भाजपा हाईकमान मतलब सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी और अमित शाह (बाकी तो?) के एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद पर बैठालने और देवेंद्र फडणवीस को मजबूर कर उपमुख्यमंत्री पद को स्वीकार करने के निर्णय ने राजनीति के इस मिथक को पुनः शत शत सिद्ध किया है, कि जो कुछ होता है, वह दिखता नहीं है और जो दिखता है, वह होता नहीं है।
महाराष्ट्र की राजनीति में धूमकेतु के समान तेजी से उभरते चाणक्य, राजनीतिज्ञ देवेंद्र फडणवीस के साथ एक दिलचस्प योग जुड़ा है कि जब वह शपथ विषम समय (आड टाइम) लेते हैं, तो राजनीति में भूचाल सा आ जाता है। याद कीजिए! पिछली बार जब उन्हें भोर सुबह 7.30 बजे शपथ ली थी, तब 3 दिन में ही उन्हें मुख्यमंत्री पद से चलते होना पड़ा था। और आज मुख्यमंत्री के बजाय उपमुख्यमंत्री पद की शपथ मन मसोस कर, मजबूरी में वह भी शाम को 7.30 बजे लेना पड़ गयी। इसके पहले जब वह वर्ष 2014 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब उनका शपथ ग्रहण का समय सायं 4.27 बजे था। तब उनका कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरे पांच साल चला।
बड़ा प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या यह निर्णय अचानक लिया गया? वस्तुतः इसकी पटकथा तो गुजरात के वडोदरा में गहन रात्री में हुई अमित शाह के साथ एकनाथ शिंदे की तथाकथित मुलाकात में ही शायद यह लिखी जा चुकी थी। तथापि निर्णय जब भी लिया गया हो, ऐसा लगता है कि उक्त निर्णय में देवेंद्र फडणवीस को पूरी तरह से विश्वास में नहीं लिया गया। राज्यपाल के समक्ष फडणवीस ने दावा प्रस्तुत कर पत्रकार वार्ता की थी। तब उनका महाराष्ट्र भाजपा ने एक ट्वीटस के जरिए फडणवीस का वीडियो क्लिक जारी किया था, तब वे मराठी में यह कहते हुए दिख रहे है कि मैं नये महाराष्ट्र के निर्माण के लिए पुनः आउंगा। तबके उनके मुस्कुराते चेहरे के भाव की तुलना में, बाद में हुई उस पत्रकार वार्ता में जहां उन्होंने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की थी, तब माथे पर उभरी सलवटे के कारण चेहरे के तनाव वाले भाव से स्पष्ट हो जाता है कि,फडणवीस को उच्चतम स्तर पर हुए निर्णय में भागीदारी या विश्वास में नहीं लिया गया। फडणवीस के मुस्कुराते चेहरे के साथ दावा करते समय यह स्पष्ट था कि मुख्यमंत्री वे ही बनेंगे। क्योंकि सरकार बनाने का दावा स्वयं एकनाथ शिंदे ने किया हो ऐसा करते या ऐसा उनका कथन मीडिया में दिखा नहीं। यद्यपि फडणवीस ने शपथ ग्रहण के पूर्व हुई पत्रकार वार्ता में यह घोषणा की थी कि शिंदे ने सरकार बनाने का दावा किया है व हमने (भाजपा) उन्हे समर्थन का पत्र राज्यपाल को दिया है। संवैधानिक स्थिति भी यही है कि यदि भाजपा शिवसेना घट की साझी सरकार (गठबंधन की) हो तो उसके नेता को ही सरकार बनाने का निमंत्रण दिया जाता है। और यदि सबसे बड़े दल का नेता सरकार बनाने का दावा करता है, तो उन्हे अपने बहुमत समर्थकों की सूची राज्यपाल को देनी होती है, जो देवेंद्र फडणवीस ने पूर्व में दी थी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि शिंदे के समर्थन में पत्र राज्यपाल को कब दिया? क्या यह सब चुपचाप राजनीति की अंधेरी गली में हो गया?
राजनीतिक घटनाक्रम जिस तेजी से, बदला उससे स्पष्ट होता है कि देवेंद्र फडणवीस को शायद अंतिम समय में ही यह सूचना दी गई थी कि उन्हे मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा रहा है। तब उनके आंखों से आंसू निकले, जैसा कि उनके एक समर्थक विधायक ने मीडिया में आकर दावा भी किया है। आंसू सुख व दुख दोनों के होते हैं। फडणवीस की एक आंख के आंसू खुशी के थे क्योंकि भाजपा की सरकार बन रही है और उस उद्धव की विदाई हो रही है जिस उद्धव ने वर्ष 2019 में फडणवीस के पास सेे सत्ता आते-आते छीन ली थी। तो दूसरी आंख के आंसू दुख व संकट के है। उनके मुह में पका हुआ निवाला हाथ डालकर खींच कर आश्चर्यचकित कर दिया गया। ऐसा लगता है, जब मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को बनाने का निर्णय हाईकमान ने सुनाया/बताया तब शायद फडणवीस को उप मुख्यमंत्री बनना होगा, यह स्पष्ट नहीं किया होगा। तभी तो उन्होंने पत्रकार वार्ता करते समय सरकार से बाहर रहने की घोषणा की। उनकी इतनी हिम्मत तो नहीं हो सकती थी कि हाईकमान का निर्णय हो जाने के बावजूद वे उसकी अवहेलना कर विपरीत मंत्रिमंडल से बाहर रहने के कथन की बात प्रेस से करते। प्रेस में उक्त कथन की घोषणा जब प्रधानमंत्री, अमित शाह व राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के हमेशा खुले कानों में पड़ी, तब हाईकमान की अनुशासन की घुट्टी मिलने पर देवेंद्र फडणवीस ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। जेपी नड्डा का यह कथन कि फडणवीस से उपमुख्यमंत्री बनने का आग्रह व केन्द्रीय नेतृत्व का निर्देश दिया था। साथ-साथ "आग्रह" व "निर्देश" से अपने आप में यह स्पष्ट संदेश देता है। यह बात इससे और स्पष्ट हो जाती है कि शपथग्रहण समारोह में मंच पर पहले दो ही कुर्सियां लगी थी, जो बाद में बढ़ाकर तीन की गई।
बदलते राजनीतिक घटनाक्रम में एक तरह से सिद्धांतों व तर्को की बलि दी जाकर नये सिद्धांत व तर्क की सुविधा अनुसार गढ़ना आज की राजनीति की सामान्य, सार्वजनिक, स्वीकृत प्रक्रिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र का घटा घटनाक्रम है। याद कीजिए 2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद जब उद्धव ठाकरे ने 56 विधायकों के रहते हुए मुख्यमंत्री पद की मांग भाजपा से की थी, तब भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री बनाने से इंकार कर दिया था। तब भाजपा ने यह नहीं कहा था कि उद्धव जो बाल ठाकरे के पुत्र है, का हिन्दुत्व बाला साहेब से अलग है। क्योंकि चुनाव साथ में लड़े और वोट साथ में मांगे गये थे। परन्तु आज सिर्फ 40 विधायकों के उन शिंदे नेता को बाबासाहेब के हिन्दुत्व के नाम पर मुख्यमंत्री बना दिया गया, जिन्होंने ढाई साल तक उद्धव के उस हिन्दुत्व को झेला व साथ दिया जिसकी शिंदे ने अब आलोचना करके न केवल उद्धव का साथ छोड़ा, बल्कि भाजपा ने उन्हे भी हाथों हाथ लिया। कांग्रेस व एनसीपी के साथ गठजोड़ करने पर उद्धव उस हिन्दुत्व के उत्तराधिकारी नहीं रहे, जिस हिन्दुत्व को कांग्रेस विरोध के आधार पर बालासाहेब ठाकरे ने मजबूत किया था, ऐसा कथन भाजपा व शिंदे इस समय लगातार कह रहे हैं।
शिंदे उक्त आरोप लगाते समय दो तथ्यों को भूल गये। प्रथम बाला साहेब ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई आपातकाल जो स्वाधीन भारत का अभी तक का सबसे बड़ा लोकतंत्र विरोधी ‘‘काला’’ अध्याय रहा है, का समर्थन किया था। दूसरा उस भाजपा जिसके हिंदुत्व को बेहतर मानकर मजबूत करने के लिए उनसे हाथ मिलाया, वही भाजपा का पीडीपी के साथ जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने पर हिंदुत्व कमजोर नहीं होता है, लेकिन उद्धव का हिंदुत्व कांग्रेस के साथ पर कमजोर हो जाता है। यही तो राजनीति का असली दोहरा चेहरा है। हिन्दुत्व की बात करने वाली भाजपा क्या आज हमारी हिंदू संस्कृति को भूल गई है। आज भी कमोवेश प्रचलित हमारी हिन्दू परिवार के मुखिया की राजनीतिक सामाजिक प्रसिद्ध व साख का उत्तराधिकारी प्रायः एक सीमा तक उनकी औलाद होती है। यह एक सामान्य आम जनों के बीच स्वीकृत तथ्य है। इसीलिए तो परिवारवाद की स्थिति बनती है, जिसका राजनीतिक हथियार (ताकत व कमजोरी) के रूप में उपयोग किया जाता रहता है। इस परिवारवाद की वृत्ति के कारण उद्धव ठाकरे को ‘‘ठाकरे’’ नाम की सहानुभूति मिलना स्वाभाविक है।
हिन्दुत्व बाला साहेब ठाकरे के नाम के साथ उनके पुत्र उद्धव के साथ ‘ठाकरे’ होने के कारण रहेगा या ठाकरे द्वारा फर्श से अर्श बनाये गये नेता एकनाथ शिंदे के साथ है। एक बड़ा प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है। क्या बालासाहेब ठाकरे का हिंदुत्व उस भाजपा से अलग है, जो विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होकर जिसकी पहचान ही हिंदुत्व है। फिर भाजपा को हिन्दुत्व बचाने या विस्तारित मजबूत करने के लिए शिवसैनिकों की जरूरत क्यों है? मतलब साफ है। 2019 के चुनाव में पूरी ताकत झोंकने के बावजूद भाजपा अधिकतम 106 सीटों तक ही पहुंच पाई थी। तब भाजपा को यह एहसास हो गया था कि उसके पूर्ण बहुमत के आड़े वस्तुतः न तो एनसीपी है और न ही कांग्रेस, बल्कि हिन्दुत्व का नारा उठाने वाली शिवसेना ही है। और इसलिए यदि महाराष्ट्र में भाजपा को अपने दम पर सत्ता में बैठना है, तो शिवसेना को कमजोर करना ही होगा। उस कमजोरी (कमी) की भरपाई करके ही भाजपा मजबूत होगी। अदृश्य (छिपे हुए) उद्देश्य को लेकर ही दूरगामी परिणामों की आशा में यह पूरी राजनीति की पटकथा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के बीच ही तय हुई है। शायद जेपी नड्डा भी इसमें भागीदार नहीं रहे होगें। और इसको अंजाम देना का तरीका निश्चित रूप से अमित शाह का ही रहा होगा। वैसे इसका एक दूसरा कारण दल बदल की कानूनी पेचीदगी के कारण अनिर्णय की स्थिति के रहते पिछली शर्मिंदगी करने वाली गलती से सबक लेकर भाजपा हाईकमान ने मुख्यमंत्री पद फिलहाल छोड़ दिया है, यह भी संभव है।
इसलिए तात्कालिक रूप से सामान्य राजनीतिक दृष्टिकोण से उपरोक्त शीर्षक मे लिखे गये शब्दों के मोती जरूर लगा सकते हैं। परन्तु वास्तव में यह हड़बड़ाहट में नहीं बल्कि बहुत ही सोची समझी दूर दृष्टि से लिया हुआ निर्णय है। सही या गलत, यह भविष्य के परिणाम तय करेंगे। और तब तक देवेंद्र फडणवीस के आंसू बहते रहेंगे उसमें खुशी व गम दोनों शामिल रहेगें। आज की राजनीति की यही नियति है। कम से कम भाजपा की यह स्पष्ट नीति अवश्य रही है कि पार्टी सर्वोच्च है और व्यक्ति छोटा होता है। अतः यदि व्यक्ति की बलि देने में से पार्टी मजबूत होती है, तो वह एक सेकंड की देरी लगाये बिना, बेहिचक पार्टी बलि ले लेती है। किसी का बलिदान ही तो किसी के लिए फलीदान होता है। आडवाणी से लेकर अनेकोंनेक उदाहरण आपके सामने है।
सही पोस्टमार्टम। आपकी सूझसमझ , जानकारी और याददाश्त गजब की है,,
जवाब देंहटाएंThanks
जवाब देंहटाएंPostmortem of political scenario correctly and successfully done.
जवाब देंहटाएंलेख की सबसे बढ़िया बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों की शुभचिंतक पीडीपी के साथ सरकार बनाने से बीजेपी का हिंदुत्व कमजोर नहीं होता है, लेकिन शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ले तो उसका हिंदुत्व कमजोर हो जाता है। यह सोच बीजेपी की दोहरी मानसिकता और अवसरवादी राजनीति को उजागर करता है। देश की जनता जिस दिन बीजेपी के छद्म एजेंडे (राजनीति में सांप्रदायिकता का पक्ष पोषण, धार्मिक ध्रुवीकरण और अंध एवं उग्र राष्ट्रवाद) को समझ जाएगी उस दिन से बीजेपी अप्रासंगिक होती जाएगी। अभी तो देश की जनता गाफिल बनी हुई है। इसका फायदा बीजेपी उठा रही है।
जवाब देंहटाएंBhut achcha 👌👌
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