमारे देश के आंतरिक मामलों में विदेशों द्वारा यह हस्तक्षेप जैसी स्थिति है। वास्तव में भारत सरकार को यह कहकर की ‘‘इस तरह की प्रतिक्रियाएं हमारे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप मानी जाएंगी’’, कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए थी। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि उक्त बयान भारत सरकार या भाजपा की अधिकृत लाइन नहीं है। इसीलिए भारत सरकार व भाजपा ने अपने को इस बयान से बिलकुल अलग-थलग कर अधिकृत बयान जारी कर अपनी स्थिति स्पष्ट की है, जिसकी विदेश मंत्रालय के स्तर पर कदापि आवश्यकता नहीं थी।
वैसे भी विश्व की सबसे बड़ी सदस्य संख्या वाली पार्टी होने के कारण व्यक्तिगत स्तर पर कई महत्वपूर्ण सदस्य ‘‘छपास’’ की कमजोरी के चलते विवादित बयान देते रहते रहे हैं। परन्तु इसके लिए भारत सरकार को ही कटघरे में खड़े कर देना अन्याय पूर्ण व औचित्य हीन होगा। वैसे स्वयं ‘‘कांच के घर’’ में रहने वाले मुस्लिम देश जहां उनके देशों में ही अल्पसंख्यकों के साथ खासकर शिया-सुन्नी के बीच कैसा व्यवहार किया जा रहा है, किसी से छिपा नहीं है। चीन में मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारो के लिए ओआईसी मूकदर्शक की मुद्रा में बैठा है, ऐसे देश ही ‘‘टफन ग्लास’’ से घिरे भारत पर पत्थर फेंकने का अपरिणाम रहित असफल प्रयास कर रहे हैं। खैर फिर कभी इस विषय पर विस्तृत चर्चा, किसी अन्य लेख में।
इस घटना के आश्चर्यजनक दो पहलू है। प्रथम घटना के सात दिवस बाद मुस्लिम देशों के ऐतराजों के तत्पश्चात ही दबाव में भारतीय जनता पार्टी ने नूपुर शर्मा के खिलाफ पार्टी संविधान नियम के विरूद्ध कार्यवाही करते हुये छः साल के लिए पार्टी से निलम्बित/निष्कासित कर दिया। जबकि पार्टी संविधान में यह स्पष्ट प्रावधान है कि सर्वप्रथम संबंधित सदस्य को कारण बताओं सूचना पत्र जारी कर ही निलंबित किया जा सकता हैं। तत्पश्चात ही उनके द्वारा प्रस्तुत जवाब पर अनुशासन समिति विचार कर या विशिष्ट परिस्थिति में अध्यक्ष विशेषाधिकार का उपयोग कर संबंधित व्यक्ति को छः साल के लिए निष्कासित कर सकते हैं। परन्तु नूपुर शर्मा के मामले में निष्कासन के पूर्व इस तरह की कोई वैधानिक नियम की पूर्ति करने का कोई विचार ही पार्टी के जेहान में नहीं आया। क्यो?
इससे यह भी प्रतीत होता है कि वह भारत सरकार जो रूस-यूक्रेन युद्ध में अंतर्राष्ट्रीय विभिन्न देशों के दबाव में नहीं आई, बल्कि देशहित को देखते हुये बनाई गई नीति को उसने जारी रखा। वहीं भाजपा को प्रस्तुत मामले में मुस्लिम देशों के आगे झुककर अपनी पार्टी के संविधान के खिलाफ आनन-फानन में अवैधानिक तरीके से देश व प्रधानमंत्री की अंतर्राष्ट्रीय छवि पर पड़ने वाले प्रभाव के दबाव के चलते कार्यवाही करनी पड़ी। यह तो ‘‘जूं के ड़र से गुदड़ी फेंकना’’ हुआ। यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा की कार्यवाही, सरकार खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अंतर्राष्ट्रीय छवि को धक्का न पहुंचे और अरब देशों से बड़े व गहरे व्यापारिक संबंधों को देखते हुये कि ‘‘सर सलामत तो पगड़ी हजार’’ उक्ति के अनुसार देशहित में उठाया गया उक्त कदम भी हो सकता है।
दूसरी बात जिस मंच-मीडिया के माध्यम से उक्त तथाकथित विवादित बयान विश्व में प्रसारित हुआ है, उस मीडिया व प्रोग्राम एंकर के खिलाफ कोई कार्यवाही सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने या सरकार की अन्य किसी भी एजेंसी ने अभी तक नहीं की है। उक्त एंकर ने टीवी डिबेट के दौरान उक्त विवादित कथन को रोकने का कोई भी प्रयास नहीं किया। न ही डिबेट के दौरान माफी मांगने को कहा और न ही उक्त चैनल ने बाद में भी इस अप्रिय स्थिति जिस कारण कानपुर में दंगा-फसाद हो गया, के लिए माफी मांगी। जब देश में ही विभिन्न लोग खासकर मुस्लिम संगठन, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, सिंद्धान्त को आधार मानकर नूपुर शर्मा के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही करने मांग कर रहे हैं व उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की जा रही है। तब उस मीडिया चैनल के खिलाफ न्यायोचित कार्यवाही क्यों नहीं? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से सिर्फ उत्पन्न ही नहीं होता है, बल्कि यह देश की एकता, अखंडता, सांप्रदायिकता चिंता का एक बड़ा गंभीर विषय बन जाता है। क्योंकि इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ही कानपुर में दंगे भड़के, जिस पर उत्तर प्रदेश सरकार आवश्यक कानूनी कार्यवाही कर रही है।
इस घटना पर एआईएमआईएम अध्यक्ष, सांसद एवं बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी का ‘‘अपनी डफली अपना राग वाला ’’यह कथन कि नूपुर शर्मा के खिलाफ सात दिवस बाद कार्यवाही करना देरी से की गई कार्यवाही है, और उसे तुरन्त गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? ‘‘गधा मरे कुम्हार का और धोबन सती होय’’ निलम्बन महज दिखावा है। यह बयान न केवल कानून व्यवस्था पर विश्वास न करने वाला बयान है, बल्कि उनके द्वारा कानून को हाथ में लेने जैसी स्थिति है। ओवैसी को यह याद दिलाना जरूरी है, हालाकि वे भूले नहीं है, बल्कि हमारी जनता व मीडिया भूल जाती है कि, ‘‘अगर आप कांटे फैलाते हैं तो कृपया नंगे पैर न चलें’’। इन्ही असदुद्दीन ओवैसी के भाई अकबरुद्दीन ओवैसी ने वर्ष 2013 में हैदराबाद में सरेआम जनता के बीच कहा था कि हम (मुसलमान) 25 करोड़ हैं, और तुम (हिंदू) 100 करोड़ हो, 15 मिनट के लिए पुलिस हटा दो, देख लेंगे किसमें कितना दम है। वाह,‘‘ गंजी कबूतरी और महल में डे़रा’’। ओवैसी से पत्रकारों द्वारा इस भड़काऊ व शांति भंग पैदा करने वाले बयान पर प्रतिक्रिया पूछने पर उन्होंने उस बयान की निंदा नहीं की, बल्कि उन्होेंने कहा था कि अभी प्रकरण न्यायालय में है। न्यायालीन व्यवस्था पर विश्वास रखिये, उनका निर्णय आने दीजिये। अंततः वे सही साबित भी हुये, जब हाल ही में न्यायालय ने उक्त बयान को भड़काऊ बयान नहीं मानकर अकबरुद्दीन को बरी कर दिया।
क्या असदुद्दीन ओवैसी का स्वयं द्वारा प्रतिपादित न्याय का यह सिंद्धान्त वर्तमान प्रकरण पर लागू नहीं होता है? जो वे न्याय प्रक्रिया से परे नूपुर शर्मा के विरूद्ध कार्यवाही करने की मांग कर रहे है। नूपुर शर्मा का उक्त बयान सांप्रदायिक है या संविधान द्वारा प्रदत्त बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार की सीमा का अतिक्रमण कर, देशहित के खिलाफ, माहोल बिगाड़ने वाला है या पैगंबर मोहम्मद के विरूद्ध है, यह तय तो न्यायालय ही करेंगा। हां आप (असदुद्दीन ओवैसी) जरूर पूज्य पैगंबर मोहम्मद साहब के वकील बनकर नूपुर शर्मा के खिलाफ न्यायालय में अपना पक्ष मजबूती से रख सकते है और सफलता न मिलने पर उच्चतम न्यायालय तक जा सकते है। परन्तु तब तक तो आपको वैसा ही धैर्य रखना होगा जैसा कि आपने अपने भाई के मामले में न्यायालीन निर्णय आने तक का रखा व दूसरों को भी ऐसी ही सलाह दी थी।
इसीलिए मैंने पहले ही कहा है कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया ध्वस्त होती जा रही है। इसके एक ही नहीं अनेकानेक उदाहरण आपके सामने हैं। हमारे देश में आज एक नहीं अनेक केजरीवाल है, जो कि ‘‘माल कैसा भी हो, हांक हमेशा ऊंची लगाते हैं’’ स्वयं ही अभियोजक, वकील, जज और जनता बनकर संविधान द्वारा स्थापित न्यायिक प्रक्रिया अपनाये बिना ही प्रकरण को निर्णित कर देते है। जैसा कि सत्येन्द्र जैन के मामले में उन्होंने किया। हम टीवी चैनलों पर अक्सर असंवैधानिक, अवैधानिक, सांप्रदायिक, देश विरोधी, सामाजिक व्यवस्था को तार-तार करने वाली जातिवादी बयानों आदि आदि को सुनते हैं, देखते हैं, वीडियोज् देखते हैं और स्टिंग ऑपरेशन देखते हैं। बावजूद इसके संबंधित पक्षों या सरकार द्वारा यही कहा जाता है कि इसकी सत्यता की जांच करने के बाद ही तदनुसार आवश्यक कार्यवाही की जाएगी। तब यही सिद्धांत नूपुर शर्मा के कथन के मामले में क्यों नहीं अपनाया जा रहा है, प्रश्न सबसे बड़ा यही है?
हमारे देश की खूबी परिपक्व होता विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। देश का यह लोकतंत्र चार खम्बों पर टिका हुआ है और इन चार खम्बों में सबसे महत्वपूर्ण न्यायपालिका ही है, जो शेष तीन खम्बों को मजबूती प्रदान करती है। अतः यदि न्यायपालिका कमजोर होगी तो लोकतंत्र व अंततः देश ही कमजोर होगा। अन्यथा आज ‘अंलकारों’ के साथ किस तरह के शब्दों का उपयोग पक्ष-विपक्ष किसी भी घटना को लेकर परस्पर कर रहे है, वह कहीं न कहीं हमारे ‘तंत्र’ को कमजोर ही करती जा रही है। इससे भविष्य में आपके बोलने की इस तरह की स्वतंत्रता भी प्रतिबंधित हो सकती है। इस बात को ध्यान में रखना होगा। फिर भी मेरा देश महान! मेरे नेता, जनता महान।
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