‘‘कंगारू कोर्ट चला रहा है मीडिया’’
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश माननीय एनवी रमना ने रांची में ‘‘एस बी सिन्हा मेमोरियल लेक्चर’’ के उद्घाटन अवसर पर बोलते हुए यह कहा कि देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ‘‘गैर-जिम्मेदार’’ होकर ‘‘कंगारू अदालते’’ चला रहे है, जिस कारण से अनुभवी जजों को भी फैसला करने में दिक्कत हो रही है। न्याय से जुड़े मुद्दों पर गलत एजेंडा चलाना/एजेंडा आधारित बहसे, स्वस्थ लोकतंत्र के लिए हानिकारक हैं। मीडिया से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्ष कामकाज प्रभावित होती है। तथापि ‘‘प्रिंट मीडिया काफी हद तक जिम्मेदारी’’ निभा रहा है। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने उक्त एक कथन में ही चार महत्वपूर्ण बातें एक साथ कह दी हैं। आइये! क्रमशः इनका आगे विश्लेषण करते हैं।
लोकतंत्र के चार खंभों में से दो प्रमुख खंभे न्यायपालिका और मीडिया है। यहां पर एक खंभा लोकतंत्र के दूसरे खंभे पर सिर्फ आरोप/आक्षेप ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि चिंताजनक वस्तु स्थिति का वर्णन भी कर रहे है। निश्चित रूप से इससेे देश के लोकतंत्र का संतुलन कहीं न कहीं अवश्य गड़बड़ा जाएगा और लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है। हां मीडिया के कुछ लोग अवश्य उक्त कथन के लिये माननीय मुख्य न्यायाधीपति पर यह आरोप जड़ सकते है कि जिस तरीके से उन्होंने ‘‘मीडिया ट्रायल’’ की आलोचना की है, वह स्वयं न्यायालय द्वारा प्रतिपादित न्याय के उस सिंद्धान्त के प्रतिकूल है, जहां आरोपी या दोषी कहे जाने के पूर्व न्याय के मूल सिंद्धान्त के अनुसार आरोपी को सफाई का पर्याप्त व उचित अवसर दिया जाना चाहिए। इस न्याय सिंद्धान्त का पालन स्वयं मुख्य न्यायाधीश महोदय ने वर्तमान में नहीं किया है।
75 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में व इसके पूर्व भी मीडिया, जिसे ‘‘मधुमक्खी का छत्ता’’ कहा जा सकता है, पर इसी कारण कोई सामान्य रूप से हाथ नहीं डाल पाता है। तब ऐसी स्थिति में एक ऐसे प्रमुख व्यक्ति जो उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश है, की उक्त टिप्पणी साहसिक होकर चिंता में ड़ालने वाली है। सामान्यतः मुख्य न्यायाधीश या न्यायालय को इस तरह की टिप्पणी से बचना चाहिए, खासकर जब वे किसी मामले के निपटारे के समय (प्रांसगिक उक्ति) न कहकर सार्वजनिक कार्यक्रम में कह रहे हों। वास्तव में यह कार्य तो कार्यपालिका व विधायिका का है, क्योंकि सुधार लाने का कार्य अंततः विधायिका और कार्यपालिका का ही है। यदि ऐसी स्थिति में मुख्य न्यायाधीश आगे होकर टिप्पणी कर रहे है, तो यह ज्यादा चिंता का विषय है।
मैं पूर्व में कई बार लिख चुका हूं, यदि देश को सुधारना है, नैतिक मूल्यों के स्तर को गिरते हुए रोकना है, तो इस ‘‘अफलातून के नाती’’ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा देना चाहिए। ‘‘जहां मुर्गा नहीं बोलता वहां क्या सवेरा नहीं होता’’? अब तो मीडिया की स्थिति ‘‘मीडिया ट्रायल’’ से होकर कंगारू कोर्ट तक पहुंच गई। "हाथ कंगन को आरसी क्या", न्यायाधिपति अब जब स्वयं कह रहे है, तो लोकतंत्र को स्वस्थ बनाए रखने के लिए इसके चैथे खंभे मीडिया को इस पर गंभीरता से आत्मावलोकन करना ही होगा। आदर्श स्थिति यही होगी, मीडिया स्वयं अपने ‘‘व्यामिचार’’ पर प्रतिबंध लगाये, बजाए सरकार आगे आकर प्रतिबंध लगाये। मीडिया हाउस यदि ऐसा नहीं करते है, तो न केवल लोकतंत्र को बचाने के लिए, बल्कि मीडिया द्वारा पैदा की जा रही अराजकता को समाप्त करने के लिए सरकार को कुछ न कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंध मीडिया पर इस तरह से लगाने होंगे, जहां अवश्य मीडिया की स्वतंत्रता भी बनी रहे, और वे जिम्मेदार मीडिया के रूप में देश व समाज के प्रति अपना दायित्व व रोल अदा कर योगदान कर ‘‘जीवट लोकतंत्र’’ को जीवित रख सके। वैसे भी मीडिया को सीख देने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि मीडिया तो दूसरो को सीख देता है। मीडिया को सीख देना तो ‘‘नानी के आगे ननिहाल की बातें करने’’ जैसा है। परन्तु जिस प्रकार एक अच्छे शिक्षक को विद्यार्थी को अच्छी शिक्षा देने के के पूर्व खुद की भी पूरी तैयारी करनी होती है, ठीक उसी प्रकार मीडिया का भी दायित्व होता है।
सार्वजनिक जीवन के लिए ‘कंगारू कोर्ट’ एक नये शब्द की उत्पत्ति है। जो ‘मीडिया’ की अवस्था (अव्यवस्था?) का बयान (बखान?) कर देती है। असंवैधानिक गैर कानूनी तरीके से, कानून को नजरअंदाज करने वाली कार्रवाई ‘कंगारू कोर्ट’ है।
जहां तक कंगारू कोर्ट के कारण अनुभवी जजों को फैसले लेने की दिक्कत का सवाल है, यह कथन माननीय मुख्य न्यायाधीश की ‘‘सूरदास खल कारी कमरी चढ़े न दूजो रंग’’ वाली छवि के अलावा न्यायाधिपतियों की योग्यता, सक्षमता, विद्धवता, कार्य कुशलता पर एक हल्का सा प्रश्न चिन्ह अवश्य लगाता है। अभी तक यह मात्र ‘गासिप’ के रूप में चर्चा का विषय रही है कि न्यायाधीश भी कानून व तथ्यों से परे उनके साथ या सामने गुजर रही परिस्थितियों से प्रभावित हो जाते है। अब इस बात पर स्वयं मुख्य न्यायाधीश ने एक मुहर सी लगाकर उसे ‘‘गोसिप’’ से बाहर कर सत्य के धरातल पर ला दिया है।
जहां तक बात लोकतंत्र पर खतरे की घंटी बजने की है, वहीं लोकतंत्र तो मीडिया को उतनी आजादी या आवारागर्दी करने का अवसर दे रहा है, जो उसी (लोकतंत्र) को ही खा जा रहा है। अर्थात भस्मासुर बन गया है। याद कर लीजिए! आपातकाल के वे दिन जब लोकतंत्र के निलंबित (समाप्त नहीं) होने के कारण मीडिया की हालत क्या हो गई थी।
अंत में प्रिंट मीडिया कोे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ऊपर रख कर प्रिंट मीडिया की जो तुलनात्मक प्रंशसा माननीय न्यायाधिपति ने की है, निश्चित रूप से वह तथ्यात्मक रूप से सही है। पुनः माननीय मुख्य न्यायाधीश को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने दोनों मीडिया के बीच खिंची बारीक रेखा को सही गुणात्मक रूप से उभारा है।शायद इसका ही यह परिणाम रहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस विषय पर मुख्य न्यायाधीश को ट्रोल नहीं किया गया व इस पर ज्यादा आलोचनात्मक बहस नहीं हुई।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना उच्चतम न्यायालय के उन 4 वरिष्ठ न्यायाधीशों सर्व श्री जस्टिस चेलमेश्वर, मदन लोकुर, कुरियन जोसेफ एवं जस्टिस रंजन गोगोई से एक कदम आगे बढ़ गये है, जिन्होंने भारत की न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार 12 जनवरी 2018 को बाकायदा पत्रकार वार्ता आयोजित कर अपने विचार रखते हुए अदालत के प्रशासन में अनियमितताओं पर सार्वजनिक रूप से सवाल खड़े किए थे। मजे की बात तो यह है कि जिस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग कर उक्त उन चारों माननीय न्यायाधीशों ने अपनी बात सार्वजनिक रूप से रखी, उसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की धज्जियां उड़ाते हुए शायद आंखें तरेरते हुए आईना दिखाते हुए उन्हें अपनी सीमा में रहने की अप्रत्यक्ष चेतावनी माननीय मुख्य न्यायाधीश ने दी है।